बागी स्त्रियाँ - भाग सोलह Ranjana Jaiswal द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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बागी स्त्रियाँ - भाग सोलह

शहर लौटने के बाद फोन पर सत्येश से बातों का सिलसिला शुरू हो गया |जब भी दोनों बातें करते खूब हँसते |अपूर्वा को अच्छा लगता कि जिस हंसी को वह कब का दफन कर चुकी थी ,वह फिर से उसके जीवन में लौट आई है|वह सत्येश से खूब बातें करना चाहती, पर वे ज्यादा काम न होने पर भी व्यस्त रहते थे और वह काम के बोझ से लदी होने पर भी जैसे खाली थी |शायद यह उसके भीतर का खालीपन था जो उस पर हावी हो जाता था|जीवन में किसी का न होना भी शायद ऐसे ही खालीपन से भर देता है |सत्येश का अपना घर-परिवार था|पत्नी –बच्चे थे ,मित्र-रिश्तेदार थे ।उनके ऑफिस में भी देश-भर के साहित्यकारों का आना-जाना लगा रहता था |उनके लिए वह उन्हीं में से एक थी या कुछ ज्यादा ,पता नहीं |वह घर-बाहर का सारा काम अकेले संभालती|लिखती-पढ़ती भी ,पर अकेलापन उस पर हावी रहता |वह हरदम बेचैन रहती |छोटी जगहों पर स्त्रियाँ कम ही मित्रता का निर्वाह कर पाती हैं |सभी अपने घर के काम-काज में ही लगी रहती हैं |मित्र के साथ घूमने-फिरने की जगह पति या परिवार के साथ ही कहीं आती-जाती हैं |ऐसे में वह उन्हें परेशानी में नहीं डालना चाहती|ज्यादातर पुरूष अच्छे मित्र नहीं होते |वे चोरी-छिपे मिलने को तो लालायित रहते हैं पर साथ चलने और खड़े होने से बचते हैं |छोटे शहर के समाज में स्त्री पुरूष की मित्रता को सहज नहीं माना जाता |समाज को छोड़ भी दें तो भी अपूर्वा ने हमेशा यही महसूस किया है |अकेली स्त्री को वैसे भी पुरूष मित्र कम ही मानते हैं |वह उनके लिए लावारिस पड़ी जमीन की तरह होती है जिस पर वे कब्जा जमाने को आतुर रहते हैं |यही कारण था कि अपूर्वा का कोई मित्र नहीं था |वह प्रसाद थोड़े थी कि दोस्तों में बंट जाती |
ऐसे में सत्येश का मिलना उसे राहत दे रहा था |उनके खुलेपन,सहयोग व मित्रता को वह उनकी प्रकृति समझ रही थी ।वह भूल गई थी कि यदि वह उसके शहर में होते तो उन्हीं पुरूषों जैसे ही होते| स्त्री के प्रति सोच-विचार के स्तर पर ज़्यादातर पुरूष एक जैसे ही होते हैं |
दूसरी बार जब वह दिल्ली में उनसे मिली तो उन्होंने गले लगाकर ही उसका स्वागत किया |उसे यह उनका स्नेहाभिवादन ही लगा |एक सप्ताह वह वहाँ रही और रोज ही वे मिले |दोनों साथ-साथ घूमते|उन्होंने उसे दिल्ली की सभी महत्वपूर्ण चीजें दिखाईं |इंडिया गेट से लेकर लोटस टैंपल तक |उन्होंने साथ बोटिंग भी की और पार्कों की हरियाली में बैठकर घंटों बातें भी |उनके बीच नज़दीकियाँ तो बढ़ रही थीं पर किसी ने भी किसी से उसकी व्यक्तिगत बातें नहीं पूछी न और अतीत का प्रसंग ही उठाया |वे वर्तमान में जी रहे थे |अपूर्वा उनसे लगाव तो महसूस कर रही थी पर वह प्रेम नहीं था |वह जानती थी कि सत्येश के पास उतनी स्पेस नहीं जितनी की उसे जरूरत थी |वे हर तरफ से भरे-पूरे थे तन-मन भावना सब से और वह हर तरफ से खाली थी |इसलिए वह उनसे एक दूरी बनाकर चल रही थी पर वह महसूस कर रही थी कि वे उससे पूरी छूट चाह रहे हैं |शहर आकर वे वर्जनाओं से मुक्त हो गए थे या फिर उसकी स्थिति...मन:स्थिति का लाभ लेना चाहते थे,पता नहीं | पर वह तो अभी श्रृंखलाओं को तोड़ने में लगी थी |वह उनकी तरह मुक्त ख्याल नहीं थी |
तीसरी बार उसे साहित्य अकादमी द्वारा शिमला के एक साहित्यिक आयोजन में बुलाया गया |उसे दिल्ली से शिमला जाना था |इस बुलावे में सत्येश का हाथ है,यह वह जान गई थी |अपने शहर से वह अकेली थी|दिल्ली के कई साहित्यकार भी जाने वाले थे बाकी अन्य शहरों से थे |तय हुआ कि मैं दिल्ली आ जाऊँ और वहाँ से एयरप्लेन द्वारा शिमला पहुंचा जाए |सारा खर्च साहित्य अकादमी ही वहन करती है,इसलिए कोई दिक्कत नहीं थी |वह बहुत खुश थी कि बड़े-बड़े साहित्यकारों से मुलाक़ात होगी |अब तक उसने न तो तो हवाई -यात्रा की थी और न ही पहाड़ देखे थे |शिमला के बारे में सुना तो बहुत था पर कभी देख पाएगी –इस बारे में सोचा भी नहीं था |उसकी माँ तो अपने कस्बे से बाहर कहीं गई ही नहीं |शादीशुदा बहनें भी दिल्ली या शिमला के लिए तरसती थीं ,पर उनके पैसे वाले व्यवसायी पति उन्हें लेकर कभी नहीं गए |वह तो खैर अकेले कहीं घूमने जाने के बारे में सोच भी नहीं पाती थी |वह तो अपनी पुस्तक छ्पवाने के उद्देश्य से वह बड़ी हिम्मत करके दिल्ली पहुंची और एक नयी और बड़ी दुनिया से उसका परिचय हुआ |शायद महत्वाकांक्षा ही स्त्री को दुनिया देखने का अवसर देती है पर उसकी कीमत भी वसूल लेती है |महत्वाकांक्षी स्त्रियॉं को न तो अच्छा समझा जाता है ,न शरीफ|उसके दिल्ली जाने से उसके परिवार और समाज में हलचल मच रही थी कि जाने किस गलत काम के लिए जाती है |बिगड़ गई है |दिल्ली जाना यानी पूरी तरह भ्रस्ट हो जाना |जब वह उच्चतर शिक्षा के लिए अपने छोटे कस्बे से इस छोटे शहर आई ,तब भी ऐसी ही हलचल मची थी कि लड़की गई हाथ से |अब उसका चरित्र सुरक्षित नहीं रहेगा क्योंकि पिता -भाई जैसे नैतिक पुलिस उसके साथ नहीं होंगे |पति नामक रक्षक उसके साथ है नहीं, फिर वह क्योंकर सुरक्षित रहेगी!पहले सिर्फ पढ़ाई के लिए उसके पिता और भाई ने उससे जीवन-भर के लिए रिश्ता तोड़ लिया था |तब माँ-बहनों ने मन से उसका फ़ेवर किया था पर दिल्ली आने-जाने की खबर ने उसे उनकी नजरों में भी संदेहास्पद बना दिया था |वह समाज से ....दुनिया से लड़ सकती थी पर अपनों से कैसे लड़े|सबके होते हुए भी वह अकेली थी ...खालीपन से भरी थी ...उदास थी |स्त्री पुरूष के लिए बराबरी का दावा करने वाले देश में पहले उसे पढ़ने फिर लिखने की,आत्मनिर्भरता के लिए कदम उठाने की ,अकेले जीने की सजा दी जा रही थी | वह दुश्चरित्र नहीं थी ...कोई गलत काम नहीं कर रही थी |शिक्षा की ज्योति जला रही थी |ज्ञान का आदान-प्रदान ही कर रही थी फिर भी वह गलत थी आखिर क्यों ?

|जब भी दोनों बातें करते खूब हँसते |अपूर्वा को अच्छा लगता कि जिस हंसी को वह वह कब का दफन कर चुकी थी ,वह फिर से उसके जीवन में लौट आई है|वह सत्येश से खूब बातें करना चाहती पर वे ज्यादा काम न होने पर भी व्यस्त रहते थे और वह काम के बोझ से लड़ी होने पर भी जैसे खाली थी |शाद यह उसके भीतर का खालीपन था जो उस पर हावी हो जाता था|जीवन में किसी का न होना भी शायद ऐसे ही खालीपन से भर देता है ||सत्येश का अपना जीएचआर-परिवार था|पत्नी –बच्चे थे ,मित्र-रिश्तेदार थे आफिस में भी देश-भर के साहित्यकारों का आना-जाना लगा रहता था |उनके लिए वह उन्हीं में से बस एक थी या कुछ ज्यादा ,पता नहीं |वह घर-बाहर का सारा काम अकेले संभालती|लिखती-पढ़ती भी ,पीआर अकेलापन उस पर हावी रहता |वह हरदम बेचैन रहती |छोटी जगहों पर स्त्रियाँ केएम ही मित्रता का निर्वाह कर पाती हैं |सभी अपने घर के काम-काज में ही लगी रहती हैं |मित्र के साथ घूमने-फिरने की जगह पीटीआई या परिवार के साथ ही कहीं आती-जाती हैं |ऐसे में वह उन्हें परेशानी में नहीं डालना चाहती|पुरूष अच्छे मित्र नहीं होते |वे चोरी-छिपे मिलने को तो लालायित रहते हैं पीआर साथ चलने और खड़े होने से बचते हैं |छोटे शहर के समाज केमें स्त्री पुरूष की मित्रता को सहज नहीं माना जाता |समाज का छोड़ भी दें तो भी अपूर्व ने हमेशा यही महसूस किया है ||अकेली स्त्री को वैसे भी पुरूष मित्र कम ही मानते हैं |वह उनके लिए लावारिस पड़ी जमीन की तरह होती है जिस पीआर वे कब्जा जमाने को आतुर रहते हैं |यही कारण था कि अपूर्वा का कोई मित्र नहीं था |वह प्रसाद थोड़े थी कि दोस्तों में बाँट जाती |ऐसे में सत्येश का मिलना उसे राहत दे रहा था |उनके खुलेपन,सहयोग व मित्रता को वह उनकी प्र्कृती समझ रही थी ,पर शायद उसके शहर में होते तो उन्हीं पुरूषों जैसे ही रहते| स्त्री के प्रति |सोच-विचार के स्तर पर ज़्यादातर पुरूष एक जैसे ही होते हैं |
दूसरी बार जब वह दिल्ली में उनसे मिली तो उन्होंने गले लगाकर ही उसका स्वागत किया |उसे यह उनका स्नेहाभिवादन ही लगा |एक सप्ताह वह वहाँ रही और रोज ही वे मिलन्ते |दोनों साथ-साथ घूमते|उन्होंने उसे दिल्ली की सभी महत्वपूर्ण चीजें दिखाईं |इंडिया गेट से लेकर लोटस टैंपल तक |उन्होंने साथ बोटिंग भी की और पार्कों की हरियाली में बैठकर घंटों बातें भी |उनके बीच नज़दीकियाँ तो बढ़ रही थीं पर किसी ने भी किसी से उसकी व्यक्तिगत बातें नहीं पूछी न और अतीत का प्रसंग ही उठाया |वे वर्तमान में जी रहे थे |अपूर्वा उनसे लगाव तो महसूस कर रही थी पर वह प्रेम नहीं था |वह जानती थी कि सत्येश के पास उतनी स्पेस नहीं जितनी की उसे जरूरत थी |वे हर तरफ से भरे-पूरे थे तन-मन भावना सब से |और वह हर तरफ से खाली थी |इसलिए वह उनसे एक दूरी बनाकर चल रही थी पर वह महसूस कर रही थी कि वे उससे पूरी छूट चाह रहे हैं |शहर आकर वे वर्जनाओं से मुक्त हो गए थे या फिर उसकी स्थिति...मन:स्थिति का लाभ लेना चाहते थे,पता नहीं | पर वह तो अभी शृंखलाओं को तोड़ने में लगी थी |वह उनकी तरह मुक्त ख्याल नहीं थी |
तीसरी बार उसे साहित्य अकादमी द्वारा शिमला के एक साहित्यिक आयोजन में बुलाया गया |उसे दिल्ली से शिमला जाना था |इस बुलावे में सत्येश का हाथ है,यह वह जान गई थी |अपने शहर से वह अकेली थी|दिल्ली के कई सहितकार भी जाने वाले थे बाकी अन्य शहरों से थे |तय हुआ कि मैं दिल्ली आ जाऊँ और वहाँ से एयरप्लेन द्वारा शिमला पहुंचा जाए |सारा खर्च साहित्य अकादमी की वहन करती है,इसलिए कोई दिक्कत नहीं थी |वह बहुत खुश थी कि बड़े-बड़े साहित्यकारों से मुलाक़ात होगी |अब तक उसने न तो तो हवाई यात्रा की थी और न ही पहाड़ देखे थे |शिमला के बारे में सुना तो बहुत था पर कभी देख पाएगी –इस बारे में सोचा भी नहीं था |उसकी मान तो अपने कस्बे से बाहर कहीं गई ही नहीं |शादीशुदा बहनें भी दिल्ली या शिमला के लिए तरसती थीं ,पर उनके पैसे वाले व्यवसायी पति उन्हें लेकर कभी नहीं गए |वह तो खैर अकेले कहीं घूमने जाने के बारे में सोच भी नहीं पाती थी |वह तो अपनी पुस्तक छ्पवाने के उद्देश्य से वह बड़ी हिम्मत करके दिल्ली पहुंची और एक नयी और बड़ी दुनिया से उसका परिचय हुआ |शाद महत्वाकांक्षा ही स्त्री को दुनिया देखने का अवसर देती है पर उस कि कीमत भी वसूल लेती है |महत्वाकांक्षी स्त्रियों को न तो अच्छा समझा जाता है न शरीफ|उसके दिल्ली जाने से उसके परिवार और समाज में हलचल मच रही थी कि जाने किस गलत काम के लिए जाती है |बिगड़ गई है |दिल्ली जाना यानी पूरी तरह भ्रस्ट हो जाना |जब वह उच्चतर शिक्षा के लिए छोटे कस्बे से इस छोटे शहर आई ,तब भी ऐसी ही हलचल मची थी कि लड़की गई हाथ से |अब उसका चरित्र सुरक्शित नहीं रहेगा |पिता भाई जैसे नैतिक पुलिस उसके व्साथ नहीं होंगे |पति नामक रक्षक उसके साथ है नहीं फिर वह क्योंकर सुरक्षित रहेगी|तब सिर्फ पढ़ाई के लिए उसके पिता और भाई ने उससे जीवन-भर के लिए रिश्ता तोड़ लिया था |माँ-बहनें मन से फ़ेवर कर रही थीं पर दिल्ली आने-जाने की खबर ने उसे उनकी नजरों में भी संदेहास्पद बना दिया था |समाज से दुनिया से वह लड़ सकती थी पर अपनों से कैसे लड़े|सबके होते हुए भी वह अकेली थी ...खालीपन से भारी थी उदास थी |स्त्री पुरूष के लिए बराबरी का दावा करने वाले देश में उसे पढ़ने फिर लिखने की,आत्मनिर्भरता के लिए कदम उठाने की ,अकेले जीने की सजा दी जा रही थी | वह दुश्चरित्र नहीं थी ...कोई गलत काम नहीं कर रही थी |शिक्षा की ज्योति जला रही थी |ज्ञान का आदान-प्रदान ही कर रही थी फिर भी वह गलत थी आखिर क्यों ?