पप्पा जल्दी आ जाना : एक पारलौकिक सत्य कथा - भाग 3 Shwet Kumar Sinha द्वारा थ्रिलर में हिंदी पीडीएफ

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पप्पा जल्दी आ जाना : एक पारलौकिक सत्य कथा - भाग 3

....आधी रात में अनोखी को हवा से बातें करते देख उसकी मां पुष्पा भयभीत हो उठी। लपककर उसने बेटी को गोद में उठाया और कमरे के भीतर लेकर आ गई। फिर दरवाजे पर कुंडी लगा लिया, जिससे वह दुबारा बाहर न जाने पाए।

अनोखी को अपने सीने से सटा पुष्पा उसे सुलाने का प्रयास करती रही। लेकिन अनोखी अभी भी किसी से बुदबुदा कर बातें कर रही थी । "अब फिर से मुझे छोड़कर कहीं नहीं जाना। अच्छा, अब मुझे नींद आ रही है और मैं सो रही हूँ। तुम भी जाकर सो जाओ।"

“किससे बात कर रही हो, बेटा?” - पुष्पा ने अनोखी के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा।

“पापा आए थें मां। उन्होंने मुझे रोने से मना किया है और कहा है कि मेरे लिए ढेर सारे खिलौने, मिठाइयाँ, कपड़े लाएंगे। तुम भी नहीं रोना। पप्पा ने कहा है कि मैं न रोऊं और तुम्हे भी नही रोने दूं।” - अपनी मां के आंखों से आंसू पोछते हुए अनोखी ने बड़े ही प्यार से कहा।

अगली सुबह ।

अनोखी थोड़ी देर से उठी। पर आज वह थोड़ी बदली-बदली सी थी। न चेहरे पे शिकन, न रोना-धोना और न ही कलेजे पे कटार चलाने वाले कोई सवाल। उल्टे अपनी तुतली ज़ुबान में उसने मां से खुद को स्कूल के लिए तैयार कर देने को कहा।

उसके अचानक से बदले व्यवहार पर पुष्पा हैरत में थी। पर ननद अनिला ने उसे समझाया कि अनोखी को स्कूल जाने दे। जगह बदलेगा, बच्चों के बीच रहेगी तो थोड़ा पापा की याद से उबर पाएगी।

अनोखी को नहाधोकर पुष्पा उसे कमरे में लेकर आई और स्कूल के लिए तैयार करने लगी तो अनोखी ने बड़े ही समझदारी से अपनी माँ को रोकते हुए कहा-“मां, आप जाकर अपना काम करो। मैं खुद से ही कपड़े पहन लूँगी। पापा ने मुझे अपना सारा काम खुद से ही करने के लिए कहा है।"

अनोखी की बातें बड़ी अजीब थी। जो बच्ची अभी तक इतना चीख-चिल्ला रही थी, अचानक से वह इतनी समझदारी की बातें कैसे करने लगी। उसके बदले व्यवहार पर पुष्पा डरी हुई भी थी कि कहीं पिता की मृत्यु से अनोखी के दिमाग पर विपरित प्रभाव न पड़ा हो!

खैर....अनोखी स्कूल के लिए तैयार हुई और छोटे चाचा विमलेश ने उसे साइकिल पर बिठा स्कूल पहुंचा दिया। लौटते समय उसने अनोखी को बताया कि छुट्टी होने पर वह उसे लेने आएगा।

चेहरे पर चमक भरी मुस्कान बिखेरे अनोखी ने अपना सिर हिलाकर जाते हुए विमलेश को अलविदा किया।

विमलेश को यह थोड़ा अजीब लगा, पर बहुत दिनों के बाद अनोखी के चेहरे पर मुस्कान देख उसके मन को थोड़ा सुकून मिला और शांत मन से वह घर लौट गया।

अनोखी के स्कूल गए अभी करीब दो घंटे हुए थे और छुट्टी होने में काफी देर थी। तभी घर के बाहर गली से अनोखी की आवाज आई। दरवाजे पर खड़ी होकर उसने पुकारा- "खोलो खोलो दरवाजा खोलो। मम्मा, मैं हूं अनोखी। दरवाजा खोलो।"

अनोखी की आवाज़ सुन पुष्पा ने भागकर दरवाजा खोला। भीतर कमरे से निकलकर विमलेश भी तेज़ी से बाहर आँगन में आ गया।

"तुम स्कूल से इतनी जल्दी कैसे आ गई, वो भी अकेले! तुम्हें यहां तक किसने पहुंचाया?" - पुष्पा ने भयभीत होकर अनोखी से पूछा।

पास खड़े विमलेश के मन में भी यही सवाल था, जो स्कूल में छुट्टी होने पर अनोखी को लाने के लिए जाने वाला था। लेकिन अभी तो केवल ग्यारह ही बजे थें।

"मैं पापा के साथ आयी हूँ। मुझे दरवाजे तक छोड़ वह किसी जरूरी काम से कहीं चले गए।”- अनोखी ने मासूमियत के साथ उत्तर दिया।...