बागी स्त्रियाँ - (भाग सात) Ranjana Jaiswal द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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बागी स्त्रियाँ - (भाग सात)

पुरुष सुदर्शन,आकर्षक और भव्य व्यक्तित्व के साथ उच्च पद पर आसीन भी हो तो न चाहते हुए भी उसमें अभिमान आ जाता है।वैसे भी लक्ष्मी,सरस्वती और शक्ति तीनों देवियाँ जिसके सिर पर एक साथ विराजमान हो जाएं, वह सामान्य नहीं रह सकता। वह बाहर ही नहीं भीतर से भी कठोर होता चला जाता है।इतना ही नहीं वह अधिक से अधिक हृदयों पर अपनी छाप भी देखना चाहता है।अपने रूप- यौवन,पद -रूतबे की आजमाइश में न जाने कितने दिलों से खेलता है और उन दिलों के टूटने का उसे जरा -सा भी अफसोस नहीं होता।अपने पौरूष की किताब में अधिकतम स्त्री- आंकड़े एकत्र करके वह खुद को गौरवान्वित महसूस करता है।वह यह नहीं समझ पाता कि यह भी एक तरह की हिंसा है।वैसे रूपगर्विता स्त्रियाँ भी ऐसा करती देखी जाती हैं ,पर उनके पास सिर्फ रूप -यौवन ही होता है ।पर इन पुरूषों के पास पद और रूतबे के साथ पहुंच और किसी को भी बनाने- बिगाड़ देने की शक्ति भी होती है।
अपूर्वा देख रही थी कि फादर बो में भी ऐसा अभिमान बढ़ता जा रहा है।उन्हें अपने आकर्षक व्यक्तित्व ,पद और ताकत का आभास है इसलिए वे इसकी आजमाइश भी करने लगे हैं।किसी अध्यापक की कोई छोटी बात भी पसन्द नहीं आई या उससे कोई गलती हो गई ,तो उसे सभी के सामने यूँ जलील करते हैं जैसे वह उनका जरखरीद गुलाम हो।चीखना- चिल्लाना, उसकी औकात दिखाना कुछ भी नहीं छोड़ते ।उसके बाद भी उनका क्रोध शांत नहीं होता।मौका देखकर उसे नौकरी से भी निकाल देते हैं ।बेचारा अध्यापक जिस पर अपने परिवार को पालने का दायित्व होता है,वह सड़क पर आ जाता है।उसकी फरियाद उसका गिड़गिड़ाना कुछ भी काम नहीं आता।दया और करुणा जिनके धर्म का मूल हो,उसके प्रिस्ट का यह रूप शोभनीय तो कदापि नहीं लगता।चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों को तो वे बंधुआ मजदूर ही समझते थे।न तो उनके काम के घण्टे निर्धारित हैं,न काम ही निर्धारित है।चपरासी से लेकर धोबी,मेहतर,रसोइए,माली,मजदूर सबका काम वे करते हैं।बस वे खाली न रहें।कोई काम नहीं तो प्ले ग्राउंड का घास ही छीलें।स्कूल टाइम सात बजे हो तो उन्हें हर हाल में पांच बजे हाजिर हो जाना है ।दो बजे छुट्टी टाइम हो तो भी उन्हें छह बजे तक रूकना है।सरकारी अवकाश के दिनों में भी उन्हें उपस्थित होना जरूरी है।किसी के घर मृत्यु हो जाए तो भी दूसरे दिन उसे आना जरूरी है।
उनकी दशा देखकर अपूर्वा को उन पर बड़ी दया आती है पर वह जानती है कि सब मजबूर हैं।अन्य जगहों की अपेक्षा पैसा वे ठीक -ठाक देते हैं।बेरोजगारी के इस भयावह समय में यह नौकरी उनके जीने का सहारा होती है,भले ही स्वाभिमान की कीमत पर हो।कभी- कभार एक -दो लोगों में स्वाभिमान का कीड़ा कुलबुलाता है तो वे बाहर कर दिए जाते हैं।कुछ ही दिन बाद ही वापस आकर वे गिड़गिड़ाने और नाक रगड़ने लगते हैं।फादर इस क्षेत्र के लोगों को भूखा,गरीब और अभावग्रस्त मानते हैं।साथ ही वे इनकी इस कमजोरी से भी वाकिफ़ हैं कि ये लोग भूखे कुत्ते की तरह रोटी की तरफ दौड़ते हैं और आपस में ही लड़ते -झगड़ते हैं।एक -दूसरे की शिकायत करते हैं।इन्हीं में से कुछ उनके खबरी हैं,जिसके कारण सबकी कमजोर नस वे जानते हैं और उसका भरपूर फायदा उठाते हैं।
अपने क्षेत्र (दक्षिण)के टीचरों से उनका दोस्ताना व्यवहार है।उनके घर आना -जाना, बात-व्यवहार, तीज -त्योहार ,खान -पान ,लेन- देन सब चलता है।उनकी गलतियां उन्हें नहीं दिखती हैं ।उनकी सेलरी भी अधिक होती है ।साथ ही उन्हें मकान -किराया,वाहन -खर्च के साथ साल में दो बार अपने घर जाने के लिए हवाई -टिकट भी मिलता है।त्योहारों पर उनके पूरे परिवार को दावत और गिफ़्ट सब मिलता है और इस क्षेत्र (उत्तर)के टीचर को सिर्फ सेलरी।
यह भेदभाव देखकर अपूर्वा सोचती है कि क्या किसी फादर के लिए यह मुनासिब है कि वह इंसान इंसान में भेदभाव करे ?धर्म,सम्प्रदाय,क्षेत्र के आधार पर पक्षपात करे?
फादर बो सौन्दर्य प्रेमी भी हैं। स्कूल में आते ही उन्होंने उसका सुंदरीकरण करना शुरू कर दिया था।स्कूल परिसर में विदेशी घास,फूल, पेड़ -पौधे तो लगवाए ही ।स्कूल इमारत को एक माले से चारमाला बनवा दिया ।आस -पास की जमीनें खरीद कर उसकी चौतरफा इमारतें खड़ी कर दी ।स्कूल के चार प्रवेश-द्वार हैं।स्कूल बाहर -भीतर हर तरफ से बहुत ही आकर्षक दिखता है।उन्होंने भव्य बैडमिंटन कोर्ट,स्टेडियम ,लाइब्रेरी और प्रयोगशालाएं बनवाई हैं।इस मामले में उनकी नवीन सूझ -बूझ व सौंदर्य दृष्टि के सभी कायल हैं।इस स्कूल को उन्होंने शहर का नम्बर वन स्कूल बना दिया है।
स्कूल सुंदर बन गया तो वहाँ के टीचर भी सुंदर होने चाहिए।पुराने टीचर जैसे भी हों,उनको वे निकाल नहीं सकते थे ।अपने क्षेत्र के लोग उन्हें यूं भी सहज सुंदर लगते हैं पर उन्होंने नई नियुक्तियों में सुंदर व फ्रेश युवक -युवतियों को प्राथमिकता दी।पहले विद्यालय में अनुभवी रिटायर्ड टीचर भी रखे जाते थे ।इन्होंने आते ही इस पर रोक लगा दी।वे हर तरफ ऊर्जा, शक्ति और सौंदर्य देखना चाहते हैं। अब स्कूल के कार्यक्रमों में फिल्मी गानों पर नाच -गाने ज्यादा होने लगे हैं। वे दिखावे के मामले में आधुनिकीकरण में विश्वास करते हैं।दूसरे शब्दों में कहें तो अंग्रेजीकरण में।उनकी सोच भी अंग्रेजों -सी है ।उन्हीं के सिद्धांतों पर वे चलते हैं और सबको अंग्रेज बना देने पर आमदा हैं।
हिंदी,हिंदी -भाषियों और हिंदी -क्षेत्र वालों को वे हेय दृष्टि से देखते हैं।चूंकि रहना इसी क्षेत्र में इन्हीं लोगों के बीच है,इसलिए इस बात को छुपाते हैं। हाईस्कूल तक हिंदी पढ़ने -पढ़ाने की अनिवार्यता नहीं होती तो वे इस विषय को पाठ्यक्रम में रखते ही नहीं ।इसी क्षेत्र से हिंदी टीचर चुनना भी उनकी मजबूरी है क्योंकि उनके क्षेत्र के लोगों के हिंदी ज्ञान में व्याकरण की त्रुटियों की भरमार होती है।स्कूल में हिंदी बोलने पर पाबंदी है पर अपनी बोलचाल की भाषा को न तो इस क्षेत्र के विद्यार्थी छोड़ पाते हैं, न अध्यापक ।चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी कम पढ़े- लिखे होने की वजह से हिंदी ही बोलने को मजबूर हैं ।वे इस बात से चिढ़ते हैं और रोज ही स्कूल-प्रार्थना के बाद चेतावनी देते हैं कि परिसर में हिंदी बोलना दंडात्मक अपराध है,पर उनकी बात से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता।
अपूर्वा हिंदी टीचर है और स्कूल के हिंदी -विभाग को वही संभालती है।हिंदी से सम्बंधित सारे काम भी उसके जिम्मे है।स्कूल -कार्यक्रमों के हिंदी- न्यूज बनाना,स्कूल -पत्रिका की हिंदी -रचनाओं का सम्पादन,स्कूल के हिंदी -नोटिस, हिंदी ही जानने वाले अभिभावकों की समस्याओं को सुनकर उन्हें समझाने का काम वही करती है।वैसे स्कूल में और भी हिंदी टीचर हैं पर प्रिस्ट का उन पर उतना विश्वास नहीं है,जितना कि उस पर है।वे उसकी साहित्यिक क्षमता का सम्मान करते हैं।उसकी योग्यता का बखान करते हैं।हिंदी -चयनबोर्ड में उसे बैठाते हैं और उसके सुझावों को अमल में लाते हैं ।उसके द्वारा निर्देशित नाटक उन्हें बहुत पसन्द आते हैं।स्कूल के हर एक कार्यक्रम में उसका एक नाटक जरूर रखवाते हैं।
यही कारण था कि अपूर्वा उनके मोह में पड़ गई ।उनकी हर बात को ईश्वर का आदेश मानती। वह सबसे दावा करती कि वे कभी गलत हो ही नहीं सकते पर आखिरकार उसका मोह भंग हो ही गया था।