बिनु पानी सब सून श्रुत कीर्ति अग्रवाल द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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बिनु पानी सब सून



प्रिय दीदी


चौंक गई न? तुमने तो कभी सोंचा तक नहीं होगा कि मैं तुम्हें पत्र लिखूँगी। पर एक बात शायद भूल गई तुम, या शायद जान-बूझ कर भुला दिया कि मैं सदा की स्वार्थी रही हूँ... आज भी मेरा स्वार्थ ही सामने आ गया है जो तुम्हें पत्र लिखने बैठी हूँ।

जीवन में पहली बार तुम्हें पत्र लिख रही हूँ और पहली ही बार अपने बीच के रिश्ते की गरिमा को उसी दंभ से नकार नहीं पा रही अतः समझ में ही नहीं आ रहा कि बात को शुरू कहाँ से करुँ। चलो, बिल्कुल ही शुरू से प्रारंभ करती हूँ। वह तीन कमरों का परंपरागत मध्यमवर्गीय घर था हमारा, थोड़ी कतर-ब्यौत के बावजूद अच्छी-खासी चलती मम्मी-पापा की गृहस्थी थी... हम दोनों का अतीत तो एक ही था न? तुम मुझसे केवल तीन ही साल तो बड़ी थीं। हमने लगभग साथ ही साथ आँखें खोलीं, एक ही आँगन में पले बढ़े, पर हमारी दुनिया बिल्कुल अलग-अलग थी। हर समय साथ रहने के बावजूद हम कभी अंतरंग नहीं हो सके जिसका कारण पूरी तरह प्रकृति प्रदत्त था। तुम पिताजी की तरह साँवली थीं और नैन-नक़्श भी काफी हद तक कुरूप थे जिसे कितना भी पहना-ओढ़ा दिया जाय, कोई फायदा नहीं और मुझे मिली थी मम्मी सी गोरी त्वचा और पापा जैसे तीखे नाक-नक़्श, मैं तो इतनी सुन्दर थी कि रास्ता चलते लोग भी मुझे देखकर ठिठक जाते। होश संभालने के साथ ही मुझे पता चल गया था कि मैं कुछ विशिष्ट हूँ, कि ईश्वर ने ही मुझे विशेष बनाकर भेजा है और गोरे रंग पर हमारे समाज की आसक्ति ने समय-समय पर मेरी इस धारणा को पुख्ता ही किया। मैंने सीख लिया था कि भोलेपन और मासूमियत के साथ कुछ भी बोलकर मैं हर किसी का प्यार पा सकती हूँ, अपनी हर माँग पूरी करा सकती हूँ। सच कहूं तो थोड़ा सा अभिनय सीखने के अतिरिक्त मुझे कुछ और करने की जरूरत भी नहीं थी जबकि तुम अपने वजूद को साबित करने के लिए उस नन्ही सी उम्र से ही रात-दिन जूझ रही धी। कक्षा में अव्वल आती, गृहस्थी के हर काम में मम्मी की मदद करतीं, गाना सीखती, सिलाई-कढाई करतीं, और भी न जाने कितने उपक्रम... पर भाग्य की विडंबना देखो, बिना कुछ किये भी जीतती तो मैं ही जब मम्मी को उनकी सहेली से यह कहते सुनती कि हमें तो विनीता की चिंता खाए जाती है। रंजीता का क्या, उसे तो कोई भी माँग कर ले जाएगा। उसी समय तुम्हारे किये हर कार्य का महत्व मेरे लिए तुच्छ हो जाता और मैं तुमको स्वयं से हीन मान, गर्वान्वित हो जाती कि मेरे पास तो रूप की वह दौलत है जो बिरले ही किसी को मिलती है।

हम बड़े होते जा रहे थे और हमारे बड़ो का व्यवहार, उनकी प्राथमिकताएँ बदलती जा रही थीं। शायद मेरे घमंडी और गैरजिम्मेदाराना व्यवहार से वे परेशान हुए होंगे कि मुझे शनैः-शनैः महसूस हुआ कि तुम कई बार मुझसे जीतने लगी हो। जब तुम अपनी कक्षा में प्रथम आतीं, मुझे बमुश्किल पास मार्क्स मिले होते, मम्मी की बीमारी में तुम पूरा घर कुशलता से सँभाल लेतीं या फिर स्कूल द्वारा प्रायोजित हैंडीक्राफ्ट प्रदर्शनी में तुम्हारी बनाई शाॅल हाथोंहाथ बिक जाती और तुम अपनी पहली कमाई के एक हजार रूपये लाकर, पापा के हाथ में रख देतीं। अब मेरे समक्ष जब-तब तुम्हारा उदाहरण रख कर ऊँच-नीच समझाई जाने लगी। सच कहूं, उन क्षणों में मैं अपने अंदर सुधार लाने के बजाय तुमसे ईर्ष्या करने में व्यस्त होती थी। क्या करती, तुमसे जीतने की आदत थी मुझे, तुम्हारी प्रशंसा सुनकर लगता कि इससे बड़ा अपमान और कुछ नहीं हो सकता, कि तुम्हारी सारी योग्यता, कर्मठता और वो सुघड़ता, मानो तुम मेरे विरुद्ध कोई साजिश कर रही हो। वो जो मैं अपनी सहेलियों के साथ मिलकर उतने-उतने लोगों के बीच, तुम्हारा मज़ाक बनाने को उद्यत रहती कि मुझे तुम्हारा उतरा हुआ चेहरा देख कर शांति मिलती थी, क्या था वह सब? मैंने तुम्हें हमेशा अपना प्रतिद्वंदी क्यों माना जबकि तुम्हारी ओर से तो ऐसा कोई इशारा मुझे कभी नहीं मिला था? हाँ दीदी, आज मैं अपनी उस नादानी के लिए बेहद शर्मिंदा हूँ कि मैंने तुम्हें बड़ी बहन की इज्जत कभी नहीं दी। कड़वा बोलने का या तुमको नीचा दिखाने का जो एक भी मौका मैंने नहीं छोड़ा, सच कहूं तो वो मेरा बचपना नहीं, कुटिलता थी। तुम अब मुझसे बेहद कम बोलतीं थीं, मेरे आसपास आने से भी कतराती पर मैं तुमको घायल करने का कोई मौका नहीं चूकती... क्यों इतनी क्रूर थी मैं, मेरे पास आज इन क्षणों में कोई जवाब नहीं है।

मैं तुम्हारी बहन नहीं, सच्चे अर्थों में दुश्मन थी, ये तुम्हें आज मैं बताने जा रही हूँ। तुम्हें दुखी देखने की, तुमसे बदला लेने की पराकाष्ठा थी वह कि घर में तुम्हारी शादी की बातें चल रही थीं और अमित जैसे, इतने प्रतिष्ठित परिवार के कुलदीपक से तुम्हारा ब्याह लगभग पक्का हो गया था। तुम्हारे गुणों और स्वभाव के बारे मे जानते थे वह, फोटो से पसंद भी कर लिया था तुमको, अतः उस दिन उनका वो तुम्हें देखने आना महज औपचारिकता ही तो बची थी! मुझे यह कुछ अच्छा नहीं लग रहा था। जब मम्मी खुशी से उमगती हुई कहतीं कि बेकार ही मैं इतने सालों तक परेशान रही, मेरी विनीता तो राजरानियों सा भाग लिखवा कर लाई है, और तुम्हारे चेहरे पर एक लजाई, छुई-मुई सी मुस्कान खिल उठती तो सच कहती हूँ कि कुछ भी कर के सबकुछ बिगाड़ देने का मन करता था मेरा... तुम्हारी खुशियों को छीन लेना चाहती थी मैं क्योंकि इस सारे प्रकरण में मुझे तो परदों के पीछे छुपाकर रखा गया था न? लड़के वालों को यह तो पता रहा होगा कि एक छोटी बहन है तुम्हारी, पर वह कौन है, कैसी है, सामने नहीं आने दिया गया था। तुम्हारे पक्ष में, हमारे अभिभावकों ने लड़के वालों के साथ ये छोटा सा छल किया था पर मुझे तो इसमें अपने व्यक्तित्व की हार महसूस हुई थी। तुम्हें जिताने के लिये साजिश की जा रही थी मेरे साथ... तो प्रत्युत्तर में मैंने भी एक साजिश करी थी... तुमसे तुम्हारा सबकुछ छीन लेने की साजिश!

जिस दिन वो लोग तुम्हें देखने आ रहे थे, मुझे अंदाज था कि मुझे उनके सामने नहीं पड़ने दिया जाएगा अतः इसके पहले कि कहीं और भेज दी जाती, मैंने सहेली की शादी में जाने का बहाना बनाया। उस समय सैकड़ों कामों की व्यस्तता के चलते मेरा स्वयं ही कहीं जाने का प्रस्ताव मम्मी के लिए काफ़ी था और उनकी इस अनमयस्कता का फायदा उठा कर मैं, साज-सिंगार कर के, घर के बाहर निकल, लड़के वालों के आ जाने का इन्तज़ार करती रही थी। हाँ दीदी, मेरा उन लोगों के समक्ष, घर में अकस्मात आ जाना, मेरी वह चंचलता और मन मोह लेने वाला भोलापन कोई संयोग नहीं था, एक मकसद के अंतर्गत था... मैं जीतने के लिए उद्धत थी, अपने तरकश के सारे वाणों का उपयोग कर रही थी... और कामयाब हो गई! मेरे रूप, शरारती भावभंगिमा और बहुत प्यारी सी लड़की के अभिनय के समक्ष तुम्हारे सारे गुण एकाएक निस्तेज हो गए और लड़के वालों ने तुम्हें नापसंद कर, मेरे लिए प्रस्ताव रख दिया।

बात गलत थी, पापा-मम्मी को ऐतराज करना चाहिए था पर वे तो उन लोगों की मान-प्रतिष्ठा से इतने अभिभूत थे कि ऐसी नाजायज माँग को भी स्वीकार कर बैठे और इतनी कम उम्र में ही मैं तुम्हारे स्थान पर दुल्हन बना दी गई। मुझे तो अमित से कोई लगाव नहीं था पर उनको पा लेने को मैंने उस समय अपनी सबसे बड़ी जीत समझा था। वह जीत, जीत नहीं पाप था, यह तो मुझे बहुत बाद में समझ में आया था... मैंने एक युवा होती लड़की की आँखों में जन्मते सपने का खून किया था दीदी... वह भी तब, जब मात्र दो दिन पहले ही मैंने तुम्हें पापा की अलमारी से अमित का फोटो चुराते, उसे मुग्ध दृष्टि से देखते, चूमते और फिर सीने में भींच लेते देख लिया था। भले ही मेरा ब्याह तय होते ही किसी तपस्विनी या हठयोगिनी सी, सबकुछ झटक कर तुम तटस्थ दिखाई देती थी, पर अमित की फोटो पर जमी तुम्हारी उन चाहत भरी शर्माई निगाहों को मैं तो जीवन भर भूल नहीं पाई। बाद में जब हकीकत मुझे समझ में आने लगी तो उन आँखों से डर लगने लगा था मुझे... कि किन्हीं कमज़ोर पलों में तुमको अपनी वह आसक्ति याद ही न आ जाय, या मेरे पाप ही फलीभूत न हो जाएँ या कहीं तुमने मुझसे बदला लेने की ही ठान ली तो? तुम्हें नहीं पता, तुम कितनी सक्षम थीं कि तुम्हारे जिन गुणों से प्रभावित थे ये लोग, तुम्हारी बहन होने के बावजूद मेरे पास कहाँ थे? अपनी गलती उन लोगों को भी समझ में आने लगी होगी। सारे समीकरणों को उलट-पलट करने को मैं तो एक नशीली बयार की तरह बीच में आ गई थी पर नशा टूटने में वक्त ही कितना लगता है? वह आदमी तो, जो मेरी अदाओं पर रीझ कर आनन-फानन में मुझे ब्याह लाया था, अब मेरी उन्हीं अदाओं से डरने लगा। अमित के मित्रगण और रिश्ते के देवर मुझे घेरे रहते और सच कहूँ तो मुझे भी गप्पें मारना और लोगों की आँखों में अपना आकर्षण पढकर इठला जाना अच्छा लगता था पर उन क्षणों में अगर अमित का वश चलता तो वे मुझे सात तालों में बंद कर रखते। मेरे भोलेपन पर वो कभी यकीन नहीं कर सके, सजना-सँवरना उन्हें नागवार लगता और घर-गृहस्थी के कामों में मेरा कच्चापन अब उनको खलने लगा था। जैसे कोई बरसाती नदी घरघराती-हरहराती उमड़ कर बहे पर मौसम बदलते ही कहीं दूर जाकर सिमट जाय, कुछ ऐसा ही प्यार हमारे बीच भी हुआ था। मैं अच्छी तरह से जानती हूँ कि तुम्हें ठुकरा कर वे बहुत पछता रहे हैं दीदी, और यह भी पता चल गया था कि स्वयं को होम कर के भी, उसदिन मैं तुमको हरा नहीं सकी थी।

हमारी रुचियाँ अलग थीं। वे अंतर्मुखी थे, मुझे लोगों से बोलते-बतियाते समय, वक्त का ख्याल ही नहीं रहता था। गृहस्थी के हर वक्त के खटराग मुझे ऊबाते, सास-ससुर की चाहतों पर पूरा उतरना मेरे वश के बाहर था। उम्र कम थी, ज्यादा शिक्षित भी नहीं थी... अमित को बाँध नहीं सकी तो उसका कारण भी तुम्हें ही मान बैठी थी कि उनसे प्यार करने की वजह से तुमने शादी नहीं की, और तुम्हारी बददुआ लगने के कारण वो मुझसे दूर होते जा रहे हैं, इसी शिकायत के चलते मैंने तुमसे कभी कोई रिश्ता रखा ही नहीं। मम्मी पापा के बाद तो फिर कभी पता ही नहीं चला तुम कहाँ हो, क्या कर रही हो। यूँ तुमने ही हमारी कोई खैर-खबर कब ली? सच बताना, इसके पीछे सिर्फ मैं थी या अमित भी थे?

उन्नीस वर्ष की छोटी सी उम्र में जब मैं ब्याह कर इस घर में आई तो मानसिक रूप से इतने बड़े बदलाव के लिये तैयार ही नहीं थी। कुछ दिन बीतते न बीतते, सास ने हर वक्त मेरी अकर्मण्यता का रोना रोना शुरू कर दिया, ससुर मुझसे निराश से हो गए, उधर अमित की नजरें सिर्फ पहरेदारी करती ही प्रतीत होतीं। फिर जल्दी ही विक्कू और रंजन भी जिंदगी में आ गए। सबकुछ जैसे-तैसे ठीक ही चल रहा था पर उसके बाद एक बड़ा बदलाव ये आया कि देवर की शादी हुई और एक देवरानी नाम की जीव घर में आ गई। मेरी अस्त-व्यस्त घर गृहस्थी से त्रस्त सास-ससुर के लिए उसकी सुगढ़ता एक सुखद हवा के झोंके सी थी पर भला यह मुझे कैसे बर्दाश्त होता? हर समय कामों के बोझ से दबी मैं रहती, खुशी हँसी जैसी चीजों से वंचित मैं हुई थी और बिना कोई खास काम-जिम्मेदारी, सारे तमगे, प्रशंसा, दुलार उसके नाम? ये अपमान था मेरा! न जाने कब, मैंने उसके लिए भी अपने अंदर कुछ वैसी ही ईर्ष्या महसूस करनी शुरू कर दी, जैसी तुमसे करती थी। फिर मेरा समय और मन अपनी समस्याओं को सुलझाने से ज्यादा उसकी जासूसी करने और कमियों को ढूंढने, गिनाने में बीतने लगा। पर इस बार मेरी प्रतिद्वंदी अपनी हीन भावना से घिरी, सबकुछ चुपचाप सह जाने वाली तुम नहीं थीं ... उसके सब्र का पैमाना तो बहुत जल्दी भर गया। घर अब एक अखाड़े में बदल गया जहाँ हम दोनों एक दूसरे के विरुद्ध ताल ठोंक कर खड़े थे। फिर क्या हुआ जानती हो, पूरे घर ने मुझे अकेला छोड़ दिया और सब उसी के पक्ष में जा खड़े हुए, यहाँ तक कि अमित और मेरे बच्चे भी! मैं हार गई दीदी, इस दाँव में तो मैंने अपना सबकुछ गँवा दिया। फिर वस्तुस्थिति समझने में भी देर कर दी कि होता तो यह है कि चाहे कितनी भी बड़ी गलती कर लो, सारी दुनिया आपके विरुद्ध हो, पर अपना मन अपने पक्ष में तर्क भी गढ लेता है, दलीलें भी खोज लेता है। शायद इसी वजह से हमें अपनी गलतियाँ समझने में समय लग जाता है और देर हो जाती है।

हमारी गृहस्थी अलग हुई, उनके चाहे न चाहे, अपने परिवार के जीवन की धुरी भी बन गई मैं, तब भी पता नहीं क्यों, अमित भावनात्मक रूप से मेरे करीब नहीं आए। जबतक बच्चे छोटे थे, उनके साथ व्यस्त थी मैं... कभी ध्यान नहीं गया इस तरफ! फिर अब, जब ये बच्चे बड़े हो गए हैं, अपने पिता की ही तरह इनका व्यवहार भी मुझे यही समझा दिया करता है कि मैं उनकी जरूरत नहीं हूँ, कि मेरे बिना उनका कोई काम नहीं रुकने वाला! ये उन्होंने घर में जो माहौल देखा वही सीख लिया है, या अमूमन अगली पीढ़ी ऐसे ही सोंचती है... या फिर सचमुच मैं ही इतनी बुरी हूँ? आत्मविश्वास खत्म होता जा रहा है और मुझे भविष्य से डर लगने लगा है... अगर बेटे ही मुझे नहीं पूछते तो बहुएँ आकर क्या इज्जत देंगी?

उस दिन मेरा चालीसवॉं जन्म दिन था। एक दिन कभी, इसी घर में, मेरे जन्मदिन पर मुझे उपहारों से लाद दिया था अमित ने... साड़ी, कंगन, झुमके... यहाँ तक कि सुनहरी हेयरपिन तक खुद पसंद कर के लाए थे, और मुझे सजाकर निहारते रहे थे। पर अब तो ये दिन कब आता है, कब चला जाता है किसी को पता ही नहीं चलता। मैं अपने मन को कैसे रोकूँ दीदी अगर अभी भी हर विशेष अवसर पर यह ललकता ही रहता है किसी एक मुस्कान, एक मुबारकबाद के लिए... यह जानते हुए भी कि अमित अब मेरे लिए मुस्कुराना छोड़ चुके हैं। उस दिन उनके आने से पूर्व मैंने सोचा था कि अच्छे कपड़े पहन, थोड़ा मेकअप करके, मुस्कुराते हुए उनका स्वागत करूँगी, एक अपनत्व भरे माहौल की सृष्टि करूँगी और फिर उन्हें बताऊँगी कि इस तरह अलग-अलग ध्रुवों पर रहकर नहीँ जिया जाता है मुझसे! अब शारीरिक संरक्षण से ज्यादा भावनात्मक संरक्षण की जरूरत है... वो मेरी किट्टी पार्टियाँ और शाॅपिंग की लत मन नहीं बहलाती हैं मेरा... पर फिर आरसी देखकर डर गई। चर्बी की परतों में चेहरे की लुनाई खो गई थी, पहले से दोहरे परिमाण वाली कमर पर लिपटी लाल साड़ी व्यंग्य से मुस्कुरा रही थी। कैसे बताऊँ कि मेरे चेहरे पर स्थाई रूप से आ बैठे, चिढ़, ईर्ष्या और कटुता के भाव को मेकअप की कोई भी पर्त छुपा नहीं पा रही थी। लाख चाहने पर भी, न तो मैं स्वाभाविकता से मुस्कुरा ही सकी न आँखों में कोई मृदु भाव ही छलका। व्यंग्य भरी स्मित, जिगर को छीलती ज़बान और शातिर आँखें अब मेरा व्यक्तित्व है कि लाख चाहने के बावजूद अब तो मुझसे भोलेपन का अभिनय तक नहीं हो पाता! मुझे बहुत डर लग रहा है.... क्या अब जीवन को नए सिरे से शुरू करने के सारे रास्ते बंद हो चुके हैं?

तुमसे बिछड़े अब इतने बरस बीत चुके हैं कि उस समय की सारी बातें मानों किसी दूसरे युग की महसूस होती थीं पर परसों मैंने टेलीविजन पर तुम्हारा इंटरव्यू देखा। तुम तो कहाँ से कहाँ जा पँहुची हो दीदी... तुमने वकालत पढ़ी थी, ये तो पता है पर तुम देश की इतनी नामी-गिरामी वकील हो, गरीब और बेसहारा औरतों के पक्ष में मुफ्त लड़ती हो और उन्हें इन्साफ दिलाकर रहती हो... औरतों के उत्थान के लिए इतने सारे काम कर रही हो कि आज देश भर में तुम्हारा नाम इज्जत से लिया जाता है... कहाँ पता धा? तुम्हारे जैसी मितभाषी, अपने आप में सिमटी सिमटी रहने वाली लड़की कैसे इस बुलंदी पर जा बैठी? समय इतना कैसे बदल जाता है कि जिसे अपने घर में थोड़ी सी इज्जत पाने के लिये जी जान लगा देना पड़ता था, आज ये पूरा देश उसके समक्ष इज्जत से सर झुका रहा है। और कितनी अच्छी दिखने लगी हो तुम... ये सफेद बाल और बढ़ती उम्र का ठप्पा, जिसे रात दिन ब्यूटी पार्लर दौड़ कर भी छुपा नहीं पा रही हूँ, तुमपर कितने प्रभावशाली लगते हैं! तुम्हारी मुस्कुराहट और भावभंगिमा में कितनी गरिमा है, बातचीत में ओज और व्यक्तित्व में एक अजीब सा आकर्षण आ गया है कि मैं तो बस मुग्ध हो, तुम्हें निहारती ही रह गई।

आज मेरे अंदर तुमसे मिलने की इच्छा जागी है दीदी... नहीं, सच तो ये है कि मैं पागल हुई जा रही हूँ तुमसे मिलने को! जाने क्यों इन क्षणों में मुझे लग रहा है कि एक बस तुम्हीं मुझे मेरी सारी परेशानियों से निजात दिला सकती हो। वह तुम्हारा चुपचाप सबकुछ सह जाना, तुम्हारी हीन भावना या दब्बूपन नहीं था, तुम्हारे हृदय की विशालता थी और उसी के भरोसे आज भी माफी की आशा है मुझे! मूर्ख सही, कुटिल सही, पर बहन हूँ तुम्हारी... अपनी बड़ी बहन से चुप रहकर, दूसरों को यथोचित सम्मान देकर, स्वयं आदर पाने का पाठ पढना चाहती हूँ। अपने अंदर एक आशा पैदा करना चाहती हूँ कि अभी बहुत देर नहीं हुई है।

बस एक बात बताना... इतने दिनों में कभी एक बार, तुमने बिना नफरत के मेरा नाम लिया है? अगर हाँ, तो तुमसे माफ़ी पाने की कुछ उम्मीद तो रख ही सकती हूँ! हो सके तो मेरे इस पत्र का जवाब जरूर देना।

तुम्हारी
रंजीता

मौलिक एवं स्वरचित

श्रुत कीर्ति अग्रवाल
shrutipatna6@gmail.com