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डूबता दिल...

अपराजिता उदास सी खिड़की के पास बैठी थी,बाहर हो रही बारिश भी उसके जलते मन को ठंडा नहीं कर पा रहीं थीं,अभी यहाँ राजीव और बच्चे होते तो फौरन पकौड़ों और चाय की फरमाइश कर बैठते,लेकिन मैं यहाँ अकेले सड़ रही हूँ,कितना खुशनुमा मौसम होता है इन पहाडियों पर ,लेकिन परिवार के बिना कुछ भी अच्छा नहीं लगता....
कितनी बार सोचा कि नौकरी छोड़ दूँ लेकिन राजीव ही मना करते हैं,कहते हैं भला सरकारी नौकरी भी कोई छोड़ता है थोड़ा भविष्य की चिन्ता भी करो,बच्चों को काबिल बनाना है,मेरे अकेले की नौकरी से भला सबकुछ कैसे हो पाएगा और फिर तुम्हारे पास सरकारी नौकरी है तो एक आत्मविश्वास है तुम्हारे अंदर....
लेकिन मै तुम सबके साथ रहना चाहती हूँ,तुम्हारी नौकरी किसी और शहर में और मेरी नौकरी किसी और शहर में,हर तीन चार साल में ट्रांसफर,नए शहर में फिर से सबकुछ नए सिरे से शुरू करो,ट्रांसफर के चलते बच्चों को भी बोर्डिंग में भेजना पड़ा,ऐसा कहते हुए कभी कभी अपराजिता,राजीव से जिद करते हुए कहती, लेकिन राजीव उसकी बात नहीं मानते और वो अपना मन मसोस कर रह जाती।।
अपराजिता ये सब सोच ही रही थी कि उसकी कामवाली बाई शंखी ने पूछा....
मेमसाब! खाना क्या बना दूँ?
कुछ भी बना दो,जो सब्जी पड़ी हो,अपराजिता बोली।।
ठीक है मेमसाब! एक बात और करनी थी आपसे,बुरा ना माने तो कहूँ,शंखी बोली।।
हाँ...हाँ...बोलो,रूपए चाहिए,अपराजिता ने पूछा।।
नहीं...नहीं..मेमसाब! आज मेरी शादी की सालगिरह है,आज सब नाचेंगे गाऐगे ,अगर आपको बुरा ना लगे तो मेरे घर चलिए,अब तो बारिश भी रूक गई है,शंखी बोली।।
अपराजिता ने कुछ सोचा फिर बोली....
अब तुम खाना मत बनाओ, तुम ठहरो,मैं बस अभी कपड़े बदलकर आई..
ये सुनकर शंखी खुश हो गई और कुछ ही देर में अपराजिता तैयार होकर चल पड़ी शंखी के साथ,शंखी के घर....
दोनों को पहुँचते पहुँचते शाम हो आई थी,सूरज बिल्कुल से ढ़ल चुका था,बारिश हुई थी इसलिए हल्की ठंडक भी थी,अपराजिता का मन खुश हो गया,वो वहाँ पहुँची तो सब अपने पारम्परिक परिधानों में मौजूद थीं,बीच में आग जलाकर सब उसके चारो ओर घेरा बनाकर बैंठीं थीं,लेकिन वहाँ ना तो कोई पुरूष थे और ना बच्चे,अपराजिता को थोड़ा अजीब सा लगा।।
कुछ देर सब नाचने गाने लगी,नाचने गाने के बाद खाना शुरु हुआ ,अपराजिता को उनका भोजन बहुत पसंद आया,अपराजिता ने जी भर के खाने का आनन्द उठाया,फिर शंखी ने उसे अपना घर दिखाया,घर एकदम खुला खुला बना हुआ था,ज्यादा सामान भी नहीं था,इंसान वहाँ चैन की साँस ले सकता था।।
एकान्त पाकर अपराजिता ने शंखी से पूछा....
तुम सब औरतों के बच्चे और पति कहाँ हैं?
शंखी बोली....
मेमसाब! जीवन में सब चींजे एक साथ नहीं हो सकतीं,आसमान छूने के लिए नीचे की सभी नीचे को हम ऊपर नहीं ले जा सकते,क्योंकि एकसाथ सभी कुछ नहीं सधता,हम सबके पति बाहर कमाने गए हैं और गाँव के बाहर एक सरकारी स्कूल है,जहाँ के हाँस्टल में हम सभी के बच्चे रहकर पढ़ते हैं,मेरा पति यहाँ नहीं है फिर भी मैनै सालगिरह मनाई क्योंकि बड़ी खुशियाँ पाने की चाह में हम छोटी छोटी खुशियों को मनाना भूल जाते हैं....
मिलना बिछड़ना,खोना पाना तो लगा ही रहता है तो क्या हम हर घड़ी अपने दिल को ग़मों में डुबोय रहें?अगर खुश रहने का एक भी मौका मिलता है तो उसे क्यों छोड़ा जाएं?क्या हुआ जो मेरा परिवार मेरे साथ नहीं है,हर घड़ी कोई भी एक साथ नहीं रह सकता,कभी हम लड़कियाँ माँ बाप का घर भी छोड़कर आते हैं तो ससुराल हमारा सबकुछ हो जाता है..
लेकिन जिसे हम अपना समझते हैं वो केवल क्षणभंगुर है और उसे हम जीवन भर जकड़े रहते हैं,भारमुक्त होते ही नहीं,ये बोझा ढ़ोने की हमें आदत सी पड़ जाती है,खुशियाँ बाहर नहीं हमारे अंदर ही होतीं हैं जिसे हम खोज ही नही पाते और जीवन भर उसका इल्जाम हम दूसरों के सिर मढ़ते रहते हैं।।
हम खुद ही अपने दिल को ग़मों में डुबाते रहते हैं,इसलिए ग़मो में डूबना नहीं उबरना सीखो।।
शंखी की बात सुनकर अपराजिता अपने सब ग़म भूल गई और उसके डूबते दिल को शंखी की बातों ने उबरना भी सिखा दिया।।

समाप्त....
सरोज वर्मा.....


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