ज्यों ही पहाड़ दिखने शुरू हुए अपूर्वा खुशी से चीख पड़ी |घने जंगलों से भरे पहाड़,ऊबड़-खाबड़ ,मजबूत ,सुंदर पहाड़!प्रकृति की अद्भुत कारीगरी|चारों तरफ हरियाली ही हरियाली|वह किसी बच्ची की तरह विस्फारित नजरों से उसे निहारे जा रही थी |वातानुकूलित बस अपने पूरे रफ्तार से भागी जा रही थी|दिल्ली से शिमला तक कि यह बस -यात्रा ख़ासी लंबी थी|उसने कल्पना भी न की थी कि उसे इतनी लंबी बस -यात्रा करनी पड़ेगी|बस से यात्रा करने से वह हमेशा बचती थी क्योंकि लंबी बस यात्रा से उसे चक्कर आने लगता था |पर साथ सत्येश थे तो उसे कोई परेशानी नहीं थी |वे दोनों ही किसी साहित्यिक कार्यक्रम में सम्मलित होने के लिए शिमला जा रहे थे।धीरे-धीरे अंधेरा उतरने लगा तो पहाड़ दिखने कम हो गए फिर वह सत्येश से बातें करने और सामने चल रहे टीवी को देखने में व्यस्त हो गई |बस की रफ्तार और तेज हो गई थी |सत्येश ने धीरे से उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया |वह बस मुस्कुरा दी |दोस्ती में इतनी छूट तो दी जा सकती है |लेकिन थोड़ी देर बाद ही अंधकार का लाभ लेकर सत्येश उसकी बाहों और कंधों को छूने और दबाने लगे |उसने अचकचा के चारों तरफ देखा कि कोई देख तो नहीं रहा |बस में इने-गिने यात्री थे ,वो भी दूर -दूर की सीटों पर और सभी अपने आप में ही मगन थे |उसके आगे की सीट पर एक नव विवाहित जोड़ा था ,जिसमें स्त्री पुरूष की गोद में लेती हुई थी और पुरूष के हाथ उसे सहला रहे थे |इस दृश्य को देखकर सत्येश भी रोमांटिक हो रहे थे |उसे अटपटा तो लग रहा था पर वह संकोच में थी कि कैसे उन्हें मना करे |एकांत पाते ही पुरूष किस तरह अपने आदम खोल में आ जाता है |पर ज्यों ही सत्येश का हाथ उसके कंधे से फिसलकर उसके गले के नीचे उतरने को मचला उसने उनका हाथ कसकर पकड़ा और कंधे से उतारकर अपनी हथेलियों में जकड़ लिया |अंधेरे में दिखा तो नहीं पर उसने महसूस किया कि सत्येश को अवश्य निराशा हुई है |सत्येश की इस तरह की हरकतों को वह पहले भी महसूस कर चुकी थी पर हर बार उसे टाल देती थी |उसे लगता था कि उसे ही भरम हुआ होगा |क्योंकि वे बड़े ही गंभीर,बुद्धिमान और उम्रदराज थे और हमेशा मधुर और संयमित ही बोलते थे |वह तो कुछ दिनों बाद उसे पता चला कि उनमें एक छिछोरा युवक जिंदा है|दिल्ली में भी जब वे उसे विभिन्न दर्शनीय स्थल दिखाने ले जाते थे, तो एकांत मिलते ही उसे छूने की कोशिश करते थे । वह उनसे थोड़ी दूर ही रहती कि कोई देखेगा तो क्या कहेगा ?वे कहते कि दिल्ली में कोई दूसरे को नहीं देखता |यहाँ छोटे शहरों की तरह वर्जनाएँ नहीं हैं |यौन स्वतन्त्रता भी है |पर वह तो छोटे शहर से आई थी ।उसकी झिझक अभी टूटी नहीं थी |वे कहते कि तुम छोटे शहर वाली मानसिकता से उबरी नहीं हो |
सत्येश से उसकी मुलाक़ात दो वर्ष ही हुई थी |वह कुछ साहित्यिक कार्य से उनके दफ्तर गई थी|उसने उन्हें देखा तो लगा कि उनका चेहरा जाना-पहचाना है|बाहर निकली तब याद आया कि अपने शहर के किसी कार्यक्रम में उन्हें देखा था |वह वापस उनके पास गई और उनसे बोली-"आप मेरे शहर में पिछले साल आए थे न!"
-- हाँ ,मैं भी सोच रहा था कि तुम्हें कहाँ देखा है!
बातचीत से पता चला कि वे भी उसके ही शहर के पास वाले गाँव के हैं और उसी के विश्वविद्यालय से पढ़ाई की है |वह बहुत खुश हो गई कि अजनबी शहर में कोई तो पहचान का मिला |उन्होंने भी उसके बारे में पूछा और जब उन्हें पता लगा कि वह पहली बार दिल्ली आई है तो उसे दिल्ली दिखाने का वादा भी किया |
उन्होंने अपने आफिस टाइम के बाद उसके साथ घूमने का प्रोग्राम तय कर लिया |दूसरे दिन वह उनसे मिलने उनके केविन में पहुंची तो उन्होने बड़े गर्मजोशी से उससे हाथ मिलाया और अपने सामने की कुर्सी पर बैठने को कहा |चपरासी को बुलाके स्पेशल चाय भी पिलाई |दुपहर के एक बजने वाले थे |उन्होंने कहा कि थोड़ी देर वह रूके तो वह कुछ जरूरी काम पूरा करके अकादमी के कैंटिन में चलेंगे ,जहां सस्ता और लजीज खाना मिलता है |सच ही वह आश्चर्य में पड़ गई थी कि उसके शहर से ज्यादा सस्ता और बढ़िया खाना दिल्ली में इस जगह मिलता है। फिर तो वह अक्सर लंच वहीं करने लगी |वे भी उसी समय लंच के लिए आते और पैसा भी वही चुकाते |उसकी पहल पर उसे डांट देते |शाम को दफ्तर टाइम के बाद वह गेट तक आ जाती फिर वे टैक्सी से उसे दिल्ली के प्रसिद्ध स्थलों को दिखाते |उसका मन उनके प्रति सम्मान और प्रेम से भरा रहता था |उनके रूप में उसे एक अच्छा दोस्त मिल गया था ,जिसके साथ वह निश्चिंत भाव से कहीं भी घूम सकती थी |रात-बिरात भी आ-जा सकती थी |पर वापसी के दिन जब वह उनके केविन से बाहर निकलने लगी तो हाथ मिलाते वक्त उन्होंने उसे गले से लगा लिया |
उसे अटपटा जरूर लगा पर बुरा नहीं लगा |दिल्ली में दोस्तों का गले लग जाना आम बात थी |