हैलो !अंकल!
मैने ये शब्द सुनकर अनसुना कर दिया,मुझे लगा उसने किसी और को पुकारा होगा,फिर जब मैने नहीं सुना तो उसने एक बार फिर से पुकारा,मुझे हार कर पीछे मुड़ना ही पड़ा,चूँकि मैं बाँलकनी मे सुबह की चाय पीते हुए पेपर पढ़ रहा था और पेपर पढ़ते समय मुझे किसी का भी डिस्टरबेंस अच्छा नहीं लगता।।
मैं मुड़ा तो वो फिर बोली.....
हैलो! अंकल! मैं चुनमुन,हम अभी कल ही इस घर में रहने आएं हैं।।
उसके बोलने का अन्दाज इतना प्यारा था कि कोई भी आकर्षित हो जाएं तो मैं भी उस बच्ची के मोह में फँसकर उससे बातें करने लगा,वो करीब छः सात की रही होगी,उसकी बातों ने मुझे पल भर में मोह लिया,कुछ देर में उसके पिता भी बाँलकनी में आ गए और उन्होंने अपने विषय में सब कह डाला कि...
किस विभाग में हैं,?कहाँ से आएं हैं? कहाँ के रहने वाले हैं?बेटी का स्कूल बस देखना बाकी रह गया था तो मुझसे सुझाव लेने लगे कि कौन सा स्कूल सही रहेगा?
मैनें भी उन्हें बताया कि मेरा बड़ा बेटा तो बैगलोंर से इन्जीनियरिंग कर रहा , छोटा अभी बारहवीं में है और श्रीमती जी घर सम्भालती हैं।।
उन्होंने कहा कि पहले चुनमुन की माँ भी जाँब करती थी लेकिन जब चुनमुन आने वाली थी,तब उन्होंने नौकरी छोड़ दी,तब से वें चुनमुन को और घर दोनों सम्भालती हैं।
मुझे परिवार भा गया,बहुत दिनों से बगल वाला घर खाली पड़ा था,उन लोगों के आने से अब वहाँ चहल-पहल हो गई थी।।
अब चुनमुन का स्कूल में एडमिशन हो गया था और वो स्कूल भी जाने लगी थी लेकिन जब भी वो घर पर होती तो हमारे यहाँ आ जाती और ढ़ेर सारी बातें करती,बहुत ही नेक बच्ची थी,कभी कोई जिद़ नहीं करती,हम कभी कुछ खा रहे होते तो उससे भी खाने को कहते ,लेकिन वो पहले घर जाकर अपनी माँ से पूछकर आती फिर खाती...
वो कहती थी माँ ने कहा है कि अजनबियों के हाथ से कुछ नहीं खाना चाहिए लेकिन उन्होंने आज कहा कि अब आप लोंग अजनबी नहीं रहें, तो अब मैं आपके यहाँ कुछ भी खा सकती हूँ,आलू के पराँठे भी।।
उसकी बात सुनकर हम पति-पत्नी हँस पड़े कि देखो आलू के पराँठे खाने की बात कितनी चालाकी और मासूमियत से कह गई,पत्नी ने कहा....
बिटिया! शाम को बना दूँगी आलू के पराँठे और वो मान गई।।
उसे और लड़कियों की तरह चाँकलेट्स नहीं पसंद थे,वो गोलगप्पे खाती थी,समोसे खाती थी और खाना वो केवल घर का ही पसंद करती थी,मेरी पत्नी के हाथों का बना रायता,चटनी और अचार उसे बहुत पसंद था,वो काफी तीखा खा लेती थी।।
दो बेटों के बाद हमारे मन में भी कभी बेटी की चाह थी लेकिन किसी कारणवश वो पूरी ना हो सकी थी,लेकिन हमें लगता था कि वो अब चुनमुन के रूप में पूरी हो गई थी।।
ऐसे ही दिन बीत रहे थे तभी एक शाम चुनमुन घर से पार्क तक खेलने गई,साथ में उसकी माँ भी थी,तभी उसकी माँ का फोन आ गया और वो बातों में मगन हो गई,वो कुछ देर तक तो फोन पर बातें करते हुए चुनमुन को देखती रही लेकिन थोड़ी ही देर के लिए उस पर से उसका ध्यान हट गया और बच्ची पार्क से गायब हो गई,जब चुनमुन की माँ स्वाति को उसका ध्यान आया तो उसने ढूढ़ना शुरू किया,जब वह नहीं मिली तो भागकर हमारे घर आई और पूछा कि चुनमुन तो नहीं आई,मैं तब बिल्कुल आँफिस से ही लौटा था और मैं भी स्वाति के संग बच्ची को ढूढ़ने में लग गया,चुनमुन के पापा ब्रजेश भी तब तक आ गए थे और वें भी लग गए उसे ढूढ़ने में।।
फिर मेरी पत्नी और बेटा भी ढूढ़ने में लग गए ,पड़ोस के और भी लोंगों को पता चला तो वे भी ढूढ़ने में लग गए,क्योंकि वो बहुत ही प्यारी बच्ची थी,सभी उससे बात करना पसंद करते थे।।
इतना ढूढ़ा लेकिन चुनमुन कहीं ना मिली,फिर थक हार कर हमें पुलिस का सहारा लेना पड़ा,पुलिस रातभर ढूढ़ती रही लेकिन बच्ची कहीं ना मिली,हम सबने रातभर पलकें तक नहीं झपकाईं,बस बच्ची को ही खोजते रहें।।
रात से सुबह हो गई और सुबह से दोपहर और दोपहर से फिर शाम लेकिन बच्ची ना मिली,माँ बाप दोनों रो रोकर अधमरे हो गए फिर शाम को शहर से बाहर आगरा हाइवे पर बच्ची की लाश मिली,पुलिस को किसी ने फोन किया था।।
पोस्टमार्टम की रिपोर्ट के बाद चला कि बच्ची के साथ किसी ने कुकृत्य किया है,इतना घिनौना काम वो भी एक बच्ची के साथ कोई वहशी दरिन्दा ही कर सकता है,हम सबने उस दरिन्दे को खोजने में पूरा जोर लगा दिया,पुलिस पर हम सब मुहल्ले वालों ने खूब प्रेशर डाला और कुछ ही दिनों में उस दरिन्दे को पकड़ लिया गया,वो हमारे ही मुहल्ले का एक म्यूजिक टीचर था जो कि बैचलर था,उसने ये घिनौना काम किया था।
मन तो किया कि अभी गोली मार दूँ उसे लेकिन दो थप्पड़ तो जरूर जड़ दिए मैनें,वो जेल चला गया फिर चुनमुन के माँ बाप ने वो घर भी छोड़ दिया,चुनमुन के साथ ही उनकी दुनिया भी उजड़ गई थी,अब उस घर में उनका दम घुटता था।।
फिर उस टीचर पर मुकदमा चला ,उसे जेल हुई और कुछ दिनों बाद पता चला कि वो जेल में मरा मिला है और जेल में वो सबसे हमेशा कहता था कि उसे उस बच्ची की आत्मा दिखती है,मुझे कोई बचाओ, मुझे डर लगता है।।
सच में जब मैं अब नन्ही बच्चियों को देखता हूँ तो मुझे डर लगता है, कैसे करूँ इनकी सुरक्षा? कैसे कहूँ कि बेटा ! घर से बाहर मत निकला करो मुझे डर लगता है,अब सोचता हूँ कि मुझे भगवान ने भले बेटी नहीं दी,कैसे करता मैं उसकी रक्षा,ये सब सोचकर कभी कभी मुझे बहुत डर लगता है ।।
समाप्त....
सरोज वर्मा.....