कालचक्र श्रुत कीर्ति अग्रवाल द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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कालचक्र


कालचक्र



उस दिन अचानक आशीष का फोन आया। न जाने कितने समय बाद उसकी आवाज़ कान में पड़ी थी। ये मेरे इकलौते बेटे की आवाज़ थी... उस बेटे की, जिसे बनाने में हमने अपना पूरा जीवन ही लगा दिया था। उसको इतना प्यार किया कि स्वयं को भूल गए पर समर्थ होते ही उसने हमको ही नकार दिया। न हमारा प्यार देखा न त्याग... उसे क्या पता, उसके दिये जख्मों से सीना कैसा छलनी हो चुका है मेरा! सारी संवेदनाएं अब समाप्त हो चुकी हैं... कि मुझे कोई खुशी नहीं हुई है उसकी आवाज़ सुनकर! लेकिन यह क्या, अविश्वास से मेरा मुँह खुला का खुला रह गया था क्योंकि आशीष मुझसे अपनी गलतियों की माफ़ी माँग रहा था, अपने साथ रहने के लिए मेरी मिन्नतें कर रहा था... ठीक से सुना न मैंने सबकुछ?

विश्वास ही नहीं होता कि यह वही आशीष है जिसने पिछले कितने ही सालों में, मुझसे ठीक से बातें तक नहीं की हैं। कभी सोंचा क्या कि बेटे का कर्तव्य क्या होता है? बेटा बुढ़ापे का सहारा होता है, थकी हुई उम्र की ताकत होता है पर इस कपूत का तो इन्तज़ार करते-करते इसकी लाचार माँ इस दुनिया से ही विदा हो गई और मैं इतने वर्षों से इस वीराने में अकेला पड़ा मृत्यु का इन्तज़ार कर रहा हूँ पर क्या इसे कभी याद तक आई? चलो कोई बात नहीं, अब तो मैं इन सबके बिना जीने का अभ्यास कर ही चुका हूँ फिर शिकायत क्यों करूँ? मैं तो उसके व्यवहार के इस बदलाव पर हैरान हूँ... कहीं ऐसा तो नहीं कि आजकल वहाँ नौकर न मिल रहे हों तो उसकी मेमसाब ने बुड्ढे को ले आने का हुक्म सुना दिया हो या किसी के सामने अपने सपूत होने का दिखावा करना है? जो भी हो, मैं तुम्हारे इन घड़ियाली आँसुओं से पिघलने वाला तो नहीं हूँ... शरीर थकने लगे या वक्त कोई बड़ी ठोकर मार दे तब भले एक आदमी को ये सब प्रायश्चित वगैरह करने की याद आती है पर अभी, जब धन-दौलत मान-सम्मान सब कदमों तले बिछा हुआ है, अफसोस करने का समय नहीं आया है।

जब तक उसकी माँ ममता जीवित रही, बार-बार पुराने गिले-शिकवे भूल, आशीष और उसके परिवार के साथ संपर्क करती रही पर सदैव निराशा ही उसके हाथ आई। इसी से तो, जब आखिरी बार, ममता की मृत्यु पर वे लोग, रस्मअदायगी की तरह आए थे, मैंने भी उनके साथ बिल्कुल रस्मी सा ही रिश्ता रखा था। तेरहवीं होते ही उनके लौट जाने के कार्यक्रम से मुझे सुकून ही महसूस हुआ था कि न जाने कितनी अप्रिय परिस्थितियों से बच गया मैं... कि अगर जो और रुकता तो न जाने कितने दंश और लगा जाता वह दिल पर! भगवान की कृपा से पचहत्तर बरस की उम्र में भी मेरे हाथ पैर इतने सलामत हैं, आर्थिक स्थिति इतनी तो मजबूत है ही कि अपनी ममता को रीतिरिवाजों के अनुसार शान से इस दुनिया से विदा कर सका। बाकी सभी जिम्मेदारियों को तो वही पूरा कर गई थी... दोनों बेटियाँ ब्याह के बाद अपने-अपने घरों में सुखी-संपन्न हैं। मेरे जीवन यापन के लिए ये छोटा सा मकान है जिसकी पहली मंजिल मैंने किराये पर उठा रखी है। नीचे स्वयं रहता हूँ और एक पुराने नौकर की सहायता से मेरे सारे दैनिक काम मजे में चल रहे हैं। अब तो बस ईश्वर से यही प्रार्थना है कि कभी किसी के सामने हाथ न फैलाना पड़े।

इस उम्र में आकर सबसे बड़ी तकलीफ अकेलेपन की हो जाती है। ममता के जाने के बाद ही पता चला कि उसका मेरे जीवन में क्या स्थान था। अब न तो किसी तरह समय ही कटता है न किसी चीज के लिए उत्साह ही बचा है। सुबह शाम भले ही थोड़े सैर व्यायाम के लिए घर से बाहर निकल जाऊँ पर बाकी समय तो घर में ही पड़ा रहता हूँ। शरीर स्वस्थ है पर अब नौकरी व्यवसाय करने की कोई इच्छा नहीं है। क्यों करूँ? किसके लिए कमाऊँ? ममता थी तो कभी बेटियों के घर कुछ भेजने को, कभी घर गृहस्थी तो कभी अतिथि सत्कार के लिए उसे पैसों की जरूरत पड़ती रहती थी पर उसके बाद तो मैंने किसी को बुलाने या कहीं आने जाने का रिश्ता रखा ही नहीं... मानों सबसे वैराग्य ही ले लिया हो! बेटियाँ ही कभी- कभार आ जाती थीं पर जैसे जैसे उनके बच्चे बड़े हो रहे हैं, उनका आना जाना घट कर फोन तक सीमित होता जा रहा है। कभी तबियत कुछ ढीली हो गई तो नौकर के फोन पर डाक्टर सिन्हा आ जाते हैं... बस! वही सुबहें और वैसी ही शामें... कोई व्यतिक्रम नहीं। पहले कुछ पढ़ लिख कर समय काटता था, पर अब तो पास की नजर ज्यादा ही कमजोर हो गई है। टेलीविजन, मोबाइल से ज्यादा अपने पुराने समय, अपनी ममता को, उसके भोलेपन और सेवा भाव को जिसपर उसके जीवन काल में कभी ध्यान तक नहीं गया था, याद करते-करते आँखें अनायास ही भर आती हैं।

मेरी इस एकरस दिनचर्या को तोड़ते हुए, अचानक एक दिन आशीष स्वयं आ धमका। इस बार मुझे एक अंजाना सा डर महसूस हुआ था कि क्यों आया है यह? क्या करेगा मुझे साथ ले जाकर? इसकी बातों में आकर किसी मुसीबत में तो नहीं पड़ने वाला हूँ मैं? जो कभी मुझसे ठीक से बातें तक नहीं करता था वो आज इतनी अनुनय-विनय क्यों कर रहा है? क्या गुजरा है इस बीच इन लोगों के साथ? जरूर कोई स्वार्थ होगा... ये मकान चाहिए? इतने छोटे से मकान पर भी नजर गड़ी है इसकी? इसका काम तो बहुत अच्छा चल रहा है, तब भी क्या पैसों की लालच इतनी बढ़ गई है? ऐसे संस्कार तो नहीं थे? कहीं यह तो नहीं सोंच रहा कि लड़-झगड़ कर काम नहीं चलेगा तो जहर की गोली को चाशनी में लपेट कर लाया है? किसी मुगालते में मत रहना बच्चू... तुम चालाक हो तो मैं तुम्हारा भी बाप हूँ! इस संपत्ति के लिए तुमको मेरे मरने का इन्तज़ार करना ही होगा। मैं तुम्हारी किसी बात में नहीं आने वाला... सुनूँगा तक नहीं! क्यों तुम्हारी दया पर निर्भर रहने के लिये तुम्हारे घर जाऊँ? आत्म सम्मान के साथ जीने के इस आखिरी अवलंब को क्यों छोड़ दूँ मैं?

एक अंजाना भविष्य डरा रहा था। कहीं आशीष के समक्ष कमज़ोर न पड़ जाऊँ मैं... किसी साजिश का शिकार न हो जाऊँ... मैं अपने बेटे पर विश्वास करने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं था अतः इतना क्रूर हो उठा कि उसकी उपस्थिति को ही नकारना शुरू कर दिया मैंने! न उसकी कोई बात सुनी, न उन आँखों में गहराती बेबसी ही पिघला सकी मुझे... चैन की साँस तो तभी ली थी, जब वह निराश हो कर लौट गया था।

अगले दिन आशीष के कमरे से मुझे अपने नाम की एक चिट्ठी मिली। पसोपेश में पड़ गया कि अब इसका क्या करूँ? जब कोई संबंध ही नहीं रखना है तो क्या फाड़ कर फेंक दूँ इसे? पर एक बार पढ़ने से भी क्या फर्क पड़ेगा? कुछ उत्सुकता तो मिटेगी कि आखिर कहने क्या आया था वह! आगे तो सबकुछ मेरी मर्जी से ही होना है न, जवाब तक नहीं दूँगा! चाहे कैसी भी मजबूरी बताए, बीमारी या पोते तक का हवाला दे दे, मैं कमजोर नहीं पडूँगा... कि मेरी किस जरूरत में तुम मेरे काम आए हो आशीष? मुझे ममता समझने की भूल मत करना कि जरा प्यार से बोल दिया तो बस पिघल गई और फिर तो चाहे सारा दिन खटा ही लो, वह मुस्कुराती रहेगी। तुम्हारी बीबी सज-धज कर फूलों की सेज पर बैठी रहती थी और बूढ़ी माँ दौड़-दौड़ कर घर के काम निबटाती थी, यह सब तुम्हें कभी नज़र क्यों नहीं आया आशीष? इसीलिए न, कि तुम्हारी नजरों में अपने माता-पिता के लिए कोई सम्मान ही नहीं बचा था? सास बहू के झगड़े साधारण तौर पर तब तक तूल नहीं पकड़ते हैं जब तक घर के मर्द उसमें नहीं पड़ते पर अपनी पत्नी की बिल्कुल गलत बातों तक के पक्ष में खड़े होकर माँ बाप से जवाब तलब करने के संस्कार तुममें कहाँ से आ गए? तुम्हें पालने में कहाँ गलती हो गई हमसे? कितनी आशाएँ लगाई थीं हमने तुमसे, पर तुमने सदैव मेरे उत्साह पर पानी ही फेरा और तुम्हारा इन्तज़ार करते करते पूरी उम्र ही बीत गई... अब तो मैं अकेला इस कमरे में पड़ा, तुमलोगों का बचपन याद करते रहने को अभिशप्त हूँ। कि जब तुम पैदा हुए थे, सबसे ज्यादा खुशी मुझे हुई थी। जब तुम्हारे स्कूल का पहला दिन था, अदम्य उत्साह से तुम्हें मैं अपनी गोदी में उठाकर स्कूल तक ले गया था। तुम्हारे सुरक्षित और उज्जवल भविष्य के लिए तन मन धन लगाने की होड़ में हम पति-पत्नी अपनी जरूरतों में कटौती करते गए थे पर बदले में हमें क्या मिला? किशोर होते ही तुम्हारे वो बगावती तेवर, और फिर हमारे मध्य फलता-फूलता वो पराएपन का विशाल वृक्ष, सत्रह सालों तक लगातार तुम्हारे विछोह में तड़पती ममता के वो आँसू, तुमलोगों की वो जली कटी बातें, दिल तोड़ती अहसान फरामोशी... कैसे भूल सकता हूँ आखिर? तिल-तिल कर जोड़े गए मेरे इस आत्मसम्मान के भ्रम को अब क्या ये दो मिनट का अफसोस धो सकेगा, दो आँसू धो देंगे या ये चिट्ठी मिटा सकेगी? नहीं, अब सबकुछ समाप्त हो चुका है। तुम जहाँ रहो खुश रहो मैं भी जिस हाल में हूँ, रहूँगा। पत्र का जवाब डाक से भेज दूँगा कि अब भूल जाओ कि हमारे बीच रिश्ता भी था कभी!... चिट्ठी पढ़ने के लिए चश्मा खोजते समय ही उसका उत्तर सोंच लिया था मैंने!

"पूज्य पिताजी,
आपको याद होगा आज मेरा सैंतालीसवाँ जन्म दिन है। पता नहीं क्यों, उम्र के इस दौर में आकर महसूस कर रहा हूँ कि जैसे मैं वहीं आकर खड़ा हो गया हूँ जहाँ होश सँभालने पर, आपको देखा करता था। वह पुरातन समस्याएं जो आपके समक्ष थीं, थोड़े बहुत परिवर्तित रूप में, मेरे सामने भी खड़ी हुई हैं और आश्चर्य तो इस बात का है कि इतने सालों तक आप के लिये सभी निर्णयों को गलत ठहराने के बावजूद, आज के दिन आपका अनुकरण करने के अतिरिक्त मैं और कुछ नहीं कर पा रहा हूँ। यद्यपि जानता हूँ कि आप नाराज हैं मुझसे, फिर भी अंतर की ये बहुत सारी बातें आज आपको बताने की बेचैनी है मुझमें! मेरी सोंच और आस्थाओं ने चुपके से एक नई करवट ले ली है और ये सब मैं केवल आपसे ही कह सकता हूँ। शायद आपके प्रति अपने दृष्टिकोण की स्वीकरोक्ति के बिना शांति नहीं मिलेगी मुझको, इसीलिए आपके मना करने के बाद भी मैं आपके पास आया था और जब तक आप मेरी बातों को सुन नहीं लेंगे, फिर-फिर कर आता ही रहूँगा।

इतिहास स्वयं को दोहराता है, पहले सुना था पर अब स्पष्ट देख रहा हूँ। आपका पोता उत्कर्ष अठारह बरस का हो गया है और उसके तेवर बिल्कुल वही हैं जो उन दिनों मेरे हुआ करते थे पर अचंभित तो मैं इस बात से हूँ पिताजी कि आज मैं बिल्कुल वैसे ही सोंच रहा हूँ जैसे उन दिनों आप सोंचा करते थे। पसोपेश में हूँ कि जिम्मेदारियाँ आने के बाद हर कोई ऐसे ही निर्णय लेने लगता है क्या? इसीलिए, जीवन भर मैंने आपके साथ जो व्यवहार किया है, आज उसका विश्लेषण करना बहुत जरूरी हो गया है।

जब मैं काफी छोटा था, आप मेरे साथ खिलौनों की तरह खेला करते थे, तब मैं अपनी बाल सुलभ शरारतों और उल्टी-सीधी ज़िदों के बावजूद आपको दुनिया का सबसे ज्यादा समर्थ और बुद्धिमान आदमी समझता था। उस समय मेरी सबसे बड़ी चाहत सिर्फ़ आपके जैसा बन जाने की थी। फिर जैसे जैसे मैं बड़ा होने लगा, आपकी कुछ कमियाँ और सीमाएं भी मेरी नज़र में आने लगी। अब मैं अपने दोस्तों के पिता, रिश्तेदारों इत्यादि से आपकी तुलना किया करता था... आप उनसे बेहतर नजर आते, तो गर्व होता मुझे, पर यदि आपकी कोई बात उनसे कमतर होती, तो मेरा बाल मन कुछ परेशान सा हो जाता था। यूँ छोटी मोटी कुछ उलझनों को छोड़ कर आप और सिर्फ आप ही मेरे नायक थे।

फिर ढेर सारे दोस्त हो गए मेरे, दिन का एक बड़ा हिस्सा उन्हीं के साथ बीतने लगा और उन्हीं की बातें मुझे ज्यादा समझ में आने लगीं।तभी तो स्कूल की पढ़ाई के बाद जब मन पसंद विषय चुनने का समय आया, क्योंकि मेरा प्रिय मित्र काॅमर्स कालेज जा रहा था, मैंने भी वही चुना। मैं किसी भी हालत में उसका साथ छोड़ कर साइंस कालेज नहीं जाना चाहता था, पर यह तो मेरे पूरे जीवन के दिशा निर्धारण का समय था न, निर्णय लेने की ये बचकानी वजह मेरे लिये भले ही महत्वपूर्ण रही हो, आपको मूर्खतापूर्ण लगती थी। आपने तो कितना ही समझाया था कि मेरा दिमाग तेज है, कि विज्ञान एवं गणित में मुझे कितने अच्छे अंक मिलते हैं, और डाक्टर या इंजीनियर बनने के बाद कैरियर बनाना कितना आसान हो जाता है पर इस तरह की कोई बात उस समय मेरी समझ में आई ही नहीं। मैं अपनी जिद पर अड़ा था जिससे आपको काफ़ी निराशा भी हुई थी पर मजे की बात देखिये... बिल्कुल वही परिस्थितियाँ फिर हैं, बस इस बार आप वाले स्थान पर मैं आ खड़ा हुआ हूँ और उत्कर्ष के भविष्य के लिए उसी तरह परेशान हूँ। अथक मेहनत कर के मैंने जो अपना यह व्यवसाय स्थापित किया है, नाम और इज्जत कमाई है, उसे उत्कर्ष ने एकबारगी नकार दिया। मेरी फर्म में पार्टनर बनने के लिये उसे चार्टर्ड एकाउंटेंसी की परीक्षाओं को पास करना जरूरी है पर वह तो फैशन टेक्नोलॉजी का कोर्स करने के लिए मुंबई जाने की जिद करता है, माडलिंग एजेंसी खोलना चाहता है, सिनेमा में ब्रेक खोज रहा है।

उत्कर्ष को अपना सहारा बनाने का स्वप्न लिये मैं, अपने काम को बढ़ाता ही चला गया था पर यदि वह मेरे साथ नहीं आता तो अब क्या करना चाहिए मुझे? धीरे-धीरे-धीरे काम कम करूँ या किसी और को भागीदार बनाऊँ? फिर यदि किसी दिन वह ग्लैमर की दुनिया से असफल हो कर लौट आता है तो मैं उसकी कितनी मदद कर सकूँगा? कैसे नहीं सोंचूँ यह सब, आखिर पिता हूँ उसका! उसको सेटल कराने की जिम्मेदारी है मुझपर! हर संभव सुख, वैभव, सफलता, संपन्नता और सुविधा उसके कदमों में बिछा देने की मेरी ये चाह, कोई अजूबा तो नहीं? उस पहाड़ जैसे संघर्ष के लिए कैसे उसे अकेला छोड़ दूँ, क्या मुझे पता नहीं है उस चमक दमक की असलियत? कितने ही अस्तित्वों के गुमनाम बलिदान के पश्चात जो मुट्ठी भर लोग सफल होते हैं, उत्कर्ष बस उन्हीं में से एक होगा, कैसे मान लूँ? उधर वह मेरी एक भी बात सुनने को तैयार ही नहीं और मैं हूँ कि चिंता के मारे रात-रात भर जागता रहता हूँ... ब्लड प्रेशर बढ़ गया है और न जाने कितनी बीमारियाँ एक साथ उभर आई हैं।

मुझे याद है कि उसके बाद मेरे और आपके बीच की दूरियां बढ़ने लगी थीं। मैं आपकी बातों को एक कान से सुनकर दूसरे कान से बाहर निकाल देने का आदी होता जा रहा था और मेरे रुख से आप मेरे प्रति निराश से होने लगे थे। फिर हम दोनों के बीच माँ ने एक पुल का काम करना शुरू किया कि इस कशमकश में धीरे-धीरे उसकी अपनी राय और इच्छाओं का कोई अस्तित्व ही नहीं रह गया। उसने तो बस मेरे और आपके समक्ष एक दूसरे का पक्ष रख, स्थिति को काबू करने की कोशिश में ही जिंदगी बिता दी।कहीं अब मेरे और उत्कर्ष के बीच में भी यही स्थिति तो नहीं आने वाली है पिताजी? मुझे डर सा लग रहा है पर मैं नहीं जानता कि इस हालत में अब मुझे क्या करना चाहिए जब हम बाप-बेटे के बीच में पिछले कितने ही दिनों से बातचीत तक बंद है। क्या मुझे उसकी इस बेबुनियाद जिद को मान कर, उसे उसके हिस्से का संघर्ष करने की इजाजत दे देनी चाहिए? या उसपर दबाव बनाकर उसे अपना निर्णय मानने को बाध्य करना सही कदम होगा?

फिर आप एक दिन बड़े चाव से मेरा ब्याह रचाने के लिए सुलेखा को पसंद कर आए थे जबकि मैं मन ही मन अपने दोस्त, विनय की बहन कावेरी को अपनाने के लिए लालायित था। मुझे लगता था कि अगर आप प्रचलित रिवाजों के अनुसार मेरा रिश्ता लेकर उनके घर गए होते, स्वस्थ माहौल में बातचीत हुई होती, तो बात बन जाती। पर आप अपनी जिद्द में इस तरह का कोई काम करने को तैयार ही नहीं हुए थे और बिना देखे जाने ही आपने उसे एकदम से नकार दिया था। फिर मैं मूर्खों की तरह कभी उसके सामने प्रणय निवेदन तो कभी उसके पिताजी की नजरों में समाने के बचकाने प्रयास करता रहा पर कभी भी अपने पक्ष को उन लोगों के समक्ष ठीक से नहीं रख सका और उसका ब्याह कहीं और हो गया। लोक लाज में मैंने सुलेखा से शादी भले ही कर ली हो, पर आपके प्रति एक शिकायत तो मन में बनी ही रह गई। समय ने अब मुझे आपके वाले पाले में ला खड़ा किया है बल्कि कहूँ तो समय अब और भी ज्यादा बदल गया है कि उत्कर्ष के तेवर और स्वभाव को देखते हुए मैं मानसिक रूप से किसी भी दिन अचानक कैसी भी लड़की से अपनी बहू के रूप में परिचित होने को तैयार हूँ, पर सच कहूं पिताजी पिछले कुछ सालों से मेरे अंदर अपने समस्त अनुभवों की कसौटी पर कसकर, लाखों में एक चुनकर, हीरे की कनी सी खूबसूरत पढ़ी-लिखी और मेधावी, बहू लाने की बड़ी तमन्ना होने लगी है जिसके छम छम कर चलने से मेरा आंगन भर जाए और मुस्कुराने से घर खिलखिला उठे। जो बुढ़ापे में हम पति-पत्नी को आदर मान दे, उत्कर्ष को जीवन भर खुश रखे और हमारी अगली पीढ़ी को सजाए सँवारे। आखिर उत्कर्ष हमारा इकलौता बेटा है तो हमारी हर चाह उसे ही तो पूरी करनी है! शरीर से कसे आधुनिक कपड़ों में फर्राटेदार अंग्रेजी बोलती यह जो लड़कियां दिनभर उत्कर्ष के साथ घूमती फिरती हैं, मैं इनको पता नहीं क्यों बहुत पसंद नहीं कर पाता हूँ। अपने अधिकारों के लिए सदैव सजग, तीखे तेवरों वाली, कुछ हद तक स्वार्थी, ये लड़कियाँ कर्तव्य, त्याग और सहनशीलता की महत्ता भी समझती होंगी, इसमें मुझे शक है। पर यह कुछ एक घर को जीवन भर बांधकर रखने के लिये, परिवार को बनाए रखने के लिए तो जरूरी होता है न? विवाह हो जाने पर इनके यह तेवर बदल जाएंगे या शुरुआती आकर्षण समाप्त होने पर, रोज के लड़ाई झगड़े जीवन की नियति बन जाएंगे? ऐसी ही किसी लड़की के घर जाकर, अपने ब्याह की बात चलाने का अनुरोध उत्कर्ष यदि मुझसे करे तो मुझे क्या करना होगा पिताजी? आप की तरह अपने ही निर्णय पर दृढ़ रहना होगा या उत्कर्ष की हां में हां मिलाने होगी?

फिर सुलेखा के घर में आते ही मेरे और आपके बीच की दूरी एकाएक ही और बढ़ गई थी। इसका पहला कारण था, मेरी शादी में सुलेखा के यहां से दहेज में आया वह सामान... वह कहासुनी... कपड़ों गहनों और सामानों के स्तर को लेकर घर में होने वाली वह शिकायतें, उलाहने! नई नई शादी हुई थी, घर में रिश्तेदारों परिचितों का आना जाना लगा ही रहता था, हर तरह की बातें होती थी, जिन्हें सुलेखा भी सुनती। अपने मायके के विषय में हुई हर नुक्ताचीनी उसके दिल पर चोट करती और फिर दुखड़ा सुनाने को तो उसे सिर्फ मैं ही मिला करता था न? मेरे अंदर उम्र जनित आदर्शवाद था, दहेज के मैं खिलाफ था और फिर दहेज के लिए बहू को उत्पीड़ित किया जाना... मुझे लगने लगा कि आप लोग काफी लालची हैं। मैं तो बिना किसी अपराध के ही अपनी उस सुंदरी पत्नी के सामने बौना पड़ता जा रहा था जो प्रथम मिलन के बाद से ही मुझे सबसे ज्यादा अपनी सी लगने लगी थी। शायद प्रकृति ने ही ऐसी व्यवस्था की है, इसमें भला मैं क्या कर सकता हूं? आप मुझे जोरू का गुलाम कहते थे पर बताइए, जब मेरा अंतर्मन आपको लालची और मौकापरस्त पर सुलेखा को आपकी सताई हुई भोली भाली लड़की समझता हो तो आवश्यकता पड़ने पर मैं किसके पक्ष में बोलता? फिर आपने मेरे दहेज में आई हुई राशि से बहनों की शादी में लिए कर्ज चुका दिए, इससे तो सुलेखा को शिकायत होनी ही थी। मैं यह भूल गया की भाई होने के नाते बहनों के प्रति मेरी क्या जिम्मेदारी थी और यदि समाज के अंदर इतनी गहरी पैठी हुई इन कुरीतियों को अकेले तोड़ पाना मेरे वश में नहीं था तो आपको उसके लिए जिम्मेदार ठहराने का भी मुझे कोई हक नहीं बनता... मैं खुलेआम सुलेखा का पक्ष लेकर आपसे और माँ से जवाबतलबी करने लगा। अब लगता है मेरे उस आक्रोश को समर्थन समझने के कारण ही सुलेखा ने कभी आप लोगों को समझने की, आपका सम्मान करने की, कोशिश तक नहीं की और फिर जैसे-जैसे मेरा व्यवसाय अच्छा चलने लगा, धन दौलत की ताकत उसके हाथों में बढ़ने लगी, आप लोग उसे और भी तुच्छ और नगण्य दिखाई देने लगे। क्या इन सारी वस्तु स्थिति के मूल में सिर्फ मैं ही दोषी था? अपने प्रति आकर्षण को सुलेखा ने मेरी मजबूरी समझ लिया था या अपने मन की बातों को वह मेरे सम्मुख इस तरह रखना सीख गई थी कि मैं अपना सारा आदर्शवाद लिए उसी के पक्ष में जा झुकता। क्या मैं उस की कठपुतली बन गया था, जिससे वह नचा रही थी? जो भी हो अब अगर यह निर्णय हो भी जाए कि कौन दोषी था, तो कोई फर्क नहीं पड़ता! उस समय तो बिगड़ते हुए रिश्तों और बढ़ती हुई कटुता से बच भागने के लिए, एक शांत सहज जिंदगी की तलाश में, मैंने शहर बदल लेने का निर्णय ले लिया था।

अभी तक तो मुझे न किसी तरह की गलती का एहसास था न अफसोस, हर पिछली घटना के लिए आप को जिम्मेदार ठहरा कर मैं निश्चिंत भी था। शायद यह कुछ मुझे कभी याद भी न आता। कुछ खुशी, कुछ गम बाँटती जिंदगी जैसे बीत रही थी, बीत ही जाती, अगर उस दिन अचानक बगल वाले कमरे से, बहुत दिनों बाद आपस में मिली सुलेखा और उसकी बहन की वह बातें सुनाई ना दे गई होती। अनायास ही तो उसकी दीदी ने कहा था कि तेरी बेटी आस्था अब बड़ी हो रही है, उसका दहेज इकट्ठा करना शुरू कर दे सुलेखा, वरना तो तेरी जैसी खर्चीली आदतें हैं, समय पर दिक्कत होने लगेगी। इस पर सुलेखा का जवाब सुनकर मैं भौचक्का सा रह गया था। वह कह रही थी कि हमें तो पहले उत्कर्ष की शादी करनी है और उसकी शादी में जो कुछ भी आएगा वही देकर मैं आस्था को विदा कर दूंगी। इस बात पर दीदी हँस पड़ी थी, और मजाक करते हुए बोली कि लगता है बेटे की शादी में बहुत ढेर सारा दहेज लेने की तैयारी मैं है तू! और सुलेखा ने उल्टे मुंह जवाब दिया था कि इतना सुंदर और योग्य लड़का है, लूंगी नहीं? एक करोड़ से कम पर तो बात भी नहीं करूंगी, और हर चीज ठोंक बजा कर लूंगी।

मैं भयंकर पसोपेश में पड़ा हुआ हूं पिताजी, कि अगर यही सब सही है, मेरे घर में भी यही होने वाला है और शायद मैं स्वयं भी यही कुछ करने वाला हूँ, तो फिर आप गलत कैसे थे? जीवन भर आप लोगों की आलोचना करने के बाद, आज अपना समय आने पर सुलेखा यदि वही सब करने को कमर कसे बैठी है, तो फिर किस लिए मैं आपसे जीवन भर नाराज रहा? जिस लिए आपको मैं सजा देता रहा हूँ, उन्हीं गलतियों को स्वयं भी दोहराऊँगा तो क्या इसके बाद उत्कर्ष मेरे जीवन भर मुझे उसकी सजा देता रहेगा? पीढ़ी दर पीढ़ी हम बस एक गुस्सा, एक नाराजगी, की विरासत छोड़ते रहेंगे? क्या सुधारी नहीं जा सकती है यह स्थिति?

तो शुरुआत मैं ही क्यों ना करूं? क्या ऐसा नहीं हो सकता कि बीती सारी बातों को भूल कर, आपके अनुभवों तले, मैं अपनी सारी समस्याओं का कोई नया समाधान खोजने का प्रयत्न करूँ? बस यही पूछने मैं आपके पास आया था, और जिस दिन भी आप मुझे माफ करने का निर्णय लेंगे, दोबारा आ जाऊंगा!

आपका बेटा
आशीष

पत्र मेरे हाथों में फड़फड़ा रहा है और मैंने कुर्सी पर सिर टिका कर, ऑंखें मूंद ली है। ठीक ही तो लिखा है आशीष ने, मैंने भी तो कम गलतियां नहीं की है। अपना हर निर्णय उसके ऊपर थोपने का प्रयत्न भला क्यों करता रहा मैं? यदि वह अपना अस्तित्व स्वयं तलाश करना चाहता था तो इसमें गलत क्या है? मैं ही तो उसे बच्चा समझता रहा और जाने- अनजाने उसकी स्वतंत्रता छीनता रहा... बल्कि आज तो ऐसा लग रहा है कि शायद बहुत अच्छा हुआ जो उसने कुछ जिदें कर ली थीं!

जो भी हो मेरे हर निर्णय के पीछे छिपी, मेरी सदिच्छा, आज आशीष की समझ में आ गई है, इस बात से सीने को ठंडक मिल रही थी। आज जब उसे मेरी जरूरत है, मुझे भी तो उसकी जरूरत है! भला कब तक मैं यहां पर अकेला पड़ा रहूंगा?

मौलिक एवं स्वरचित

श्रुत कीर्ति अग्रवाल
shrutipatna6@gmail.com