प्रेरणा पथ - भाग 6 - अंतिम भाग Rajesh Maheshwari द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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प्रेरणा पथ - भाग 6 - अंतिम भाग

41 पागल कौन

एक अर्द्धविक्षिप्त वृद्ध महिला मैले कुचैले कपड़े पहने किसी तरह अपने शरीर को ढके हुये सड़क पर जा रही थी। उसे देखकर बच्चे पागल पागल कहकर उसे चिढाने लगे, वह भी चिढकर विचित्र हरकतें करने लगी और बच्चों के मनोरंजन का केंद्र बन गयी। उसी समय अचानक एक लडके ने उसकी ओर पत्थर फेंका जो कि उसके माथे पर लग गया और गहरी चोट के कारण वह वही बैठकर रोने लगी उसकी ऐसी स्थिति देखकर एक बुजुर्ग दंपती उसके पास पहुँचे और उसे सहारा देकर मरहम पट्टी करके, उन्होने बच्चों से कहा कि यह तो पागल है तुम लोग तो पढ लिख रहे हो ऐसी हरकतें जिससे किसी को कष्ट पहुँचे और वह दुखी हो जाये क्या उचित है? इस महिला को चोट लग जाने से तुम्हें क्या लाभ प्राप्त हुआ ? इससे तुमने कौन सा बहादुरी का काम कर दिखाया यदि ऐसी चोट तुममें से किसी को लगती तो कितनी पीड़ा सहन करनी पड़ती?

सभी बच्चों पर उनकी इन बातों का प्रभाव पड़ा और उन्हें अपनी गलती का अहसास होकर उनके मन में करूणा का भाव जाग्रत हुआ। वे उसकी सहायता के लिये उसके पास आ गये इससे वह महिला भयभीत होकर पीछे खिसकने लगी। बुजुर्ग दंपती उसे यह आभास कराने लगे कि ये बच्चे उसे परेशान नही बल्कि उसकी मदद करने हेतु आगे आ रहे हैं। उसने इशारे से बताया कि वह बहुत भूखी है, यह देखकर बच्चे अपने घर से भोजन एवं पानी ले आये। वह भोजन करके अपनी तृप्त एवं कातर आँखों से बच्चों को ऐसे देख रही थी मानो उन्हें अंतरआत्मा से धन्यवाद दे रही हो।

42 संयम

एक कारखाने में प्रबंधकों एवं मजदूरों के बीच विवाद चल रहा था, इसे खत्म करने के लिये प्रबंधकों ने अपने दूसरे कारखाने के एक उच्च पदाधिकारी को नियुक्त किया जिससे श्रमिक और ज्यादा भडक उठे और उसे भगाने के उपाय सोचने लगे। एक दिन उन्होने उस पदाधिकारी का अर्थी जूलुस निकालने का कार्यक्रम बनाया ताकि वह विचलित होकर भाग जाये। यह खबर जब प्रबंधकों तक पहुंची तो उन्होने उसको पुलिस का सहयोग लेकर इसे रोकने का सुझाव दिया।

वह पदाधिकारी बहुत अनुभवी व्यक्ति था वह किसी भी रूप में पुलिस का हस्तक्षेप नही चाहता था। उसका स्पष्ट मत था कि यह मजदूर भी हमारे परिवार के एक अंग के समान है, इन्हें प्रताडित करना हमारे लिये हानिकारक हो सकता है। हमारा उद्देश्य अशांति को समाप्त करना है ना कि उसे और बढ़ाना। दूसरे दिन अर्थी जुलूस के नियत समय पर पहुँचकर वह स्वंय अपनी ही अर्थी को कंधा देने के लिये तैयार हो जाता है यह देखकर सारे लोग यह सोचने लगते हैं कि यह कैसा जुलूस है जिसमें जीवित व्यक्ति स्वयं अपनी अर्थी को कंधा दे रहा हो। इसलिये सारे मजदूर अर्थी जुलूस का कार्यक्रम स्थगित कर देते है।

इसके उपरांत उसी समय वह पदाधिकारी बिना किसी औपचारिकता के श्रमिको से उनकी माँगों के संबंध में बातचीत आरंभ कर देता है। वह उनसे विनम्रतापूर्वक आग्रह करता है कि हमारा प्रयास होना चाहिये कि “ हम करेंगे अधिक काम और पायेंगे अधिक वेतन, सुविधा और सम्मान ।“ उसके अथक प्रयासों से दोनो पक्षों के बीच सम्मानजनक समझौता होकर हड़ताल समाप्त हो जाती है। जीवन में संयम, धैर्य और बुद्धिमत्ता से कठिन परिस्थितियों में भी सफलता प्राप्त की जा सकती है।

43 अहंकार

महेश अपने माता पिता का इकलौता बेटा था। वह पढ़ाई में भी बहुत होशियार था। उसके माता पिता को उससे काफी आशायें थी। उनकी हार्दिक अभिलाषा थी कि वह आइ.ए.एस में उत्तीर्ण होकर उच्च अधिकारी के रूप में देष की सेवा करे। उसकी शिक्षा के लिये उन्होने अपना घर गिरवी रखकर धन का प्रबंध किया। वे नौकरी पेशा व्यक्ति थे जो किसी तरह अपना घर चला रहे थे। उनकी पत्नी, बेटे की सफलता के लिये प्रतिदिन ईश्वर से प्रार्थना करती थी। महेश के कठोर परिश्रम और प्रभु कृपा से उसका चयन आइ.ए.एस में हो गया जिससे उसके माता पिता अत्यंत प्रसन्न हो गये। विशेष प्रशिक्षण पाकर जब वह घर वापस आता है तो अपनी माता का अभिवादन तो करता है परंतु पिता से अनमने ढंग से बात करता है। उसके इस व्यवहार से माता पिता को दुख पहुँचता है और वे महसूस करते है कि उसे पद का घमंड हो गया है। वह मन में सोचता था कि उसके पिता का पद उसके सामने कुछ भी नही है।

एक दिन जब माँ के द्वारा उसकी शिक्षा हेतु पिताजी के द्वारा किये गये त्याग का पता होता है तो उसका घमंड खत्म होकर उसे स्वयं के व्यवहार पर अत्यंत दुख एवं लज्जा महसूस होती है। अब वह अपने पिता से सामान्य व्यवहार करने लगता है परंतु पिता उसे उपेक्षित करने लगते है वह समझ जाता है कि उसकी बातों से पिता को बहुत दुख पहुँचा है। वह अपने पिता के चरण छूकर माफी माँगता है और कहता है कि उनका ऋण वह कभी नही चुका सकता। पिता अपने सब गिले शिकवे भूलकर उसे गले से लगाकर कहते है कि अहंकार ही सबसे बडी कठिनाई है जो व्यक्ति के पतन का कारण बनता है, तुमने समय रहते इसे पहचान लिया है। अब जीवन में सफलता तुम्हारे कदम चूमेगी।

44 हृदय परिवर्तन

भारत के मगध राज्य में वीरसिंह नाम के एक राजा राज्य करते थे। वे बहुत ही कठोर, निर्दयी और अहंकारी व्यक्ति थे। उनका निर्देश था कि उनके महल के सामने से जो भी निकले वह महल की ओर देखकर, सिर झुकाकर राजगददी के प्रति अपना सम्मान व्यक्त करते हुये अपने पथ पर आगे जाये। एक महात्मा जी वहाँ से एक दिन अपना सिर झुकाये बिना ही अपने गंतव्य की ओर जा रहे थे। यह देखकर पहरेदार उन्हें पकडकर राजा के सामने ले आये। राजा तो घमंड में चूर चूर था उसने असभ्यता पूर्वक कडे शब्दों में महात्मा जी से सिर ना झुकाने का कारण पूछा। महात्मा जी बोले राजन मेरा सिर सिर्फ प्रभु के सामने ही झुकता है यह सुनकर राजा ने कहा कि आपको यदि दंडस्वरूप सिर कलम करने की सजा दे दी जाये तो आपको कैसा लगेगा ? स्वामी जी ने निर्भयता पूर्वक चेहरे पर बिना किसी शिकन के अपनी पहले कही गई बात को ही दोहरा दिया। उनकी दृढता, साहस और आत्मबल को देखकर राजा भी चौंक गया। उसने दंभ पूर्वक महात्मा जी को कहा कि मेरे पास तो सबकुछ है धन,संपत्ति,वैभव,बल का साम्राज्य हैं। मैं भी तो प्रभु के समकक्ष हूँ, ऐसा क्या है कि जो उनके पास है और मेरे पास नही हैं, जिसके कारण तुम्हें अपनी जान की भी परवाह नही है। तम्हारी निडरता देखकर मैं आश्चर्य चकित हू।

महात्मा जी बोले राजा तुम्हे कोई प्रेम नही करता है तुम अपनी शक्ति के बल पर प्रजा का सर तो झुकवा तो सकते हो परंतु उनके मन में अपने प्रति प्रेम का प्रार्दुभाव नही कर सकते। राजा ने कहा कि मै इसकी जाँच करूगाँ तब तक के लिये इन्हें कारागार में बंद कर दिया जाये। उसी रात्रि में राजा अपना भेष बदलकर अपनी प्रजा के पास उनके बीच जाता है उसे यह जानकर बहुत दुख होता है कि उसकी प्रजा, उसके प्रति बहुत दुर्भावना रखती है एवं उससे घृणा करती है उनके मन में राजा के प्रति डर था और इसी कारण जनता जय जयकार करती थी, परंतु दिल से कोई भी अपने राजा को नही चाहता था बल्कि उसकी मृत्यु की प्रार्थना करते थे। यह सब कुछ जानने के पश्चात राजा का हृदय विषाद से भर गया और उसकी आँखां में आँसू आ गये, उसे अपनी कठोरता, अन्यायपूर्ण व्यवहार पर पश्चाताप होने लगा और उसका हृदय परिवर्तन हो जाता है। वह तुरंत भागता हुआ कारागार में पहुँच कर महात्मा जी के चरणों पर गिरकर अपने कृत्य के लिये माफी माँगता है उसकी आँखों में पश्चाताप के आँसू देखकर महात्मा जी कहते है कि तुम प्रेमपूर्वक,सदभावना के साथ अपनी प्रजा की देखभाल करते हुये राजकाज को संभालों। राजा महात्मा जी को वचन देता है कि वह उनके बताये मार्ग पर ही अब चलेगा और उन्हे स्वयं अपने साथ आदर एवं सम्मान पूर्वक अपने राज्य की सीमा तक छोडने जाता है।

45 हिम्मत

विपुल लगभग एक माह से तेज ज्वर से पीड़ित था। वह इतना कमजोर हो चुका था कि बिना किसी सहारे के उठ भी नही पाता था। आज रात वह बहुत बैचेनी महसूस करते हुए कराह रहा था। उसकी यह हालत देखकर उसकी माँ उसके पास आयी और उसके माथे पर हाथ रखकर महसूस कि हिदायत दी। विपुल दवा पीकर बड़बडाने लगा कि माँ, तुम मेरे लिए इतने दिनों से कितना कष्ट उठाकर मेरी सेवा, सुश्रुषा कर रहीया कि उसे बुखार बहुत तेज है। उसने विपुल को दवा पिलायी और आराम करने की हो, मुझे ऐसा महसूस होता है कि मेरा जीवन का समय पूरा हो चुका है और तुमसे बिछुड़ने का समय नज़दीक आता जा रहा है। माँ ने उसकी बात सुनकर उसके माथे पर हाथ रखकर समझाया कि जब तक साँस है जीवन में आस है। विपुल बोला, मैं सभी आषाएँ छोड चुका हूँ, आज की रात मुझे गहरी नींद में सोने दो, मैं कल का सूरज देख पाता हूँ या नही, ये नही जानता हूँ। मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मेरी आत्मा के द्वार पर चाँद का दूधिया प्रकाष दस्तक दे रहा है। मैं अंधकार से प्रकाष की ओर प्रस्थान कर रहा हूँ। मुझे भूत, वर्तमान और भविष्य के अहसास के साथ पाप और पुण्य का हिसाब भी दिख रहा है। मैंने धर्म से जो कर्म किये हैं वे ही मेरे साथ जाएँगे, माँ तू ही बता यह मेरा प्रारंभ से अंत है या अंत से प्रारंभ ? विपुल की करूणामय बातें सुनकर माँ का मन भी विचलित हो गया, उसने अपनी आँखों में आए, आँसुओं के सैलाब को रोकते हुए अपने बेटे से कहा कि देखो तुम हिम्मत मत हारना, यही तुम्हारा सच्चा मित्र है। सुख-दुख में सही राह दिखलाता है और विपरीत परिस्थितियों में भी तुम्हारा साथ निभाकर तुम्हें षक्ति देकर तुम्हारे हाथों को थामे रहता है, डाॅक्टर साहब ने तुम्हारा रोग पहचान लिया है और उन्होने दवाईयाँ भी बदल दी हैं। जिनके प्रभाव से तुम कुछ ही दिनों में ठीक हो जाओगे। आज में तुम्हें एक कविता सुना रही हूँ जिसे तुम ध्यान से सुनकर इसपर गंभीरतापूर्वक मनन करना।

भंवर में, मंझधार में, ऊँची लहर में

नाव बढ़ती जा रही है।

दुखों से, कठिनाइयों से

जूझकर भी सांस चलती जा रही है।

स्वयं पर विष्वास जिसमें

जो परिश्रमरत रहा है

लक्ष्य पर थी दृष्टि जिसकी

और संघर्षों में जो अविचल रहा है

वह सफल है

और जिसका डिग गया विष्वास

वह निष्चित मरा है।

विपुल पर माँ की बातों का बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। और उसके अंदर असीमित ऊर्जा, दृढ़ इच्छा षक्ति व आत्म विष्वास जागृत हो गया। यह ईष्वरीय कृपा थी, माँ का आर्षीवाद, स्नेह एवं प्यार था या विपुल का भाग्य कि वह कुछ दिनों में ही ठीक हो गया। आज वह पुनः आफिस जा रहा था। उसकी माँ उसे दरवाजे तक विदा करने आयी, उसका बैग उसे दिया और मुस्कुरा कर आँखों से ओझल होने तक उसे देखती रही।

46 व्यथा

राममनोहर जी एक प्रसिद्ध कवि थे जो कि समाज में हो रहे परिवर्तन एवं सामयिक विषयों पर कविताओं का सृजन कर उन्हें रोचक ढंग से श्रोताओं को सुनाते थे। जब वे उन्हें सुनकर प्रषंसा करते थे तो राममनोहर जी की आत्मा प्रसन्न्ता से तृप्त हो जाती थी। उन्हें अपनी काव्य रचनाओं से प्रसिद्धि तो बहुत मिलती थी परंतु धनोपार्जन अधिक नही हो पाता था। इससे उनकी पत्नी दुखी रहती थी एवं सुझाव देती थी कि आप कहीं अच्छी नौकरी कर लीजिये और इसके बाद कविताओं के सृजन पर ध्यान दे। आपको प्राप्त होने वाली सम्मान राशि से घर चलाना बहुत मुश्किल होता है। राममनोहर जी यह सुनकर मुस्कुरा कर चुप रह जाते थे।

एक बार मुंबई के एक कवि सम्मेलन में उनकी प्रस्तुति सुनकर एक काव्यप्रेमी उद्योगपति राकेश आनंद बहुत प्रसन्न हुये। सम्मेलन के पश्चात् उन्होने राममनोहर जी से मिलकर कहा कि वे उनके बहुत बड़े प्रशंसक हैं और उन्हें अगले दिन अपने घर आने का निमंत्रण दिया। दूसरे दिन वे सज्जन स्वयं उन्हें लेने के लिये आये। रास्ते में चर्चा के दौरान उन्होंने साहित्य के क्षेत्र में नवागंतुकों के लिये एक ऐकेडमी बनाने की इच्छा बताते हुये कहा कि इसका उद्देश्य साहित्य के विभिन्न आयामों से साहित्य प्रेमीयों को अवगत कराते हुये आम लोगों में साहित्य के प्रति रूचि जागृत करना है। उन्होनें राममनोहर जी से उनके मार्गदर्शन में इसके गठन का अनुरोध करते हुये समस्त आर्थिक व्यय को वहन करने हेतु आश्वस्त किया। राममनोहर जी की स्वीकृति के उपरांत राकेश आनंद ने उन्हें सवैतनिक पद देकर इसका कार्यभार सौंप दिया। इस प्रकार राममनोहर जी आर्थिक समस्या का निदान होकर उनकी बौद्धिक क्षमता से साहित्यप्रेमी लाभांवित होने लगे।

47 हार-जीत

सुमन दसवीं कक्षा में एक अंग्रेजी माध्यम की शाला में अध्ययन करती थी। वह पढ़ाई के साथ-साथ खेलकूद में भी गहन रूचि रखती थी और लम्बी दूरी की दौड़ में हमेशा प्रथम स्थान पर ही आती थी। उसको क्रीड़ा प्रशिक्षक, प्रशिक्षण देकर यह प्रयास कर रहे थे कि वह प्रादेशिक स्तर पर भाग लेकर शाला का नाम उज्ज्वल करे। इसके लिये उसके प्राचार्य, शिक्षक, अभिभावक और उसके मित्र सभी उसे प्रोत्साहित करते थे। वह एक सम्पन्न परिवार की लाड़ली थी। वह क्रीड़ा गतिविधियों में भाग लेकर आगे आये इसके लिये उसके खान-पान आदि का ध्यान तो रखा ही जाता था उसे अच्छे व्यायाम प्रषिक्षकों का मार्गदर्षन दिये जाने की व्यवस्था भी की गई थी। उसके पिता सदैव उससे कहा करते थे कि मन लगाकर पढ़ाई के साथ-साथ ही खेल कूद में भी अच्छी तरह से भाग लो तभी तुम्हारा सर्वांगीण विकास होगा।

सुमन की कक्षा में सीमा नाम की एक नयी लड़की ने प्रवेष लिया। वह अपने माता-पिता की एकमात्र सन्तान थी और एक किसान की बेटी थी। वह गाँव से अध्ययन करने के लिये शहर में आयी थी। उसके माता-पिता उसे समझाते थे कि बेटी पढ़ाई-लिखाई जीवन में सबसे आवष्यक होती है। यही हमारे भविष्य को निर्धारित करती है एवं उसका आधार बनती है। तुम्हें क्रीड़ा प्रतियोगिताओं में भाग लेने से कोई नहीं रोकता किन्तु इसके पीछे तुम्हारी षिक्षा में व्यवधान नहीं आना चाहिए। एक बार शाला में खेलकूद की गतिविधियों में सुमन और सीमा ने लम्बी दौड़ में भाग लिया। सुमन एक तेज धावक थी। वह हमेषा के समान प्रथम आयी और सीमा द्वितीय स्थान पर रही। प्रथम स्थान पर आने वाली सुमन से वह काफी पीछे थी।

कुछ दिनों बाद ही दोनों की मुलाकात शाला के पुस्तकालय में हुई। सुमन ने सीमा को देखते ही हँसते हुए व्यंग्य पूर्वक तेज आवाज में कहा- सीमा मैं तुम्हें एक सलाह देती हूँ तुम पढ़ाई लिखाई में ही ध्यान दो। तुम मुझे दौड़ में कभी नहीं हरा पाओगी। तुम गाँव से आई हो। अभी तुम्हें नहीं पता कि प्रथम आने के लिये कितना परिश्रम करना पड़ता है। तुम नहीं जानतीं कि एक अच्छा धावक बनने के लिये किस प्रकार के प्रषिक्षण एवं अभ्यास की आवष्यकता होती है। मेरे घरवाले पिछले पाँच सालों से हजारों रूपये मेरे ऊपर खर्च कर रहे हैं और मैं प्रतिदिन घण्टों परिश्रम करती हूँ तब जाकर प्रथम स्थान मिलता है। यह सब तुम्हारे और तुम्हारे परिवार के लिये संभव नहीं है इसलिये अच्छा होगा कि तुम अपने आप को पढ़ाई-लिखाई तक ही सीमित रखो। इतना कहकर वह सीमा की ओर उपेक्षा भरी दृष्टि से देखती हुई वहाँ से चली गई। सीमा एक भावुक लड़की थी उसे सुमन की बात कलेजे तक चुभ गई। इस अपमान से उसकी आँखों में आंसू छलक उठे। घर आकर उसने अपने माता-पिता दोनों को इस बारे में विस्तार से बताया।

पिता ने उसे समझाया- बेटा! जीवन में षिक्षा का अपना अलग महत्व है। खेलकूद प्रतियोगिताएं तो औपचारिकताएं हैं। मैं यह नहीं कहता कि तुम खेलकूद में भाग मत लो किन्तु अपना ध्यान पढ़ाई में लगाओ और अच्छे से अच्छे अंकों से परीक्षाएं पास करो। तुम्हारी सहेली ने घमण्ड में आकर जिस तरह की बात की है वह उचित नहीं है लेकिन उसने जो कहा है वह ध्यान देने लायक है। तुम हार-जीत की परवाह किए बिना खेलकूद में भाग लो और अपना पूरा ध्यान अपनी षिक्षा पर केन्द्रित करो। उसकी माँ भी यह सब सुन रही थी। उसने सीमा के पिता से कहा- पढ़ाई-लिखाई तो आवष्यक है ही साथ ही खेलकूद भी उतना ही आवष्यक होता है। इसमें भी कोई आगे निकल जाए तो उसका भी तो बहुत नाम होता है। सीमा के पिता को उसकी माँ की बात अनुचित लगी। वह भी सीमा को बहुत चाहते थे। उनकी अभिलाषा थी कि बड़ी होकर वह बड़ी अफसर बने। सीमा दोनों की बातें ध्यान पूर्वक सुन रही थी। उसकी माँ ने उससे कहा- दृढ़ इच्छा शक्ति और कठोर परिश्रम से सभी कुछ प्राप्त किया जा सकता है।

सीमा अगले दिन से ही गाँव के एक मैदान में जाकर सुबह दौड़ का अभ्यास करने लगी। वह प्रतिदिन सुबह जल्दी उठ जाती और दैनिक कर्म करने के बाद दौड़ने चली जाती। एक दिन जब वह अभ्यास कर रही थी तो वह गिर गई जिससे उसके घुटने में चोट आ गई। वह कुछ दिनों तक अभ्यास नहीं कर सकी, इसका उसे बहुत दुख था और वह कभी-कभी अपनी माँ के सामने रो पड़ती थी। जब उसकी चोट ठीक हो गई तो उसने फिर अभ्यास प्रारम्भ कर दिया। अब वह और भी अधिक मेहनत के साथ अभ्यास करने लगी। वह उतनी ही मेहनत पढ़ाई में भी कर रही थी। इसके कारण उसे समय ही नहीं मिलता था। वह बहुत अधिक थक भी जाती थी। उसके माता-पिता दोनों ने यह देखा तो उन्होंने यह सोचकर कि विद्यालय आने-जाने के लिये गाँव से शहर आने-जाने में उसका बहुत समय बरबाद होता है। उन्होंने उसके लिये शहर में ही एक किराये का मकान लेकर उसके रहने और पढ़ने की व्यवस्था कर दी। शहर में उसके साथ उसकी माँ भी रहने लगी। इससे उसके पिता को गाँव में अपना कामकाज देखने में बहुत परेषानी होने लगी किन्तु उसके बाद भी उन्हें संतोष था क्योंकि उनकी बेटी का भविष्य बन रहा था।

शहर आकर सीमा जिस घर में रहती थी उससे कुछ दूरी पर एक मैदान था। लोग सुबह-सुबह उस मैदान में आकर दौड़ते और व्यायाम करते थे। सीमा ने भी अपना अभ्यास उसी मैदान में करना प्रारम्भ कर दिया। एक बुजुर्ग वहाँ मारनिंग वाॅक के लिये आते थे। वे सीमा को दौड़ का अभ्यास करते देखते थे। अनेक दिनों तक देखने के बाद वे उसकी लगन और उसके अभ्यास से प्रभावित हुए। एक दिन जब सीमा अपना अभ्यास पूरा करके घर जाने लगी तो उन्होंने उसे रोक कर उससे बात की। उन्होंने सीमा के विषय में विस्तार से सभी कुछ पूछा। उन्होंने अपने विषय में उसे बतलाया कि वे अपने समय के एक प्रसिद्ध धावक थे। उनका बहुत नाम था। वे पढ़ाई-लिखाई में औसत दर्जे के होने के कारण कोई उच्च पद प्राप्त नहीं कर सके। समय के साथ दौड़ भी छूट गई। उन्होंने सीमा को समझाया कि दौड़ के साथ-साथ पढ़ाई में उतनी ही मेहनत करना बहुत आवष्यक है। अगले दिन से वे सीमा को दौड़ की कोचिंग देने लगे। उन्होंने उसे लम्बी दौड़ के लिये तैयार करना प्रारम्भ कर दिया। शाला में प्रादेषिक स्तर पर भाग लेने के लिये चुने जाने हेतु अंतिम प्रतियोगिता का आयोजन किया गया था। इसमें 1500 मीटर की दौड़ में प्रथम आने वाले को प्रादेषिक स्तर पर भेजा जाना था। प्रतियोगिता जब प्रारम्भ हो रही थी सुमन ने सीमा की ओर गर्व से देखा। सुमन पूर्ण आत्मविष्वास से भरी हुई थी और उसे पूरा विष्वास था कि यह प्रतियोगिता तो वह ही जीतेगी। सुमन और सीमा दोनों के माता-पिता भी दर्षक दीर्घा में उपस्थित थे। व्हिसिल बजते ही दौड़ प्रारम्भ हो गई।

सुमन ने दौड़ प्रारम्भ होते ही अपने को बहुत आगे कर लिया था। उसके पैरों की गति देखकर दर्षक उत्साहित थे और उसके लिये तालियाँ बजा-बजा कर उसका उत्साह बढ़ा रहे थे। सीमा भी तेज दौड़ रही थी किन्तु वह दूसरे नम्बर पर थी। वह एक सी गति से दौड़ रही थी। 1500 मीटर की दौड़ थी। प्रारम्भ में सुमन ही आगे रही लेकिन आधी दौड़ पूरी होते-होते तक सीमा ने सुमन की बराबरी कर ली। वे दोनों एक दूसरे की बराबरी से दौड़ रहे थे। कुछ दर्षक सीमा को तो कुछ सुमन को प्रोत्साहित करने के लिये आवाजें लगा रहे थे। सुमन की गति धीरे-धीरे कम हो रही थी जबकि सीमा एक सी गति से दौड़ती चली जा रही थी। जब दौड़ पूरी होने में लगभग 100 मीटर रह गये तो सीमा ने अपनी गति बढ़ा दी। उसकी गति बढ़ते ही सुमन ने भी जोर मारा। वह उससे आगे निकलने का प्रयास कर रही थी लेकिन सीमा लगातार उससे आगे होती जा रही थी। दौड़ पूरी हुई तो सीमा प्रथम आयी थी। सुमन उससे काफी पीछे थी। वह द्वितीय आयी थी। सीमा की सहेलियाँ मैदान में आ गईं थी वे उसे गोद में उठाकर अपनी प्रसन्नता जता रही थीं। वे खुषी से नाच रही थीं। मंच पर प्राचार्य जी आये और उन्होंने सीमा की विजय की घोषणा की। सीमा अपने पिता के साथ प्राचार्य जी के पास पहुँची और उसने उनसे बतलाया कि वह प्रादेषिक स्तर पर नहीं जाना चाहती है। उसकी बात सुनकर प्राचार्य जी और वहाँ उपस्थित सभी लोग आष्चर्यचकित हो गये थे। प्राचार्य जी ने उसे समझाने का प्रयास किया किन्तु वह टस से मस नहीं हुई।

सीमा ने उनसे कहा कि वह आईएएस या आईएफएस बनना चाहती है। इसके लिये उसे बहुत पढ़ाई करने की आवष्यकता है। दौड़ की तैयारियों के कारण उसकी पढ़ाई प्रभावित होती है इसलिये वह प्रादेषिक स्तर पर नहीं जाना चाहती। अन्त में प्राचार्य जी स्वयं माइक पर गये और उन्होंने सीमा के इन्कार के विषय में बोलते हुए सुमन को विद्यालय की ओर से प्रादेषिक स्तर पर भेजे जाने की घोषणा की। यह सुनकर सुमन सहित वहाँ पर उपस्थित सभी दर्षक भी अवाक रह गये। सुमन सीमा के पास आयी और उसने पूछा कि तुमने ऐसा क्यों किया। सीमा उसे भी वही बतलाती है जो उसने प्राचार्य से कही थी। उसने सुमन को एक ओर ले जाकर उससे कहा कि मेरा उद्देष्य क्रीड़ा प्रतियोगिता में आने का नहीं था वरन मैं तुम्हें बताना चाहती थी समय सदैव एक सा नहीं होता। कल तुम प्रथम स्थान पर थी आज मैं हूँ कल कोई और रहेगा। उस दिन पुस्तकालय में तुमने जो कुछ कहा था उसे तुम मित्रता के साथ भी कह सकती थी किन्तु तुमने मुझे नीचा दिखाने का प्रयास किया था जो मुझे खल गया था। मेरी हार्दिक तमन्ना है कि तुम प्रादेषिक स्तर पर सफलता प्राप्त करो।

नियत तिथि पर सुमन स्टेषन पर प्रतियोगिताओं में भाग लेने जाने के लिये उपस्थित थी। विद्यालय की ओर से प्राचार्य और आचार्यों सहित उसके अनेक साथी एवं उसके परिवार के लोग भी उसे विदा करने के लिये आये हुए थे। प्राचार्य जी ने उसे षुभकामनाएं देते हुए कहा- सच्ची सफलता के लिये आवष्यक है कि मन में ईमानदारी, क्रोध से बचाव, वाणी में मधुरता किसी को पीड़ा न पहुँचे, अपने निर्णय सोच-समझकर लेना ईष्वर पर भरोसा रखना और उसे हमेषा याद रखना यदि तुम इन बातों को अपनाओगी तो जीवन में हर कदम पर सफलता पाओगी। जीवन में सफलता की कुंजी है वाणी से प्रेम, प्रेम से भक्ति, कर्म से प्रारब्ध, प्रारब्ध से सुख लेखनी से चरित्र, चरित्र से निर्मलता, व्यवहार से बुद्धि और बुद्धि से ज्ञान की प्राप्ति होती है। मेरी इन बातों को तुम अपने हृदय में आत्मसात करना ये सभी तुम्हारे लिये जीवन में प्रगति की आधार षिला बनेंगे। सुमन सभी से मिल रही थी और सभी उसे शुभकामनाएं दे रहे थे किन्तु उसकी आँखें भीड़ में सीमा को खोज रही थीं। ट्रेन छूटने में चंद मिनिट ही बचे थे तभी सुमन ने देखा कि सीमा तेजी से प्लेटफार्म पर उसकी ओर चली आ रही है। वह भी सब को छोड़कर उसकी ओर दौड़ गई। सीमा ने उसे शुभकामनाओं के साथ गुलदस्ता भेंट किया तो सुमन उससे लिपट गई। दोनों की आँखों में प्रसन्नता के आंसू थे।

48 मानव सेवा

मानस एक मध्यम परिवार का लडका था। वह मानव सेवा को ही अपना धर्म एवं कर्म मानता था। उसे पूजा पाठ, मंदिर दर्शन आदि में कम विश्वास था परंतु वह सेवा कार्यों में निरंतर अपना समय देता था। वह एक शासकीय अस्पताल में प्रतिदिन शाम के वक्त दो घंटे देकर वहाँ भर्ती मरीजों के हालचाल पूछकर उन्हें सांत्वना देकर उनका उत्साहवर्धन भी करता था। उनके छोटे मोटे कार्यो में उनकी सहायता कर देता था और सप्ताह में एक दिन मरीजों को अपनी ओर से पौष्टिक नाश्ता उपलब्ध कराता था। एक बार नगर के एक संपन्न व्यवसायी को अस्पताल में कुछ दिन के लिये भर्ती किया गया। वह मानस की गतिविधियों से आश्चर्यचकित थे कि बिना किसी स्वार्थ के वह ऐसा क्यों करता है ? एक दिन उन्होने उससे पूछ ही लिया कि तुम्हें ऐसा करने से क्या लाभ होता है ? उसने विनम्रतापूर्वक कहा कि मैं मानव सेवा को ही ईश्वर की सेवा मानता हूँ तथा अपने सामथ्र्य के अनुसार ही यह पुनीत कार्य कर पाता हूँ। सेठ जी उसकी भावना से बहुत प्रभावित हुये। कुछ दिनों बाद उनकी अस्पताल से छुट्टी हो गई। एक दिन उन्होने मानस को बुलाकर कहा कि तुम्हारे विचारों ने मुझे बहुत प्रभावित किया है। अब तुम प्रतिदिन मरीजों को पौष्टिक आहार उपलब्ध कराओ इस पर होने वाला सारा व्यय मैं वहन करूँगा। तुमने मेरे व्यापार के सिद्धांतों को नई विचारधारा दे दी है। मैं अभी तक धन कमाता था एवं उसे अपने परिवार की आवश्यकताओं पर खर्च करके जो बचता था उसका कुछ भाग सेवा में खर्च कर देता था परंतु अब मैं सेवा करने के लिये धन कमाऊँगा, एवं अपनी आवश्यकताओं को सीमित करते हुये उसे सत्कार्यों में खर्च करूँगा।