उजाले की ओर ---संस्मरण Pranava Bharti द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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उजाले की ओर ---संस्मरण

उजाले की ओर ---संस्मरण

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न जाने क्यों मुझे सदा यही लगता रहा है कि हमारा जीवन कहीं न कहीं एक-दूसरे से ऐसे जुड़ा है जैसे नींद व स्वप्न ,बूदें व माटी की महक ! चिड़ियों की चहक ---या कुछ भी वो ,जो एक दूसरे से ऐसे संबंधित है जिनके बिना कोई कल्पना नहीं हो पाती |

यूँ ही कोई मिल गया था ,सरे राह चलते-चलते ---

बहुत अच्छा गीत है किन्तु इसमें संसारी मुहब्बत है ,प्रीत है |इसमें भी कोई हर्ज़ नहीं ,यह भी जीवन के लिए आवश्यक है |

मैं बात कर रही हूँ एक ऐसे रिश्ते की जिसमें प्रेम है ,स्नेह है किन्तु कोई इच्छा नहीं है ,कामना नहीं है,मानवीय संवेदना है और वह भी ऐसे व्यक्ति के लिए जिससे हमारा कोई परिचय ही नहीं है |

वह अचानक ऐसे मिल जाता है जैसे अंधकार में दीपक जल जल गया हो अथवा सूरज की किसी किरण ने मन के द्वार पर दस्तक दी हो |

बहुत पुरानी बात है --आप जानते हैं मित्रों ,मैं अक्सर पुरानी बातें ही साझा करती हूँ |

संभवत: इसके पीछे कहीं मस्तिष्क में यह भाव भी है कि आज के संदर्भ में तो हमारी नई पीढ़ी हमसे बहुत कुछ अधिक व बेहतर जानती है |

कुछ ऐसी बातें ,घटनाएँ भी साझा की जानी चाहिए जो सबको सोचने के लिए मज़बूर करें |

मैं तेरह-चौदह वर्ष की थी शायद ---दसवीं की परीक्षा दे रही थी |

आपसे एक बात और साझा करती हूँ कि हमारे ज़माने में उम्र का यह बंधन नहीं था जैसा आज है ---आज सोलह वर्ष से कम उम्र के बच्चे दसवीं की परीक्षा में नहीं बैठ सकते |

हमारा ज़माना इसका अपवाद था |

किसी त्योहार पर माँ के साथ ममेरे मामा जी के पास आगरा गई | हम मुजफ्फरनगर से बस में गए थे |

पूरी तरह याद नहीं लेकिन कुछ गड़बड़ी हुई थी और बस लेट हो गई थी |

मामा जी सिंचाई-विभाग में इंजीनियर थे ,वे हर बार ड्राइवर के साथ बस-स्टैंड पर हमें लेने आ जाते थे |

जब हम आगरा के रोडवेज़ पर उतरे ,वहाँ दूर-दूर तक कोई नहीं था |

उन दिनों मोबाइल्स तो होते नहीं थे ,लैंड-लाइन भी सरकारी अफ़सरों या बहुत समृद्ध परिवारों में होती थी |

बहुत अंधेरा घिर आया था और माँ मुझे लेकर परेशान हो रही थीं |

लड़की को लेकर भला कहाँ जाएँ ?

हमने एक पैडल-रिक्शा किया और माँ ने मामा जी के घर का पता उस रिक्शे वाले भैया को बता दिया |

वह न जाने हमें कहाँ-कहाँ घुमाता रहा ---न--- उसका कोई गलत विचार नहीं था ,उसने कुछ दिन पूर्व ही रिक्षा चलानी शुरू की थी |

वह रास्तों से भली प्रकार परिचित नहीं था ,क्या करता ? हमें व सामान को ढोते हुए वह एक सड़क से दूसरी सड़क पर मुहल्ले- मुहल्ले में ढूँढता रहा |

रात घनेरी होती जा रही थी और माँ मेरा हाथ कसकर पकड़े रिक्षा में बैठी थीं |

आखिर बेचारा रिक्षा वाला भी थककर चूर हो गया घरों के आगे रिक्षा रोककर निवासियों से उस पते के बारे में पूछता रहा जहाँ हमें जाना था |

उन दिनों सड़कों पर आज जैसी बिजली भी नहीं होती थी | दूर कहीं-कहीं लैंप-पोस्ट पर बिजली टिमटिमाती रहती |

अचानक जैसे अँधेरेको चीरते हुए किसी बँगले के बरामदे की बिजली ने हमें चौंका दिया |

बँगले के दरवाज़े से कोई बीस -पच्चीस वर्ष का युवक हमारे सामने खड़ा था |

अपने बँगले का सिंह-द्वार खोलकर वह हमारे पास रिक्षा तक आया और माँ से बातें करने लगा |

माँ तो लगभग रोने को हो रही थीं | आँसू भरे आँखों में ---मुँह से बोल भी नहीं निकाल पा रहे थे |

सबसे अधिक चिंता उन्हें मेरी थी --कोई ऐसी-वैसी बात हो गई तो -----?

उस युवक ने माँ से सारी कहानी सुनी और उन्हें सांत्वना दी ----

"मौसी जी ,ये बाबू गुलबराय जी का घर है ----"

माँ और मैं दोनों ही चौंके ,माँ भी साहित्य में रुचि रखती थीं और बाबू गुलबराय जी के लेखन की फ़ैन थीं |

मैं गुलाबराय जी के निबंध व जीवनी दसवीं में पढ़ रही थी |

थोड़ी सी आश्वस्ति तो आई माँ के चेहरे पर लेकिन क्या ज़रूरी है कि यह लड़का सच ही बोल रहा हो !

"मौसी जी आपके पास फ़ोन नं होगा न ,दीजिए मैं अभी आपके भाई साहब के यहाँ फ़ोन करता हूँ ---"उस लड़के ने बड़ी सहजता से माँ से पूछा |

माँ ने रिक्षा में से उतरकर अपना पूरा पर्स खंगाल डाला लेकिन उस कागज़ पर तो जैसे पर लग गए थे ,न जाने कहाँ गायब हो गया था |

रिक्षा वाला भाई भी बहुत खीज चुका था और किसी न किसी तरह हमसे पीछा छुड़ाना चाहता था |

"आप अंदर चलिए ---" उसने काँपती माँ का हाथ पकड़ा और अपने किसी सेवक को आवाज़ देकर हमारे अटैची और बैग अंदर ले जाने को कहा |

अब माँ और भी पाशोपेश में --कैसे किसी अजनबी के घर अपनी बड़ी होती बेटी को लेकर जाएँ माँ !

"तुम जाओ भैया ---"युवक ने रिक्षा वाले को अपने कुर्ते की जेब से पैसे निकालकर दिए और माँ की साँस ऊपर-नीचे हो गईं |

वह युवक हमें साथ लेकर अपनी बड़ी सी बैठक में आ गया |

हम सामने पड़े हुए सोफ़ों पर बैठ गए | जैसे ही हमारी दृष्टि सामने की दीवार पर लगी बड़ी सी तस्वीर पर पड़ी ,मेरे मुह से तुरंत निकला --

"ये ही तस्वीर तो मेरी किताब में है ---"मेरे चेहरे पर जैसे किसीने आनंद का छिड़काव कर दिया था | बड़ी सी मुस्कान माँ के चेहरे पर भी पसर गई |

उनके घबराए हुए चेहरे पर जैसे बरबस निश्चिंतता का साम्राज्य स्थापित हो गया |

अब तक युवक ने अपने महाराज से खाना लगाने को कह दिया था ,वह भी कहीं बाहर गया था और उसका डिनर भी अभी बाकी था |

हाथ-मुँह धोकर हम उसके साथ टेबल पर जा बैठे |

छोटी थी मैं ---मन में सोच रही थी कि टोपी वाले लेखक श्री के घर पर भी रहने का अंदाज़ आम उच्च वर्ग के लोगों जैसा ही था |

खाना खाते-खाते अम्मा की उस युवक से बहुत सी बातें होती रहीं | माँ काफ़ी आश्वस्त हो चुकी थीं |

परिवार में से उस युवक व दो सहायकों के अलावा और कोई न था |

युवक ने बताया कि वह बाबू गुलाबराय जी का पोता है | परिवार के सभी लोग किसी पारिवारिक उत्सव में गए हैं | बाबा जी शहर से बाहर किसी साहित्यिक सम्मेलन में गए हैं |

हमारे लिए एक बैड-रूम में बिस्तर लगवा दिए गए थे | माँ को मामा जी का फ़ोन नं ही नहीं मिला था | शायद घबराहट में माँ उसे कहीं रखकर भूल गईं थीं |

थकान के कारण हम दोनों ही घोड़े बेचकर सोए | नई जगह पर भी न जाने कैसे इतनी गहरी नींद आ गई थी |

सुबह उठते ही माँ ने अपना पर्स फिर से चैक किया , पते व फ़ोन नं का कागज़ माँ के पर्स की बाहरी जेब में था जिसे माँ रात में घबराहट के कारण देख ही नहीं पाईं थीं |

सुबह मामा जी को फ़ोन किया गया | हम लोग नाश्ता कर ही रहे थे कि मामा जी पहुँच गए | उनका घर वहाँ से दस मिनट की दूरी पर ही था |

मामा जी भी बहुत घबराए हुए थे क्योंकि वे बहुत देर तक बस-स्टैंड पर चक्कर काटते रहे थे |

कैसे पता लगते कि हम दोनों कहाँ थे? कोई माध्यम ही नहीं था |

जब उन्हें पता चला कि हम बाबू जी के घर पर हैं ,वे खुश हो गए और तुरंत आ पहुँचे |

इतना अपनापन ,इतना सलीका और इतना सरल व्यवहार कि हम भीग उठे |

बाबू जी से मिलने की तीव्र इच्छा थी लेकिन जब तक हम आगरा रहे ,वे बाहर थे और जब अगली बार मामा जी के पास जाना हुआ ,उनका स्थानांतरण अलीगढ़ हो चुका था |

लेकिन इतना अपनत्व यह सोचने के लिए बाध्य करता है कि आख़िर कोई तो अदृश्य डोर है जो कहीं न कहीं हम सबको बाँधकर रखती है |

आज भी मैं बाबू गुलबराय जी व उनके सुसंस्कृत परिवार के प्रति नतमस्तक हो जाती हूँ | माँ तो जब तक रहीं ,न जाने कितनी बार मित्रों से इस घटना की चर्चा करती रहीं |

यह जीवन है ,इस जीवन का

यही है --यही है --यही है

रंग-रूप !!

मित्रों को स्नेह

डॉ. प्रणव भारती