Prerna Path - 3 books and stories free download online pdf in Hindi

प्रेरणा पथ - भाग 3

11. आदमी और संत

नर्मदा नदी के तट पर एक महात्मा जी रहते थे। उनके एक शिष्य ने उनसे निवेदन किया कि मुझे आपकी सेवा करते हुये दस वर्षों से भी अधिक समय हो गया है और आपके द्वारा दी हुई शिक्षा भी अब पूर्णता की ओर है। मैं भी अब संत होना चाहता हूँ और आपके आशीर्वाद की अपेक्षा रखता हूँ। महात्मा जी ने मुस्कुराकर कहा - पहले इंसान बनने का गुण समझो फिर संत बनने की अपेक्षा करना। इंसान का गुण है कि धर्म, कर्म, दान के प्रति मन में श्रद्धा का भाव रखे। उसके हृदय में परोपकार एवं सेवा के प्रति समर्पण रहे। ऐसे सद्पुरूष की वाणी मे मिठास एवं सत्य वचन के प्रति समर्पण हो। उसका चिंतन सकारात्मक एवं सदैव आशावादी रहे। वह जुआ, सट्टा व परस्त्रीगमन से सदैव दूर रहते हुये अपने पूज्यों के प्रति आदर का भाव रखता हो। ऐसा चरित्रवान व्यक्ति क्रोध, लोभ एवं पापकर्मों से दूर रहे। जीवन में विद्या ग्रहण एवं पुण्य लाभ की हृदय से अभिलाषा रखे एवं अपने गुणों पर कभी अभिमान न रखे। इन गुणों से मानव इंसान कहलाता है।

संत बनने के लिये पुण्य की भावना, पतित-पावन की सेवा, उनकी मुक्ति की कामना जीवन का आधार रहे। मन में सदविचार पर्वत के समान ऊँचे एवं सागर की गहराई के समान गंभीर हों। वह अपने भाग्य का स्वयं निर्माता बनने की क्षमता रखे तथा आत्मा को ही अपना सर्वोत्तम साथी रखे। उसके कर्मों का फल उसकी आत्मा को पाप और पुण्य का अहसास कराने की शक्ति उत्पन्न कर दे। सत्य से बड़ा धर्म नही, झूठ से बड़ा पाप नहीं, इसको वह जीवन का सूत्र बना ले। आत्म बोध सदा उपकारी मित्र होता है, इसे अंतर आत्मा में आत्मसात् करे। वह कामना ही मन में संकल्प को जन्म देती है और लोकसेवा से ही जीवन सार्थक होता है, इसे वास्तविक अर्थों में अपने जीवन में अंगीकार करें। इतने गुणों से प्राप्त सुकीर्ति संत की पदवी देती है। मैंने तुम्हें इंसान और संत बनने की बातें बता दी हैं। अब तुम अपनी राह अपने मनन और चिंतन से स्वयं चुनो। यह कहकर महात्मा जी नर्मदा में स्नान करने हेतु चले गये। इतना सुनने के बाद वह शिष्य पुनः महात्मा जी की सेवा में लग गया।

12. अच्छे दिन

मैं प्रतिदिन की तरह कार्यालय जाने के लिये बस का इंतजार कर रहा था। एक भिखारी मैले कुचैले कपड़े पहने हुये दीन भाव से मेरे सामने हाथ फैलाकर भीख माँगने लगा। मैंने जेब से कुछ चिल्लर पैसे निकालकर दे दिये और कौतुहलवश उससे पूछा कि “ बाबा क्या तुम जानते हो कि अच्छे दिन आने वाले है? विदेशो में जमा काला धन वापिस लाने और भ्रष्टाचार खत्म करने के लिये सरकार कृत संकल्पित है। काला धन वापिस आने के बाद आपको इतना कष्टपूर्ण जीवन नही जीना पड़ेगा। “ वह बोला बाबूजी मैं तो सिर्फ रोटी और कपड़े को जानता हूँ। मैं अपने शरीर को ढ़कने वाले इन फटे पुराने कपड़ों को और जेब में पड़ी कुछ रेजगारी को ही अपनी पूँजी मानता हूँ। मुझे अच्छे से मालूम है कि मैं कल भी भिखारी था, आज भी हूँ और कल भी रहूँगा। मेरे लिये तो बासी रोटी, फटे पुराने कपड़े और टूटा फूटा झोपड़ा ही मेरी संपत्ति है। ये काला धन तो बड़ी बड़ी बातें हैं, जब आयेगा इन्ही नेताओं और इनके बड़े बड़े मित्रों के बीच में ही बँट जायेगा। इतना कह कर वह मुझे दुआयें देता हुआ आगे बढ़ गया और मैं वही खड़ा खड़ा देश के भविष्य के विषय में सोचने लगा कि कब आयेंगे अच्छे दिन ?

13. अंतिम इच्छा

राजा विक्रम सिंह की सेना में अजय सिंह व विजय सिंह नाम के दो बहादुर सैनिक थे। उनमें से अजय सिंह, विजय सिंह से 10 वर्ष पुराना एवं सेनापति का अत्यंत वफादार व करीबी था। इस कारण विजय सिंह मन ही मन में उससे जलता था। उसके मन में ईर्ष्या व द्वेष इतना बढ़ गया था कि वह अजय सिंह को खत्म करने की योजना बनाने लगा। वे दोनो प्रतिदिन प्रातःकाल साथ-साथ घूमने के लिये जाते थे। उनके रास्ते में नदी को पार करने के लिये एक छोटा सा कच्चा पुल बना था जिसके ऊपर बहुत सावधानीपूर्वक चलना पड़ता था। विजय ने एक दिन रात्रि के समय उस पुल को एक स्थान पर इतना कमजोर कर दिया कि उस पर पाँव रखते ही व्यक्ति नदी में गिर जाए और उसकी मृत्यु हो जाए।

दूसरे दिन दोनो प्रतिदिन की तरह प्रातः के समय पुल के पास पहुंचे। विजय ने अजय से कहा कि आप आगे चलो मैं लघुशंका से निवृत्त होकर आपके पीछे-पीछे आता हूँ। अजय अपनी रफ्तार से पुल पर आगे बढ़ता जा रहा था, उसने पीछे मुड़कर देखा तो विजय धीरे-धीरे आ रहा था। पुल को जिस जगह से कमजोर किया गया था, वहाँ पर पहुँचकर अजय रूक गया और विजय की प्रतीक्षा करने लगा। उसके वहाँ पहुँचने पर उसने विजय को आगे चलने के लिये कहा, विजय बहुत असमंजस में था। यदि आगे बढ़ता है तो जान से हाथ धो बैठेगा, यदि नही जाता है तो पकड़ा जायगा और यह सोचकर उसके चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगी, उसकी मनःस्थिति को भांपकर अजय ने उसका गिरेबान पकड़ लिया और कहा- मैं बहुत समय से तुम्हारी गतिविधियों पर नज़र रखे हुये था। परंतु तुम इतना गिर जाओगे यह मैने सोचा भी नही था। कल रात जब तुम चुपचाप यहां आ रहे थे, तो तुम्हें यहाँ आते देखकर मुझे आभास हो गया था कि तुम कुछ बुरा करने की योजना बना रहे हो, तभी से मैं तुम्हारा पीछा कर रहा था। मेरा अनुभव तुमसे कहीं अधिक है। अब तुम सच सच बताओ, तुमने ऐसा क्यों किया ? वरना यह खबर मैं सेनापति एवं राजा तक पहुँचा दूँ तो तुम्हें निश्चित मृत्युदंड मिलेगा ?

यह सुनकर विजय के होश उड़ गये और वह गिड़गिड़ाकर रोते हुये अजय के पाँव में गिर गया और बोला, मैंने आपसे ईर्ष्यावश ऐसा कुकृत्य किया। मेरे घर में मेरी पत्नी और दो अबोध बच्चे हैं, यदि मैं जीवित नही रहा तो मेरे बच्चे अनाथ हो जायेंगे और उनकी देखभाल करने वाला कोई नही हैं। वह फूट फूट कर रो रहा था और उसके मन में पश्चाताप के आंसू थे। यह देखकर अजय का मन द्रवित हो गया उसने विजय को उठाकर कहा कि चलो मैंने तुम्हें माफ कर दिया। यह बात सिर्फ तुम्हारे और मेरे बीच में ही रहना चाहिये। विजय इस उपकार के प्रति हृदय से कृतज्ञ था और उसका मन साफ होकर वह वास्तव में अजय का सच्चा मित्र बन गया था।

कुछ माह के उपरांत पड़ोसी राज्य ने आक्रमण कर दिया। दोनो सेनाओं के बीच भयंकर युद्ध छिड़ गया। दुर्भाग्यवश अजय दुश्मनों से लड़ते हुये चारों ओर से घिर गया। उसे आभास होने लगा था कि अब उसकी मृत्यु करीब है। तभी अचानक से विजय दहाड़ता हुआ दुश्मनों के चक्रव्यूह को तोड़कर अजय को सुरक्षित स्थान पर ले गया। इस दौरान विजय गंभीर रूप से घायल हो गया और उसने अजय से कहा कि मेरा बचना नामुमकिन है, मेरे मरने के बाद मेरे परिवार का ख्याल रखना। इतना कहकर उसकी मृत्यु हो गयी।

युद्ध समाप्त होने पर अजय उसके घर पहुँचा। अपना परिचय देकर उसकी पत्नी को विजय द्वारा कही गयी अंतिम इच्छा से अवगत कराया। उसकी पत्नी की आँखों से आंसू बंद नही हो रहे थे। अजय ने कहा कि बहन ईश्वर के विधान के आगे हम सभी नतमस्तक है, मैं विजय को वापस तो नही ला सकता परंतु आपका भाई बनकर उसकी अंतिम इच्छा को पूरा करना चाहता हूँ। मैं एक सच्चा सैनिक हूँ और मेरे द्वारा दिये गये वचन के अनुसार आपके परिवार की देखरेख करना मेरा फर्ज एवं धर्म है जिसे मैं आजीवन निभाऊँगा। यह सुनकर विजय की पत्नी अत्यंत भावुक हो उठी और अजय से बोली कि परमात्मा ने आपको भाई के रूप में देवदूत बनाकर भेज दिया है अब मैं सभी चिंताओं से निश्चिंत हो गयी हूँ।

14. नाविक

नर्मदा नदी के किनारे राजन नाम का एक कुशल गोताखोर एवं नाविक रहता था। उसने कई लोगों की जानें बचाई थी। वह एक ईमानदार एवं स्पष्टवादी व्यक्ति था,उसने लालच में आकर कभी अपनी नौका में क्षमता से अधिक सवारी नहीं बैठाई, कभी किसी से तय भाड़े से अधिक राशि नहीं ली। एक बार नेताजी अपने समर्थकों के साथ नदी के दूसरे ओर जाने के लिए राजन के पास आए। नेताजी के साथ उनके समर्थकों की संख्या नाव की क्षमता से अधिक थी। राजन ने उनसे निवेदन किया कि वह उन्हें दो चक्करों में पार करा देगा। लेकिन नेताजी सबको साथ ले जाने पर अड़ गए। जब राजन इसके लिए तैयार नही हुआ तो नेताजी, एक दूसरे नाविक के पास चले गए। नेताजी के रौब और पैसे के आगे वह नाविक राजी हो गया और उन्हें नाव पर बैठाकर पार कराने के लिए चल दिया।

राजन अनुभवी था। उसने आगे होनेवाली दुर्घटना को भाँप लिया। उसने अपने गोताखोर साथियों को बुलाया और कहा- हवा तेज चल रही है और उसने नाव पर अधिक लोगों को बैठा लिया है। इसलिए तुम लोग भी मेरी नाव में आ जाओ। हम उसकी नाव से एक निश्चित दूरी बनाकर चलेंगे। वह अपनी नाव को उस नाव से एक निश्चित दूरी बनाकर चलाने लगा। उसके साथियों में से किसी ने यह कहा कि हम लोग क्यों इनके पीछे चलें। नेताजी तो बड़ी पहुँच वाले आदमी हैं, उनके लिए तो फौरन ही सरकारी सहायता आ जाएगी। राजन ने उन्हें समझाया कि उनकी सहायता जब तक आएगी तब तक तो सब कुछ खत्म हो जाएगा। हम सब नर्मदा मैया के भक्त हैं, हमें अपना धर्म निभाना चाहिये। उसकी बातों से प्रभावित उसके साथी उसके साथ चलते रहे।

जैसी उसकी आशंका थी, वही हुआ। तेज बहाव में पहुँचने पर नाव तेज हवा और बहाव के प्रभाव से डगमगाने लगी। हड़बड़ाहट में नेताजी और उनके चमचे सहायता के लिए चिल्लाने लगे और उनमें अफरा-तफरी मच गई। इस स्थिति में वह नाविक संतुलन नही रख पाया और नाव पलट गई। सारे यात्री पानी में डूबने और बहने लगे। जिन्हें तैरना आता था वे भी तेज बहाव के कारण तैर नहीं पा रहे थे। राजन और उसके सभी साथी नाव से कूद पड़े और एक-एक को बचाकर राजन की नाव में पहुँचाने लगे, तब तक किनारे के दूसरे नाव वाले भी आ गए। सभी का जीवन बचा लिया गया। पैसे और पद के अहंकार में जो नेताजी सीधे मुँह बात नही कर रहे थे अब उनकी घिग्घी बँधी हुई थी। अपनी खिसियाहट मिटाने के लिए उन्होंने राजन और उनके साथियों को ईनाम में पैसे देने चाहे तो राजन ने यह कहकर मना कर दिया कि हमें जो देना है वह हमारा भगवान देता है। हम तो अपनी मेहनत का कमाते हैं और सुख की नींद सोते हैं। आपको बचाकर हमने अपना कर्तव्य पूरा किया है इसका जो भी ईनाम देना होगा वो हमें नर्मदा मैया देंगी।

15. प्रजातंत्र

नगर की एक षाला में बारहवीं कक्षा के छात्रों के लिये हम और हमारे जनप्रतिनिधि विषय पर निबंध प्रतियोगिता आयोजित हुई इसमें पुरस्कृत रचना बड़े रोचक ढंग से लिखी गयी थी। जनता ने जनसेवा, जनकल्याण, एवं जनहितार्थ हेतु जनमत से अपने जनप्रतिनिधि का चयन किया। जनता की सोच थी कि अब विकास की गंगा बहेगी। वह जनप्रतिनिधि कुछ दिनों में ही राजनीति के दांवपेंच सीखकर नेता बन गया और अब जनता को भूलकर अपने ही विकास में लग गया। सरकार बदल गई पर सर और कार जहाँ थी वहीं रह गये। जनता की अपेक्षायें धूमिल हो गई और उन्होने संकल्प किया कि अगले चुनाव में इसे नही चुनेंगे। वक्त तेजी से भागता है और देखते ही देखते पाँच वर्ष बीत गये और चुनाव आ गये।

जनता के दरबार में वह वापिस हाजिर हो गया उसके विपक्षियों ने समझा कि सब इससे बहुत नाराज है इसलिये इसकी हार सुनिश्चित है। इसकी परवाह ना करते हुये वह सभी को कहता था कि वह ऐसी चाल चलेगा कि विपक्षी धराशायी हो जायेंगे और वह पुनः बहुमत से जीतेगा। उसने चुपचाप जाति और धर्म के आधार पर मतदाताओं को आकर्षित करना शुरू किया और अपने आप को उसी जाति और धर्म का होने के कारण उनका प्रतिनिधि बताने लगा। जनता ने भी विकास की बात भूलकर जातिगत आधार पर उसके पक्ष में मतदान कर दिया और वह पुनः विजयी हो गया। कुछ समय पश्चात वह पहले की तरह ही जनता को भूल गया। हमारे देश में प्रजातंत्र की यहीं विडम्बना है कि विकास की बात भूलकर लोग, धर्म और जाति को अधिक महत्व देने लगते हैं। देश के अधिकांश नेता जनता को इसी प्रकार मूर्ख बनाकर राज कर रहे थे, कर रहे हैं और आगे भी करते रहेंगे ? जीवन में सफलता के लिये यह आवश्यक है कि हम अपने लक्ष्य और मंजिल का स्वयं निर्माण करें। जीवन में कौन क्या कर रहा है, कैसे कर रहा है इस पर ध्यान ना देकर हम क्या कर रहें हैं, इस चिंतन पर ध्यान दें और इसी तरह के कर्म को महत्व दें। यही प्रजातंत्र की सफलता है।

16. जीवन का सत्य

एक नेताजी की भाषण देते समय अचानक मृत्यु हो गयी, उन्हें यमराज के सन्मुख लाया गया। उन्होने यमराज से कहा कि हे यमराज आपने असमय ही मुझे यहाँ पर बुला लिया है। मुझे अभी जनसेवा के बहुत कार्य पूरे करने थे। अब जनता मेरे ना रहने के कारण विकास से वंचित रह जायेगी। यमराज ने उनकी बात सुनकर कहा कि नेताजी प्रकृति का नियम है कि समय के साथ व्यक्ति भुला दिया जाता है और जो जीवन में अच्छे कर्म करता है उसे याद रखा जाता है।

मैं आपको, आपके घर एवं आसपास होने वाली गतिविधियों को यही से दिखा देता हूँ। आप नीचे पृथ्वी की ओर झाँककर देखिये। नेताजी ने नीचे की ओर झाँककर देखा कि उनके दाह संस्कार के पहले ही घरवाले तिजोरी की चाबियाँ खोज रहें हैं जिसमें विदेश में जमा करोड़ो रूपयों के कागजात हैं। वे जनता को दिखाने के लिये रो रहे हैं परंतु अपना समय वसीयत और बँटवारे के संबंध में जानकारी प्राप्त करने हेतु व्यतीत कर रहें हैं। उनके अनुयायी दूसरे नेताओं के चमचें बन गये हैं एवं उनकी जगह कोई दूसरा नेता नियुक्त कर दिया गया है और वह मन ही मन उनकी मृत्यु से प्रसन्न हो रहा है। जो धन व्यापारियों के पास लगा हुआ था वे उसको हड़प चुके हैं। जनता भी उन्हें भ्रष्टाचारी और हरामखोर कहकर कोस रही है।

यह सब देखकर नेताजी व्यथित होकर कहते हैं कि हे यमराज मेरा आपसे विनम्र निवेदन है कि मैनें जीवन का सत्य देख लिया है मैं अपनी सारी सजायें भुगतने के लिये तैयार हूँ आप कृपा कर मुझे वापस भूलोक मत भेजियेगा। मैं भूलोक के पाखंड से अत्याधिक द्रवित हूँ, वहाँ मक्कारी एवं लापरवाही के साथ और भी बहुत कुछ है किंतु आपके चरण सान्निध्य में केवल आप ही आप है, अतः प्रभु मेरी प्रार्थना स्वीकारीये।

17. स्वर्ग एवं नरक

सेठ सुजानमल अपने जीवन को आनंद से गुजार रहे थे। एक दिन उन्हें रात्रि में स्वप्न देखा कि यमराज के दूत उन्हें मारते पीटते हुये कहीं ले जा रहे हैं। वे हड़बड़ाकर उठ बैठे और प्रातःकाल अपने धर्मगुरू संत हरिदास जी के पास पहुँचकर उन्हें इस घटना का विवरण दिया। संत जी ने कहा कि जीवन में कर्मों के फल से ही प्राणी अपने जीवनकाल में ही स्वर्ग और नरक का अनुभव करता है यह सुनकर सेठ जी ने उनसे विनम्रता पूर्वक आग्रह किया कि स्वर्ग और नरक कहाँ पर स्थित है एवं उनका अनुभव कैसे हो सकता है ? संत जी बोले कि मैं आपको अभी अपने साथ ले जाकर इसका अनुभव करा देता हूँ। स्वामी जी सेठ जी को सबसे पहले एक कसाई के घर ले जाते है, कसाई का काम प्रतिदिन जीवों का संहार करना रहता है उनके रक्त से उसका शरीर सना हुआ रहता है। उस पर मक्खियाँ मँडराती रहती है और वह एक बदबूदार वातावरण में दूषित हवा में साँस लेकर जीवन जीता है। उसके घर में भी सभी लोगों का स्वभाव कर्कश एवं झगडालू प्रवृत्ति का रहता है वे आपस में झगडा करते हुये जीवन यापन करते हैं।

इसके बाद स्वामी जी और सेठ जी एक वकील के घर पहुँचते है। वह वकील न्यायप्रिय, ईमानदार एवं जनहित के कार्यों के लिये समर्पित व्यक्तित्व था। वह कई जरूरतमंदों को बिना किसी सेवा शुल्क के मुकदमों में सहायता करता था। वह कई जनहितकारी मामलों को समाज के हित में न्यायालय में ले जाकर समुचित मार्गदर्शन दिलाकर समाज में सकारात्मक विचारधारा लाने हेतु गतिशील रहता था। वह मान सम्मान पूर्वक परिवार में शांति एवं सुख के साथ दिन बिता रहा था। स्वामी जी ने अब सेठजी को कहा कि मैने तुम्हे जीवन में सुख और दुख दोनो दिखा दिये। पहले व्यक्ति का जीवन नरक के समान है और दूसरे व्यक्ति का जीवन स्वर्ग का अनुभव कराता है। इन्हें अपने कर्मो के अनुसार यही पर स्वर्ग एवं नर्क मिला हुआ है। व्यक्ति अपने कर्मों से ही इसी धरती पर स्वर्ग या नरक का जीवन जीता है। सेठ जी स्वामी जी का आशय समझ गये थे।

18. मोक्ष का आनंद

प्रयाग में भागीरथी के तट पर एक सन्त से मेरी मुलाकात हो गई। मैंने मन की जिज्ञासा की संतुष्टि के लिये उनसे विनम्रता पूर्वक आग्रह सहित पूछा- मोक्ष क्या है ? उन्होंने स्नेहपूर्ण वाणी में समझाया- मोक्ष दुनियां के विवादास्पद विषयों में से एक है। यह क्या है ? किसी ने इसे देखा है ? इस पथ के विषय में कोई भी व्यक्ति आज तक दावे के साथ नहीं कह सकता कि वह रास्ता मोक्ष तक जाता है। इसका रुप व स्वरुप किस प्रकार का है। हमारे धार्मिक ग्रन्थों में इसकी व्यापक व्याख्या है। यदि हम गम्भीरता से मनन और चिन्तन करें तो हम इस निष्कर्ष पर पहुँचेंगे कि मोक्ष की प्राप्ति लगभग असंभव है। मेरा व्यक्तिगत विचार तो यह है कि मृत्यु के बाद मोक्ष की कल्पना समाज को अनुशासन में रखने एवं सामाजिक दायरों में व्यक्ति को बांधे रखने के लिये धर्मग्रन्थों के माध्यम से स्थापित की गई व्यवस्था है।

मोक्ष की मृगतृष्णा में व्यक्ति धर्म पूर्वक कर्म करता रहे एवं मानवीय दृष्टिकोण रखते हुए जीवन व्यतीत करे। उसके मन में मोक्ष की कामना सदैव बनी रहे। मेरा तो दृढ़ विश्वास है कि मोक्ष हमें इसी जीवन में प्राप्त हो सकता है। जीवन में मोक्ष का दूसरा स्वरुप आनन्द है। अब आनन्द क्या है? दुख में भी आनन्द की अनुभूति हो सकती है और सुख में भी आनन्द का अभाव हो सकता है। जीवन में कठिनाइयों और परेशानियों से घबरा कर भागने वाला जीवन को बोझ समझ कर निराशा के सागर में डूबता उतराता रहता है। वह कठिनाइयों और अवसादों को घोर घना जंगल समझता है। परन्तु साहसी व्यक्ति कर्मठता के साथ सकारात्मक सृजन करता है एवं परेशानियों से जूझकर उन्हें हल करता है। यह संघर्ष उसे उत्साहित करता है।

वह सफलता की हर सीढ़ी पर अनुभव करता है एक अलौकिक संतुष्टि के साथ स्वयं पर आत्मविश्वास। वह अनुभव करता है एक अलौकिक सौन्दर्य युक्त संसार का यही आनन्द है। धन संपदा और वैभव से हम भौतिक सुख तो प्राप्त कर सकते हैं किन्तु आनन्द की तलाश में मानव जीवन भर भागता रहता है। भौतिक सुख बाहरी हैं परन्तु आनन्द आन्तरिक है। सुख की अनुभूति षरीर को होती है किन्तु आनन्द की अनुभूति हमारे अंतरमन को होती है। आनन्द का उद्गम हैं, हमारे विचार, हमारे सद्कर्म और हमारी कर्मठता। यही मोक्ष है जो आनन्द का दूसरा स्वरुप है।

19. सच्ची तीर्थयात्रा

सेठ राममनोहरदास अपनी पत्नी के साथ सुखी जीवन व्यतीत कर रहे थे। वे ईश्वर के प्रति विश्वास तो रखते थे पर उनकी आस्था भक्ति के प्रति अधिक थी उनका विश्वास था कि मंदिर में दर्शन करने, साधु संतों के साथ सत्संग से ही मोक्ष प्राप्ति की आकांक्षा पूरी होती है। उनकी पत्नी में भी भगवान के प्रति गहरी आस्था और श्रद्धा थी। उनका मत था कि कर्म भावना प्रधान होना चाहिये। यदि जीवन में सच्ची भावना से कर्म नही किये गये हों तो ईश्वर की आराधना एक दिखावा है और मोक्ष प्राप्ति की आकांक्षा सपने के समान है।

एक बार सेठ जी चारों धाम की यात्रा पर जाने का मन बना बैठे क्योंकि उन्हें किसी महात्मा ने बताया था कि सिर्फ चारों धाम के दर्शन मात्र से ही मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। उन्होने अपनी पत्नी को भी चलने के लिये आग्रह किया परंतु उसने यह कह कर मना कर दिया कि मन चंगा तो कठौती में गंगा।

सेठ जी अकेले ही अपने नौकर को साथ लेकर यात्रा पर निकल गये। प्रत्येक तीर्थ स्थल पर भगवान के दर्शन, पूजन आदि हेतु उनकी मुलाकात वहाँ के पंडे, पुजारियों से होती है। उनकी कार्यशैली पूर्णतया धनोपार्जन की थी। जो भी यजमान उनको मुँह माँगा धन देता था उसे वे येन केन प्रकारेण भगवान की मूर्ति के निकट तक जाने का प्रबंध करा देते थे। वहाँ पर सामान्य भक्तों की कोई पूछ नही थी, उन्हें घंटों खड़ा रहने के बाद क्षणिक दर्शन करने का अवसर मिलता था। ऐसा प्रतीत होता था कि वहाँ पर भक्ति एवं श्रद्धा की भावनाओं का पूर्णतया अभाव था। यही सब उन्होने पवित्र नदियों में स्नान के दौरान देखा कि जो लोग पुण्य लाभ हेतु स्नान कर रहे थे वे अपने क्रिया कलापों से नदियों को प्रदूषित कर रहे थे। यह देखकर सेठ जी व्यथित हो गये। वे जिस सुख और शांति की खोज में आये थे वह तो प्राप्त नही हुयी अपितु ऐसा वातावरण देखकर मन खिन्न हो गया।

उन्हें अब अपनी पत्नी की बातें याद आने लगी कि पूजा, श्रद्धा और भक्ति पर आधारित होती है जिसमें भावनाओं का प्रभु के प्रति समर्पण ही सच्ची आराधना है और इसी से जीव को सच्चा सुख और सद्गति की प्राप्ति होती है। सेठ जी अपनी तीर्थ यात्रा पूरी करके वापस अपने गृहनगर लौट आते है। उन्होंने अपनी यात्रा का वृतांत पत्नी को बताते हुये स्वीकार किया कि कर्म में भावनाओं का होना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। सेठ जी अब धर्म से कर्म करने में विश्वास करने लगे।

20. कचौड़ी वाला

जबलपुर षहर में एक सुप्रसिद्ध कचैड़ी बनाने वाले रामलोटन महाराज नामक व्यक्ति रहते थे। उसकी बरगद के वृक्ष के नीचे छोटी सी दुकान थी जिसमें वह स्वयं कचौड़ी बनाते थे। उसके हाथों में ना जाने क्या हुनर था कि वैसी स्वादिष्ट एवं मनभावन कचौड़ी और कोई भी नहीं बना पाता था। उनकी दुकान में सुबह से लेकर रात तक ग्राहकों की भीड़ लगी रहती थी जिनमें गरीब से लेकर अमीर तक सभी उनकी कचौड़ी का लुत्फ उठाने आते थे।

नगर के सुप्रसिद्ध सेठ करोडीमल उनके प्रतिदिन के ग्राहक थे। एक दिन उन्होने रामलोटन महाराज से पूछा कि तुम इतनी अच्छी कचौडी के साथ विभिन्न प्रकार की चटनियाँ एवं सब्जियाँ इतने कम दाम में कैसे दे देते हो? इसमें तुम क्या बचा पाते होगे? मेरा सुझाव है कि तुम शहर के मध्य में कोई उचित स्थान लेकर वहाँ पर कचौडियों का निर्माण वृहद् रूप में करो इससे तुम्हे यहाँ से कहीं अधिक दाम मिलेगा और तुम्हारा व्यापार भी बढ़ता जायेगा। यदि तुम कहो तो मैं तुम्हें उचित स्थान उपलब्ध करा सकता हूँ।

रामलोटन महाराज ने सेठ जी के प्रति आभार व्यक्त करते हुये उनके सुझाव को विनम्रतापूर्वक अस्वीकर कर दिया। उनका कहना था कि धन कमाने की कोई सीमा नही है और इससे लोभ की प्रवृत्ति बढती जाती है। वह अपनी छोटी सी दुकान में ही पूर्ण संतुष्ट है, उनकी कमाई भले ही कम है परंतु उनकी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाती है। उन्होनें सेठ जी को कहा कि मैं तो इस दोहे को जीवन का यथार्थ मानता हूँ -

“ साईं इतना दीजिये, जा में कुटुंब समाए।

मैं भी भूखा ना रहूँ और अतिथि भी भूखा ना जाये। “

आप जैसे बडे बडे लोग अपना कीमती समय निकालकर स्वयं यहाँ आते हैं यहीं मेरे लिये सबसे बड़ा संतोष धन है। उनकी उच्च विचारधारा, सादगी, और संतोष से प्रभावित होकर सेठ जी उनकी भूरि भूरि प्रशंसा करते हुये चले गये।

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