स्याह रातों की सुबह श्रुत कीर्ति अग्रवाल द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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स्याह रातों की सुबह


स्याह रातों की सुबह

काॅफी हाउस के एक टेबल पर वे दोनों आमने-सामने बैठे हुए थे। ध्यान से देखा तो मासूम बच्चे जैसे चेहरे पर ढेर सारी गम्भीरता लिये वह लड़की अमित को पसंद आ गई थी।


"आप क्या बहुत कम बोलतीं हैं?"
बात शुरू करने के लिए उसने पूछा तो एकाएक उधर से एक सुझाव आया...
"आप न, इस शादी से इनकार कर दीजिए!"


चौंक उठा था वह,"क्यों भला?"


"मैं शादी करना ही नहीं चाहती!" लड़की की आवाज़ काँप रही थी।


"आप इतनी नर्वस क्यों हैं? छोड़िये शादी-वादी की बातें! काॅफी अच्छी है न यहाँ की?" अमित ने उसे सामान्य करने के लिए विषयांतर करने का प्रयास किया, "किस क्लास में पढ़ती हैं आप?"
"ट्वेल्व्थ के बाद मेरी पढ़ाई छूट गई है।"
फिर चौंका था वह। बायोडाटा के अनुसार तो इसे बीकाॅम सेकेन्ड ईयर में होना चाहिए।
"फिर क्या करती हैं आप सारा दिन?"
"घर में रहती हूँ। घर के काम सीख रही हूँ।"
अमित को लगा, उसका धैर्य जवाब दे रहा है।
"क्या बात कर रही हैं? आप बड़े शहर में रहने वाले, माडर्न परिवार के लोग हैं। आपके पापा इतने बड़े ऑफिसर हैं!"
वह चुप ही रही तो मन को मथता हुआ एक प्रश्न अमित के होंठों पर आ ही गया, "तो क्या आप किसी से प्यार करती हैं?"
"हाँ, करती हूँ! बहुत ज्यादा करती हूँ।"
जैसे सब्र का बाँध टूट गया हो, लड़की की उदास आँखें अब आँसुओं से सराबोर थीं।
"किससे?"
लगा, जैसे मूर्ख बनाने के लिए इन लोगों ने उसे इतनी दूर बुला लिया है।
"अपनी दीदी, सुधा से!'
कोई ज्वालामुखी फूट पड़ने को तैयार था उधर! अमित चुपचाप उमड़ते आँसुओं की उस बरसात को देखता रहा। फिर साँसें नियंत्रित होने पर वही बोली, "मम्मी ने आपको कुछ भी बताने को मना किया है पर बताना जरुरी है। आप से पहले दो लड़के मुझे रिजेक्ट भी कर चुके हैं। आप भी कर दीजिए, पर मैं झूठ बोलकर शादी नहीं करना चाहती।"
इस बार अमित ने प्यार से उसके दोनों हाथ पकड़ लिए।
"मत करना शादी! दोस्ती तो कर सकती हो न? बताओ, तुम इतनी परेशान क्यों हो?"
"आपको बहुत सारी बातों का पता नहीं है। सुधा मेरी सगी बहन है। वो पिछले साल एक लड़के के साथ भाग गई थीं। उसके बाद से हमारे घर में कोई उनका नाम तक नहीं लेता। माँ बीमार रहने लगी है, पापा और दादी मेरी शादी करके मुझे घर से निकाल देना चाहते हैं क्योंकि लोग कहते हैं, मैं भी उन जैसी ही निकलूँगी।"
उसके दर्द की लपटों से अमित का मन पिघल गया।
"लोगों को छोड़ो, तुम क्या चाहती हो मेधा?"
वह कुछ अचकचा सी गई। फिर कुछ सोंचकर बोली, "पैसे कमाने हैं मुझे, बहुत सारे पैसे!"
अपनी हर बात से वह अमित को चौंकने पर मजबूर कर रही थी।
"किसी को नहीं पता, पर मैं रोज़ बात करती हूँ दीदी से! वो अच्छा लड़का नहीं था। उसके दोस्त भी परेशान करते थे तो वह छिपकर भाग निकली पर अब उनकी हालत बहुत खराब है। न रहने की जगह है, न कोई नौकरी ही। मैं घर में किसी को ये बात नहीं बता सकती। पापा को मिल जाए तो वह उनका मर्डर ही कर देंगे। पर विश्वास कीजिये, वह बुरी लड़की नहीं है। बस, उनसे गलती हो गई है। अब मैं क्या करूँ? उन्हें जिंदा रहने के लिए सहारा चाहिए।"
मदद माँगती हुई, आँसुओं से तर बतर वे ईमानदार आँखें... इतनी खूबसूरत थीं कि उन्हें चूम ही लेने को दिल चाह रहा था। मेधा के हाथों पर उसकी पकड़ थोड़ी और मजबूत हो गई थी!
"सब ठीक हो जाएगा, मैं आ गया हूँ न!"
मौलिक एवं स्वरचित
श्रुत कीर्ति अग्रवाल
shrutipatna6@gmail.com