मुझे तुम याद आए--भाग(१२) Saroj Verma द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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मुझे तुम याद आए--भाग(१२)

और उधर सेठ रामलाल जी ने बाबा शंखनाद के स्वागत- सत्कार का काम पुरोहित जी को सौपते हुए कहा.....
पुरोहित जी! बाबा शंखनाद का ख़ास ख्याल रखिएगा,किसी भी चीज की कमी ना होने पाएं,मैने अपनी पुरानी महाराजिन से उनके खाने-पीने का प्रबन्ध करने को कह दिया है,वें ही उन सबके लिए शुद्ध एवं सात्विक भोजन बनाआ करेंगी,बूढी है बेचारी,मै ने कहा तो मान गई,बोली धरम-पुन्न का काम है,कैसे मना करती हूँ,इसी बहाने अगला जनम सुधर जाएगा।।
ये बिल्कुल सही किया आपने सेठ जी! खाने पीने का इंतज़ाम करवा कर ,मेरे घर पर भी लहसुन-प्याज का प्रयोग होता है,कहीं ऊँच-नीच हो जाती तो मुझे भी अच्छा ना लगता,पुरोहित जी ने सेठ जी से कहा।।
यही सोचकर तो मैने खाने के लिए महाराजिन को बुलवा लिया,सेठ रामलाल जी बोले।।
और डाँक्टर बाबू भी कभी-कभी सब का ख्याल रख लिया करेंगें,पुरोहित जी बोले।।
अरे,ये आपने कैसीं बात कर दी ?पुरोहित जी! ,सोमनाथ तो बोला कि वो इन बाबा-बैरागियों पर बिल्कुल भी भरोसा नहीं करता,ये तो एक नम्बर के पाखंडी होते हैं,मैं तो उन सबकी शकल भी ना देखूँ,इन सब झमेलों से मुझे तो आप दूर ही रखिएं,सेठ रामलाल बोले।।
सच में! ऐसा कहा डाक्टर बाबू ने,पुरोहित जी ने परेशान होकर सेठ रामलाल जी से पूछा।।
हाँ! पुरोहित जी! ऐसा ही कहा,सेठ रामलाल जी बोले।।
सारे बाबा पाखंडी नहीं होते,पुरोहित जी बोले।।
अपने-अपने विचार हैं,हम और आप क्या कर सकतें हैं?भला! डाक्टरी पढ़ा हुआ लड़का है ,शायद इसलिए ये सब नहीं मानता,उसकी मर्जी,सेठ रामलाल बोले।।
जी!सेठ जी! अब क्या कर सकते हैं?अपनी-अपनी सोच है,पुरोहित जी बोले।।
अच्छा! चलिए मैं अब चलता हूँ पुरोहित जी! शायद शाम तक बाबा शंखनाद शिष्यों सहित यहाँ पधार जाएं,उनके आते ही मुझे फौरन हवेली पर आकर सूचित किजिएगा,तब तक मैं हाट से जाकर उनके जलपान के लिए,कुछ फल और कुछ सूखे मेवे लेकर आता हूँ,सेठ राम लाल जी बोले।।
जी! बहुत बढ़िया!उनके स्वागत-सत्कार में कमी नहीं रहनी चाहिए,पुरोहित जी बोले।।
जी! हाँ! बिल्कुल! और इतना कहकर सेठ रामलाल चले गए।।

शाम हुई और बाबा शंखनाद अपने शिष्यों सहित मन्दिर की धर्मशाला में पधारे,सेठ रामलाल और पुरोहित जी उनके स्वागत में लग गए,कई और जनों ने भी धर्मशाला में आकर इस काम में अपनी हिस्सेदारी दी,जलपान करने के बाद सभी शिष्य और बाबा शंखनाद विश्राम करने लगें फिर सभी गाँवजन अपने अपने घरों में आ गए।।
रात हुई , सबके भोजन का प्रबन्ध पुरोहित जी और सेठ रामलाल जी ने धर्मशाला के आँगन में करवाया,महाराजिन ने वहीं खाना बनाया और भी लोगों ने उस काम में महाराजिन की मदद की क्योंकि महाराजिन बूढ़ी थी ,इतना सबकुछ उसके अकेले के बस का नहीं था।
उस रात धर्मशाला में कई लालटेनों की ब्यवस्था की गई कि बाबा के भोजन के समय कोई भी असुविधा ना हो,खाना परोसने के लिए पुरोहित जी ने कजरी को भी घर से बुलवा लिया,कजरी आई लेकिन वो आँगन में बाहर ही महाराजिन के साथ लग गई,अन्दर खाना परोसने वाले और भी लोग थे,इसलिए कजरी को भीतर जाने का मौका नहीं मिला।।
सबका खाना खत्म होते होते रात हो चुकी थी और सब सोने चले,सुबह हुई मन्दिर में हर रोज कजरी के भजन से ही पूजा प्रारम्भ होती थी,पुरोहित जी ने मन्दिर के पट खोलकर देवी-देवता को स्नान कराया,फिर पूजा शुरू हुई,कजरी ने भजन गाना शुरू किया,कजरी का भजन सुनते ही सत्या को कुछ अजीब सा लगा,उसे लगा कि ये तो कजरी की आवाज है और वो मन्दिर की ओर भागा।।
मन्दिर पहुँचकर वो किनारे खड़े होकर भजन सुनने लगा क्योंकि उसने अभी तक स्नान नहीं किया था,तब कजरी उसकी तरफ पीठ करके भजन गा रही थी,भजन खतम हुआ तो वहीं कजरी के पास में खड़े सोमनाथ ने कजरी से कहा...
तुम इतना अच्छा गाती हो कजरी कि इंसान तुम्हारा भजन सुनकर मंत्रमुग्ध हो जाता है।।
सत्या ,कजरी का चेहरा देखने की कोशिश कर रहा था लेकिन वो उसका चेहरा देख ही नहीं पा रहा था,क्योंकि तब तक भीड़ इकट्ठी हो चुकी थी,प्रसाद लेने के लिए,सब अपनी अपनी जगह से उठकर खड़े हो गए थे....
तभी मन्दिर से एक दो महिलाएँ बात करती हुईं बाहर आ रहीं थीं और वें कह रहीं थीं कि पुरोहित जी तो कब से चाहते हैं कि कजरी और डाक्टर सोमनाथ का ब्याह हो जाएं लेकिन कजरी ही हाँ नहीं कर रही,अब पुरोहित जी भी मजबूर हैं,अपनी सगी बेटी होती तो जोर-जबरदस्ती भी कर लेते,...
सत्या ने ये सुना तो परेशान हो उठा और कई सवाल उसके जहन में घूमने लगे,इसका मतलब ये उसकी ही कजरी है और अगर ये जिन्दा थी तो ये मेरे पास वापस लौटकर क्यों नहीं आई? क्या इसका प्यार दिखावा था,इसे अगर मुझसे प्यार होता तो एक बार तो आती,आखिर ये वापस क्यों नहीं लौटी अगर ये जिन्दा थी तो....
हे!ईश्वर! मुझे कोई तो राह दिखाओ,लेकिन ये भी तो हो सकता है कि ये मेरी कजरी ना हो,अभी तक मैने इसका चेहरा भी तो नहीं देखा और ये डाक्टर सोमनाथ कौन हैं?
वो ऐसे ही सवालों से घिरा था कि पुरोहित जी उसके पास आकर प्रसाद देते हुए बोले.....
लीजिए! प्रसाद लीजिए।।
जी! मैने अभी तक स्नान नहीं किया है ,वो तो मैं भजन सुनकर यहाँ आ गया था,सत्या बोला।।
जी!अच्छा! भजन! वो मेरी बेटी कजरी गा रही थी,पुरोहित जी बोले।।
बहुत ही अच्छा गाती है आपकी बेटी,सत्या बोला।।
पहले नहीं गाती थी,सकुचाती थी,लेकिन मेरे कहने से गाने लगी है,पुरोहित जी बोले।।
मुझे समझ नहीं आया कि पहले क्यों नहीं गाती थी,सत्या ने पूछा।।
जब वो मुझे मिली थी तो अन्धी थी बेचारी ,आत्मविश्वास की कमी थी उसमें,ऐसे ही दिनभर आँसू बहाती रहती थी इसके अपने इससे बिछड़ गए थे ना इसलिए,हम सब गाँववालों ने मिलकर इसकी आँखों का इलाज करवाया,जब देख सकी तो आत्मविश्वास बढ़ा,पुरोहित जी बोले।।
तो ये लौटकर अपने घर नही गई,सत्या ने पूछा।।
सत्या ने ये सवाल पूछा ही था कि तभी पुरोहित जी को सेठ रामलाल जी बुला लिया....
अब सत्या और भी उलझकर रह गया था सवालों में ,किससे अपने सवालों के जवाब माँगता ?फिर वो धर्मशाला आ पहुँचा।।
धर्मशाला के आँगन में सुबह के जलपान की ब्यवस्था हो रही थी क्योंकि आज दोपहर बाबा शंखनाद के प्रवचन थे,इस कार्य में सभी भागीदारी ले रहे थे,कजरी भी आई थी,तभी सेठ रामलाल जी कजरी से बोले....
कजरी बिटिया! धर्मशाला के भीतर रखें मटको का पानी बदलकर उनमें कुएँ से निकाल कर ताजा पानी भर दो।।
जी काका! और इतना कहकर कजरी ने धर्मशाला के सभी मटकों का पानी पहले बाहर आकर उड़ेला फिर उन्हें साफ करके उनमें धर्मशाला के कुएंँ से ताजा पानी भरकर फिर से उनके स्थान पर रखने लगी,मटके थोड़े बड़े थे इसलिए कजरी को उन्हें उठाने में दिक्कत हो रही थी,लेकिन फिर भी कोशिश करके उन्हें भरकर ले जाती और उनकी जगह रख आती,कम से कम पाँच मटके थे,कजरी सभी भरकर रख चुकी थी केवल आखिरी वाला ही रह गया था रखने के लिए,वो जैसे ही लेकर जा रही थी तो उसने ध्यान नहीं दिया और वो किसी से टकरा गई।।
मटका जमीन में गिरकर टुकड़े टुकड़े हो गया और उसका पानी भी जहाँ तहाँ बिखर गया,ये देखकर कजरी को गुस्सा आया,उसने उसकी तरफ नजर उठाकर देखा तो फिर वो कुछ ना बोली क्योंकि वो तो बाबा शंखनाद का कोई शिष्य था,जिसने गेरुए वस्त्र पहन रखें थे और गले में रूद्राक्ष की माला धारण कर रखी थी, कजरी ने उसकी ओर देखा तो एक पल को वो उसे देखती रह गई जैसे कि उससे कोई पुरानी जान-पहचान हो।।
वो शिष्य भी कजरी को एकटक निहारे जा रहा था,क्योंकि वो सत्या था जो अभी स्नान करके लौटा था और आते ही कजरी से टकरा गया था।।
सत्या ने तो फौरन अपनी कजरी को पहचान लिया लेकिन बोला कुछ नहीं,कहता भी क्या कि जेल से छूटकर वो सन्यासी बन गया है,उसे कुछ समझ ही नहीं आया कि वो क्या कहें और क्या पूछे?उसे समझ में आया कि ये इसकी ही कजरी है,लेकिन ये वापस क्योंं नहीं लौटी?सत्या ने फिर से मन मे वही सोचा।।
कुछ देर में सभी के लिए जलपान लग गया,केले के पत्तों में भोजन परोसा गया,भोजन में पूरियाँ थी ,आलू की तरी वाली सब्जी थी जिसे मिट्टी के कटोरीनुमा सकोरे में परोसा गया था और मीठे में खीर थी,सब शान्त मन से जलपान ग्रहण कर रहे थे लेकिन सत्या का मन खाने मे नहीं लग रहा था,उसकी नजरें तो बस बेकल होकर कजरी को ढूढ़ रहीं थी,तभी पूरियाँ परोसने कजरी आई और उसने सत्या से पूरी लेने को पूछा।।
लेकिन सत्या ने सिर हिलाकर मना कर दिया तभी बाबा शंखनाद बोले.....
मैं सुबह से देख रहा हूँ सत्या कि तुम्हारा मन बेचैन है,तुम जलपान भी ठीक से ग्रहण नहीं कर रहे हो,ऐसा क्यों है? तबियत ठीक नहीं क्या?
जब कजरी ने सत्या नाम सुना तो आश्चर्यचकित हो गई लेकिन बोली कुछ नहीं और वहाँ से चली गई फिर घर आकर सोचने लगी कि....
क्या ये सुन्दर बाबू हैं? लेकिन ये सुन्दर बाबू कैसे हो सकते हैं? वो तो जेल में हैं,क्या पता वें जेल से छूट गए हो?अगर ये सुन्दर बाबू होते तो मुझे फौरन पहचान लेते और सबसे पहले यही कहते कि तुम कहाँ चली गई थी कजरी? लेकिन इन्होंने तो कुछ भी नहीं कहा,हो सकता है कि ये सुन्दर बाबू ना हों और फिर सुन्दर बाबू वो भी वैरागी के वेष में,मुझे कुछ भी समझ नहीं आ रहा मैं कैसे इस गुत्थी को सुलझाऊँ?
और उधर सत्या के दिमाग़ में भी यही चल रहा था कि कजरी ने मेरा नाम सुनने के बाद कोई प्रतिक्रिया क्योंं नहीं दी और चुपचाप चली क्योंं गई?
इसी उलझनों के इर्दगिर्द ही दोनों की समझ घूम रही थी,दोनों ही अपने मन की बात एकदूसरे से पूछने के लिए झटपटा रहें थे लेकिन पहल दोनों में से किसी ने भी नहीं की।।
सबका खाना खत्म हो चुका था और सभी प्रवचन वाले स्थान पर चले गए थे लेकिन सत्या वहाँ नहीं गया था, सत्या तो ध्यानमग्न सा होकर धर्मशाला के प्राँगण में टहल रहा था,प्राँगण में केवल वो, महाराजिन और पूरी बेलने वाली किशोरी थे,सारा भोजन बन चुका था,जिसे भी धर्मशाला में भोजन करना था सब कर चुके थे,अब कोई ना रह गया था भोजन के लिए तो महाराजिन ने चूल्हा बुझा दिया और पूरी बेलने वाली से बोली....
तू जा! मैं सब कर लूँगी,रसोई साफ करके मैं भी घर को निकलूँगी फिर प्रवचन सुनने भी तो जाना है,इतना सुनकर पूरी बेलने वाली किशोरी चली गई,लेकिन महाराजिन चूल्हे से गरम तेल की कढ़ाई उतरवाना भूल गई,चूँकि कढ़ाई बड़ी थी और बूढ़ी महाराजिन के बस में ना था उसे अकेले उतारना,तभी महाराजिन की नज़र आँगन में टहल रहे सत्या पर पड़ी और वो उससे बोली....
बेटा! जरा कढ़ाई उतरवा दोगें,अकेले मेरे बस का नहीं है।।
जी! हाँ! अम्मा! अभी आया,
इतना कहकर सत्या कढ़ाई उतरवाने लगा,सत्या का ध्यान वैसे भी कजरी में लगा था,इसलिए वो कढ़ाई ठीक से ना सम्भाल पाया और कढ़ाई का गरम तेल छलक कर सत्या के एक पैर पर जा गिरा,सत्या की चीख निकल गई,तब तक कढ़ाई जमीन पर रखी जा चुकी थी।।
महाराजिन डर गई और मटके का ठंडा पानी लाकर सत्या के पैर डालने लगी,पैर में पानी डालकर वो धर्मशाला के द्वार पर गई और वहाँ से गुजर रहे एक व्यक्ति से बोली....
बेटा! बाबा शंखनाद के शिष्य, पैर में जल गए हैं ,उन्हें डाक्टर बाबू के पास ले जाओ,भगवान तुम्हारा भला करें।।
और वो आदमी सत्या को सोमनाथ के पास ले गया,सोमनाथ ने सत्या का पैर देखा और पूछा....
कैसे जल गए आप?
जी महाराजिन की मदद कर रहा था,गरम तेल गिर गया,सत्या बोला।।
मैं मरहम दिए देता हूँ लगा लीजिएगा और धूप में मत निकलिएगा,सोमनाथ बोला।।
जी! ठीक है,सत्या बोला।।
ईश्वर की कृपा से आप तो खूब हट्टे कट्टे दिखते हैं फिर ये ढ़ोंग करने की आपको क्या जरुरत है? मेहनत करके कमाइए और खाइए,बाबा के चक्कर में पड़कर क्योंं जिन्दगी खराब कर रहे हैं?सोमनाथ बोला।।
अभी आपको मेरी रामकहानी मालूम नहीं है ना! नहीं तो आप ऐसा कभी ना कहते,सत्या बोला।।
आपकी रामकहानी सुनने में मुझे भी दिलचस्पी है ,सोमनाथ बोला।।
फिर कभी सुनिएगा,सत्या बोला।।
जैसी आपकी मर्जी लेकिन दो दिन बाद पैर फिर से दिखा जाइएगा,सोमनाथ बोला।।
जी अच्छा! अब चलता हूँ,इतना कहकर सत्या वापस धर्मशाला आ गया।।

उधर दोपहर के समय प्रवचनों का आरम्भ हुआ,सभी गाँवजन वहाँ पहुँचे लेकिन सत्या, कजरी और डाक्टर साहब ना पहुँचें....

क्रमशः.....
सरोज वर्मा....