बागी स्त्रियाँ - (भाग पांच) Ranjana Jaiswal द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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बागी स्त्रियाँ - (भाग पांच)

मीता का रोग बढ़ता जा रहा है निदान पवन उपचार भी पवन|फिर वह क्यों उसका तमाशा देख रहा है?वह तो उससे अलग होने की कल्पना से भी परेशान हो जाती है| क्या उसने पवन को समझने में भूल की है ?क्या पवन वह है ही नहीं जिसे उसने उसमें देखा ,जाना और समझा था |
उसकी रातें खत्म होती हैं पर उसके मन के अंधेरे.. धुंधलके शेष नहीं होते |बैठे-बैठे अचानक उसका मन उचाट हो जाता है |पर जब वह पवन के साथ होती है तब उसे ऐसा लगता है जैसे कोई बहुत बड़ी निधि उसके हाथ लग गयी हो |वह उस वक्त को कहीं बांध कर रख लेना चाहती है...उस ढेर-सारी सुगंध को कहीं छिपाकर समेट लेना चाहती है...|
समय अपनी गति से आगे बढ़ रहा है |पवन को पाकर उसे अपनी व्यथा से रिहाई मिली थी ।उसने अपने भीतर एक खुशी पाई थी ,पर वह खुशी अब चुक रही है |फिर से तीतेपन का एहसास मन में एक अनजाने दर्द को जन्म दे रहा है |उसके मन के भीतर कोई परकटा पक्षी अपनी बैंजनी उड़ाने भरने को ब्याकुल है |यह सच है कि पवन उससे दूर होता जा रहा है फिर भी वह उसके मन से दूर नहीं है|
वह सोचती है कि आखिर विधाता को उससे क्या वैर है ?जिंदगी में यूं ही क्या कम गम थे कि प्रेम का दर्द भी साथ लगा दिया ...एक ऐसा दर्द जो चिता के साथ जाएगा |पर उसे भी क्या अधिकार है कि अपने काँटों में पवन को घसीटने का?वह क्यों अपेक्षा करती है कि वह उसे अपनाए?यह तो स्वार्थ हुआ और प्यार तो बलिदान का दूसरा नाम है |उसके जीवन में इतनी उलझने हैं कि कोई भी उसे सुलझाने में चकरा जाएगा |किसी भी व्यक्ति में उसके पूरे सच को स्वीकारने का नैतिक साहस नहीं हो सकता| वैसे भी उजाले में हाथ थामने को तैयार व्यक्ति कम होते हैं ,फिर वह पवन पर क्यों दबाव डाले? उसने तो उसकी काल्पनिक प्रिय मूर्ति को साकार किया है ...|उसे ज्ञात है कि पवन का प्रेम सिर्फ एक आकर्षण है....लालसा है और कुछ नहीं |वह उसके जीवन -संघर्ष में दो कदम भी साथ नहीं चल पाएगा |जिसने दुख जाना ही नहीं ,वह दुख का साथ कैसे दे सकता है ?उसका अपना जीवन तो त्रासद है ही |इतनी ही उम्र में उसने सब कुछ तो देख लिया है ,पर पवन को तो अभी बहुत कुछ देखना बाकी है |
विवाह...सिंदूर ...सुहाग ...बच्चे ...परिवार कितने आकर्षक फंदे हैं वह जानती तो है फिर .....क्यों आज भी इन फंदों में बंध जाने को उसका मन मचलता है |बहुत करीब से देखा है इन खूबसूरत फंदों को ...कितने...कितने कमजोर निकलते हैं ये फंदे ....ये बंध....कितनी-कितनी तकलीफ़ें देते हैं। जी-जान से उन्हें बचाने की कोशिश में स्त्री कितने-कितने युवा -वर्ष व्यर्थ गंवा देती है। ...ऊर्जा से भरपूर वर्ष ....कामनाओं से भरे वर्ष......पर जिंदगी की सलाई से वे फंदे एक बार गिर जाते हैं तो फिर नहीं चढ़ते हैं। फिर उसको भी वही चाह ...वही ललक .क्यों है?....क्या ये मृग तृष्णा नहीं है ....?
वैसे भी यह उसकी ज़िंदगी का तीसरा दशक है।
यह सच है कि उसके दुखी जीवन में खुशियों का संकेत लेकर पवन आया है जैसे पतझर को बसंत में बदल देगा। वह हठी है।|उसने उसे एहसास कराया है कि जीवन अभी समाप्त नहीं हुआ है|एक नया जीवन शुरू करने का वक्त अभी चुका नहीं है कि फिर से नयी शुरूवात की जा सकती है कि वन-पुष्प वर्षा ,आतप ,शिशिर सहकर और निखर आया है और वह उसके साथ है |
पवन के साथ के अहसास से सूख रहे पुष्प पर अचानक ताजगी आ गयी।उसकी सुप्त कामनाओं ने अंगड़ाई ली|प्रीत ने पायल बजाई और उसकी आँखों में इंद्र्धनुष उभर आया|अतृप्त इच्छाएँ खिलखिला उठीं और वह नव -पुष्प सदृश्य भ्रमर-गुंजार से मदमस्त हो गया |
पवन के इस प्रेम में वर्तमान का सुख इतना अधिक है कि भविष्य आगे उपेक्षित-सा रास्ते में पड़ा रहता है |जब वे वहाँ पहुंचते हैं तो बेचारा रास्ते से हटकर और आगे चला जाता है। उसे फिर से संगीत भाने लगा है ,रोमांटिक फिल्में अच्छी लगने लगी हैं ,जिन्हें वह लगभग छोड़ चुकी थी ।
फिर वही हुआ जो सदियों से होता आ रहा है| असमय की बहार ....प्रकृति की उपेक्षा और पुष्प की खिलखिलाहट से जगत जल-भुन गया और उसने पुष्प पर ओलों की बौछार कर दी |हालांकि पुष्प के अंतर में जो नवीन गंध बस चुकी है। वह सदा उसके साथ रह कर उसका हौसला बढ़ाती रहती है और उस पर ओलों का कुछ भी असर नहीं होता |पुष्प को जो सुख पाना था उसने पा लिया था |फिर उसका जो भी हो, उसे इसकी परवाह नहीं है|
पर जीवन इतनी जल्दी समाप्त नहीं होता |वही भ्रमर जिसने पुष्प के अंतस में खूशबू फैलाई थी ...बदल गया है |खुद अपने पैने डंकों से पुष्प की पहले से ही आहत पंखुरियों पर चोट करने लगा है |उसे शर्म आने लगी है कि वह क्षतिग्रस्त फूल का स्वामी है |उसने तो असमय मुरझाते पुष्प पर दया की थी पर उसे क्या खबर थी कि इस काम से ऐसा यश होगा कि उसे बिखरने के करीब इसी पुष्प से संतोष करना पड़ेगा |उसे पछतावा होने लगा है और वह अपना प्रतिकार पुष्प से लेने लगा है |
आह पुष्प ,तेरी नियति क्या यही है ?तूने प्रकृति पर विजय पाने की कोशिश की |तूने भाग्य और समाज से दुहरा संघर्ष किया |तेरी जिजीविषा का यह पुरस्कार!तुझे तो एक दशक पूर्व ही धूसरित हो जाना था, फिर नवजीवन के लिए क्यों ललक पड़ा ?बिना धूसरित हुए नए जीवन की कल्पना क्यों की ?उसी पुरानी काया से नव श्रृंगार क्यों किया ?पर क्या भ्रमर इसके लिए दोषी नहीं था |पुष्प को मतिभ्रम तो उसी ने किया |क्यों किया?एक वक्त था जब वह इसी पुष्प की गंध के लिए बेचैन था....उसे पाने की कल्पना भी नहीं कर पाता था|काँटों से घिरे पुष्प का सौंदर्य उसे स्वर्गिक लगता था ,जिसको पाना उसे असम्भव लगता था |वह उसे दूर से देखकर ललकता था ...प्यार करता था ..।.पुष्प को उसकी भय-ग्रस्तता पर ...ललक पर ...निर्मल नेह पर ...एकाकीपन और उदासी पर ऐसा प्यार उमड़ा कि वह खुद ही काँटों को लांघकर उसके दामन में टपक पड़ा |काँटों ने उसकी पंखुरियों में छेद कर दिया पर पुष्प ने अपने चाहने वाले के सर्वांग को महका दिया पर खुद टपका यह पुष्प अपनी अमूल्यता...अपनी दिव्यता खोकर एक साधारण वस्तु बन गया है|उसको चाहने वाला उसका महत्व भूला बैठा है पर पुष्प ने प्रीत की रीति निभा दी है और यही उसका सुख-संतोष है |पर उसकी हर पंखुरी चीखती है –प्रीत न करिए कोय |