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प्रेरणा पथ - भाग 4

21. लक्ष्मी जी का वास

एक धनवान व्यक्ति को स्वप्न में लक्ष्मी जी के साक्षात दर्शन हुये। वे भाव विभोर हो गये परंतु लक्ष्मी जी द्वारा यह कहने पर कि अब मैं तुम्हारे पास कुछ दिन की ही मेहमान हूँ फिर मैं विदा होकर दूसरे स्थान जा रही हूँ, उनके होश उड़ गये और वे हडबडाकर नींद से उठकर बैठ गये। वे दिनभर ऊहापोह की स्थिति में मनन करते रहे कि अब ऐसी परिस्थिति में क्या करना चाहिये। वे संशय की स्थिति में अपने पारिवारिक गुरू जी के पास जाते है और उन्हें सब बातों से अवगत कराकर उनसे मार्गदर्शन माँगते हैं। गुरू जी ने उनसे कहा कि लक्ष्मी जी विदा होने के पहले एक बार और अवश्य ही दर्शन देंगी तब तुम उनके पैर पकडकर कहना कि हे माँ जाने से पहले मेरे परिवार के ऊपर एक कृपा कर दीजिये हमें यह आशीर्वाद देकर जायें कि हमारे परिवार के सभी सदस्यों में आपस में प्रेम, सद्भाव, विश्वास एवं नैतिकता हमेशा बनी रहे।

कुछ समय पश्चात एक रात्रि पुनः स्वप्न में उसे लक्ष्मी जी के दर्शन हुये। लक्ष्मी जी ने विदा होने से पूर्व उसकी मनोकामना पूछी, तब उसने गुरूजी के कहे अनुसार उनके पाँव पकड़कर अपनी मनोकामना पूरी करने की प्रार्थना की । यह सुनकर लक्ष्मी जी ने मुस्कुरा कर कहा कि यह सब माँगकर तुमने मुझे रूकने पर विवश कर दिया है। जहाँ पर ये सब गुण होते है वहाँ पर ही मेरा वास रहता है किंतु एक बात का ध्यान रखना कि यदि तुम्हारे परिवार में लालच, द्वेष, बेईमानी, अनैतिकता आदि दुर्गुणों का प्रवेश हुआ तो मैं तुम्हें बिना बताये ही चुपचाप चली जाऊँगी।

22. चयन

प्रोफेसर अग्निहोत्री राजनीतिशास्त्र के बड़े विद्वान थे। एक दिन उन्होंने अपने उद्बोधन में विद्यार्थियों को वृक्ष का उदाहरण देते हुये समझाया कि जब हम वृक्षारोपण करते हैं तो अच्छे बीज का चयन करते हैं। उसके भूमिरोपण के बाद उसकी देखभाल करते है वही बीज जब वृ़क्ष बनता है तो उसकी शाखाएँ चारों ओर फैलने लगती है तथा उस पर फल एवं फूल आने लगते हैं। हम जिस गुणवत्ता का बीज बोते है उसी प्रकार के फल प्राप्त होते है। आज देश की वर्तमान स्थिति को देखते हुये युवा अपने भविष्य के प्रति चिंतित हैं। आपको पता ही है कि निकट भविष्य में चुनाव आने वाले है। आपको मतदान करते समय वृक्ष के उदाहरण को अपने ध्यान में रखना चाहिये। यदि अच्छे बीज के समान सही प्रत्याशी का चयन करे तो वृक्ष में अच्छे फलों के समान उस व्यक्तित्व के द्वारा देश का समग्र विकास रूपी फल हमें मिलेगा अन्यथा वर्तमान परिस्थितियों से तो आप वाकिफ ही हैं।

धर्म तथा राजनीति को व्यापार बनाकर अपने आचरण से आदर्शो का अवमूल्यन करने वाले दुर्जन येन केन प्रकारेण सत्ता पर काबिज हो जाते है। जनता अपने भुलक्कड़ स्वभाव के कारण इन शैतानों की धूर्तता को अनदेखा कर देती है। ईमानदार व्यक्ति इनके निरंतर और तीखे प्रहारों को न सह पाने के कारण हार मानकर मैदान ही छोड़ देता है तथा तिकड़मी, आवारा और अवसरवादी राजनेता सत्ता में आ जाते है। इसलिये हमें मनन, चिंतन एवं मंथन द्वारा अपने और राष्ट्रहित में ऐसा चयन करना चाहिये जो कि हमारी कठिनाईयों को समझकर निराकरण कर सके व अपनी विचारधारा से राष्ट्र के विकास को गति एवं दिशा देने की क्षमता रखता हो। सभी विद्यार्थियों पर प्रोफेसर जी के विचारों का गहरा प्रभाव पड़ा और उन्होंनें निश्चय किया कि वे स्वयं शत प्रतिशत मतदान तो करेंगे ही और दूसरों को भी इसके लिये प्रेरित करेंगें। वे योग्य प्रत्याशी को ही अपना बहुमूल्य मत देकर उसका चयन करेंगें।

23. प्रायश्चित

एक कस्बे में एक गरीब महिला जिसे आँखो से कम दिखता था, भिक्षा माँगकर किसी तरह अपना जीवन यापन कर रही थी। एक दिन वह बीमार हो गई, किसी दयावान व्यक्ति ने उसे इलाज के लिये 500रू का नोट देकर कहा कि माई इससे दवा खरीद कर खा लेना। वह भी उसे आशीर्वाद देती हई अपने घर की ओर बढ़ गई। अंधेरा घिरने लगा था, रास्ते में एक सुनसान स्थान पर दो लड़के शराब पीकर ऊधम मचा रहे थे। वहाँ पहुँचने पर उन लड़को ने भिक्षापात्र में 500रू का नोट देखकर शरारतवश वह पैसा अपने जेब में डाल लिया, महिला को आभास तो हो गया था पर वह कुछ बोली नही और चुपचाप अपने घर की ओर चली गई।

सुबह दोनो शरारती लड़को का नशा उतर जाने पर वे अपनी इस हरकत के लिये शर्मिंदा महसूस कर रहे थे। वे शाम को उस भिखारिन को रूपये वापस करने के लिये इंतजार कर रहे थे। जब वह नियत समय पर नही आयी तो वे पता पूछकर उसके घर पहुँचे जहाँ उन्हें पता चला कि रात्रि में उसकी तबीयत अचानक बिगड़ गयी और दवा न खरीद पाने के कारण वृद्धा की मृत्यु हो गई थी। यह सुनकर वे स्तब्ध रह गये कि उनकी एक शरारत ने किसी की जान ले ली थी। इससे उनके मन में स्वयं के प्रति घृणा और अपराधबोध का आभास होने लगा।

उन्होने अब कभी भी शराब न पीने की कसम खाई और शरारतपूर्ण गतिविधियों को भी बंद कर दिया। उन लडकों में आये इस अकस्मात और आश्चर्यजनक परिवर्तन से उनके माता पिता भी आश्चर्यचकित थे। जब उन्हें वास्तविकता का पता हुआ तो उन्होने हृदय से मृतात्मा के प्रति श्रद्धांजलि व्यक्त करते हुये अपने बच्चों को कहा कि तुम जीवन में अच्छे पथ पर चलो और वक्त आने पर दीन दुखियों की सेवा करने से कभी विमुख न होओ, यहीं तुम्हारे लिये सच्चा प्रायश्चित होगा।

24. अंतिम दान

सेठ रामसजीवन नगर के प्रमुख व्यवसायी थे जो अपने पुत्र एवं पत्नी के साथ सुखी जीवन बिता रहे थे। एक दिन अचानक उन्हें खून की उल्टी हुयी और चिकित्सकों ने जाँच के उपरांत पाया कि वे कैंसर जैसे घातक रोग की अंतिम अवस्था में हैं एवं उनका जीवन बहुत कम बचा है। यह जानकर उन्होने अपनी सारी संपत्ति अपनी पत्नी एवं बेटे के नाम कर दी। कुछ माह बाद उन्हें महसूस हुआ कि उनके हाथ से बागडोर जाते ही उनकी घर में उपेक्षा आरंभ हो गई है। यह जानकर उन्हें अत्यंत दुख हुआ कि उन पर होने वाला दवाइयों, देखभाल आदि का खर्च भी सभी को एक भार नजर आने लगा है। जीवन का यह कडवा सत्य उनके सामने था और एक दिन वे आहत मन से किसी को बिना कुछ बताये ही घर छोडकर एक रिक्शे में बैठकर विराट हास्पिस की ओर रवाना हो गये। किसी का भी वक्त और भाग्य कब बदल जाता है, इंसान इससे अनभिज्ञ रहता है। रास्ते में रिक्शे वाले ने उनसे कहा कि यह जगह तो कैंसर के मरीजों के उपचार के लिये है यहाँ पर गरीब रोगी रहते है जिन होने वाला खर्च उनके परिवारजन वहन करने में असमर्थ होते हैं आप तो वहाँ पर दान देने जा रहे होंगे। मैं एक गरीब रिक्शा चालक हूँ परंतु मेरी ओर से भी यह 50 रू वहाँ दे दीजियेगा। सेठ जी ने रूपये लिये और उनकी आँखे सजल हो गयी।

उन्होने विराट हास्पिस में पहुँचकर अपने आने का प्रयोजन बता दिया। वहाँ के अधीक्षक ने अस्पताल में भर्ती कर लिया। उस सेवा संस्थान में निशुल्क दवाईयों एवं भोजन की उपलब्धता के साथ साथ निस्वार्थ भाव से सेवा भी की जाती थी। एक रात सेठ रामसजीवन ने देखा कि एक मरीज बिस्तर पर बैठे बैठे रो रहा है वे उसके पास जाकर कंधे पर हाथ रखकर बोले हम सब कि नियति मृत्यु है जो कि हमें मालूम है तब फिर यह विलाप क्यों? वह बोला मैं मृत्यु के डर से नही रो रहा हूँ। अगले सप्ताह मेरी बेटी की शादी होने वाली है मेरे घर में मैं ही कमाऊ व्यक्ति था अब पता नही यह शादी कैसे संपन्न हो सकेगी। यह सुनकर सेठ जी बोले कि चिंता मत करो भगवान सब अच्छा करेंगे तुम निश्चिंत होकर अभी सो जाओ। दूसरे दिन प्रातः सेठ जी ने अधीक्षक महोदय को बुलाकर कहा मुझे मालूम है मेरा जीवन कुछ दिनों का ही बाकी बचा है। यह मेरी हीरे की अंगूठी की अब मुझे कोई आवश्यकता नही है। यह बहुत कीमती है इसे बेचकर जो रूपया प्राप्त हो उसे इस गरीब व्यक्ति की बेटी की शादी में दे दीजिये मैं समझूँगा कि मैने अपनी ही बेटी का कन्यादान किया है और बाकी बचे हुये धन को आप अपने संस्थान के उपयोग में ले लें। इस प्रकार सेठ जी ने अपने पास बचे हुये अंतिम धन का भी सदुपयोग कर लिया। उस रात सेठ जी बहुत गहरी निद्रा में सोये। दूसरे दिन जब नर्स उन्हें उठाने के लिये पहुँची तो देखा कि वे परलोक सिधार चुके थे।

25. आनंद

स्वामी हरिदास जी से उनके शिष्य ने पूछा कि आनंद क्या है ? उनका कहना था कि आनंद एक अद्भुत अनुभूति का आभास है। व्यक्ति के जीवन में सुख रहते हुये भी उसे आनंद का अभाव महसूस हो सकता है और दुख में भी वह आनंदित महसूस कर सकता है। जीवन में जो भी कठिन परिस्थितियों से घबराकर भागता है जीवन उसके लिये बोझ हो जाता है। उसका मन निराशा से भर जाता है और वह संसार को नकारात्मक दृष्टि से देखता हुआ अपने जीवन को निरर्थक समझने लगता है। परंतु जिस व्यक्ति में साहस कर्मठता एवं सकारात्मक सोच होती है वह उत्साह पूर्वक संघर्ष करता हुआ परेशानियों एवं कठिनाइयों का निदान करते हुये सफलता की सीढी पर चढता जाता है। यह सफलता उसे अलौकिक संतुष्टि प्रसन्नता आत्मविष्वास का अनुभव कराती है। यही उसके लिये आनंद है। आनंद की तलाश में मानव जीवन भर भागता रहता है और धन, संपदा और वैभव जैसे भौतिक सुखों को ही आनंद समझ बैठता है। ये सुख बाहरी है इनसे शरीर को संतुष्टि प्राप्त होती है परंतु आनंद एक आध्यात्मिक पहेली है जो कि हमारे हृदय एवं आत्मा को अद्भुत तृप्ति का अनुभव कराता है यही आनंद का उद्गम है जो हमारे विचार सत्कर्म और कर्मठता पर निर्भर रहता है।

26. बुद्धिमानी और अवसरवादिता

एक विख्यात संत से उनके एक शिष्य ने पूछा कि वर्तमान समय में बुद्धिमानी और अवसरवादिता में कौन अधिक श्रेष्ठ है ? संत बोले जीवन में बुद्धिमानी एवं अवसरवादिता में जब टकराव होता है तो प्रतीत होता है कि वक्त एवं भाग्य भी ठहर गये हैं। मानव जीवन अपने उद्देष्यों से भटककर कल्पनाओं में खो जाता है और हकीकत से दूर होकर खुशी एवं प्रसन्नता से विमुख हो जाता है। बुद्धिमानी आकाश के समान है जिसका प्रारंभ और अंत हम नही जानते हैं परंतु अवसरवादिता का प्रारंभ और अंत दोनो हमारे हाथों में है।

अवसरवादिता कभी बुद्धिमानी पर हावी नही हो सकती, वह केवल कुछ क्षण के लिये मानसिक तनाव कम कर देती है परंतु बुद्धिमानी में निहित चतुरता हमारे पूरे जीवन को सुखी, समृद्धशाली एवं महान बनाती है तथा जीवन के अंत तक हमारा साथ देती है। बुद्धिमत्ता जहाँ पर वहाँ पर मानवीयता व आत्मा में सच्चाई एवं ईमानदारी रहेगी। जहाँ ये गुण हैं वहाँ पर लक्ष्मी व सरस्वती का वास रहता है। हमें चतुराई और बुद्धिमत्ता पर निर्भर रहना चाहिये और अवसरवादिता का त्याग करना चाहिये। शिष्य को यह सुनकर जीवन का यर्थाथ समझ में आ गया और वह संतुष्ट होकर वापस चला गया।

27. पतंग

आकाश में विभिन्न रंगों की पतंगें उड रही थी जिससे आकाश बहुत सुंदर प्रतीत हो रहा था, तभी दो पतंगों में आपस में पेंच हुये और एक कट कर नीचे गिरने लगी उस पतंग को प्राप्त करने के लिये लड़कों का झुंड दौड़ पड़ा। एक साथ बहुत सारे हाथ उसे झपटने के लिये लपके उनमें से एक बच्चा पतंग को लपक कर भाग गया। वह बच्चा अपनी इस उपलब्धि से बडा खुश हो जाता हैं। कुछ दिन बाद वह बच्चा इसी पतंग को आकाश में उडा रहा था तभी एक दूसरी पतंग ने उसकी पतंग काट दी जिसके साथ उसका काफी धागा भी चला गया इस कारण वह बहुत दुखी हो गया तभी उसके पिता वहाँ आ जाते हैं एवं उसे दुखी देखकर समझाते है कि कल जब तुम्हें किसी दूसरे की पतंग मिली थी सोचो उसे कितना दुख हुआ होगा? यह पतंग लूटने की प्रक्रिया में बच्चों की भीड़ कितनी बुरी तरह से भागती है और आपस में लड़ती है। इस कारण बच्चों को चोट भी लग जाती है। कई बार पतंग किसी के हाथ में भी नही आती है और इस लूटमार के दौरान फट जाती है। पतंग कटी नही कि उसका धागा लूटने की प्रवृत्ति ना जाने कैसे चालू हो गई और धागे के छोटे छोटे टुकड़े पाकर कौन सी संतुष्टि प्राप्त होती है, बचपन में ही यह लूटमार की प्रवृत्ति बड़े होने पर हमारे चरित्र के लिये घातक हो सकती हैं।

28. विश्वास

मुम्बई की एक बहुमंजिला इमारत में मोहनलाल जी नाम के एक बहुत ही सज्जन व दयालु स्वभाव के व्यक्ति रहते थे। उसी इमारत के पास एक महात्मा जी दिन भर ईश्वर की आराधना में व्यस्त रहते थे। मोहनलाल जी के यहाँ से उन्हें प्रतिदिन रात का भोजन प्रदान किया जाता था। यह परम्परा काफी समय से चल रही थी। एक दिन उन महात्मा जी ने भोजन लाने वाले को निर्देश दिया कि अपने मालिक से कहना कि मैंने उसे याद किया है। यह सुनकर मोहनलाल जी तत्काल ही उनके पास पहुँचे और उन्हे बुलाने का प्रयोजन जानना चाहा। महात्मा जी ने कहा कि मुझे आप पर आने वाली विपत्ति का संकेत प्रतीत हो रहा है। क्या आप कोई बहुत बड़ा निर्णय निकट भविष्य में लेने वाले हैं ? मोहनलाल जी ने बताया- मैं अपने दोनों पुत्रों के बीच अपनी संपत्ति का बंटवारा करना चाहता हूँ। मैं और मेरी पत्नी की आवष्यकताएं तो बहुत सीमित हैं जिसकी व्यवस्था वे खुशी-खुशी कर देंगे। महात्मा जी ने यह सुनकर कहा कि आप अपनी संपत्ति के दो नहीं तीन भाग कीजिये और एक भाग अपने लिये बचाकर रख लीजिये। इससे आप दोनों जीवन में किसी पर भी निर्भर नहीं रहना पड़ेगा। मोहनलाल जी यह सुनकर बोले कि हम सभी आपस में बहुत प्रेम करते है। उन्होनें महात्मा जी की बात पर ध्यान न देते हुये बाद में जब संपत्ति का वितरण किया तो उसके दो ही हिस्से किए।

कुछ समय तक तो सब कुछ सामान्य रहा फिर उन्हें धीरे धीरे अनुभव होने लगा कि उनके बच्चे उद्योग-व्यापार और पारिवारिक मामलों में उनकी दखलन्दाजी पसन्द नहीं करते हैं। कुछ माह में उनकी उपेक्षा होना प्रारम्भ हो गयी और जब स्थिति मर्यादा को पार करने लगी तो एक दिन उन्होने अपनी पत्नी के साथ दुखी मन से अनजाने गन्तव्य की ओर प्रस्थान करने हेतु घर छोड़ दिया। वे जाने के पहले उन महात्मा जी के पास मिलने गए। उन्होंने पूछा आज बहुत समय बाद कैसे आए ? तो मोहनलाल जी ने उत्तर दिया कि मैं प्रकाश से अन्धकार की ओर चला गया था और अब वापिस प्रकाश लाने के लिये जा रहा हूँ। मैं अपना भविष्य नहीं जानता किन्तु प्रयासरत रहूँगा कि सम्मान की दो रोटी प्राप्त कर सकूं। महात्मा जी ने उनकी बात सुनी और मुस्कराकर कहा कि मैंने तो तुम्हें पहले ही आगाह किया था। तुम कड़ी मेहनत करके सूर्य की प्रकाष किरणों के समान प्रकाशवान होकर औरों को प्रकाशित करने का प्रयास करो।

मेरे पास बहुत लोग आते हैं जो मुझे काफी धन देकर जाते हैं जो मेरे लिये किसी काम का नहीं है। तुम इसका समुचित उपयोग करके जीवन में आगे बढ़ो और समाज में एक उदाहरण प्रस्तुत करो। ऐसा कहकर उन महात्मा जी ने लाखों रूपये जो उनके पास थे वह मोहनलाल जी को दे दिये। मोहनलाल जी ने उन रूपयों से पुनः व्यापार प्रारम्भ किया। वे अनुभवी एवं तो बुद्धिमान तो थे ही, बाजार में उनकी साख भी थी। उन्होंने अपना व्यापार पुनः स्थापित कर लिया। इस बीच उनके दोनों लड़कों की आपस में नहीं पटी और उन्होंने अपने व्यापार को चौपट कर लिया। इधर मोहनलाल जी पहले से भी अधिक समृद्ध हो चुके थे। व्यापार चौपट होने के कारण भारी आर्थिक संकट का सामना कर रहे दोनो पुत्र उनके पास पहुँचे और सहायता मांगने लगे। मोहनलाल जी ने स्पष्ट कहा कि इस धन पर उनका कोई अधिकार नहीं है। वे तो एक ट्रस्टी हैं जो इसे संभाल रहे हैं। जो कुछ भी है उन महात्मा जी का है। तुम लोग जो भी सहायता चाहते हो उसके लिये उन्हीं महात्मा जी के पास जाकर निवेदन करो। जब वे वहाँ पहुँचे तो महात्मा जी ने उनकी सहायता करने से इन्कार कर दिया और कहा कि जैसे कर्म तुमने किये हैं उनका परिणाम तो तुम्हें भोगना ही होगा।

29. घोडी वाला

घुंघरूओं की झंकार और घोड़ी के पैरों की थाप से मन को आनंद की अनुभूति हो रही थी। उस पर सवार सईस आज बहुत खुश और गौरवान्वित महसूस कर रहा था, क्योंकि आज की घटना ने उसका मान सम्मान बढ़ा दिया था। वह एक शादी में बग्घी लेकर गया था, वहाँ से बारात लगने के बाद लौट रहा था तभी उसकी नजर बग्घी में छूट गये एक बैग पर पडी। उसने रूककर बैग को खोलकर देखा तो उसके होष उड गये। उस बैग में कीमती गहनों के साथ साथ नकद धनराशि भी रखी हुई थी।

यह देखकर वह हतप्रभ था और उसने तुरंत अपनी बग्घी को वापस लौटाया एवं विवाह स्थल पर वापस पहँुचा। उसने वहाँ देखा कि बारातियों के चेहरों पर हवाइयाँ उड़ रही हैं और उन सबके चेहरे उतरे हुये थे। वे बग्घी वाले से उसके वापस लौटने का प्रयोजन पूछते उससे पहले उसने स्वयं ही उसे प्राप्त थैला उन्हें सौंपते हुये कहा कि यह शायद गलती से छूट गया था, इसे आप संभाल ले। दूल्हे के पिता ने बैग खोलकर देखा और सभी सामान सुरक्षित देखकर खुशी के मारे उनकी आँखों में आँसू आ गये।

उन्होने सईस के कंधे पर हाथ रखकर कहा कि ऐसी ईमानदारी वर्तमान समय में अकल्पनीय है। तुम्हारे प्रति आभार व्यक्त करने के लिये मेरे पास शब्दों का अभाव हैं। यह उपकार मैं जिंदगी भर नही भूल सकता हूँ। सभी बारातियों ने उसकी भूरि भूरि प्रशंसा करते हुये ईनाम देने की पेशकश की किंतु उसने यह कहकर कि यह तो मेरा कर्तव्य था, लेने से इंकार कर दिया। दूल्हे के पिता के विनम्रतापूर्वक हठ ने सईस को सोचने के लिये मजबूर कर दिया। वह बोला कि अच्छा आप लोग इतना आग्रह कर रहे हैं तो जो मैं माँगुंगा क्या वह आपको देना स्वीकार होगा? लडके के पिता यह सुनकर गंभीर हो गये और मन में सोचने लगे कि आखिर इसके मन में क्या चाह छिपी हुई है? उन्होने कहा कि यदि मेरे सामर्थ्य में होगा तो मैं जरूर दूँगा।

सईस ने विनम्रतापूर्वक कहा कि यह दुल्हन मेरी बेटी के समान है, मेरी आप से यही प्रार्थना है कि आप इसे आजीवन सुखी रखें एवं इसे कभी कोई दुख ना होने दे। यही वचन में अपनी माँग के रूप में आप से और दूल्हे से चाहता हूँ। यह सुनकर सारे लोग भावविभोर होकर आश्चर्यचकित भाव से उसे देखने लगे। लडके के पिता ने उसे सीने से लगा लिया और सजल नेत्रों से उसे वचन दिया कि वह दुल्हन को बिल्कुल अपनी बेटी के जैसा रखेंगे। लडकी के पिता भी यह सुनकर अत्यंत भावविहल हो गये और कहने लगे कि आप मानव के रूप में देव तुल्य हैं। इसके बाद दूल्हा और दुल्हन ने भी उन्हें अपना पिता तुल्य मानते हुये आर्शीवाद लिया। सईस सभी के प्रति आदर भाव व्यक्त करता हुआ अपने गंतव्य की ओर चल पड़ा।

30. संस्कार

एक बालक ने अपने पिता से पूछा कि पिताजी मनुष्य का जन्म एक जैसा होता है उसकी बनावट भी एक जैसी रहती है, परंतु जब वह बड़ा होता है तो किसी का बहुत नाम, मान सम्मान होता है और कोई पतन के गर्त में डूब कर अपना अस्तित्व ही खो बैठता है, ऐसा क्यों होता है ? उसके पिता उसे अपने साथ में लेकर एक गुब्बारे वाले के पास जाते है, और उससे कहते है कि तुम दो अलग अलग गुब्बारों में एक ही मात्रा में हवा भरकर उसे एक साथ छोड दो। गुब्बारे वाला ऐसा ही करता है। दोनो गुब्बारे थोडा ऊपर जाते ही अलग अलग दिषाओं में अलग अलग ऊँचाई पर उडने लगते हैं। अब पिता अपने बेटे को समझाते हुये कहते हैं कि इसी प्रकार मनुष्य का जन्म तो एक सा होता है परंतु भिन्न भिन्न सभ्यता, संस्कृति और संस्कारों में पल्लवित होने के कारण उसके विकास और स्वभाव में अंतर हो जाता है। जिसे अच्छे संस्कारों का मार्गदर्षन मिलता है वह निरंतर जीवन में प्रगति के मार्ग पर अग्रसर होता है परंतु जो दुष्प्रवृत्तियों के चंगुल में फँस जाता है वह पतन के गर्त में गिरकर अपने जीवन को बर्बाद कर बैठता हैं। हमारा नैतिक कर्तव्य एवं दायित्व है कि बच्चों के सर्वांगीण विकास का ध्यान रखते हुये उन्हें अच्छे संस्कार देने का प्रयास करें ताकि वे जीवन में प्रगति के पथ पर अग्रसर हो सकें।

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