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कोट - १४

कोट-१४
चश्मेवाला उत्तरांचल के बर्फीले स्थानों से लौटा है। उसे मैं वहाँ के हरेला त्यौहार( हर्याव) के बारे में बताता हूँ, साथ में बच्चे भी सुनते हैं। बच्चों को पता नहीं है जो मेरे साथ बैठा है, वह चश्मेवाला है।
मैं आरम्भ करता हूँ-
"जी रया, जागि रया, यो दिन यो मास भेटनै रया।
(जीते रहना, जीवन्त/ जागते रहना,यह दिन ,यह महिना भेटते रहना)
-----
गंग ज्यु पाणि तक अमर रैया।"
संक्षिप्त में कहा जाता है-
"जी रया, जागि रया, 
गंग ज्यु पाणि तक अमर रैया।( जीते रहना, जीवन्त/ जागते रहना,  गंगा जी के जल तक अमर रहना)।"
बचपन में हरेले( हर्याव) का त्योहार सजीव रूप में अवतरित होता है। टोकरी में खेत से शुद्ध मिट्टी लेकर घर के अँधेरे कोने में, रख कर अलग-अलग प्रकार के बीज( पाँच या सात प्रकार के) उसमें बो देते हैं। शाम को रोज हाथ-पैर धोकर टोकरी में जल दिया जाता है। कभी-कभी माता-पिता बच्चों से पूछते हैं," हर्याव गैं पाणि दय छ नैं?( हरेले को जल दिया या नहीं)" नौ दिन में पीला,हल्का हरा हरेला( हर्याव) तैयार हो जाता है। सावन की प्रथम तिथि को उसे काटा जाता है। काटने से पहले हरेले को पिट्ठया(तिलक) और अक्षत  चढ़ाये जाते हैं जो शुभ अनुष्ठान का प्रतीक है। यह सावन उत्तराखंड के पंचांग जो सूर्य  पर आधारित है, के अनुसार होता है।इसे काट कर आशीर्वाद स्वरूप  सिर में रखा जाता है, अमरता और सम्पूर्णता के भाव के साथ। बच्चों को पैर से आरंभ कर हरेले को घुटनों,पेट,छाती को छूते हुये उनके सिर पर रखा जाता है या कान के पीछे  रख स्थायित्व दिया जाता है और साथ-साथ कहा जाता है-
"जी रयै, जागि रयै, यो दिन यो मास भेटनै रयै, ----
गंग ज्यु पाणि तक अमर रैयै।"
संक्षिप्त में कहा जाता है
"जी रयै, जागि रयै,
गंग ज्यु पाणि तक अमर रैयै।
हरेले के पौधे दरवाजों पर लगाये जाते हैं जो बहुत समय तक हरेले को मन में जीवित रखते हैं। 
महिलाएं अपनी लम्बी लटी पर भी इसे बाँधते हैं। 
चिट्ठियों( लिफाफों) में हरेला दूर-दूर तक अपने छोटे-बड़ों को भेजा जाता है, साथ में पिट्ठया और अक्षत भी।   अपने साथ अमरता का भाव और आशीर्वाद लेकर और रिश्तों को यह परंपरा जीवन्त बनाये रखती है। इसे पत्र द्वारा प्राप्त करने वाला असीम आनन्द की सुगबुगाहट महसूस करता है। अमरता की कल्पना करने वाले त्यौहार का स्पर्श उसे अभिभूत कर देता है।  
हमारे ग्रन्थों में सात अमर पुरुषों का वर्णन होता है।
सात अमर पुरुष हनुमानजी, पशुराम जी, विभीषण, वेदव्यास,कृपाचार्य,अश्वत्थामा और राजा बलि हैं। अमरता का सिद्धांत हमारे पूर्वजों को ज्ञात रहा होगा। पदार्थ भी अमर है। हनुमान जी को सतयुग तक अमर माना जाता है, शारीरिक रूप से। फिर भगवान शिव में विलीन हो जायेंगे, लगता है।
झगड़ा होने पर, क्रोध  की मनोस्थिति में  बोला जाता है," त्यार ख्वार हर्याव नि जा ल( तेरे सिर हरेला नहीं जायेगा( हरेले के त्यौहार को तू नहीं देख पायेगा) ।)"
मनुष्य आदिकाल से विशिष्ट आनन्द की खोज में रहा है। उसे वह त्योहारों,तीर्थों आदि में ढूंढता रहता है। हरेले को पर्यावरण की दृष्टि से भी देखा जाता है। हरेले के पौधों को सिर पर रखकर हम अमरता की कामना करते हैं जो एक बृहद जीवन दर्शन की ओर हमें ले जाता है।
"काम की लौ शेष है
चल पथिक, चल निकल
राह बहुत शेष है,
श्रम निराला,चमक अद्भुत
कर्म की लौ शेष है।
 
हम धरा से पूछते हैं
किस जगह पर प्यास है!
इस हस्त में कर्म है
काम की लौ शेष है।
 
कर्म अद्वितीय पाठ है
स्नेह का आवास है,
जब तक जीवन आनन्द है
त्योहार की लौ शेष है।"
 
** महेश रौतेला

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