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तमाशा मौत का


स्टेशन से थोड़ा हटकर अचानक उसने लपक कर अर्थी को हाथ बढ़ा कर रोक लिया था. गरीब परिवार के जवान बेटे की अर्थी थी. सो प्रियजन रोते-कलपते, छाती पीटते उसे श्मशान तक लिए जा रहे थे.

उसने उन्हें रोकते हुए कहा था, ‘‘ यह असमय हुई मृत्यु है, इसकी मौत अभी नहीं होनी चाहिए थी. ले चलो इसे उस मैदान में, मैं इसके प्राण लौटाऊंगा.’’

‘‘ कौन हो तुम?’’ अर्थी पर कंधा देने वालों में से एक ने पूछा.

‘‘ मैं भंभेरा हूं वाऊजी! हर जहर का इलाज है मेरे पास. भूत-चुड़ैल और जिन्न मुझसे घबराते हैं. वाऊजी! जल्दी करो.’’

भंभेरे का काला चटक नीम के तेल से नहाया हुआ काला शरीर, यूं चमक रहा था जैसे उसने अभी-अभी केंचुली बदली हो. चीते की पीली खाल- सी धोती उसे पूरा तांत्रिक बनाए दे रही थी और माथे लगा हल्दी-सिंदूर डरावना.

उसकी आवाज में कुछ ऐसा जादू था कि उसके एक बार कहते ही वे अर्थी उठाए मैदान की ओर चल दिए.

अर्थी मैदान में रख दी गई. भंभेरे ने ही कपड़ा हटाया. उफ! वह अठारह-उन्नीस वर्ष का सुंदर गोरा-चिट्‍टा नौजवान था पर अब मौत ने उसके चेहरे को स्याह कर डाला था. लाश को देखकर माहौल में जाने कैसी उदासी -सी भर आई. शायद सभी ने मन में चाहा होगा काश! भंभेरा सफल हो जाए.

भंभेरा अपनी गठरी खोल कर अपने काम में जुट गया. एक लंबे से नीले पंख से लाश के चारों ओर रेखा खींचकर वह जाने क्या-क्या डालता जा रहा था. इसके साथ ही वह कुछ अस्पष्ट -से मंत्र भी बुदबुदाता जा रहा था. फिर गठरी में से एक डिबिया निकाल कर उसने मृतक के शरीर पर एक मरहम लगाना शुरू किया और तब चारों ओर बनाए घेरे में जलती दियासलाई डुआ दी. दियासलाई के छुआते ही भूरा-सा धुंआ उठने लगा. धीरे-धीरे धुंआ इतना घना हो गया कि सारा मैदान धुंए से भर उठा. भंभेरा उछल-उछलकर, चिल्ला-चिल्लाकर जाने क्या कह रहा था. धुंए ने तुरंत ही असर दिखाया. मैदान में उपस्थित भीड़ की आंखों से पानी बहने लगा था और जैसे ही भूरा धुंआ परिवर्तित हो कर सफेद हो गया, वैसे ही लोगों को छींके आने लगी... और कईयों ने साफ देखा, लाश को भी एक हल्की सी छींक आई.

भंभेरा यह देखते ही लाश पर चढ़ा और अपने दोनों हाथों से उसकी छाती पर थपकियां लगाने लगा.

धुंआ छट गया. सब कुछ साफ-साफ दीखने लगा. भंभेरा पसीने से लथपथ था. वह लाश के ऊपर से उठ खड़ा हुआ.

सभी की आंखें उस पर जम गई.

वह बड़े उदास स्वर में बोला , ‘‘ वाऊ लोगो! मुर्दे को छींक आई, पर सांस अभी भी नाड़ी में अटकी पड़ी है. सांस एक बार फेफड़ों तक आ जाती तो शायद यह जी जाता, पर अब कुछ नहीं हो सकता. आप लोग ले जाइए इसे और फूंक डालिए. अब तो यह मिट्‍टी है ये मिट्‍टी! देर कर दी आप लोगों ने.’’तभी भीड़ को चीरकर एक बूढ़ा भंभेरे के पैरों में गिर पड़ा और रो-रो कर दुहाई देने लगा, ‘‘ मालिक , मेरे बच्चे को बचा लो. जिन्दगी भर तुम्हारी गुलामी करूंगा. मुझे यकीन है तुम कोशिश करोगे तो मेरा बच्चा जी उठेगा.’’

‘‘ नहीं वाऊजी कोई फ़ायदा नहीं.’’ भंभेरा सामान समटते हुए बोला.

‘‘ कोशिश तो कर देखो भाई’’ भीड़ से कई लोग एक साथ बोल उठे. इस अनपढ़ तांत्रिक पर उन्हें विश्वास होने लगा था.

भीड़ प्रतिक्षण बढ़ती ही जा रही थी.

भंभेरा लोगों के आग्रह या फिर शायद लाश को देख पसीजकार बोला ‘‘ वाऊ लोगों! कोशिश कर सकता हूं, सिर्फ़ कोशिश. लेकिन कोशिश महंगी भी पड़ सकती है इस गरीब को. इस भंभेरे को आठ पेट का जुगाड़ करना होगा सो यह मर-मरा गया तो आठ जान और जाएंगी. अब इस लाश को जिलाते हुए अगर मैं बच भी गया तो भी इसका जहर मेरे शरीर में चला जाएगा और जानते हैं वाऊजी , फिर भंभेरे को तीन महीने सिर्फ़ दूध पीकर जीना पड़ेगा. लेकिन इस गरीब को तो सुअरी का दूध भी नसीब नहीं, सो कैसे होगा? कौन देगा मुझे दूध के पैसे? कौन मार्स का लाल मेरे परीवार की जिम्मेदारी लेगा?कौन दानी आकर मेरी पीठ थप-थपाएगा? बोलिए....बोलिए?’’

‘‘ हां...हां, हम देंगे! तुम्हारी झोली रूपयों से भर देंगे... अगर वह जी गया.’’ भीड़ से मिली-जुली आवाजें आई.

मृतक के बूढ़े बाप ने आंखें पोंछ लीं.

भंभेरे ने लाश के साथ ही एक काली चादर बिछा दी. फिर लोगों की तरफ मुड़ता हुआ बोला, ‘‘ तो वाऊ लोगो. मैं जाता हूं मौत से लड़ने. जीत मेरी हो या मौत की..... आप लोगों को कोई फरक नहीं पड़ेगा.... मुझे तीन महीने को लकवा मार जाएगा. सो, जो इन्सान खुद की मार से डरते हों मुझ पर दया दिखाते जाइएगा. मेरी चादर में दो चार रूपए डाल देने से उनकी कमाई में कमी नहीं आएगी....बल्कि गरीब की दुआ से और बढ़ोत्तरी होगी.’’

भंभेरा लाश के ऊपर झुक गया. पहले अंटी से निकालकर उसने काली -सी एक गोली मुंह में दबायी और उसके बाद लाश के मुंह में मुंह लगाकर सांस खींचने लगा.

भीड़ अपलक इस दृश्य को देखने लगी. सभी ने आश्चर्य के साथ महसूस किया कि लाश में हल्की हरकत हो रही है. और भंभेरा सुस्त पड़ता जा रहा है. धीरे-धीरे, लगभग आधे घंटे बाद, लाश ने आंखें खोल दीं और तभी भंभेरा एक ओर लुढ़क गया.

कौन जाने मौत हार या जीती!

अर्थी में लेटा युवक उठ बैठा, पर अच्छा खासा भंभेरा चेतना शून्य हो गया. भीड़ ने दया और सहानुभूति से चादर पर नोट और सिक्के फेंकने शुरू कर दिए.

शाम ढल गई थी. मैंने चौंककर घड़ी की तरफ देखा मेरी ट्रेन कब की निकल चुकी थी और दूसरी ट्रेन के आने में देर थी. घटना स्थल पर अखबार वाले आ पहुंचे थे. मैं स्टेशन की तरफ बढ़ चला.

गाड़ी की ऊपरी बर्थ में मैं गहरी नींद सोया था. तभी नीचे से कुछ लोगों के ठहाकों और बातचीत से मेरी नींद टूट गई. घड़ी की तरफ देखा, सुबह के छह बज रहे थे. सात बजे मेरा स्टेशन आने वाला था. सो, सोचा मुंह हाथ धोकर कपड़े बदल लेना चाहिए. लेकिन आवाजें कुछ परिचित-सी लगीं, कुछ रहस्यपूर्ण थी. मेरे कान खड़े हो गए.

एक कह रहा था-अबे, तू तो बिल्कुल ही मुर्दा लग रहा था. दूसरा-अर्थी ढोते-ढोते कंधा ही सुन्न पड़ गया अपना तो.

तीसरा-भंभेरा का भी जवाब नहीं खानदानी कंजर है यह तो.

माथा झन्ना उठा मेरा. तो क्या यह सब एक छल था. तभी चौथा बोल उठा-पूरे तीन हजार नौ सौ बत्तीस की कमाई हुई है!

मैं नीचे उतर आया. भंभेरा, बूढ़ा अर्थी वाला युवक, अर्थी ढोने वाले और अन्य, लगभग दस हट्‍टे-कट्‍टे पुरूष जमे बैठे थे.

कोई छोटा स्टेशन आ गया था. गाड़ी के रूकते ही मैंने एक लोकल अखबार खरीदा.पहले की पेज में भंभेरे की तारीफ के पुल बंधे थे, फोटो छपा था सो अलग. बस मैंने तभी सोच लिया था कि भंभेरे की धूर्तता भरी यह कहानी सबको ज़रूर सुनाऊंगा, ताकि....

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