The Soul Of Science - Spirituality Rudra S. Sharma द्वारा विज्ञान में हिंदी पीडीएफ

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The Soul Of Science - Spirituality

अध्यात्म क्या हैं?

आत्मा यानी चेतना या जागरूकता से संबंध रखने वाला सभी अध्यात्म हैं। संबंध चाहें प्रत्यक्ष हो या अप्रत्यक्ष, इससें कोई अंतर या फर्क नहीं पड़ता। केवल चेतना या जागरूकता से संबंध होना चाहियें।

आध्यात्मिक ज्ञान यानी आत्मा यानी चेतना या जागरूकता का बोध, अनुभव या अनुभूति क्या हैं?

अनंत का सुसंगठित एवं सुव्यवस्थित ऐसा ज्ञान, अनुभव या बोध, जिसे सत्यापित किया गया तथ्यों यानी यथार्थ या जैसे होने चाहियें वैसे या जैसे वास्तविकता में होते हैं वैसें अर्थों के माध्यम् से और तर्क शक्ति अर्थात् तुलना शक्ति के माध्यम् से तुलना करके यानी तर्कों से जिन अनुभवों में तुलना कर; चेतना, जागरूकता यानी होश जो कि किन्ही महत्व रखने वाले आधारों पर इंद्री कहि जा सकती हैं उसके प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष अर्थात् अन्य इन्द्रियों के अनुभवों या अनुभूतियों के सहारें वह ज्ञान या बोध यानी अनुभव अध्यात्म या आध्यात्मिक ज्ञान हैं।

कम शब्दों में यदि कहूँ तो ऐसा सुसंगठित और सुव्यवस्थित ज्ञान तो ज्ञात किया गया तथ्यों तथा तर्कों के आधार पर; ऐसे तथ्य तथा तर्क जो कि चेतना या जागरूकता जो कि किन्ही महत्व रखने वाले आधारों पर इन्द्रि कहि जा सकती हैं उसके प्रत्यक्ष यानी सीधें कियें अनुभवों या चेतना के अप्रत्यक्ष अनुभवों यानी इंद्रियों के अनुभवों के आधार पर सत्यापित हैं।

'अध्यात्म ही पूर्णतः यथा अर्थों में विज्ञान हैं।'

तथा कथित विज्ञान का अर्थ क्या हैं?

तथाकथित यानी आज कल या आज तक बहुतायत मत जिस विज्ञान के अर्थ को प्राप्त हैं वह विज्ञान का अर्थ पूर्णतः यथार्थ नहीं हैं वरन इसके वह तो विज्ञान के अधुरें आधार पर आधारित होने से अधूरा विज्ञान हैं। तथा कथित विज्ञान का अर्थ ठीक उस तन के भांति हैं जो कि होश, जागरूकता यानी चेतना अर्थात् आत्मा से विहीन हैं।

अध्यात्म विज्ञान की आत्मा हैं; हाँ! और अध्यात्म के बिना विज्ञान ठीक उस भांति हैं जैसे कि चेतना या जागरूकता अर्थात् होश यानी आत्मा के बिना अर्थात् जीव विहीन या निर्जीव शरीर।

आज किस ज्ञान को विज्ञान कहा या माना जाता हैं?

अनंत का सुसंगठित एवं सुव्यवस्थित ऐसा ज्ञान, अनुभव या बोध, जिसे सत्यापित किया गया तथ्यों यानी यथार्थ या जैसे होने चाहियें वैसे या जैसे वास्तविकता में होते हैं वैसें अर्थों के माध्यम् से और तर्क शक्ति अर्थात् तुलना शक्ति के माध्यम् से तुलना करके यानी तर्कों से जिन अनुभवों में तुलना कर; चेतना, जागरूकता यानी होश के अप्रत्यक्ष अनुभवों अर्थात् भौतिक इन्द्रियों के अनुभवों या अनुभूतियों के सहारें वह ज्ञान या बोध यानी अनुभव तथाकथित विज्ञान हैं।

कम शब्दों में यदि कहूँ तो ऐसा सुसंगठित और सुव्यवस्थित ज्ञान तो ज्ञात किया गया तथ्यों तथा तर्कों के आधार पर; ऐसे तथ्य तथा तर्क जो कि चेतना या जागरूकता के अप्रत्यक्ष अनुभवों यानी केवल भौतिक इंद्रियों के अनुभवों के आधार पर सत्यापित हैं।

जो लोग इस लियें आत्मा को या आत्मा से संबंध रखने वाले ज्ञान को विज्ञान नहीं मानतें क्योंकि उन्हें भौतिक शरीर में कुछ भी भौतिक इन्द्रियों के माध्यम् से उसें यानी आत्मा की उपस्थिति को सिद्ध करनें योग्य प्राप्त नहीं हुआ तो वह जान लें कि आत्मा किन्ही महत्वपूर्ण अर्थों या आधारों पर स्वयं एक इंद्री हैं; जिसमें अन्य इन्द्रियों से भिन्नता यह हैं कि अन्य इन्द्रियाँ क्षणभंगुर हैं या उनका आदि भी हैं और अंत भी हैं परंतु आत्मा ऐसी इन्द्रि उससें अनुभव कर सकनें के आधार पर हैं; जो कि अनादि और अनंत हैं यानी इसें कभी पैदा नहीं किया जा सकता और इसका कभी अंत भी संभव नहीं।

क्या कोई एक इंद्री की सहायता से दूसरी इंद्री का होना सिद्ध कर सकता हैं?

क्या तुम नेत्रों से अपनी नाक के होने को या फिर कान की उपस्थिति को सिद्ध कर सकते हों?

यदि योग्यता हैं तो मुझें सिद्ध करके बताइयें कि कान और नाक क्या हैं और हाँ उनकी उपस्थिति उनके कर्मों के आधार पर सिद्ध कीजियेगा उसके दृश्य के आधार पर नहीं; जो कि आँखों का अनुभव हैं। आत्मा को उसके स्वयं के अनुभव से तो मैं भी करवा सकता हूँ; यदि आप करना चाहें तो, यानी यह सिद्ध करके बताइयें आँखों से की सूंघना और सुनना क्या होता हैं क्योंकि जिस तरह आत्मा का अनुभव ही उसकी पहचान हैं नाक के होने की पहचान सूंघने के अनुभव से हैं और कान की पहचान तो सुन सकनें के अनुभव से हैं। नहीं कर सकतें न? हाँ! कर भी नहीं सकतें, तो आँख से किसी अन्य इंद्री का अनुभव कर सकनें से यह तो कह नहीं सकतें न कि वह हैं ही नहीं।

ठीक उसी तरह आत्मा का अनुभव उससें खुद से किया जा सकता हैं; किसी अन्य इंद्री से नहीं, ठीक उसी भाँति जिस तरह कानों का अनुभव यानी श्रवण करना यानी सुन सकना उससें खुद सें ही हो सकता हैं।

आत्मा का अनुभव उससें खुद से किया जा सकता हैं; ठीक उसी भाँति जिस तरह नेत्रों का अनुभव यानी दर्शन करना यानी देख सकना उससें खुद सें ही हो सकता हैं किसी अन्य इंद्री से नहीं।

आत्मा का अनुभव उससें खुद से किया जा सकता हैं; ठीक उसी भाँति जिस तरह नाँक का अनुभव यानी सुंगध लेना या सूँघ सकना उससें खुद सें ही हो सकता हैं किसी अन्य इंद्री से नहीं।

समय/दिनांक/वर्ष - १६:०७/०७:०१/२०२२
- © रुद्र एस. शर्मा (०,० ०)