मैं क्यो किसी पर भी उतना ही ध्यान देने लगता हूँ; जितना शायद ही कोई खुद पर भी देगा, किसी दूसरें को तो बात बहुत दूर की हैं, " जैसे कि मेरे लियें उसमें और मुझमें कोई अंतर ही नहीं हैं"?
चेतना, जागरूकता या होश ही अपनी आत्मा हैं; इसी का उससे हुआ अनुभव आत्म अनुभव और इसी शून्य या अनंत आत्मा का ज्ञान यानी अनुभव या अनुभूति ही आत्म ज्ञान हैं हाँ! यही आत्म साक्षात्कार हैं। एक होश ही हैं जो कि मन यानी भाव, स्मृति, विचार, कल्पना तथा इन सभी को करने की योग्यता, कर्म इन्द्रियाँ, ज्ञान इन्द्रियाँ तथा इनके अतिरिक्त भौतिक शरीर का शेष कण-कण से भिन्न हैं। आप इस आत्मा को मन-मस्तिष्क से अनुभव के आधार पर अभी समझ सकते हैं परंतु यदि इस अनंता के दर्शन करना चाहते हैं यानी अपनी आत्मा यानी स्वयं के दर्शक बनना चाहते हैं तो अपनी जागरूकता को; हाँ! उस दर्शक को जो आपके तन रूपी कपड़ो से अंदर हैं उसे स्वयं के दर्शन के कर्म में लगायें; उन सभी कर्मों से पूरी तरह या कुछ को हटाकर; जिनमें उसे जाने-अंजाने आप लगायें हुयें हैं। कर्म जैसे कि सांस लेने और छोड़ने में, विचारनें, सूंघने, भौतिक नेत्रों से देखने, स्पर्श करनें, स्वाद लेनें, हातों, पगों या पैरों, लिंग या योनि, गुदा आदि से कर्म करने में; अपने फेफड़ों आदि से होश में यानी जाने या बेहोशी अर्थत् अंजानें में; तब आप आत्म साक्षात्कार कर सकेंगे और सभी कर्मों के साथ जब आपकी चेतना को उसके दर्शन नामक कर्म में भी लगायेंगे यानी होश पूर्वक सभी कर्म करने के साथ होश से होश को देखने का भी कर्म करेंगें; तब ही आत्मा से परमात्मा, चेतना या चैतन्य से परम् चैतन्य में एक होकर मोक्ष में होंगे।
जो स्वयं से स्वयं का अनुभव कर लेता हैं वह अपने मन या मस्तिष्क से अपने अनुभव के आधार पर समझ जाता हैं कि वह स्वयं के तन रूपी कपड़ों तक सीमित नहीं हैं वरन या बजायें इसके असीमित या अनंत हैं; यदि योग्यता हो तो अनंत के छोटे से कण से लेकर समुचे अनंत का अनुभव कर सकता हैं यानी स्वयं के अनंत अस्तित्व का साक्षी बन सकता हैं; चाहें वह अस्तित्व साकार हो या निराकार।
यह कारण पर्याप्त हैं या इसी कारण स्वभाविक हैं किसी का भी जैसा वह स्वयं से प्रेम करता हैं वैसा ही सभी से प्रेम करना क्योंकि अब उसका स्वयमत्व उसके तन तक सीमित न होकर; तन तक ही सीमित स्वयं के अज्ञान के परें अनंत हो गया हैं। अतः उसका प्रेम उसके ज्ञान का परिणाम हुआ यानी सात्विकता वाला हुआ तो वह अनंत से प्रेम करेंगा। जिस तरह तामसिक और राजसिक प्रेम करने वाले यानी अज्ञान के परिणाम स्वरूप या पुण्य या लाभ के लोभ से और यानी हानि के भय से प्रेम करने वालें या जिनका प्रेम हैं; जिस स्तर का सुख उन्हें ज्ञात यानी वह उसका प्रेम अनुभव हैं, वह जिनसे प्रेम करते हैं उन्हें उसी स्तर का प्रेम अनुभव देना चाहेंगे उसी तरह प्रेम को सही मायनों में करनें वाले यानी ज्ञान के परिणाम स्वरूप जिन्हें प्रेम हैं वैसा यानी सात्विक प्रेम करने वाले जैसा या जिस स्तर का वह सुख जानता हैं; वह अपने प्रेमी को उस स्तर का सुख देना चाहेंगे।
" मैं प्रेम के ज्ञान के परिणम स्वरूप अनंत के कण-कण से लेकर समुचे अनंत को प्रेम करता हूँ परंतु मेरा प्रेम मनुष्यों की तरह नहीं हैं; जिससें कि मैं धारा को नीचे की और बहाना चाह लूँ अपितु वरन मेरा प्रेम परम् या सर्वश्रेष्ठ प्रेम हैं; हर सात्विक प्रेम कर्ता की तरह और योग्य यानी परमात्मा के प्रेम की तरह; जो कि अपने प्रेमी को धारा नहीं अपितु राधा बनाना चाहें क्योंकि धारा परम् या सर्वाधिक सुख से हमें दूर लेकर जाती है वरन राधा यानी चैतन्य की उल्टी धारा परम् सुख के निकट लाती हैं। मुझें जिस पर भी मैं अधिक से अधीक ध्यान देता हूँ उसके लियें सुख चाहिये और वह क्यों; पूर्ण यदि मैंने आप पर जितना ध्यान अनंत काल से जो दिया हैं और देता आ रहा हूँ; इसे यानी इस लेख को बस उस खातिर जब भी पढ़ें पूर्ण ध्यान से पढ़ें; जान जायेंगे और यदि जिज्ञासा न हो; तो आपसे विनती हैं कि थोड़ा सा भी आगें न बड़े।
■ प्रेम क्या हैं?
जब किसी को हमारें सुख में सुख का अनुभव हो; यही तो हैं उसका हमारें लियें प्रेम यही कारण हैं जिससे हमें प्रेम करने वाला हमें सुख देना चाहता हैं; सदैव हमारी संतुष्टि की चाहत करता हैं; यहाँ तक की यह भी कहना अनुचित न होगा कि जो सही मायनों में हमारी संतुष्टि न चाहें वह जो करता हैं वह प्रेम नहीं हो सकता; वह तो कुछ और ही होगा ठीक उस आदमी की तरह जिसे एक पक्षी से चाहत हो गयी हैं तो यदि वह उस पक्षी को पिंजरे में कैद कर ले जिससे कि वह उससे दूर न जा सकें; अज्ञान के कारण यह समझने से की इसमें ही उस आदमी की संतुष्टि हैं तो वह चाहत उस आदमी का स्वार्थ वश मोह हैं; अरें! प्रेम होता तो उसे मुक्ति दे देता; खुले आसमा में यह सोच कर छोड़ देता की एक पंक्षी की खुशी; उसकी संतुष्टि स्वतंत्र या मुक्त रहने में हैं; और ऐसा कर यदि वह उसकी संतुष्टि से, सुख से संतुष्ट हो जायें तो यह प्रेम हैं। इसमें जो संतुष्टि उसे मिलेगी वह उसका अज्ञान नहीं अपितु वह सही मायनों में होगी।
■ अब सुख क्या हैं और क्या करने में सुख हैं?
इच्छा पूर्ति से मिलने वाली संतुष्टि का आनंदित करने वाला अनुभव ही सुख हैं।
हमारें भौतिक, भावनात्मक, विचारात्मक, सन्देहात्मक, आत्मिक, अनंत तथा शून्य साकार और निराकार आत्म शरीर यानी कर्म इन्द्रियाँ, ज्ञान इन्द्रियाँ, मन-मस्तिष्क, चेतना और चेतन-अचेतन हमसें संबंधित अन्य सब यानी हमारा साकार और निराकार शून्य और अनंत अस्तित्व अपनी आवश्यकताओं के अनुसार हमसें इच्छा करता हैं।
यदि हम होश पूर्वक हों या जागरूक अर्थात् चैतन्य हो तो हम सहजता से उन इच्छाओं का अनुभव कर उनके आधार पर उनका ज्ञान कर सकते हैं। जो जिस स्तर की जागरूकता वाला होता हैं उसे उतनी अधिक अपनी शारीरिक आवश्यकता का ज्ञान होता हैं; जो जिस स्तर तक अपनी शारीरिक आवश्यकता का ज्ञान कर लेता हैं; वह यदि उन इच्छाओं को बिना समझें जाने या अंजाने में दबायें तो सदैव असंतुष्ट रहेगा, यदि वह बिना समझें अपनी इच्छाओं की पूर्ति करता रहेगा तो सदैव असंतुष्ट रहेगा परंतु यदि वह अपनी इच्छाओं को होश पूर्वक समझें तथा समय और स्थान के अनुकूल होने पर सभी इच्छाओं की पूर्ति करें तथा फिर जो अनुकूल हो उन इच्छाओं को ही जन्म दें तथा अनुचित इच्छाओं को होश पूर्वक जन्म लेते देखते ही बाधित कर धीरे-धीरे अपनी ऐसी इच्छा जो अनंत के लिये अनुकूल न हो; उनका जन्म ही बंद कर दें तो अनुकूल इच्छा क्योंकि समय तथा स्थान के वह अनुकूल हैं; समय के साथ पूर्ण हो ही जायेगी यानी वह असंतोष का कारण नहीं बन पायेगी तथा जो इच्छा समय, स्थान और उचितता के अनुकूल न हो; उनके जन्म ही नहीं लें सकनें से वह भी असन्तुष्टि को अंजाम न दें पायेगी। होगी तो केवल संतुष्टि और संतुष्टि से अनुभव होने वाला आनंद ही तो सुख हैं।
■ अब उचित-अनुचित इच्छा क्या हैं और क्या करना उचितानुकूल इच्छा हैं?
जिसमें हमारें कारण सही मायनों में अनंत का अहित न हो और अनंत के कारण हमारा अहित न हों ऐसी ही इच्छा करना उचितानुकूल हैं।
जो इच्छा दूसरों की ऐसी इच्छाओं की पूर्ति को बाधित न करें जिसकी पूर्ति इच्छा कर्ता के कारण अनंत के हित यानी संतुष्टि अर्थात् सुख वाली हो और अपनी भी ऐसी ही इच्छाओं को किसी अन्य को बाधित न करने दें ऐसी इच्छा उचित और जिससें अनुकूल भी हैं और इसके अतिरिक्त सभी इच्छा अनुचित हैं।
■ प्रेम विज्ञान
किसी की भी संतुष्टि से जिस तरह उसे सुख की प्राप्ति होती हैं; वैसी ही या उससे अधिक हमें भी यदि हो तो यह उसके लिये हमारा उसके जितना या उससे भी अधिक उसके लियें प्रेम हैं यदि हमें उसके उसका सही मायनों में जो सुख हैं उससे सुख अनुभव हो तो ज्ञान के ऐसे अनुभव के परिणाम स्वरूप होने से जो प्रेम हमें हो वह सात्विक या परम् प्रेम हैं। यह प्रेम हमें स्वयं से संबंधित किसी से भी हो सकता हैं; वह किसी भी, कोई भी आत्मा हों। इसका सर्वश्रेष्ट उदाहरण हैं आत्मा और परमात्मा का प्रेम।
किसी की भी संतुष्टि से जिस तरह उसे सुख की प्राप्ति होती हैं; वैसी ही या उससे अधिक हमें भी यदि हो तो यह उसके लिये हमारा उसके जितना या उससे भी अधिक उसके लियें प्रेम हैं यदि हमें उसके उसका सही मायनों में जो सुख हैं उससे सुख अनुभव हो तो ज्ञान के ऐसे अनुभव के परिणाम स्वरूप होने से जो प्रेम हमें हो वह सात्विक या परम् प्रेम हैं। यह प्रेम हमें स्वयं से संबंधित किसी से भी हो सकता हैं; वह किसी भी, कोई भी आत्मा हों। इसका सर्वश्रेष्ट उदाहरण हैं आत्मा और परमात्मा का प्रेम।
यदि किसी को सत्य में प्रेम हो या सात्विक प्रेम हो तो जो जिस स्तर की संतुष्टि का अनुभव करता है या जो जिस संतुष्टि के स्तर पर होता हैं वह अपने प्रेमी को उस स्तर की संतुष्टि से मिलने वाली आनंद की अनुभूति अनुभव करवाना चाहता हैं और उसके इस परम् अनुभव से स्वयं भी सुख अनुभव करता हैं।
■ प्रेम के सात स्तर
१. भौतिक शारीरिक इच्छा पूर्ति या मुक्ति से मिलने वाली संतुष्टि से होने वाला सुखी अनुभव "प्रेम" :-
जो शारीरिक सुख के अतिरिक्त किसी अन्य सुख का अनुभव न कर सकनें से या किसी अन्य पर ध्यान न दें सकनें से इसी सुख को प्राथमिकता देने योग्य या सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानते हैं उनकी चेतना या ध्यान शारीरिक स्तर की ही होती हैं और वह इसी स्तर के सुख की प्राप्ति में ध्यान देना या अपने चैतन्य रूपी ऊर्जा को उपयोग करना सर्वाधिक श्रेष्ठ मानते हैं।
ऐसे स्तर वाले भौतिक शारीरिक सुख देने को ही; या जिनसे यह प्रेम करते हैं उनका उनके भौतिक शारिरिक सुख पर ही ध्यान देना ही उसे प्रेम करना मानेंगे और इसी भौतिक शारिरिक सुख को किसी से प्राप्त करना ही; या देने वाले का उनके भौतिक शारीरिक सुख को ही प्राथमिकता या ध्यान देना उनके लियें उनका प्रेम होगा।
यदि कोई शारीरिक सुख के अतिरिक्त किसी अन्य सुख के अनुभव से भिज्ञता वाला नहीं होगा तो; उसे शारीरिक सुख की इच्छा पूर्ति के अतिरिक्त अन्य कोई सुख सर्वश्रेष्ठ न लगेगा अतः वह प्रेम वश अपने प्रेमी को ऐसा सुख देना ही होश पूर्वक या होश से परें प्रेम करना समझेगा और उसके भी भौतिक शारीरिक सुख मिलने पर वह स्वयं सुख अनुभव करेंगा। केवल शारीरिक सुख जैसे कि भोजन की भूख, प्यास, काम आदि इच्छा से मिलने वाली संतुष्टि से अनुभव होने वाला सुख। होश के बिना केवल शारीरिक स्तर तक प्रेम करने वालो के उदाहरण यह कि होश के परे वह सभी जो जो भौतिक शरीर की इच्छा पूर्ति से मिलने वाली संतुष्टि के सुख को ही सर्वश्रेष्ठ समझते हैं और अज्ञानता वश अन्य सभी स्तर के प्रेम को व्यर्थता का पर्याय मानते हैं और होश पूर्वक इस स्तर का समय, स्थान और उचितता के अनुकूल होने पर प्रेम करने वाले पशु, पक्षी, मनुष्य आदि परंतु यह अपने प्रेमी को आवश्यक न होने पर इससे भी परे वाले स्तर का प्रेम दें सकते हैं क्योंकि यह उनसे भी भिज्ञ हो सकते हैं।
२. भावनात्मक शारीरिक या भावनात्मक तंत्र की इच्छा पूर्ति या मुक्ति से मिलने वाली संतुष्टि से होने वाला सुखी अनुभव "प्रेम" :-
जो भावनात्मक सुख के अतिरिक्त किसी अन्य उस योग्य या उससे अधिक श्रेष्ठ सुख का अनुभव न कर सकनें से या किसी अन्य पर ध्यान न दे सकनें से इसी सुख को प्राथमिकता देने योग्य या सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानते हैं उनकी चेतना भावनाओं के स्तर की ही होती हैं और वह चेतना इसी स्तर के सुख की प्राप्ति में ध्यान देना सर्वाधिक श्रेष्ठ मानते हैं।
ऐसे स्तर वाले भावनात्मक सुख देने को ही या प्रेमी के इसी सुख का ध्यान रखना या देना ही प्रेम करना मानेंगे और इसी सुख को किसी से प्राप्त करना ही या इनके इसी सुख का ध्यान रखना का देना ही इनके लियें उनका प्रेम होगा।
यदि कोई भावनात्मक सुख के अतिरिक्त किसी अन्य सुख के अनुभव से भिज्ञता वाला नहीं होगा तो; उसे भावनात्मक सुख की इच्छा पूर्ति के अतिरिक्त अन्य कोई सुख सर्वश्रेष्ठ न लगेगा अतः वह प्रेम वश अपने प्रेमी को ऐसा सुख देना ही जाने या अनजाने प्रेम करना समझेगा और उसको भी भावनात्मक सुख मिलने पर वह स्वयं सुख अनुभव करेंगा। केवल भावनात्मक सुख जैसे कि भय के स्थान पर अभय, घृणा की जगह प्रेम भाव, क्रोध की जगह दया आदि इच्छा से मिलने वाली संतुष्टि से अनुभव होने वाला सुख। भावनात्मक स्तर तक प्रेम करने वालो के उदाहरण यह कि होश के परे वही जो भौतिक शारीरिक सुख और भावनात्मक सुख में से भावनात्मक सुख को ही सर्वश्रेष्ठ मानते हैं और अन्य सुखों से भिज्ञता की कमी के कारण उन्हें व्यर्थ समझते हैं और होश पूर्वक इस स्तर का समय, स्थान और उचितता के अनुकूल होने पर प्रेम करने वाले मनुष्य, देवता आदि यह अपने प्रेमी को आवश्यक न होने पर इससे भी परे वाले स्तर का प्रेम दें सकते हैं क्योंकि यह उनसे भी भिज्ञ हो सकते हैं।
३. सन्देहात्मक या विचारात्मक शारीरिक इच्छा पूर्ति या मुक्ति से मिलने वाली संतुष्टि से होने वाला सुखी अनुभव "प्रेम" :-
जो विचारात्मक शारीरिक सुख के अतिरिक्त किसी अन्य उस योग्य या उससे अधिक श्रेष्ठ सुख का अनुभव न कर सकनें से इसी सुख को प्राथमिकता देने योग्य या सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानते हैं या इसी सुख पर ध्यान देते हैं उनकी चेतना संदेह और विचारों के स्तर की होती हैं और वह चेतना इसी स्तर के सुख की प्राप्ति में ध्यान देना सर्वाधिक श्रेष्ठ मानती हैं।
ऐसे स्तर वाले विचारात्मक शारिरिक सुख देने को ही या प्रेमी के इसी सुख पर ध्यान देना ही प्रेम करना मानेंगे और इसी सुख को किसी से प्राप्त करना या किसी का इनके इसी सुख पर ध्यान देना ही इनके लियें उनका प्रेम होगा।
यदि कोई विचारात्मक सुख के अतिरिक्त किसी अन्य सुख के अनुभव से भिज्ञता वाला नहीं होगा तो; उसे विचारात्मक या सन्देहात्मक शारीरिक सुख की इच्छा पूर्ति के अतिरिक्त अन्य कोई सुख सर्वश्रेष्ठ न लगेगा अतः वह प्रेम वश अपने प्रेमी को ऐसा सुख देना ही जाने या अनजाने प्रेम करना समझेगा और उसको भी विचारात्मक सुख मिलने पर वह स्वयं सुख अनुभव करेंगा। केवल विचारात्मक सुख जैसे कि जिज्ञासा या संदेह के स्थान पर समाधान, समस्या के स्थान पर समाधान आदि इच्छा से मिलने वाली संतुष्टि से अनुभव होने वाला सुख। विचारात्मक या सन्देहात्मक स्तर तक प्रेम करने वालो के उदाहरण यह कि होश के परे वही जो भौतिक शारीरिक सुख, भावनात्मक सुख और सन्देहात्मक या विचारात्मक शारीरिक सुख में से विचारात्मक या सन्देहात्मक सुख को ही सर्वश्रेष्ठ मानते हैं और अन्य सुखों से भिज्ञता की कमी के कारण उन्हें व्यर्थ समझते हैं और होश पूर्वक इस स्तर का समय, स्थान और उचितता के अनुकूल होने पर प्रेम करने वाले मनुष्य, देवता आदि परंतु यह अपने प्रेमी को आवश्यक न होने पर इससे भी परे वाले स्तर का प्रेम दें सकते हैं क्योंकि यह उनसे भी भिज्ञ हो सकते हैं।
४. मानसिक शारीरिक इच्छा पूर्ति या मुक्ति से मिलने वाली संतुष्टि से होने वाला सुखी अनुभव "प्रेम" :-
जो मानसिक, काल्पनिक या मनस् शारीरिक सुख के अतिरिक्त किसी अन्य उस योग्य या उससे अधिक श्रेष्ठ सुख का अनुभव न कर सकनें से इसी सुख को प्राथमिकता या ध्यान देने योग्य या सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानते हैं और इसी पर ध्यान देते हैं और उनकी चेतना मन के स्तर की होती हैं और वह चेतना इसी स्तर के सुख की प्राप्ति में ध्यान देना सर्वाधिक श्रेष्ठ मानती हैं।
ऐसे स्तर वाले मानसिक शारिरिक सुख देने को ही प्रेम करना या प्रेमी के ऐसी ही सुख पर ध्यान देना उससे प्रेम करना मानेंगे और इसी सुख को किसी से प्राप्त करना या किसी के द्वारा इनके इसी सुख का ध्यान रखना या देना ही इनके लियें उनका प्रेम होगा।
यदि कोई मानसिक सुख के अतिरिक्त किसी अन्य सुख के अनुभव से भिज्ञता वाला नहीं होगा तो; उसे मानसिक या काल्पनिक शारीरिक सुख की इच्छा पूर्ति के अतिरिक्त अन्य कोई सुख सर्वश्रेष्ठ न लगेगा यानी वह केवल सपनें देखेगा और उन्हें साकार करने के लियें अपनी चेतना का उपयोग करेगा अतः वह प्रेम वश अपने प्रेमी को ऐसा सुख देना ही जाने या अनजाने प्रेम करना समझेगा और उसको भी मानसिक सुख मिलने पर वह स्वयं सुख अनुभव करेंगा। केवल मानसिक शारीरिक सुख जैसे कि काल्पनिक स्वप्न के स्थान पर उसके स्वप्न को साकार करने की इच्छा से मिलने वाली संतुष्टि से अनुभव होने वाला सुख। मानसिक स्तर तक प्रेम करने वालो के उदाहरण यह कि होश के परे वही जो भौतिक शारीरिक सुख, भावनात्मक सुख और सन्देहात्मक या विचारात्मक शारीरिक सुख और मानसिक सुख में से मानसिक सुख को ही सर्वश्रेष्ठ मानते हैं क्योंकि इनकी चेतना इसी स्तर तक होती हैंऔर अन्य सुखों से भिज्ञता की कमी के कारण उन्हें व्यर्थ समझते हैं और होश पूर्वक इस स्तर का समय, स्थान और उचितता के अनुकूल होने पर प्रेम करने वाले मनुष्य, देवता आदि परंतु यह अपने प्रेमी को आवश्यक न होने पर इससे भी परे वाले स्तर का प्रेम दें सकते हैं क्योंकि यह उनसे भी भिज्ञ हो सकते हैं।
५. आत्मिक इच्छा पूर्ति या मुक्ति से मिलने वाली संतुष्टि से होने वाला सुखी अनुभव "प्रेम" :-
जो आत्मिक शारीरिक सुख के अतिरिक्त किसी अन्य उस योग्य या उससे अधिक श्रेष्ठ सुख का अनुभव न कर सकनें से इसी सुख को प्राथमिकता या ध्यान देने योग्य या सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानते हैं और इसी पर ध्यान देते हैं और उनकी चेतना आत्म बोधि आत्मिक स्तर की होती हैं और वह चेतना इसी स्तर के सुख यानी आत्म अनुभूति या अनुभव में ही स्थिर रहना सर्वाधिक श्रेष्ठ मानती हैं।
ऐसे स्तर वाली आत्मा आत्मिक शारीरिक सुख देने यानी अपने प्रेमी को उसकी वास्तविकता से परिचित करवानें या आत्म साक्षात्कार या उसकी वास्तविकता से साक्षात्कार करवानें को ही प्रेम करना या प्रेमी को आत्म बोध को उपलब्ध कराना ही अर्थात् हर आत्मा की तरह उसकी भी आत्मा की जो एक मात्र इच्छा यानी उसके अनुभव की और उसकी अनंत काल तक रहने कि या उपस्थिति का बोध और अनुभव की इच्छा की पूर्ति से मिली वाली संतुष्टि से प्राप्त सुख पर ध्यान देना ही उससे प्रेम करना मानेंगी और इसी सुख को किसी से प्राप्त करना या किसी के द्वारा इनके इसी सुख का ध्यान रखना या देना ही इनके लियें उनका प्रेम होगा।
यदि कोई आत्मिक सुख के अतिरिक्त किसी अन्य सुख के अनुभव से भिज्ञता वाला नहीं होगा तो; उसे आत्मिक शारीरिक सुख की इच्छा पूर्ति के अतिरिक्त अन्य कोई सुख सर्वश्रेष्ठ न लगेगा यानी वह केवल जाग्रत, स्वप्न और सुसुप्ति अवस्ता का दर्शक बनने में या स्वयं के दर्शन या अनुभव को करने में अपनी चेतना का उपयोग करेगा अतः वह प्रेम वश अपने प्रेमी को ऐसा सुख देना ही जाने या अनजाने प्रेम करना समझेगा और उसको भी आत्मिक सुख मिलने पर वह स्वयं सुख अनुभव करेंगा। केवल आत्मिक शारीरिक सुख जैसे कि मैं क्षण भंगुर नहीं मेरे तन रूपी कपड़े ऐसेहैं और मैं तो अपितु अनादि और अनंत हूँ इससे मिलने वाली संतुष्टि से अनुभव होने वाला सुख। आत्मिक स्तर तक प्रेम करने वालो के उदाहरण यह कि देवता आदि यानी होश के परे वही यानी जिनका होश अपने एक छोटे से उस भाग तक या चैतन्य के उस अत्यंत छोटे भाग तक सीमित हैं, जो कि शरीर के कारण संकुचितता के होने से यह ही नहीं जानता कि मेरी ही तरह अविभाजित छोटे छोटे अलग अलग चैतन्य या आत्मा नहीं हैं अपितु जो हैं एक ही हैं यानी मैं हूँ यह उचितता नहीं अपितु मैं ही हूँ यही वास्तविकता हैं और यहाँ तक कि जो मैं नहीं भी हूँ वह भी मैं ही हूँ यह यथार्थ सत्य हैं। जो भौतिक शारीरिक सुख, भावनात्मक सुख और सन्देहात्मक या विचारात्मक शारीरिक सुख, मानसिक सुख तथा आत्मिक सुख में से आत्मिक सुख यानी अनंत काल तक रहने वाले छोटे से स्वमं के अनुभव ही को या साक्षात्कार को करना यानी आत्मिक शारिरिक सुख को ही प्राथमिकता देना सर्वश्रेष्ठ मानते है और अन्य सुखों से भिज्ञता की कमी के कारण उन्हें व्यर्थ समझते हैं और होश पूर्वक इस स्तर का समय, स्थान और उचितता के अनुकूल होने पर प्रेम करने वाले देवता, परम् या सर्वश्रेष्ठ सभी आत्मा परंतु यह अपने प्रेमी को आवश्यक न होने पर इससे भी परे वाले स्तर का प्रेम दें सकते हैं क्योंकि यह उनसे भी भिज्ञ हो सकते हैं।
६. ब्रह्म शारीरिक इच्छा पूर्ति या मुक्ति से मिलने वाले अनुभव से होने वाली संतुष्टि रूपी सुख की अनुभूति "प्रेम" :-
जो ब्रह्म शारीरिक सुख के अतिरिक्त किसी अन्य उस योग्य या उससे अधिक श्रेष्ठ सुख का अनुभव न कर सकनें से इसी सुख को प्राथमिकता या ध्यान देने योग्य या सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानते हैं और इसी पर ध्यान देते हैं और उनकी चेतना अनंत या समुचे "मैं" की अनुभव कर्ता ब्रह्म स्तर की होती हैं और वह अनंत चेतना इसी स्तर के सुख यानी आत्म अनुभूति या अनुभव में ही स्थिर रहना सर्वाधिक श्रेष्ठ मानती हैं।
ऐसे स्तर वाली चेतना ब्रह्म शारीरिक सुख देने यानी अपने प्रेमी को उसकी पूर्ण वास्तविकता से परिचित करवानें या उसके "मैं" से साक्षात्कार या उसकी वास्तविकता से साक्षात्कार करवानें को ही प्रेम करना या प्रेमी को समुचे मैं के बोध को उपलब्ध कराना ही अर्थात् हर चेतना की तरह उसको भी उसकी जो एक मात्र इच्छा यानी उसके समुचे अस्तित्व केअनुभव की और उसकी अनंत काल तक रहने कि या उपस्थिति का बोध और अनुभव की इच्छा की पूर्ति से मिली वाली संतुष्टि से प्राप्त सुख पर ध्यान देना ही उससे प्रेम करना मानेंगी और इसी सुख को किसी से प्राप्त करना या किसी के द्वारा इनके इसी सुख का ध्यान रखना या देना ही इनके लियें उनका प्रेम होगा।
यदि कोई ब्रह्म शारिरिक सुख के अतिरिक्त किसी अन्य सुख के अनुभव से भिज्ञता वाला नहीं होगा तो; उसे ब्रह्म शारीरिक सुख की इच्छा पूर्ति के अतिरिक्त अन्य कोई सुख सर्वश्रेष्ठ न लगेगा यानी वह केवल जाग्रत, स्वप्न और सुसुप्ति अवस्ता का दर्शक बनने में या स्वयं के समुचे अस्तित्व का बोध कर्ता बनने से या अपने समुचे अनुभव को करने में अपनी चेतना का उपयोग करेगा अतः वह प्रेम वश अपने प्रेमी को ऐसा सुख देना ही जाने या अनजाने प्रेम करना समझेगा और उसको भी ब्रह्म बोध के सुख मिलने पर वह स्वयं सुख अनुभव करेंगा। केवल आत्मिक शारीरिक सुख जैसे कि मैं क्षण भंगुर नहीं मेरे तन रूपी कपड़े ऐसे हैं और मैं तो अपितु अनादि और अनंत काल तक और मैं ही अनंत साकार अस्तित्व हूँ इससे मिलने वाली संतुष्टि से अनुभव होने वाला सुख। ब्रह्म शारीरिक स्तर तक प्रेम करने वालो के उदाहरण यह कि स्वयं परमात्मा या होश के परे वही यानी जिनका होश अपने समुचे उस भाग पर चैतन्य के उस अनंत अस्तित्व तक यानी असीमित हैं, जो कि शरीर के परे होने से यह जानता हैं कि मेरी ही हर अविभाजित छोटे छोटे अलग अलग चैतन्य या आत्मा नहीं हैं अपितु जो हैं एक ही हैं यानी मैं हूँ यह उचितता नहीं अपितु मैं ही हूँ यही वास्तविकता हैं और यहाँ तक कि जो मैं नहीं भी हूँ वह भी मैं ही हूँ यह यथार्थ सत्य हैं। जो भौतिक शारीरिक सुख, भावनात्मक सुख और सन्देहात्मक या विचारात्मक शारीरिक सुख, मानसिक सुख, आत्मिक सुख, ब्रह्म शारीरिक सुख में से आत्मिक सुख यानी अनंत काल तक रहने वाले अनंत स्वमं या मैं के अनुभव को ही या साक्षात्कार को करना यानी ब्रह्म शारिरिक सुख को ही प्राथमिकता देना सर्वश्रेष्ठ मानते है और अन्य सुखों से भिज्ञता की कमी के कारण उन्हें व्यर्थ समझते हैं और होश पूर्वक इस स्तर का समय, स्थान और उचितता के अनुकूल होने पर प्रेम करने वाले परम् या सर्वश्रेष्ठ सभी आत्मा परंतु यह अपने प्रेमी को आवश्यक न होने पर इससे भी परे वाले स्तर का प्रेम दें सकते हैं क्योंकि यह उनसे भी भिज्ञ हो सकते हैं।
७. शून्य अनुभव की इच्छा पूर्ति या मुक्ति से होने वाली संतुष्टि रूपी सुख की अनुभूति "प्रेम" :-
जो शून्य शारीरिक सुख के अतिरिक्त किसी अन्य उस योग्य या उससे अधिक श्रेष्ठ सुख का अनुभव न कर सकनें से इसी सुख को प्राथमिकता या ध्यान देने योग्य या सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानते हैं और इसी पर ध्यान देते हैं और उनकी चेतना अनंत या समुचे "मैं" के परें की भी अनुभव कर्ता शून्य स्तर की होती हैं और वह शून्य चेतना इसी स्तर के सुख यानी शून्य अनुभूति या अनुभव में ही स्थिर रहना सर्वाधिक श्रेष्ठ मानती हैं।
ऐसे स्तर वाली चेतना शून्य शारीरिक सुख देने यानी अपने प्रेमी को उसकी पूर्ण वास्तविकता यानी वह वास्तविकता जो उसके होने के भी परे हैं उससे परिचित करवाता हैं और उससे परिचित करवानें या उसके "मैं" से परें उस निराकार से साक्षात्कार या उसकी वास्तविकता से साक्षात्कार करवानें को ही प्रेम करना या प्रेमी को समुचे निराकार मैं के बोध को उपलब्ध कराना ही अर्थात् हर शून्य शारीरिक चैतन्य की तरह उसको भी उसकी जो एक मात्र इच्छा यानी उसके समुचे निराकार अस्तित्व के अनुभव की और उसकी अनंत काल तक रहने कि या उपस्थिति का बोध और अनुभव के परें होने की इच्छा की पूर्ति से मिली वाली संतुष्टि से प्राप्त सुख पर ध्यान देना ही उससे प्रेम करना मानेंगी और इसी सुख को किसी से प्राप्त करना या किसी के द्वारा इनके इसी सुख का ध्यान रखना या देना ही इनके लियें उनका प्रेम होगा।
यदि कोई शून्य शारिरिक सुख के अनुभव से भिज्ञता वाला होगा तो; उसे शून्य शारीरिक सुख की इच्छा पूर्ति के अतिरिक्त अन्य कोई सुख सर्वश्रेष्ठ न लगेगा यानी वह केवल दर्शक बनने में या स्वयं के समुचे निराकार अस्तित्व का बोध कर्ता बनने से या अपने समुचे निराकार अनुभव को करने में अपनी चेतना का उपयोग करेगा अतः वह प्रेम वश अपने प्रेमी को ऐसा सुख देना ही प्रेम करना समझेगा और उसको भी शून्य बोध के सुख मिलने पर वह स्वयं सुख अनुभव करेंगा। शून्य शारीरिक स्तर तक प्रेम करने वाले के उदाहरण यह कि निराकार परमात्मा या परम् चैतन्य। जो भौतिक शारीरिक सुख, भावनात्मक सुख और सन्देहात्मक या विचारात्मक शारीरिक सुख, मानसिक सुख, आत्मिक सुख, ब्रह्म शारीरिक सुख, शून्य शारीरिक सुख में से शून्य के सुख यानी अनंत काल तक रहने वाले अनंत स्वयं या मैं से पूर्णतः परें अनुभव को ही या साक्षात्कार को करना यानी शून्य शारिरिक सुख को ही प्राथमिकता देना सर्वश्रेष्ठ मानते है और अन्य सुखों से भिज्ञता की कमी के कारण उन्हें व्यर्थ समझते हैं और होश पूर्वक इस स्तर का समय, स्थान और उचितता के अनुकूल होने पर प्रेम करने वाले परम् या सर्वश्रेष्ठ सभी आत्मा हैं परंतु यह अपने प्रेमी को आवश्यक न होने पर इसके अतिरिक्त अन्य स्तर का प्रेम दें सकते हैं क्योंकि यह उनसे भी भिज्ञ हो सकते हैं।
- © रुद्र एस. शर्मा (०,∞)
समय/दिनांक/वर्ष - २१:१७/१२:१२/२०२१