कर्तव्य (11)
सुबह अपूर्व भैया सोकर उठे तो ऑंखें सूज रही थी शायद रात को वह बहुत रोये थे । पिताजी ने कहा “अपूर्व क्या बात है तुम कुछ उदास लग रहे हो क्या बात है?” “कुछ नहीं पिताजी “ कहकर वह प्रतिदिन की तरह दुकान खोलने चले गये ,वहीं दिनचर्या पूरे दिन दुकान खोलना और सभी बच्चों की ज़रूरतों के लिए पैसे देना।
उनकी किसी को कोई चिंता नहीं और भैया जब बाहर से आते तो उनकी ग़लतियों पर उन्हें डाँटते तो वह चुप रहकर सब कुछ सहन कर लिया करते ।
कुछ दिनों तक मंझले भैया की सिर की चोट ठीक नहीं हुई तो भाभीजी ने छोटे भैया से कहा “भैया जी जब उन दोनों में लड़ाई हो चुकी थी और बिल्लू के चोट लगी तो आपके भैया के कोई चोट नहीं लगी लड़ाई में ।लेकिन किसी ने बताया कि आपने क़मीज़ में पत्थर बांधकर घुमाया और आपके भैया के चोट लगी । आप ने ऐसा क्यों किया इतनी चोट लगी है ।”
छोटे भैया ने जबाब में जो कहा उसे सुनकर सबकी ऑंखें गीली हो गई ।बह बोले “जब बिल्लू के बहुत चोट लगी तो उसके साथी उसे पुलिस चौकी में ले गये जहॉं उन्होंने मंझले भैया की शिकायत की । मुझे डर लग रहा था कि अब भैया को पुलिस पकड़ ले जायेगी इसलिए मुझे भैया को पुलिस से बचाने का यही एक उपाय सूझा और पुलिस द्वारा वह चेतावनी देकर दोनों को छोड़ दिया गया ।बिल्लू भैया भी तो अपनी ही गली में रहने वाले पड़ौसी है कोई ग़ैर तो नहीं,छोटे मोटे झगड़े तो होते ही रहते हैं ।”
एक दिन अपूर्व भैया ने देखा कि मोहल्ले का किशनलाल मंझले भैया के साथ कहीं जा रहा था वह बिल्लू भैया को भी अपने साथ ले जाता था । किशनलाल अच्छा आदमी नहीं था यह हमारे घर में सब को पता था ।अपूर्व भैया ने मंझले भैया से न जाने को कहा तो मंझले भैया ने अपूर्व भैया को डॉट कर कहा तुम ज़्यादा मत बोलो,छोटे हो छोटे ही रहो बड़े बनने की कोशिश मत करो।
किशनलाल के साथ जाने के बाद भैया पॉंच दिन में वापस आये तब पिताजी ने समझाया “वह अच्छा आदमी नहीं है उसके साथ कहीं जाने की ज़रूरत नहीं,अपनी दुकान का काम देखा करो।” भैया ने पिता जी को कोई जबाब नहीं दिया और वहाँ से जाने के बाद दुकान पर बैठ गए ।
दुकान पर बैठते ही अपूर्व भैया से दुकान की बिक्री का पूरा हिसाब कर पैसे लिए और वहाँ से चले गये।पिताजी हमेशा समझाया करते और उनसे कहते कि अब तुम्हारी बिटिया भी बड़ी हो रही है,उसका भी ध्यान रखा करो ।
बच्चे सभी अपनी मनमानी करते कोई भी किसी का कहना गंभीरता से नहीं लेता,जो जिस के मन में आता करते ।
बच्चों के साथ जो मित्र मंडली थी वह भी परिवार के किसी सदस्य की कोई बात गंभीरता से नहीं लेती।
पिछले दिनों भैया बहुत मेहनत करते,आमनदनी के लिए यदि उन्हें कुछ ठेले पर भी बेचना पड़ जाये तो वह संकोच नहीं करते थे । आजकल वह कोई काम में दिलचस्पी नहीं लेते,लंबे समय को बाहर चले जाते;जब मन करता आ जाते किसी को कुछ नहीं बताते ।
अपूर्व भैया की चिंता पिताजी को बहुत सताने लगी । एक दिन हमारे मौसाजी घर पर आये और पिताजी को अपने साथ लेकर कहीं चले गये ।
पिताजीने आकर बताया “एक लड़का देख कर आये हैं ,पहले गुड़िया की शादी करेंगे । हमारी समय से ज़िम्मेदारी पूरी हो जायेगी वरना इन सब का क्या भरोसा आगे आने वाले समय में क्या करेंगे ।”
भैया ने कहा “हम सब भी तो देख लें , तभी आगे बात करना सही रहेगा ।”
सब बहिन भाइयों की शादी हो चुकी थी अपूर्व भैया अभी शादी को रह गये थे । पिताजी उनकी बहुत चिंता करते लेकिन उनके लिए अलग रोज़गार नहीं करा पा रहे थे ।
मंझले भैया फिर बाहर चले गये,पिताजी उन्हें साथ ले जाना चाहते थे लेकिन उनके इंतज़ार में बीस दिन निकल गये । पिताजी स्वयं अकेले जाकर सब कुछ तय करके विवाह की तारीख़ भी निश्चित कर आये, शादी की तैयारी पिताजी करते रहे ।
निश्चित समय पास आ रहा था सभी भाइयों से पिताजी ने बता दिया,तैयारियाँ होने लगी ।कुछ भाइयों ने सामान इकट्ठा किया कुछ पिताजी ने और मेरी विदाई हो गई । अपूर्व भैया की मुझे भी चिंता रहती और पिताजी तो दिन रात उन्हीं के बारे में सोचा करते । वह चाहते थे कि मंझले भैया अपनी दुकान और परिवार को सँभाले,अपूर्व भैया को अलग दुकान करा कर उनकी भी शादी कर अपनी ज़िम्मेदारी पूरी कर दें । मंझले भैया अब कभी-कभी एक महीने को बाहर चले जाते इसलिए चाहते हुए भी कुछ ठीक नहीं हो रहा था ।
अपूर्व भैया अपनी ज़िम्मेदारी बहुत सुंदर ढंग से सम्भालने के बाद भी भैया से हमेशा डॉंट खाते,लेकिन किसी से भी कुछ न कहते । समय से खाना मिल जाता तो ठीक वरना वह दुकान जाकर खोल लेते और घर के सामान के लिए पैसे दुकान में से दे देते ।
भैया जब भी आते हिसाब कर उनसे पैसे ले जाते ।धीरे-धीरे दुकान में सामान कम होने लगा और ख़रीदारी के लिए पैसे बचते ही नहीं, बच्चों को पैसे नहीं मिलते तो वह अपूर्व भैया को बहुत कुछ बुरा भला कहते ।
अपूर्व भैया कभी किसी की भी बातों का बुरा नहीं मानते अपने काम में पूरा मन लगाकर ख़ुश रहते । ज़िम्मेदारी बहुत पहले संभाल ली , पढ़ाई भी आगे नहीं चली। कभी इतना समय नहीं मिला कि साइकिल भी चला कर देख लें या सीख लें। छोटे-छोटे बच्चे साइकिल दौड़ाते तो उन्हें देख कर खुश होते। बच्चें उन्हें चिढ़ाते कि आप बड़े हो गए साइकिल भी नहीं चला पाते , वह कभी बच्चों से कुछ न कहते, बस हंस दिया करते ।
क्रमशः ✍️
आशा सारस्वत