Ishq Faramosh - 20 - Last Part books and stories free download online pdf in Hindi

इश्क फरामोश - 20 - अंतिम भाग

20. कहीं दूर निकल जाएँ

बच्चे आज कल रोजाना स्कूल के बाद सीधे भापाजी के घर आने लगे थे. स्कूल के लिए लगाई गयी कार उन्हें यहीं छोड़ने लगी थी. सोनिया ने कुछ सोच कर उनका ये कार्यक्रम बना दिया था. ज़ाहिर है भापाजी और गायत्री को इसमें कोई ऐतराज़ नहीं था.

गायत्री को बच्चों के नियमित कार्यक्रम न होने से परेशानी थी जो उन्हें लगता था कि बच्चों की उचित परवरिश के लिए ठीक नहीं है. अब इस तरह एक बंधा-बंधाया कार्यक्रम उनके हिसाब से ठीक था. बच्चे शाम तक वहीं रहते. स्कूल का कुछ काम होता तो कर लेते. शाम को उन्हें लेने उषा आ जाती या ड्राईवर के साथ वे चले जाते. सोनिया का घर वहां से पांच मिनट की ड्राइव पर था. वहां जा कर वे नहा-धो कर रात का खाना खा कर सो जाते.

इस बीच सोनिया ने भी यहाँ अक्सर आना शुरू कर दिया था. उसे लग रहा था कि एक दिन खुद भापाजी और माँ ही उसे यहाँ शिफ्ट होने को कह देंगे तो रौनक मना नहीं कर पायेगा. लेकिन इस इंतजाम के बावजूद सोनिया को उन दोनों की तरफ से ऐसा कोई संकेत नहीं मिल रहा था. उसके यहाँ बेचैनी बढ़ने लगी थी. जो गायत्री तो देख कर भी चुप थी मगर भापाजी ने एक दिन बात छेड़ ही दी.

बच्चों को छोड़ कर ड्राईवर अपने घर चला गया था जब सोनिया अपनी किसी किटी पार्टी से सीधे वहीं आ गयी थी. और बच्चों को वहां न पा कर उसने थोड़ी हैरानी जताई थी.

"अरे! मम्मी जी मैंने सोचा अभी यहीं होंगें, इसलिए मैंने फ़ोन भी नहीं किया आने से पहले."

गायत्री मुस्कुरा दी थीं. "बेटा, आप को पता है छह बजे ड्राईवर उनको छोड़ कर अपने घर चला जाता है. लगता है आज घड़ी भी नहीं देखी मेरी सोनिया रानी ने." गायत्री अब भी कभी-कभी सोनिया की चुटकी ले लेती हैं.

हालाँकि बाकी लोग अब सोनिया से घबराने लगे हैं. भापाजी तो खास तौर पर. उस दिन के बाद से भापाजी ने कभी उसे बेटा या बेटी नहीं कहा. हर बार बहुरानी ही कहते हैं और बहुत सावधानी से बात करते हैं. वे चुपचाप देखते बैठे रहे. सोनिया को रुकने या बैठने के लिए दोनों में से किसी ने नहीं कहा.

"ठीक है. मैं चलती हूँ. बच्चे मेरा वेट कर रहे होंगें." कुछ देर खड़े रह कर उसने फैसला लिया.

"अच्छी बात है बेटा."

भापाजी तब भी कुछ नहीं बोले. जब सोनिया चली गयी तो उन्होंने अपना मुंह खोला,"तुझे समझ आया कि सोनिया अब क्या चाहती है?"

गायत्री हंस पडीं.

"मेरा टेस्ट ले रहो है क्या जी? मुझे नहीं पता होगा क्या चाहती है?"

"तो फिर क्या सोचा है तूने?"

"आप क्या सोचते हो?" अब दोनों गंभीर हो गए थे.

"मैं क्या सोचूंगा. इतनी बड़ी मुसीबत आते-आते टल गयी थी. अब तो मैं दूध का जला हुआ हूँ. छाछ भी फूँक-फूँक के पीनी है. और बड़ी बात ये है कि रौनक क्या चाहता है. जिस दिन रौनक वापिस यहाँ आना चाहेगा. तब सोचेंगे."

गायत्री सोच में पड़ गयी.

"उस दिन के झगडे के बाद से सोनिया ने रौनक की कोई शिकायत नहीं की. लेकिन रौनक अक्सर यहाँ देर रात तक रहता है. ये तो आप देख ही रहे हो. मुझे लगता है दोनों में सब ठीक नहीं है."

"अब हम क्या कर सकते हैं? हम जितना कर सकते हैं. उससे ज्यादा कर रहे हैं. आपस का रिश्ता तो मियाँ बीवी को खुद ही संभलना होगा. फिकर न कर. सब ठीक हो जाएगा. रौनक मेरा बेटा है. घर नहीं बिखरने देगा अपना. एक दिन सब ठीक हो जायेगा. "

भापाजी अपनी आदत के मुताबिक भावुक हो गए थे. उनकी आँखें डबडबा गयी थीं. गायत्री समझ गयीं कि आज की शाम उन्हें भापाजी का मूड संभालने में लगानी होगी. यहीं तो रोमांस के पल उनके बीच थे जो वक़्त के साथ नए रंग में उभर आये थे. यही उनका प्यार करने का तरीका था. यही दोनों के बीच रिश्ता थामे रखने के कई ज़रियों में से एक था. पति-पत्नी का ये जोड़ा किसी नए ज़माने के प्रेमी जोड़े से कम रोमांटिक नहीं था.

जिस वक़्त सोनिया भापाजी के घर से अपने घर जा रही थी रौनक और किरण साउथ दिल्ली के एक रेस्टोरेंट में एक दूसरे के आमने-सामने बैठे थे. आज की मीटिंग के लिए किरण ने फ़ोन किया था. जाने से पहले एक बार मिलना चाहती थी. रौनक उसके उदास चेहरे और थकान से बोझिल कन्धों को देख कर मुरझा गया था.

एक बसी-बसाई गृहस्थी उजड़ जाने के बाद अपनी एक पूरी ज़िंदगी को तिलांजलि दे कर एक दूसरे देश में जाना इंसान के लिए कितना तकलीफदेह हो सकता है, ये किरण के हर अंग पर लिखा था. उसी इबारत को पढ़ते हुए रौनक चुपचाप अपना दुखता हुआ दिल थामे सामने किसी तरह बैठा था. दोनों के बीच रखे चाय के कप बिन छुए पड़े थे. शब्दों से बातें कहनी मुश्किल लग रही थीं.

आखिरकार किरण ही बोली, जानती हैं रौनक के लिए बोलना हमेशा एक चुनौती ही रहा है.

"रौनक, मेरी फ्लाइट परसों है. तुमसे जाने से पहले मिलना चाहती थी. मगर क्या कहूँ ये नहीं जानती. हमारे पास एक दूसरे को कहने के लिए कुछ बचा ही नहीं है."

"है तो बहुत कुछ. लेकिन जो है वो इस तरह पब्लिक प्लेस पर नहीं कहा जा सकता." रौनक की आँखों में एक अजीब सी चमक थी.

किरण ने चौंक कर उसकी आँखों में झांका. वहां जो देखा तो पलक झपकना ही भूल गयी. कुछ देर यूँही एक दूसरी की आँखों में खोये रहे दोनों. फिर एकाएक किरण का चेहरा लाल पड़ गया.

"तुम पागल हो. बिलकुल. बेवकूफी की बाते मत करो. सोचना भी मत. "

"मैंने क्या कहा है? कुछ भी तो नहीं." शरारत अब रौनक के लफ़्ज़ों में से झाँक रही थी.

"हाँ! तुमने कुछ नहीं कहा. मैंने भी कुछ नहीं सुना. ठीक है?" किरण भी शरारत के मूड में आ गयी थी.

दोनों के बीच की हवा में जो ठहराव और भारीपन था वो छिटक गया था. जैसे तेज़ हवा के एक ही झोंके से बादल छंट जाते हैं और आसमान से धूप बरस कर माहौल में नर्म गर्माहट घोल देती है. वैसे ही रौनक और किरण की बातों में रोजमर्रा के छोटे-मोटे किस्सों की धूप खिल आयी थी.

किरण ने उसे अपनी बेटी नीरू की छोटी-छोटी बातें बतानी शुरू कीं तो रौनक ने भी अपने जुड़वाँ बेटे और बेटी के किस्से सुनाये. यूँही बातें करते करते वे कॉलेज के दिनों में गुम हो गए. चाय भी पी. खाना भी मंगवाया. खाया. आइस-क्रीम खाई. काफी पी. जब घर से सुजाता ने फ़ोन कर के पूछना चाहा कि वो खाने पर उसका वेट करे कि नहीं, तब दोनों को होश आया.

सुजाता को खाने के लिए उसकी वेट नहीं करने और एक घंटे में घर पहुँच जाने की बात कह कर उसने फ़ोन बंद किया और रौनक से कहा, "अब हमें चलना चाहिए. बहुत देर हो गयी है."

"हाँ. बहुत देर हो गयी है." रौनक ने कहा और मन में भी सोचा कि वाकई बहुत देर हो गयी है. ज़िंदगी जिस लीक पर चल निकली है उस से हट कर किसी और लीक पर नहीं चल सकती. न उसकी न किरण की.

किरण के अपने संघर्ष हैं, अपने रास्ते हैं. रौनक के अपने. ये अब कभी साथ नहीं चल सकते. दो अलग-अलग धारे हैं. अलग-अलग नदियों के. अलग-अलग देशों में. अलग-अलग जिंदगियों के. इनके समंदर भी अलग-अलग हैं. किरण तो खुद ही एक समन्दर हो गयी है.

मन उदास हो गया रौनक का. किरण जैसी समझदार जीवनसाथी किसी भी पुरुष के लिए गर्व की बायस हो सकती है. लेकिन आज वो अकेली है. शायद वो एक ऐसी स्त्री है जो अपने खुद के सामर्थ्य और आत्म-गौरव के बल पर ही जीने के लिए प्रतिबद्ध है. या हूँ कहें कि अभिशप्त है. लेकिन उसे गौर से देखता है और उसके बारे में सोचता है तो वो कहीं से भी परेशान या उदास नज़र नहीं आती.

किरण के आत्म संतोष से उपजी शान्ति उसके चेहरे पर साफ़ झलकती है. किरण एक ऐसी इंसान है जो खुद कईयों को सहारा दे सकती है. उसे खुद किसी के सहारे की ज़रुरत हो ऐसा नहीं लगता रौनक को. लेकिन उसके दिल में किसी की चाहत न हो ऐसा भी तो नहीं लगता.

घर की तरफ ड्राइव करते हुए किरण के ही बारे में सोच रहा है. आज सीधे सोनिया के घर ही जाना होगा. रात के ग्यारह बजने वाले हैं. आज कल जब भी वो देर से सोनिया के घर जाता है तो गेस्ट रूम में ही सो जाता है. उसके लिए नाईट सूट वहां भी रखा रहता है. सोनिया अब उसके नए मिजाज़ के अनुसार काफी ढल गयी है. लगता है जैसे अपनी ज्यादतियों का उसे अफ़सोस है.

लेकिन एक बात रौनक ने भी मन ही मन में तय कर रखी है कि अब वापिस भापाजी के घर में रहने नहीं जाना है. कम से कम उनके जीते जी तो. बहुत तकलीफ हुयी है इस जॉइंट फॅमिली के सपने को लेकर उन्हें और रौनक को. एक बार फिर उसी तरह के हालात से गुजरने की हिम्मत अब किसी के पास नहीं है. सोनिया के वक़्त के हलके से झटके के साथ बदलते, बिगड़ते, संवरते मिजाज़ पर रौनक को अब बिलकुल भरोसा नहीं रह गया है.

आज किरण और सुजाता की लन्दन की फ्लाइट का दिन है. अगले दिन की सुबह पांच बजे की फ्लाइट है, जिसके लिए रात के ग्यारह बजे तक उन्हें एअरपोर्ट पहुंच जाना है. एक बार किरण ने हल्की सी कोशिश की कि रौनक को मना कर सके लेकिन रौनक ने इतना ही कहा, "अब पता नहीं तुमसे कब मिलना हो. हो भी कि नहीं. सो ये आज का इतना सा सुख तो मुझ से मत छीनो."

किरण ने कुछ नहीं कहा. चुप रही. बात फ़ोन पर हो रही थी. उधर से आती रौनक की हल्की सी सांस की आवाज़ सुनते चुप्पी को घना करती रही.

"तो ठीक है. अब मैं कुछ देर लेटूँगी. थक गयी हूँ. शाम को मिलते हैं. साढ़े नौ बजे घर से निकलेंगें. एड्रेस भेजूं तुम्हें?" बोलते बोलते किरण को उबासी आ गयी. दोपहर का खाना खाने तक वह थक चुकी थी. सुबह से फाइनल पैकिंग के अलावा एक घंटे की एक वीडियो मीटिंग भी की थी अपने सहयोगियों के साथ. जाते-जाते यहाँ के काम निपटाने के लिए.

रौनक ने उधर उबासी का स्वर उसकी आवाज़ में पकड़ लिया था.

"ज़रूर, रात भर जागना होगा तुम्हें. शाम को मिलते हैं." और फ़ोन काट दिया.

वो दिन रौनक पर बहुत भारी था. जिस किरण से मिलने की, जिसे देखने की उम्मीद पूरी तरह से खो चुका था, वही किरण यूँ अचानक मिल गयी थी. और अब उसी तरह से दूर भी जा रही थी. अब शायद कभी भारत लौट कर भी ना आये.

वो नहीं जानता था कि किरण अपने पुल जला कर नहीं जा रही थी. जिस घर में घरोंदा बसाया था. उसे बेच कर नहीं बल्कि बंद कर के जा रही थी. एक हल्की सी उम्मीद के साथ कि शायद कभी फिर लौट कर आये. या शायद नीरू ही बड़ी हो कर भारत आना चाहे.

रौनक के लिए तो किरण एक बार फिर आयी ज़िंदगी में और जा रही थी. इस बार खुद ही जा रही थी. पिछली बार वो उसकी ज़िंदगी से उठ कर आ गया था. इस बार किरण उठ कर जा रही थी. यानी हिसाब बराबर हो रहा था.

क्या ये नियति का कोई खेल था? नहीं जानता. क्या कुछ छूट गया था? कहना-सुनना. जिसके लिए एक बार फिर उसका मिलना हुया था किरण से और अब किरण से आखिरी बार मिलना होगा आज शाम.

क्या ये वाकई आखिरी बार मिलना होगा? कौन जाने?

शाम उतर आयी थी. रौनक की घड़ी में शाम उतर आयी थी. उसके कमरे में तो तेज़ लाईटें जल रही थीं, जिनमें दिन और रात एक जैसे ही होते हैं. आधुनिक इमारतों की यही तो त्रासदी है. प्रकृति को बाहर खदेड़ कर प्रकृति के नज़दीक होने की कोशिश कृत्रिम तरीकों से की जाती है. और नतीजा ये होता है कि प्रकृति से तो दूर होते ही हैं, कृत्रिमता भी रास नहीं आती. कुछ-कुछ यूँ कि न खुदा ही मिला न विसाले सनम.

बेचैनी बढ़ रही थी. गनीमत ये थी कि पांच बजे के बाद सात बजे तक पांच पेशेंट्स के अपॉइंटमेंट्स थे. उनके देखते-देखते साढ़े आठ बज गए थे. रौनक थक भी गया था और भूख भी लग आयी थी.

अपनी असिस्टेंट से कह कर सैंडविच मंगवाए और खा कर जब तक चलने के लिए उठा, सवा नौ बज चुके थे. यानी साढ़े नौ तक किरण के घर पहुँच जायेगा. किरण ने एड्रेस और लोकेशन व्हात्सप्प पर भेज दिए थे. वैसे इनकी ज़रुरत नहीं थी. एक बार छोड़ने गया था किरण को, तब से किरण की सोसाइटी का नक्षा मन में बस गया था.

सोसाइटी के गेट पर पहुँच कर उसने हॉर्न बजाने की सोची ही थी कि गार्ड ने गेट खोल दिया. किरण ने उससे गाडी का नंबर ले लिया था और ज़ाहिर है गेट पर रौनक की गाड़ी का नंबर और आने की सूचना पहले से मौजूद थी. रौनक ने गाड़ी अन्दर ली तो पोर्च में उसे किरण का ड्राईवर और कनिका चार-पांच सूटकेसों के साथ खड़े नज़र आये. ड्राईवर को वो पहचानता था. कनिका का उसने अंदाजा लगाया.

किरण ने बताया था वो अपनी गाड़ी ड्राईवर समेत एक दोस्त को दे कर जा रही है. यही ड्राईवर सामान ले कर उनके पीछे-पीछे किरण की कार में आएगा. सुजाता, किरण और नीरू रौनक की कार में एअरपोर्ट जायेंगें.

उसने फ़ोन किया तो किरण ने कहा, "मुझे गेट से पता लग गया तुम आ गए हो. हम लोग आ ही रहे हैं. "

कुछ ही मिनटों में रौनक की बगल में बैठी किरण और पीछे की सीट पर सुजाता की गोद में सो रही नीरू एअरपोर्ट की तरफ जा रहे थे. रौनक ने सुजाता से पूछा, "आप का क्राउन तो अब कोई तकलीफ नहीं दे रहा?"

"नहीं बेटा. बिलकुल तकलीफ नहीं है. आप बहुत एक्सपर्ट डेंटल सर्जन हो. गॉड ब्लेस यू बेटा. आय ऍम सो हैप्पी दैट आय गौट ट्रीटएड हियर."

"मुझे भी बहुत खुशी है आप का इलाज कर के. आप की वजह से मुझे अपनी पुरानी दोस्त फिर से मिल गयी."

इस पर तीनों हंस पड़े. कुछ देर चुप्पी छाई रही. रौनक समझ गया सुजाता को अंदाजा है उसके और किरण के अन्तरंग संबंधों का. मगर चूँकि माँ हैं तो खुल कर कुछ भी कहने से कतरा रही हैं. वैसे भी कहें भी तो क्या? इस वक़्त तो खुद वे भी किस कदर परेशान और उदास होंगीं किरण की उजड़ी हुयी गृहस्थी को लेकर.

किरण के मन में इस वक़्त कई ख्याल थे. साथ बैठे रौनक के लिए अजीब-अजीब भाव मन में उठ रहे थे. जाने अगली बार कब मिलना हो? पिछली बार जब रौनक से नाता टूटा था तो दिल घायल था. उस वक़्त तो रौनक की सूरत ज़िंदगी भर न देखने की कसम खाई थी. मगर आज हालात कुछ और हैं.

पुराना प्रेमी तो जाने कहाँ चला गया मगर पुराना जिगरी दोस्त अब मिल गया था. अब उसका गम मन में था. जाने फिर कब मिलना हो? लेकिन दोस्त से बिछड़ने में वैसी टीस नहीं थी जो उस वक़्त प्रेमी से रिश्ता टूट जाने में थी. उम्र का असर भी था. मीलों चली ज़िंदगी का परिपक्व नजरिया भी था. अपनी बिखरी हुयी गृहस्थी की टीस इस वक़्त बेतरह चुभ रही थी. ये गृहस्थी उम्र भर के लिए बसाई थी जो कुल जमा पांच साल होने से पहले ही बिखर गयी थी. अब तो इसके टूटे हुए पत्थर तक नहीं बचे थे.

दिल में मोम जैसा कुछ जमा हुया सा भारी-भारी लग रहा था. इसे पिघला कर दिल को हल्का करना था. वही करने जा रही थी, एक बार फिर उसी देश में जहाँ इससे पहले आज बगल में बैठे इसी रौनक से टूटे दिल को बहलाने गयी थी. इस बार सोच कर जा रही है कि अब वापिस नहीं आना.

मगर एकाध बार तो आना ही पड़ेगा. घर छोड़ कर जा रही है. इसे फुर्सत में आ कर बेचना होगा. सामान ठिकाने लगाना होगा. शायद अब सुजाता भी अपना घर यहाँ न रखना चाहें. सर को एक झटका दिया, देखा जाएगा. अभी तो बहुत काम हैं. इन सब कामों से पहले.

सुजाता ने आखिर चुप्पी को तोडा, "डॉ. रौनक आप आओ इंग्लैंड घूमने के लिए, वाइफ और बच्चों के साथ. यू आर मोस्ट वेलकम. मेरे घर में काफी जगह है. मेरा तीन बेडरूम का टेरेस वाला घर है. एअरपोर्ट के पास, होउंसलो में. आप जब भी आयें मेरे घर रुकें."

रौनक कुछ पल बोल ही नहीं पाया. फिर संभला.

"जी ज़रूर. बनायेंगें प्रोग्राम. बच्चे थोडा बड़े हो जाएँ. अभी उनके साथ इंटरनेशनल टूरिज्म ज़रा मुश्किल है." इस बात पर फिर तीनों ही हंस पड़े. सुजाता ने प्यार से गोद में लेटी नीरू के सर पर हाथ फेरा. वह थोड़ा सा कुनमुनाई तो सुजाता ने उसकी करवट बदल दी. वह चैन से सो गयी.

"हाँ. सो तो है. नीरू के साथ पहली बार इंटरनेशनल ट्रेवल कर रही हूँ. कितना तो सामान हो गया है और कितना ये खुद बेचारी फ्लाइट में परेशान होगी ये अभी पता नहीं." इस बार किरण ने चुप्पी तोड़ ही दी थी.

इसके बाद छोटी-छोटी बातें करते कब एअरपोर्ट आ गया पता नहीं चला. रौनक ने डीपारचर पर गाड़ी लगाई तो पीछे ही किरण की गाडी भी लग गयी. ड्राईवर और कनिका सामान निकाल कर ट्राली में रखने लगे. किरण अभी बेल्ट उतार कर बाहर निकलने के बारे में सोच ही रही थी कि रौनक ने उसके हाथ पर हलके से हाथ रखा. "प्लीज, वेट. लेट मी ओपन द डोर फॉर यू."

किरण बैठी रह गयी.

रौनक ने सुजाता का गेट खोला और नीरू को उनकी गोद से अहिस्ता से ले लिया. इसके साथ ही सुजाता भी अपना बैग उठा कर बाहर आ गयीं. तब तक कनिका ने नीरू की प्राम गाडी में से निकाल कर ठीक से खोल दी थी. रौनक ने नीरू को उसमें लिटा दिया. कनिका ने उसकी बेल्ट लगा दी और उसे प्यार करती हुयी आँखों से बहते आंसुओं के साथ सुजाता के पास ले आयी.

कनिका का इरादा वहां तक नीरू की प्राम ले जाने का था जहाँ तक उसे इसकी इजाज़त मिल जाए. ड्राईवर को उसने ये बात पहले ही कह दी थी और दोनों के बीच बातचीत हो गयी थी कि अगर ड्राईवर को एअरपोर्ट ट्रैफिक पुलिस ने गाडी नहीं रोकने दी तो वो एक दो चक्कर लगा कर उसे ले जाएगा. दोनों के पास एक दुसरे के फ़ोन नंबर तो थे ही.

सारा सामान दो ट्राली में रखा जा चुका था. सुजाता ने दो पोर्टर भी ले लिए थे. किरण और नीरू का सामान काफी था. किरण पोस्टिंग पर जा रही थी सो उसके लगभग सारे ही कपडे थे और बहुत सारी किताबें भी. ढेरों सामान नीरू का भी था.

सुजाता ने अपना बैग एक ट्राली के हैंडल पर रखा और बैग में से तीनों के पासपोर्ट और टिकेट

निकालने लगीं जो उन्हें एअरपोर्ट के अंदर जाने के लिए दिखाने थे.

किरण रौनक के दरवाज़ा खोलने का इंतज़ार कर रही थी. जबकि वो वापिस ड्राइविंग सीट पर आ कर बैठ गया. उसने किरण का हाथ अपने हाथ में ले लिया. किरण चौंक गयी. उसकी नज़रें बाहर सुजाता और नीरू पर थीं. इस वक़्त उन्हें उनके साथ होना था.

"मैं सिर्फ इतना कहना चाहता हूँ कि मैं एक दिन आऊँगा तुमसे मिलने. मिलोगी?"

गाडी के नीम अँधेरे में रौनक की आँखों में जाने क्या था कि किरण सिहर उठी. कुछ बोल नहीं पायी. कुछ ठहरे हुए पल चार आँखें एक दूसरे में उलझी रहीं. वक़्त ने खामोशी से दस सेकंड का फासला तय किया होगा कि रौनक ने किरण के चेहरे को अपने हाथों में थाम लिया. अगले ही पल दोनों के होंठ एक दूसरे की पुरानी पहचान को ताज़ा करने में मशगूल हो गए. और फिर उसी तरह एक दूसरे से अलग भी हो गए. इस बीच के कुछ पलों ने उस सारे फासले को तय कर लिया जो इतने सालों में इन दोनों के बीच आ कर पसर गया था. टूटे हुए दिल, दो शादियाँ और तीन नन्हे बच्चे; सब नेपथ्य में चले गए. एक बार फिर चार आँखों ने एक दूसरे में झाँका और आश्वस्ति की एक लहर दो जिस्मों में दौड़ कर उन्हें ताज़ा दम कर गयी.

किरण ने अपना बैग संभाला और दरवाज़ा खोल कर गाडी से बाहर निकल आयी. सुजाता ने पासपोर्ट और टिकेट हाथ में थाम लिए थे. बैग कंधे पर टांग कर वे किरण को आवाज़ देने ही वाली थी कि किरण सामने आ खड़ी हुयी.

ये काफिला एंट्रेंस गेट की तरफ बढ़ चला तो रौनक सुजाता के साथ चल रही किरण को आँखों से पीता उसके ओझल हो जाने का इंतजार करता ड्राइविंग सीट पर ही बैठा रहा.

कनिका को सुजाता ने भेज दिया था. प्राम को किरण चला रही थी. सामान लिए दो पोर्टर इन दोनों के आगे-आगे चल रहे थे.

रेलिंग से अंदर की तरफ मुड़ने से पहले किरण ने एक बार मुड़ कर देखा था. उसे रौनक की कार तो नज़र आयी मगर अंदर बैठा रौनक नज़र नहीं आया. देख लेती तो घोर उदासी के इन पलों में भी जिगरी दोस्त को छेड़े बिना नहीं रहती. रौनक के गाल गीले थे. भापाजी का बेटा भापाजी की विरासत को जिंदा रखे हुए बेशर्मी से आंसू बहा रहा था.

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