UJALE KI OR ----SANSMRAN books and stories free download online pdf in Hindi

उजाले की ओर -----संस्मरण

उजाले की ओर ---संस्मरण

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नमस्कार स्नेही मित्रों

हर दिन एकसा नहीं बीतता ,कोई न कोई बदलाव ,कोई न कोई समस्या जीवन में न आए ,यह संभव ही नहीं है |

इन ऊँचे-नीचे ग्राफ़ पर जीवन की गाड़ी चलती ही रहती है |

युवावस्था में फिर भी किसी न किसी प्रकार मनुष्य अपने दिन गुज़ार लेता है लेकिन उम्र के एक कगार पर आकर वह किसी सहारे की तलाश करता ही है |

एक बड़ी उम्र में किसी न किसी का सहारा उसे लेना ही पड़ जाता है |

वह मन के साथ तन से भी शिथिल होता रहता है | उसे ऐसे साथी की आवश्यकता होती है जिससे अपने मन व तन की पीड़ा बाँट सके |

लेकिन यही तो इस आधुनिक परिवेश में कठिन होता जा रहा है |

पहले तो हम विदेशों की बात करते थे लेकिन आज हमारे देशों में ,जहाँ हम संयुक्त परिवार व सभागिता में विश्वास करते हैं ,

वहाँ भी कमोबेश विदेशों की सी समस्या दिखाई देती है | जिस परिवार को देखो ,उसीमें कोई न कोई समस्या मुँह फाड़े खड़ी दिखाई दे जाती है |

ख़ैर ,आज तो मैं आपने इंग्लैंड के एक शहर लैमिंगटन स्पा के एक मॉल की बात साझा करना चाहती हूँ |

लगभग दस वर्ष पूर्व की बात है | मैं इंग्लैंड गई थी और एक मॉल में कुछ खरीदने के लिए अपने मित्रों के साथ गई थी |

मैंने अपना काम कर लिया था लेकिन मेरे साथियों की ख़रीदारी अभी बाकी थी |

मेरा मॉल में घूमने का मन नहीं था इसलिए मैं वहाँ पड़ी हुई एक बैंच पर बैठकर वहाँ के नज़ारों को अपनी दृष्टि में समेटने लगी |

सब लोग शांति से अपनी आवश्यकता का सामान टोकरियों या ट्रौली में डालते हुए आगे बढ़ते जा रहे थे |

अचानक मेरी दृष्टि एक अंग्रेज़ बुज़ुर्ग महिला पर पड़ी जिनकी उम्र काफ़ी लग रही थी|

उनका पूरा शरीर झुककर डबल हो गया था ,कमर बिलकुल झुकी हुई थी और वे और झुककर नीचे से टोकरी उठाने की चेष्टा कर रही थीं |

"मे आई हैल्प यू ?"मैंने अचानक उनके पास पहुँचकर उनसे पूछा |

उन्होंने अपनी झुकी हुई गर्दन उठाकर अपनी आश्चर्य व कृतज्ञता से भरी आँखें बामुश्किल मेरे चेहरे पर चिपका दीं |

कुछ उत्तर नहीं दिया उन्होंने लेकिन जैसे उनकी चुप्पी ,उनकी सहमति थी |

मैंने उनकी टोकरी उठाई और जिधर वो चल रही थीं ,उनके साथ चलने लगी|

उन्हें अपने लिए सेनेटरी का सामान लेना था ,जिस ओर वे इशारा करतीं ,मैं उनका सामान उठाकर उनकी टोकरी में रख देती|

जब उन्होंने अपनी खरीदारी पूरी कर ली तब अपना सिर उठाकर मुझे अपनी आँखों से समझा दिया कि उनकी ख़रीदारी पूरी हो गई है |

मैं उनका सामान लेकर कैश-काउंटर पर आ गई ,वे भी धीरे-धीरे से मेरे पीछे आ गईं थीं |

पेमेंट करके उन्हें बाहर सामान ले जाना था | मैं उनके साथ बाहर भी आ गई ,देखा उन्होंने पार्किंग प्लेस पर एक छोटी गाड़ी खड़ी कर रखी थी |

उन्होंने गाड़ी खोली तो मैंने उनका सामान अंदर रख दिया| उन्होने सीट पर ही सामान रखवा लिया था |

अब टोकरी खाली थी जिसे रखने के लिए मुझे मॉल के अंदर जाना था ,वहाँ मेरे साथी भी मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे |

जैसे ही मैं टोकरी लेकर अंदर जाने लगी ,उन्होंने मेरा हाथ पकड़कर उसे चूम लिया और बोलीं "थेंक यू ---सो काइंड ---"

मैंने उनके झुके हुए कंधे पर सहानुभूति से हाथ रखा ,उनकी आँखों में आँसू भरे हुए थे |

फिर वे मुड़ीं ,ड्राइविंग सीट पर बैठ गईं और एक बार फिर से मेरी ओर कृतज्ञता भरी दृष्टि से देखा |

मुझे आश्चर्य हो रहा था लेकिन मैं उन्हें गाड़ी चलाते हुए देख रही थी |

अचानक मेरे मुँह से एक 'आह!'निकल गई | उनकी वह दृष्टि मैं इतने वर्षों के बाद भी नहीं भुला पाई हूँ |

वह कभी भी मुझे याद आ जाती हैं |

हमारे देश में भी अब इस प्रकार के दृश्य दिखाई देने लगे हैं ,सोचकर मन में बेचैनी होने लगती है |

काश ! यह पीढ़ी संयुक्त परिवार के पैटर्न को फिर से अपना ले !!

आपकी मित्र

डॉ. प्रणव भारती

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