Psychology Of Success Rudra S. Sharma द्वारा विज्ञान में हिंदी पीडीएफ

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Psychology Of Success

' सफलता का मनोविज्ञान '

● परम् उद्देश्य या सही मायनों यानी यथा अर्थों में सफलता क्या हैं?

अपने हित की सदैव के लियें सुनिश्चितता कर सकनें की योग्यता की प्राप्ति कर उसकी प्राप्ति की सदैव के लियें सुनिश्चितता कर लेना जिससें अहित का हमारें हित को कभी बाधित नहीं कर सकना सदैव के लियें सुनिश्चित हो जाना ही परम् या सर्वश्रेष्ठ सफलता की प्राप्ति कर लेना हैं।

अब हमसे संबंधित तो समुचित अनंत हैं अतः सभी पर ध्यान देकर उन्हें अनुभव करतें रहना या उनसे संबंधित ज्ञान की प्राप्ति करना भी अनंत काल तक ही संभव हैं; यही कारण हैं जिससे कि मैं कहता हूँ कि सफलता या तो छोटी मिलती हैं या फिर बड़ी, यह पूर्णतः कदापि नहीं प्राप्त हो सकती क्योंकि यह भी हमारें अस्तित्व की तरह ही अनंत हैं। हाँ! ऐसे कुछ की प्राप्ति जो उतनी ही महत्वपूर्ण हो जितना कि हर छोटी बड़ी सफलता का महत्व हैं वह सर्वश्रेष्ठ या परम् सफलता हो सकती हैं। तो ऐसी तो केवल एक ही हैं; जिसके होने से सभी छोटी-बड़ी सफलता की प्राप्ति या सुनिश्चितता हो सकती हैं और वह हैं स्वयं से संबंधित हर किसी के सुख की सुनिश्चितता करने की योग्यता; वह योग्यता जिसके माध्यम् से हम हमसें संबंधित अनंत अस्तित्व का सही अर्थों में ज्ञान यानी अनुभव कर सकते हैं और उस पर ध्यान देने से उनके द्वारा की गयी हमसें इच्छाओं का ज्ञान कर, उनके ज्ञान के आधार पर उनकी आवश्यकताओं को जान कर; समय, स्थान और उचितता के अनुकूल होने पर उनकी पूर्ति निश्चित सकते हैं और अनुकूल नहीं होने पर उन्हें पूर्ति करने तो दूर की बात अपितु उनके जन्म को ही बाधित कर सकते हैं।

अनंत को महत्व नहीं देने का अर्थ हैं मेरा मुझें भी महत्व या मायनें नहीं देना और मुझें महत्व या मायनें नहीं देने का अर्थ हैं मेरे अनंत अस्तित्व को महत्व नहीं देना क्योंकि मैं यथा अर्थों में अनंत हूँ और जो हैं एवं जो नहीं भी ऐसा अनंत सही अर्थों में मैं हूँ अतः मैं मुझसे संबंधित हर संबंधी का सही मायनों में या जो यथा अर्थों में हित हैं वह चाहता हूँ; मेरे लियें अनुकूल होने के ज्ञान के परिणाम स्वरूप यानी सात्विकता वश।

मेरा उद्देश्य हैं कि मैं मेरे कण-कण से लेकर समुचे अनंत तथा शून्य यानी साकार और निराकार अस्तित्व का यानी समुचें भौतिक, भावनात्मक, विचारात्मक या तार्किक, यथार्थी, काल्पनिक, आत्मिक, समस्त ब्रह्मांडीय तथा शून्य शरीरों का सही मायनों में हित सुनिश्चित कर सकूँ क्योंकि उनके हित से यानी मेरी ही तरह उनकी हर इच्छाओं से मुक्ति या इच्छाओं की पूर्ति में उनकी संतुष्टि निहित हैं और उनकी संतुष्टि से होने वाली सुख की अनुभूति या अनुभव में मेरा सुख हैं क्योंकि उनमें और मुझमें कोई अंतर नहीं हैं।

वैसे तो समता ही अनंत की सुंदर परम् यानी सर्वश्रेष्ठ वास्तविकता हैं; अनंत और शून्य का हर एक कण यदि सभी आधारों से जानें या देखे तो समान श्रेष्ठता, सामान्यता और निम्नता वालें जिससे पूर्णतः समान हैं और जहाँ जितनी समानता वहाँ उतनी ही मित्रता होती हैं तो सभी समान मित्र हैं या सभी से मेरी समान मित्रता हैं परन्तु जो जितना मेरे उद्देश्य की पूर्ति हेतु आवयश्कता जितनी योग्यता वाला हुआ यानी योग्यता के आधार पर मेरे ही समान हुआ; वह उतना ही मेरा सहधर्मी या मेरी सहधर्मिणी की योग्यता के परिणाम स्वरूप अधिक मेरा मित्र या मुझसे मित्रता वाला हुआ। यदि मेरे हर उद्देश्य के लियें आवश्यक पूर्ण या पूरी योग्यता उसमें हैं, तो निः संदेह उसमें और मुझमें कोई अंतर नहीं यानी हम समान हैं।

जो मेरा उद्देश्य हैं वह मुझसे संबंधित हर किसी का उद्देश्य होना चाहिये क्योंकि यही यथा अर्थों में परम् या सर्वश्रेष्ठ उद्देश्य हैं और इसका कारण यह कि इसी उद्देश्य की प्राप्ति में मेरे अनंत या शून्य यानी साकार और निराकार हर हिस्से या भाग का भी जो अस्तित्व हैं उसका सही मायनों में हित निहित हैं।

मेरा उद्देश्य यानी स्वयं के समुचें अस्तित्व से प्रेम करना 'जो की स्वयं का सही मायनों में जो हित हैं उसकी सुनिश्चितता करने से पूर्ण होगा; यदि सभी का उद्देश्य हो पायें तो जिस तरह मुझसें सही मायनों में मेरा अहित नहीं हैं और किसी भी अन्य से भी, 'मेरे कारण' मेरा यथा अर्थों में अहित न हो सकता वैसे ही अन्य किसी भी मुझसें संबंधित का भी यदि यही उद्देश्य हो जायें तो स्वयं के कारण खुद सें उनका और उनके कारण उनसे अन्य का अहित भी अहित नहीं हो सकता अतः जिस तरह मैं संतुष्ट हूँ अतः सुखी हूँ अनंत का हर कण संतुष्ट जिससे सुखी होगा।

मैं मूलतः आत्म ऊर्जा हूँ और आत्म ऊर्जा का अस्तित्व अनंत काल से और अनंत काल तक हैं, जब मेरी या अपनी यात्रा ही अनंत हैं; तो सफलता पूर्णतः कैसे प्राप्त हो सकती हैं? नहीं! या तो यह छोटी होगी या बड़ी; सफलता का अंत नहीं। हाँ! इस अनंत की यात्रा में जितनी छोटी-बड़ी हर सफलता महत्वपूर्ण हैं; ठीक उतना ही महत्व एक फल की प्राप्ति करवा सकती हैं। वह एक फल, जो अनंत की इस यात्रा के हर पग, हर पड़ाव पर उपलब्ध रहता हैं; बस उसे प्राप्त करने की योग्यता और साथ ही उसके सही मायनों या महत्व से भिज्ञता होनी चाहियें और वह हैं मेरे द्वारा बताया परम् या सर्वश्रेष्ठ उद्देश्य; यह ही मोक्ष हैं; यानी सही मायनों की सफलता हैं।

मेरे अनुकूल कहने या कह देने से नहीं; आप स्वयं इस उद्देश्य को परम् या सर्वश्रेष्ठ अनुकूलता या श्रेष्ठता की आपकी कसौटी को खोज; उस पर सत्यापित करें, आपके अनुसार अनुकूल होने पर ही इसे अपनायें; यह सही मायनों में ज्ञान के परिणाम स्वरूप यानी सात्विक होना चाहिये।

● यथा अर्थों या सही मायनों की सफलता प्राप्ति की योग्यता क्या हैं?

जैसे कि पहले जाना कि स्वयं से संबंधित समुचें अस्तित्व की आवश्यकता के आधार पर उनके द्वारा की गयी इच्छाओं की उनके समय, स्थान आदि के उचितानुकूल होने पर सदैव की पूर्ति की सुनिश्चितता और उनकी इच्छाओं के अनुचित होने पर उनके जन्म लेने को ही बाधित कर सकनें की योग्यता की प्राप्ति ही सफलता हैं अतः जिससे हम इस योग्य हो जायें कि परम् सफलता यानी हर छोटी-बड़ी सफलता के सूत्र की प्राप्ति कर सकें वही हमें सही अर्थों में सफलता की प्राप्ति करवा सकता हैं।

निम्नलिखित सभी योग्यताओं के बिना सफलता की प्राप्ति की योग्यता तो बहुत दूर की बात; हम उसके या उसकी प्राप्ति के संबंध में सोच भी नहीं सकते अतः जिस माध्यम् से हम नीचें बतायी गयी हर योग्यता की प्राप्ति कर सकते हैं वही सही अर्थों में सफलता प्राप्ति करवा सकता हैं।

• धैर्य, धीरज या सब्र से युक्तता।
• हटी या तपस्वी होकर संयम, तपस्या यानी हट से युक्तता।
• योग्य जिज्ञासु होना।
• योग्य खोजी होना।
• योग्य अंतर्मुखी और बहिर्मुखी अनुभव या अनुभूति कर्ता होना।
• योग्य कल्पना और स्मरण शक्ति से युक्त होना।
• तुलना कर्ता शक्ति से युक्त यानी तार्किक; तुलना करने योग्य होना।
• योग्य यथा अर्थों का चयन कर्ता यानी यथार्थी होना।
• योग्य रचनात्मकता शक्ति से युक्त होना।
• योग्य परिवर्तनात्मक होना।
• सात्विकता होना (चाहें राजसिकता के माध्यम् से हो या तामसिकता के माध्यम् से हो।)
• समता यानी अनंत की वास्तविकता को देख सकनें के योग्य दृष्टिकोण होना।
• कर्म, कर्त्तव्य और धर्म के महत्व से भिज्ञता होना।

यदि किसी के भी पास यह सभी योग्यता हैं; तो किसी भी क्षेत्र की कला हो; या कोई भी विज्ञान का विषय; बस उसे इन्ही योग्यताओं में से कला या विज्ञान के विषय से संबंधित ज्ञान प्राप्ति हेतु आवश्यक योग्यताओं से ज्ञान की प्राप्ति करनी हैं; इन्ही योग्यताओं में से, ज्ञान के महत्व को समझने में आवयश्कता योग्यताओं से प्राप्त कियें ज्ञान के महत्व से भिज्ञ होना हैं पश्चात इसके, कला या विज्ञान के विषय या उससे संबंधित कुछ भी प्राप्त करनें योग्य बस उसके द्वारा उनकी या उनमें सिद्धि यानी फल प्राप्ति के मोहताज़ हैं।

● अब सफलता की प्राप्ति की योग्यता का ज्ञान यानी उसकी यात्रा को करने का मार्ग कैसे यानी किससे ज्ञात हो अर्थात् कौन ज्ञात करवा सकता है और जो मार्ग ज्ञात होगा उस पर चलने की योग्यता की प्राप्ति यानी यथार्थ सफलता नामक परम् उद्देश्य की प्राप्ति का जिस भी माध्यम् से ज्ञान प्राप्त हो; उस ज्ञान को व्यवहार में लाने की योग्यता प्राप्ति कैसे हो तथा किस तरह या किस्से जो योग्यता उसे व्यवहार में लानें की प्राप्त की हैं उससें व्यवहार में लाया जायें उपर्युक्त सभी योग्यताओं की प्राप्ति क्या करवा सकता हैं; ऐसा क्या हैं जो इतनी योग्यता रखता हैं?

' वह किया जा सकनें के योग्य कर्म जो किसी न किसी हमारी की गयीं आवश्यकता के आधार पर की गयी इच्छा की पूर्ति होने से या किसी न किसी आधार पर अर्थ युक्त यानी सार्थक होने से हमारें लियें महत्व रखने वाला कर्म यानी कर्तव्य भी हैं और हर कर्तव्यों की किसी भी स्तथि में पूर्ति करनें की योग्यता होने के परिणामस्वरूप अर्थात् हमारी सभी या हर एक आवश्यकताओं के हमें होने के आधार पर या कारण हमारें द्वारा हमसें की गयी हर इच्छाओं की पूर्ति करने से या हमारें सम्पूर्ण अस्तित्व की हर एक आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकनें के आधार पर परम् अर्थ सिद्धि या पूर्ति वाला अतः परम् अर्थ की युक्तता वाला अर्थात् परम् सार्थक होने से भी महत्वपूर्ण हैं यानी वह जो हमारा परम् या यथा अर्थों में धर्म भी हैं वही कर्म यानी सही अर्थों में यानी यथार्थ में जो कर्म, कर्तव्य और धर्म हैं जो कि हमारें हर एक कर्म और कर्तव्य की सही अर्थों में सिद्धि वाला हैं वही हमें उपर्युक्त बतायी गयी सभी योग्यताओं की प्राप्ति करवा सकता हैं; हाँ! ऐसा वही हैं जो इतनी योग्यता रखता हैं।'

● अब ऐसा योग्य कर्म जो कि सही अर्थों में कर्म और कर्तव्य भी हैं और उसे करना यानी उसे अंजाम देना अर्थात् उसकी सिद्धि हमारें हर यथार्थ कर्म तथा कर्तव्य की भी सिद्धि या पूर्ति भी करवा सकता हैं वह क्या हो सकता हैं?

हमारा यथा अर्थों में जो कि धर्म हैं वह ध्यान करने का या ध्यान देने का कर्म ही इतनी योग्यता वाला हैं। हाँ! ध्यान देना ही सही अर्थों में अनंत के हर एक अंश या हिस्सें का यानी समुचित अनंत का धर्म हैं। ध्यान ही धर्म हैं और इसके बिना किया हर कर्म यदि समय, स्थान और उचितता के अनुकूल नहीं हो तो अधर्म हैं।

हमारा जो सही अर्थों में यानी यथार्थ धर्म हैं उससे ही वह सभी योग्यतायें प्राप्त की जा सकती हैं जिनके सभी के बिना सफलता की प्राप्ति की योग्यता तो बहुत दूर की बात; हम उसके या उसकी प्राप्ति के संबंध में सोच भी नहीं सकते। यथा अर्थों में धर्म यानी ध्यान करना या ध्यान देना ही निम्नलिखित सभी योग्यतायें प्राप्त करवा सकता हैं।

• धैर्य, धीरज या सब्र से युक्तता।
• हटी या तपस्वी होकर संयम, तपस्या यानी हट से युक्तता।
• योग्य जिज्ञासु होना।
• योग्य खोजी होना।
• योग्य अंतर्मुखी और बहिर्मुखी अनुभव या अनुभूति कर्ता होना।
• योग्य कल्पना और स्मरण शक्ति से युक्त होना।
• तुलना कर्ता शक्ति से युक्त यानी तार्किक; तुलना करने योग्य होना।
• योग्य यथा अर्थों का चयन कर्ता यानी यथार्थी होना।
• योग्य रचनात्मकता शक्ति से युक्त होना।
• योग्य परिवर्तनात्मक होना।
• सात्विकता होना (चाहें राजसिकता के माध्यम् से हो या तामसिकता के माध्यम् से हो।)
• समता यानी अनंत की वास्तविकता को देख सकनें के योग्य दृष्टिकोण होना।
• कर्म, कर्त्तव्य और धर्म के महत्व से भिज्ञता होना।

'यथार्थ धर्म की सिद्धि होनी चाहिये यानी उसमें बाधा नहीं होनी चाहियें भले ही :-

चाहें कोई यथार्थ धर्म की सिद्धि यानी ध्यान देने या ध्यान करने का कर्म अज्ञानता के परिणाम स्वरूप यानी तामसिकता वश करें बस सिद्धि होनी चाहियें।

उसकी सिद्धि करने वाले उसकी सिद्धि के मार्ग के ज्ञान के परिणाम स्वरूप और मार्ग पर चल कर यथार्थ सफलता को प्राप्त कर सकनें के ज्ञान के परिणाम स्वरूप अर्थात् सात्विकता वश करें बस सिद्धि होनी चाहियें।

सफलता की सिद्धि के ज्ञान के परिणाम स्वरूप जिन्होंने सफलता की प्राप्ति की हैं उनके द्वारा दियें गये पुण्य के माध्यम् से लाभ के लोभ के कारण और उनके दियें पाप के मध्यम् से हानि के भय से धर्म की सिद्धि का कोई कर्म करें यानी राजसिकता वश कोई यथार्थ धर्म की सिद्धि करें बस सिद्धि होनी चाहियें।

यदि सही अर्थों में सात्विकता से इसकी पूरी करने वालो के अनुसार या सात्विकता के अनुसार इसकी पूर्ति या सिद्धि नहीं हो तो इसकी पूर्ति करने वाले को कभी सफलता प्राप्ति नहीं हो सकती।

हमारी सभी नाड़ियां और सुषुम्ना नाड़ी में पायें जानें वाले चक्र समझ के स्तर पर यानी समझ के आयाम में होते हैं न कि भौतिक शारीरिक स्तर पर यानी भौतिक शारीरिक आयाम में इनका निवास होता हैं इससे चेतना से ही इनका दर्शन या अनुभव किया जा सकता हैं न कि हमारें भौतिक नेत्रों से यह संबंध हैं।

हमारी नाड़ियाँ जैसे कि इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना आदि सभी नाड़ियाँ सत्त्व, रज और तम गुणों या गुणों और अवगुणों के हममें एक तय स्तर के अनुपात में होने से निर्मित दृष्टिकोण होते हैं जो कि सफलता के मार्ग को दिखाने वाले होते हैं; जो दृष्टिकोण या नाड़ी सही अर्थों में रहने वाली सफलता का मार्ग दिखाती हैं वह होती हैं यथार्थ देखने वाली नाड़ी या वैज्ञानिकी दृष्टिकोण और अन्य सभी द्वारा दिखायी सफलता निरर्थक होती हैं।

सुषुम्ना नाड़ी वाले सत्य के ज्ञान के कारण परम् सत्य के लियें बाधा नहीं बन सकते।

इडा नाड़ी वाले सत्य को बाधित तो कर सकते हैं परंतु सुषुम्ना नाड़ी वालो के द्वारा उनका सत्य के लियें बाधा बनना पाप के महत्वपूर्ण ज्ञान के माध्यम् से हानि का भय बताने के कारण और पूण्य कर्म के महत्वपूर्ण ज्ञान के माध्यम् से सत्य को बाधित न करने से लाभ का लोभ देने के कारण; पुण्य के या लाभ के लोभ से और पाप या हानि के भय से परम् सत्य के लियें वह बाधा नहीं बन सकते।

पिंगला नाड़ी वालें अज्ञान के परिणाम स्वरूप सत्य के लियें बाधा के अतिरिक्त कुछ भी बन ही नहीं सकते परंतु सुषुम्ना द्वारा स्वयं से और इडा नाड़ी वालो के द्वारा सुषुम्ना नाड़ी वालो के कारण बल पूर्वक उनको ऐसा नहीं करने देने से; वह ऐसा नहीं कर सकते। यही हैं जिनसें यदि यह सत्य के लियें कुछ भी करना चाहें भी; तो सत्य का तो पालन नहीं होगा अपितु उसके समक्ष इनके कारण 'अ' अवश्य लग जायेगा।

● जो सफलता की प्राप्ति करवा सकता है उस ध्यान यानी यथार्थ धर्म की सिद्धि से अब उद्देश्य का या उससे संबंधित ज्ञान कैसे हों?

धैर्य, धीरज या सब्र तथा संयम, हट यानी तप से; प्रबल जिज्ञासु, खोजी, अंतर्मुखी अनुभव कर्ता और बहिमुर्खी अनुभव करने वाला और उस अनुभव का कल्पना कर्ता और योग्य स्मरण कर्ता, तुलना कर्ता यानी तार्किक, यथा अर्थों को चयन करने की योग्यता वाला यथार्थी, अनंत में अनंत के कुसंगठित ज्ञान को ज्ञात कर पश्चात इसके उसकी सुसंगठित रचना कर; उसे स्वयं के एवं अन्य के समझने योग्य कर समझने वाला रचनात्मक स्वयं के उद्देश्य और उससे संबंधित ज्ञान को ज्ञात कर सकता हैं।

● अब जो सफलता की प्राप्ति करवा सकता है उस ध्यान यानी यथार्थ धर्म की सिद्धि के उद्देश्य का या उद्देश्य से संबंधित ज्ञान का महत्व, उसके मायनें अर्थात् जिस ज्ञान को उसने प्राप्त किया उसके सही यानी यथार्थ या सार का भी ज्ञान उसे कैसे ज्ञात हों?

अनंत से संबंधित ज्ञान को; भले ही वह ज्ञान कितना ही आश्चर्य चकित करने वाला हों; उसके दृष्टिकोण के अनुकूल यदि न हों पर सत्य की कसौटी पर वास्तविकता का पर्याय सिद्ध हो रहा हों तो अपने दृष्टिकोण को उस ज्ञान के अनुसार यानी यथा अर्थों में जो सत्य सिद्ध हुआ उसके अनुकूल करने वाला अर्थात् वैज्ञानिक या यथार्थ दृष्टिकोण के अनुसार होने वाला न कि जो सही अर्थों में सत्य सिद्ध हुआ उसे स्वयं के अनुसार करने वाला यदि वह हो; वह परिवर्तनात्मक यानी परिवर्तन को स्वीकार कर सकनें वाला हो; तो ज्ञान जिसे उसने प्राप्त किया या कर रहा होगा उसके महत्व, मायनें यानी अर्थों या सार को भी प्राप्त तथा उसको स्वीकार भी वह कर सकता हैं।

● अनंत परिवर्तनात्मक क्यों हैं और परिवर्तन के मर्म का सार क्या हैं?

दोहराव किसी का भी हो, होता एक अंतराल के बाद ही है। यदि आप परिवर्तनात्मक है; तो उससे परेशानी कैसी? परंतु परिवर्तनात्मक होना भी तो महत्वपूर्ण है; इसके बिना आप आपसे संबंधित सभी के साथ न्याय कैसे करेंगें? क्या स्वयं से संबंधित सभी को एक ही समय पर महत्व देना संभव है? नहीं! यही कारण हैं कि परिवर्तन अनंत हैं। परमात्मा किसी के साथ अन्याय नहीं करते; जिसका जितना महत्व होता हैं; उसे उतना महत्व देते हैं और अनंत में सभी पूर्णतः समान हैं यही कारण है कि; अनंत में जो भी हैं, समान महत्वपूर्ण हैं।

● यह जान लिया कि सही अर्थों की सफलता की प्राप्ति के मार्ग को कैसे ज्ञात करें, जो जाना उसके सार का कैसे भान हो, अब प्रश्न हैं कि जो जाना उसे व्यवहार में कैसे लाया जा सकता हैं?

तो जैसे ध्यान देने या ध्यान करने से सफलता के मार्ग के ज्ञान की प्राप्ति हुयी; उसकी प्राप्ति होने में सहयोग करने वाली सभी योग्यतायें प्राप्त हुयी वैसे ही जैसे और जितना देना चाहियें उतना ध्यान देने से या ध्यान करने से ही जो ज्ञात किया उसे व्यवहार में लानें की भी योग्यता प्राप्त हो जायेंगी। ध्यान देने यानी ध्यान करने से ही यानी यथा अर्थों वालें धर्म की पूर्ति अर्थात् सिद्धि से ही यह भी संभव हो सकेगा।

' एक अधर्मी व्यक्ति कभी किसी भी सफलता की प्राप्ति कर सकनें वाला यानी कभी सफल हो सकनें वाला नहीं हो सकता। उसने यदि सही में सफलता पायी तो निःसंदेह जो यथार्थ धर्म हैं उसका जाने या अंजाने उसके द्वारा पालन किया गया होगा। '

अब इस योग्य बनों की जो आपके लियें समय, स्थान और उचितता यानी आपकी कोई भी प्राथमिकता या यथा अर्थों में उचितता यानी अनंत के हित की सही अर्थों में सुनिश्चितता की प्राथमिकता का महत्व किसकी या किस कर्म की सिद्धि में हैं जानो यानी जानने का कर्म करों पश्चात इसके जो जाना उसके सहयोग से आपके उद्देश्य की सिद्धि करों यानी जो जाना उसे व्यवहार में लाने का कर्म करों और ऐसे सही अर्थों में जो हर छोटी-बड़ी सफलता की अनंत काल तक के लियें सुनिश्चितता करके यथार्थ एकमात्र यानी परम् सफलता की प्राप्ति कर लों।

' जो सही मायनों में धर्म हैं वही सफलता का सुसंगठित और सुव्यवस्थित; हमारी इन्द्रियों और चेतना के अनुभव के द्वारा सत्यापित कियें गयें हैं ऐसे तथ्यों और तर्कों के माध्यम् से ज्ञात किया गया ज्ञान यानी विज्ञान हैं। धर्म ही यथार्थ यानी वैज्ञानिकी दृष्टिकोण के माध्यम् से जाना और फिर सत्यापित किया गया दर्शन हैं। '

- © रुद्र एस. शर्मा (०,० ०)