कोट - १३ महेश रौतेला द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • स्वयंवधू - 31

    विनाशकारी जन्मदिन भाग 4दाहिने हाथ ज़ंजीर ने वो काली तरल महाश...

  • प्रेम और युद्ध - 5

    अध्याय 5: आर्या और अर्जुन की यात्रा में एक नए मोड़ की शुरुआत...

  • Krick और Nakchadi - 2

    " कहानी मे अब क्रिक और नकचडी की दोस्ती प्रेम मे बदल गई थी। क...

  • Devil I Hate You - 21

    जिसे सून मिहींर,,,,,,,,रूही को ऊपर से नीचे देखते हुए,,,,,अपन...

  • शोहरत का घमंड - 102

    अपनी मॉम की बाते सुन कर आर्यन को बहुत ही गुस्सा आता है और वो...

श्रेणी
शेयर करे

कोट - १३

कोट-१३

मैंने कोट पहना और बचपन के अदृश्य प्यार से अभिभूत होने लगा। मेरे पास में दो छोटे बच्चे बैठे थे उन्हें मैं उत्तराखंड में प्रचलित और लोकप्रिय लोक कथा सुनाने लगा-
"एक बूढ़ी महिला थी। उसकी एक बेटी थी। बहुत समय बाद उसकी शादी दूर गाँव में हुयी।दोनों गाँवों के बीच में घनघोर जंगल पड़ता था जिसमें शेर,चीता,तेंदुआ, हाथी, घुरड़, भालू ,बन्दर, लंगूर और लोमड़ी आदि जंगली जानवर रहते थे।जब बहुत समय हो गया तो बुढ़िया का मन बेटी के पास जाने को हुआ। ममता ऐसी शक्ति है जो असंभव को भी संभव कर देती है।जंगली जानवरों का डर उसे डिगा न पाया। उसने एक पोटली बनायी जिसमें बेटी के पसंद का सामना जैसे घी, भट्ट, पूरी(लगड़), बड़े,अचार, खाजे आदि रखे।और निकल पड़ी बेटी से मिलने।एक हाथ में लाठी और सिर पर पोटली।रास्ते में उसे पहले लोमड़ी मिली और बोली," मैं बहुत भूखी हूँ, तुझे खाऊँगी।" इस पर बुढ़िया बोली," मैं अपनी बेटी के पास जा रही हूँ। बहुत समय से उससे नहीं मिली हूँ। उससे मिल कर, मोटी-ताजी होकर, आऊँगी तब मुझे तुम खाना। तब अधिक मांस तुझे खाने को मिलेगा।" लोमड़ी लालच में आ गयी और बुढ़िया को उसने जाने दिया।फिर कुछ मील चलने के बाद उसे भालू मिला उससे भी बोली," मैं अपनी बेटी के पास जा रही हूँ, उससे मिल कर, मोटी-ताजी होकर, आऊँगी तब तू मुझे खाना।तब अधिक मांस तुझे खाने को मिलेगा।" भालू भी लालच में आ गया और बुढ़िया को उसने जाने दिया। चलते-चलते कुछ घंटों बाद उसे शेर मिला उसे भी वह बोली," मैं अपनी बेटी के पास जा रही हूँ, उससे मिल कर, मोटी-ताजी होकर, आऊँगी तब तू मुझे खाना।तब अधिक मांस तुझे खाने को मिलेगा।" शेर भी लालच में आ गया और बुढ़िया को उसने जाने दिया।शाम होते-होते बुढ़िया बेटी के घर पहुँच गयी। माँ को देख, बेटी खुशी से गदगद हो गयी। और बोली," जंगल में जानवरों से सुरक्षित होकर कैसे आयी?" बुढ़िया ने पूरी कहानी उसे सुनायी।धीरे-धीरे समय बीतता गया।एक माह बाद बुढ़िया को अपने घर लौटना था।उधर शेर, भालू और लोमड़ी की प्रतीक्षा चरम स्थिति में थी कि कब बुढ़िया मोटी-ताजी होकर आय और उसके मांस का आनन्द उठाया जाय।जीभ अपने स्वाद के लिये लपलपाती है, दूसरे के जीवन के प्रति निष्ठुर बनी रहती है।बेटी की चिंता दिनोंदिन बढ़ने लगी। फिर उसके दिमाग में एक युक्ति सूझी।उसने एक बड़ी तुमड़ी ली जो स्वचालित थी।ठीक माँ के विदा होने के दिन, उसने माँ को उस तुमड़ी में बैठाया और हाथों में पिसी मिर्च की थैली थमा दी।तुमड़ी में बैठने से पहले दोनों गले मिले और अश्रुपूरित आँखों से एक दूसरे को विदा किया। मन में शंका भी थी कि कहीं यह अन्तिम भेंट न हो।क्या पता फिर अगले जनम में मिलें या न मिलें? बुढ़िया माँ तुमड़ी में बैठ गयी। माँ-बेटी की आँखों से ममता के आँसू टपकने लगे। स्वचालित तुमड़ी चलने लगी, और चलते-चलते उसे शेर दिखायी दिया।शेर सोच रहा था कि," बहुत दिन हो गये हैं, बुढ़िया अभी तक आयी क्यों नहीं?" तुमड़ी शेर के पास पहुँची तो शेर ने पूछा," तुमने बुढ़िया को देखा क्या?" तो तुमड़ी से आवाज आयी," चल तुमड़ी रह बाट, मैं क्या जाणूँ बुढ़िये बात?(तुमड़ी राह पर चल, मैं बुढ़िया की बात कैसे जानूँगी?) " और तुमड़ी आगे चल दी। शेर निराश होकर इधर-उधर देखता रह गया।थोड़े समय के बाद भालू मिल गया उसने भी पूछा, " तुमने बुढ़िया को देखा क्या?" तो तुमड़ी से आवाज आयी," चल तुमड़ी रह बाट, मैं क्या जाणूँ बुढ़िये बात?" और तुमड़ी आगे चल दी।भालू निराश हो बैठ गया और बुढ़िया की प्रतीक्षा करने लगा। चलते-चलते,कुछ समय बाद उसे लोमड़ी मिली, उसने भी तुमड़ी से पूछा," " तुमने बुढ़िया को देखा क्या?" तो तुमड़ी से आवाज आयी," चल तुमड़ी रह बाट, मैं क्या जाणूँ बुढ़िये बात?" लोमड़ी चालक थी ,उसे लगा कि,"आवाज बुढ़िया की जैसी लग रही है, हो सकता है तुमड़ी में बुढ़िया हो।" जैसे ही तुमड़ी आगे बढ़ने लगी,उसने उसे रोका। और तुमड़ी को फोड़ दिया, तुमड़ी के फूटते ही बुढ़िया ने लोमड़ी की आँखों में पिसी मिर्च डाल दी। और लोमड़ी आँख मलते लुढ़क गयी। बुढ़िया माँ फिर अपने घर सुरक्षित पहुँच गयी। बच्चों को कहानी बहुत अच्छी लगी। मैंने उनसे पूछा बुढ़िया ने तुमड़ी के अन्दर से क्या कहा?, वे एक साथ बोले,"चल तुमड़ी रह बाट, मैं क्या जाणूँ बुढ़िये बात?" ----।

* महेश रौतेला