इश्क फरामोश - 11 Pritpal Kaur द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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इश्क फरामोश - 11

11. डर काहे का

मम्मी को एअरपोर्ट से ले कर आ रही थी किरण. माँ-बेटी का मिलाप तीन साल के बाद हो रहा था. माँ ने देखते ही पहले उसे अपने सामने खड़ा कर के भरपूर नज़र से देखा था. एक माँ की नज़र से दिल को तसल्ली हुयी थी. बेटी का जिस्म कुछ भर आया था. मातृत्व की छाप साफ दिखाई दी थी. जो रोज़ साथ रहने वाले को शायद न दिखाई पड़ती.

खुद किरण को महसूस नहीं हुयी थी क्यूंकि नीरू के पैदा होने के छः महीने के अन्दर ही उसके सभी कपडे उसे फिट आने लगे थे. यानी माँ को जो फर्क नज़र आया था वो चेहरे पर ही नमूदार हुया था. माँ बन कर बेटी की आँख में जो नूर आया था उसने उसकी खूबसूरती बढ़ा दी थी. साथ ही उसमें एक ख़ास तरह की तरलता भी आ गयी थी. इसके अलावा किरण की त्वचा में नीरू के पैदा होने के बाद से एक नया निखार और तेज भी घुल गया था. जिसके चलते अक्सर यूँ होने लगा था कि वह जिस भी जगह जाती, एक बारगी सभी उसे आँख उठा कर ज़रूर देखते और कई लोगों की आँखें तो उसका पीछा देर तक करतीं. वैसे ये आँखें पुरुषों की ही होती थीं. इस बात पर वह अक्सर मुस्कुराती थी. चाल में एक ख़ास तरह की ठाठ आ जाती जब पता होता कि कई जोड़ी आँखें उसे सराह रही हैं.

आज माँ ने उसका वो ठाठ जी भर के निहारा. फिर उसे खुद से लिपटा लिया. नीरू को एअरपोर्ट लाने के लोभ से सुजाता ने खुद को बचा लिया था. साफ तौर पर बच्ची को वहां न लाने की ताकीद की थी.

न्यू यॉर्क के एअरपोर्ट से ही फ़ोन पर कहा था, “नीरू को मत लाना एअरपोर्ट. इतने दिन नहीं देखा है तो एक घंटे में क्या हो जाएगा? बच्ची को बेकार थकाओगी. और फिर इन्फेक्शन वगैरह का भी डर, इंटरनेशनल एअरपोर्ट पर. तुम भी गाड़ी में ही रहना . मैं खुद बाहर वाली लेन में आ जाऊंगी. वेटिंग एरिया में नहीं आना तुम. मुझे जल्दी घर पहुँच कर नीरू से मिलना है. वो भी तो देखे किस नानी की दोहती है.”

माँ को देख कर किरण का तो दिल आकाश में उड़ रहा था. माँ काफी कमज़ोर लग रही थीं. पिछले एक साल से खासी बीमार चल रही हैं. एक हल्का स्ट्रोक हुया था. उसके बाद से मेंटेनेंस और दवाओं का भारी डोज़. इसके अलावा इंग्लैंड जैसा देश जहाँ नौकरों की सुविधा लगभग नहीं के बराबर है.

किरण ने तो माँ से वापिस भारत लौट आने को भी कहा लेकिन सुजाता का कहना है कि अब वे वहीं रहेंगी उम्र भर. उन्हें वहां का जीवन रास आ गया है. मेडिकल सुविधाएँ बहुत अच्छी हैं. उनका काम उनकी बेहद पसंद का है. और अकेले रहने की तो उन्हें आदत शुरू से ही है. जवानी से ही जब से विधवा हुयी हैं.

इसमें उन्हें ख़ास असुविधा नहीं होती बल्कि बाकी सारी सुविधाएँ उन्हें इंग्लैंड में ज्यादा अच्छी लग रही थीं. सबसे ज्यादा तो काम.

उम्र भर प्रशासनिक सेवाओं में रहने के बाद यूनिवर्सिटी की पढ़ने-लिखने वाली आराम दायक, मानसिक और आध्यात्मिक संतुष्टि देने वाली नौकरी के साथ-साथ खुला साफ़-सुथरा वातावरण उनके लिए बहुत बड़े आकर्षण हैं इंग्लैंड के. वे अब वहां अपने जीवन के बीज बो चुकी हैं.

बेटी को गले लगाया तो दोनों की आँखें नम हो गयीं. कुछ सेकंड इसी तरह खड़ी रहीं. किरण को जल्दी ही होश आ गया. ट्रैफिक कंट्रोलर इनकी तरफ ही आ रहा था. उसने माँ को गाडी का दरवाज़ा खोल कर अंदर बिठाया. ड्राईवर ने सामान डिक्की में रखा.

माँ ज्यादा सामान ले कर नहीं चलतीं. पहनने के कपडे तो उनके भारत में भी काफी रखे हुए हैं. गुडगाँव में एक फ्लैट है जिसकी महीने दो महीने में जा कर किरण साफ़-सफाई करवा देती है. अभी दो दिन पहले भी उस सोसाइटी के हाउस कीपिंग को फ़ोन कर के सफाई करवा दी थी. कुछ कपडे उठवा भी लाई थी. माँ दो महीनों के लिए आये है. इस बार साथ ही रखना है. देख रही है माँ कमज़ोर हो गयी है. वज़न बहुत कम हो गया है. इस बार अकेली नहीं रहने देना है माँ को यहाँ.

तभी आसिफ का ख्याल आ गया. ख्याल आना ही था कि माँ ने भी पूछ लिया, “आसिफ कैसा है. वो आ जाता एअरपोर्ट तो मिल लेती उससे भी.”

एक बारगी तो किरण सोच नहीं पायी कि क्या कहे. इतने दिनों में हालात में इतना फर्क हुया है कि अब वे एक ही टेबल पर एक ही वक़्त में साथ बैठ कर सुबह का नाश्ता कर लेते हैं. रात का खाना अभी किरण कोशिश करती है कि आसिफ के आने से पहले ही खा कर अपने बेडरूम में चली जाए और अक्सर इसमें कामयाब भी हो जाती है. आसिफ को शाम को देर से छुट्टी होती है और आता भी वो आराम से है, दस बजे तक.

आसिफ को सुबह नाश्ते पर बता दिया था कि आज माँ आ रही है.  उसने एक बार कहा भी, "मैं भी चलूँ एअरपोर्ट?’

आस भरी नज़रों से उसे देखते हुए आसिफ की नजर में याचना तो नहीं थी लेकिन कुछ अफ़सोस जैसा था ज़रूर. मगर चेहरे पर एक बेज़ार सी ढिठाई भी थी. जिसने कमज़ोर पड़ते किरण के इरादे को फिर बल दे दिया.

“तुम क्या करोगे? माँ बेटी को मिलने दो. साजिशें करने दो. तुम्हारे होने से खलल पड़ेगा.”

खासा तीखा तंज़ था. उस दिन की बात का जब आसिफ ने कहा था. "माँ बेटी ने साजिश रच ही ली मेरे खिलाफ?"

गलती खुद की ही थी. तो मन मसोस कर चुप रह गया. एक बार दिल किया भी कि किरण की इस बात का कोई करारा जवाब दे. मगर फिर कुछ सोच कर खुद को काबू में कर लिया. इस तरह तो जो कुछ हालात बेहतर हुए हैं फिर बिगड़ जायेंगें.

खामोश बैठा रह गया. फ्लाइट ग्यारह बजे आनी थी. साढ़े ग्यारह तक माँ बाहर आ जायेंगी. इस वक़्त नौ बजे थे. किरण जल्दी ही नाश्ता कर के उठ गयी. आसिफ अभी खा ही रहा था.

“माँ, उसका ऑफिस है आज. शनिवार को भी होता है.”

ये बात सच भी थी. उसका ऑफ रविवार और सोमवार को होता है. सुबह जब उसने एअरपोर्ट चलने के प्रस्ताव रखा था तब भी एक बार ये ख्याल आया था किरण को कि उसकी तो छुट्टी नहीं है वो कैसे जाएगा?

लेकिन बात नहीं करनी है आसिफ से, ये तय है, इसलिए इस बात को भी नहीं उठाया. यानी वो नहीं किया जो आसिफ करना चाहता था. बात-चीत का सिलसिला फिर से शुरू करना. अभी मन बहुत दुखी था. घाव अभी भरना शुरू भी नहीं हुआ था किरण का.

इतनी जल्दी इस घाव के मौजूद रहते हुए वो आसिफ को कोई भी छूट देने को राजी नहीं थी. फिर वो चाहे मम्मी के बहाने से ही क्यूँ न हो.

मम्मी को भी आखिरकार बेटी के जीवन की इस कड़वी सच्चाई से दो-चार होना ही पडेगा. अब यहाँ आ गयी हैं तो एकाध दिन में खुद ही देख लेंगीं कि किस दौर से गुज़र रही है किरण की विवाहित ज़िंदगी. माँ से कुछ भी छिपाने का मन नहीं है लेकिन बेवजह बात को तूल भी नहीं देना चाहती.

ये वक़्त भी एक दिन गुज़र ही जाएगा. किरण को लगता है किसी दिन तो उसका घाव भर ही जाएगा. पहले भी जो घाव दिए हैं आसिफ ने वे आखिरकार भरे ही हैं. ये भी हो जाएगा. मगर आसिफ को इसका मोल तो चुकाना ही पड़ेगा.

माँ-बेटी के बीच बहुत परिपक्वता का मज़बूत सांझा रिश्ता है. एक दूसरे से कोई दुराव छिपाव नहीं. न बताये कोई बात तो और बात है. मगर बात के सामने आने पर छिपाना कुछ भी नहीं. झूठ तो एक रेशे का भी नहीं चलता दोनों के बीच.

सो किरण जानती है घर जाते ही माँ सूंघ लेगी उसकी गृहस्थी की काँटों की चुभन. पूछें ना तो भी कुछ तो बताना ही होगा. यही सोच रही है और देख रही है जेट लैग के मारे माँ अपनी बंद हुयी जाती आँखें खोल नहीं पा रही हैं. उन्होंने अपना सर सीट की पीठ से टिका दिया था. किरण ने पीछे रखा कुशन उनके सर के नीचे लगा दिया. उसको ठीक से जमा कर वे सो ही गयीं. उनके हलके हलके खर्राटों की मधुर गूँज के बीच उनकी गाड़ी दिल्ली के ट्रैफिक के पहाड़ और रेड लाइट की पहाड़ियां तय करने लगी.

घर पहुंचे तो आसिफ जा चुका था. नीरू सो रही थी. इस घर में माँ पिछली बार जब आयी थीं तब ये आधा ही था. एक ही फ्लैट था. दो साल पहले बगल वाला दूसरा फ्लैट जब बिक रहा था तब हिम्मत कर के किरण ने खरीद लिया था.

कुछ पैसा पास में था, कुछ लोन लिया. जब माँ को पता चला तो उन्होंने एक बड़ा अमाउंट जो भारत में उनके खाते में था, किरण के अकाउंट में ट्रान्सफर करवा दिया था. हाथ खुल गया तो किरण ने अपने एक आर्किटेक्ट दोस्त की मदद से दोनों फ्लैट्स के बीच की दीवार गिरवा कर एक बड़ा फ्लैट बनवा लिया था. जिसमें एक स्टडी अलग से हो गयी थी. मास्टर बेडरूम और बच्ची के लिए बेडरूम के बाद दो गेस्ट रूम बन गए थे. एक छोटा कमरा कनिका के रहने के लिए हो गया था. हॉल दोगुना हो गया था. जिसमें तीन सीटिंग अरेंजमेंट कर दिए गए थे. रसोई के साथ एक अच्छे साइज़ की पैंट्री भी अलग से बन गयी थी.

घर में दाखिल होते ही कनिका और साजिद से मिलने के बाद सब से पहले मम्मी ने नीरू के कमरे में जा कर नीरू को देखा. सोती हुयी प्यारी से नीरू को वे देखती ही रहीं. लगातार. पलकें बिना झपकाए. और किरण नीरू को देखती हुयी अपनी माँ को निहारती रही. अचानक उसे ख्याल आया तो अपने बेडरूम से जा कर कैमरा उठा लाई. और फिर शुरू हुया एक फोटो सेशन.

किरण ने माँ को पूरे कमरे में जगह-जगह खड़ा करवा कर नीरू को देखते हुए फोटो खींचे. कमरे में खासी हलचल हो गयी थी.

हालाँकि दोनों ही अहिस्ता अहिस्ता लगभग फुसफुसा कर बातें कर रही थीं मगर नीरू एक बार कसमसाई. वे दोनों चुप हो गयीं. माँ इस वक़्त कह रही थीं, “किरण ये तो बिलकुल मुझ पे गयी है. देख इसकी नाक बिलकुल मेरे जैसी है. फोटो में इसकी नाक तेरे जैसी लगती है लेकिन असल में इसकी नाक मेरे जैसी है.”

“नहीं, मम्मी, इसकी ऑंखें आप पर गयी हैं. बड़ी बड़ी हैं. भूरी भी. नाक तो इसकी मेरे पर ही है.”

“नहीं. ध्यान से देख. इसका मतलब तो इसकी सारी चीज़ें ही मुझ पर गयी हैं. अच्छा है, नानी पर गयी है तो किस्मत वाली होगी.”

“अच्छा! मेरे पर जाती तो किस्मत वाली नहीं होती?”

“क्यों नहीं होती? तू हैं न मेरे पर पूरी की पूरी. कितनी तो किस्मत वाली है.” कह कर मम्मी ठठा कर हंस पडीं.

“मम्मी. मैं आप पर गयी हूँ तो फिर नीरू मेरे पर कैसे नहीं गयी है? मेरा उल्लू खींच रही हो आप.” उसने एक झूठा सा मुंह फुला लिया.

आपस में प्यार मोहब्बत की बातें करती हुयी तीन साल बाद और कितना ही पानी पुल के नीचे बह जाने के बाद मिलीं माँ बेटी के इसी ठहाके के साथ ही नीरू एक दम बौखला कर उठ बैठी.

कच्ची नींद से उठी थी, घबराई हुयी. आँखें नहीं खुल रही थीं, आंख्ने मसलती हुयी नन्ही सी नीरू ने देखा कमरे में एक अपरिचित स्त्री उसकी माँ के साथ खड़ी ठहाका लगा कर हंस रही है.

बच्ची कुछ देर तो भौचक्की सी उन दोनों को देखती रही. फिर उसने बुरा सा मुंह बनाया और बुक्का फाड़ कर रो पडी.

किरण ने फ़ौरन उसे गोद में लिया और सीने से लगा कर थपकियाँ देने लगीं. तब तक कनिका भी कमरे में आ चुकी थी. मगर देखा स्थिति कण्ट्रोल में है. नानी भी किसी तरह इस फ़िराक में हैं कि बच्ची उनसे पहचान कर ले तो वे भी नाती को गोद में लेने का सुख हासिल करें.

वह बिना कुछ बोले अहिस्ता से बाहर निकल गयी. आज वह साजिद के साथ लग कर बंगाली स्टाइल की रोहू मछली बना रही थी. उसे किरण से मालूम हुआ था कि माँ को वो बहुत पसंद थी.

फिलहाल तो नीरू नानी को किसी भी तरह की मान्यता देने को तैयार नहीं थी. नानी ने खुशी-खुशी दूर से ही देख कर अपना मन बहलाने का इरादा कर लिया था.

बच्ची के साथ बातें करते खेलते किरण और सुजाता लिविंग रूम में आ गए. घर में सुजाता के आने से एक अलग ही तरह की रौनक थी. किरण के चेहरे से खुशी फूटी पड़ रही थी. कनिका ने दो एक बार आ कर चाय वगैरह के लिए पूछा मगर सुजाता ने कहा कि वह थकी हुयी है. खाना बनते ही खाना खा कर सो जायेगी. तीन साल बाद देश लौटी थी, उम्र और तबीयत दोनों ही सुजाता के पक्ष में नहीं था. जेट लैग से सर में दर्द था और आँखें मुंदी जा रही थीं.

किरण अपने बारे में सारी बातें बता रही थी. आसिफ का ज़िक्र उसने एक बार भी नहीं किया. सुजाता समझ तो रही थी मगर चुप रही. ज़्यादातर बातें नीरू के जनम और फिर उसके अलग माईल स्टोंस पर हो रही थीं कि जब पैदा हुयी थी तो बाल कितने घने थे और कितनी बार धोने के बाद साफ़ हुए थे. इस पर सुजाता ने पूछा, "जनम के बाल अभी कटवाए नहीं न इसके?"

"नहीं. मम्मी. एक बार उतर चुके हैं. आसिफ के परिवार में बच्चों के बाल जल्दी ही उतरवा देते हैं. तीन महीने की थी तब उतरवा दिए थे. आप को फोटो भी भेजे थे."

"हाँ. याद आया. भेजे थे तुमने. तुम लोग इटावा गए थे न. "

"हाँ. दो दिन के लिए. मगर घर में नहीं रुके थे. होटल में रुके थे. दूसरी बार ही गयी थी मैं वहां. पहली बार गयी थी तो मुझे बहुत दिक्कत हुयी थी. बाथरूम वगरेह की. इस बार तो बच्ची भी थी तो आसिफ ने ही कहा कि होटल में रुकना ठीक रहेगा. उन लोगों को भी बेकार ही ज़हमत नहीं होगी. "

सुजाता ने चुप रह कर पूरी बात सुनी और फिर चुप रह कर ही इसे जज्ब भी किया. फ़ोन पर ये बात नहीं बताई थी किरण ने. कई बार सुजाता नहीं समझ पाती अपनी इस बेटी को. मिसाल के तौर पर कई अच्छे रिश्ते जो खुद सुजाता के पास आये थे किरण के लिए, उन्हें छोड़ कर किरण ने आसिफ से ही शादी क्यों की.

उस वक़्त लगा था कि शायद आसिफ बहुत ख़ास किस्म का इंसान है. मगर अब पिछले कुछ समय से किरण की बातों में से आसिफ गायब होता जा रहा है. सुजाता खुद पूछती भी है तो गोल-मोल जवाब दे कर किरण बात की दिशा ही मोड़ देती है. लगता है उसकी शादी में कुछ ऐसा है जो किरण माँ से छिपा रही है.

खैर! अब यहाँ आ ही गयी है तो पता लगा कर रहेगी. इस बार सारा टाइम यहीं बेटी के घर पर ही रहना है यही सोच कर आयी है सुजाता.

आज भी अभी तक आसिफ का कोई अता-पता नहीं है. यहाँ तक कि खुद किरण ने भी उसका अपने तौर पर एक बार भी ज़िक्र नहीं किया.

घर बहुत करीने से सजाया गया है. ख़ूबसूरती और उपयोगिता का बेजोड़ संगम. सुजाता ने उठ कर एक बार पूरा घर घूम-घूम कर देखा. किरण अपने बेडरूम में चली गयी थी. शायद फ्रेश होने. कनिका ने साजिद की मदद से सुजाता का सामान उनके बेडरूम याने बड़े वाले गेस्ट रूम में रखवा दिया था. इस वक़्त उन्हें किसी चीज़ की ज़रुरत नहीं थी. सो फ्रेश हो कर बिना अपना कोई सूटकेस खोले वे बाहर लिविंग रूम में आ गयी.

सारा घर देखते वक़्त वे एक गेस्ट बेडरूम में स्लीपर, सोने के मरदाना कपडे कुरता पायजामा और लैपटॉप देख कर चौंकी थीं. फिर लगा शायद कोई मेहमान आया हुया है. सो जल्दी ही वहां से बाहर निकल आयीं. किरण ने ज़रुरत नहीं समझी होगी बताने की शायद इस मेहमान के बारे में. शायद कोई दोस्त हो या आसिफ के परिवार से कोई.

किरण और आसिफ ने कोर्ट में शादी की थी. सुजाता और बहुत से दोस्त शामिल हुए थे शादी में. आसिफ के परिवार से उसके दो कजिन थे जो दिल्ली में रहते थे. उनसे भी किसी ने अच्छी तरह परिचय नहीं करवाया था सुजाता का. इसी लिए वह आसिफ के परिवार से किसी को भी नहीं जानतीं.

वहां से निकल कर बाहर आयी तो किरण और नीरू को ढूँढती हुयी उसके बेडरूम में चली गयी. नीरू की मीठी-मीठी आवाज़ वहीं से आ रही थी. अन्दर आयी तो देखा नीरू बेड पर बैठी थी और किरण शायद बाथरूम में थी. वे नीरू के पास ही बैठ गयीं और उससे बात करने की कोशिश में कुछ सोचना शुरू किया तो नीरू ने मुस्कुराते हुए अपने चेहरा टेढ़े करते हुए उन्हें अपने हाथों से हलके से छू लिया और खिलखिला कर हंस पडी.

सुजाता का तो दिल और आत्मा तक बाग़-बाग हो गए.

"मेरा प्यारा बच्चा.. मेरा प्यारा बच्चा." कहते हुए सुजाता ने ताली बजाई. और जोर से हंस पडीं. अभी हाथ बढ़ा कर छूने की कोशिश नहीं की. जानती हैं बच्ची का भरोसा जम जाने तक धैर्य रखना होगा.

जवाब में नीरू फिर जोर से हंस पडी. दोनों के ठहाकों से किरण का बेडरूम गूँज उठा था. सुजाता भी एक छोटी बच्ची की तरह ही अपने गले से महीन पतली आवाज़ में ठहाके लगा रही थीं. किरण बाथरूम से निकली तो ये नजारा देख कर वो भी मुस्कुराती हुयी इसमें शामिल हो गयी.

अब बेड पर तीनों माँ-बेटियाँ एक दूसरे के आमने-सामने बठी थीं. एक दूसरे को हाथ बढ़ा कर छूतीं और ठहाका लगा कर हंस पडतीं. ये सिलसिला खूब चल निकला था. कुछ ही मिनट में नीरू हंस हंस कर थक गयी तो चुप हो गयी. उठ कर किरण की गोद में आ गयी. किरण ने उसे सीने से लगा लिया. इसी तरह कुछ वक़्त बीत गया. कमरे में शांति थी.

तभी सुजाता ने अपने हाथ नीरू की तरफ फैलाये. बिना कुछ भी बोले वे कई पल सांस रोके उसकी आँखों में आँखें डाले बाहें फैलाये बैठी रहीं. नीरू ने खामोशी से कुछ देर नानी को देखा. फिर जैसे कुछ सोचा. मन ही मन में कुछ तय किया और किरण की गोद से उठ कर सुजाता की फैली हुयी बाहों में समा गयी.

सुजाता ने उसे सीने से लगाया और अपनी गोद में बिठा कर उसके दोनों नन्हे-नन्हे हाथों को अपनी हथेलियों में रख कर प्यार से सहलाने लगीं. उनके नथुनों में नीरू की खुशबु भर गयी और गोद में उसका प्यारा सा भार जैसे एक पूरे सृष्टि को समोहित किये उन्हें प्रेम में नहला गया.

सुजाता और किरण दोनों की आँखों से आंसू बह रहे थे. गले रुंध आये थे. चौदह महीने की नीरू अभी माँ या बाबा ही बोल पाती थी. सुजाता ने सोचा अब इसे नानी कहना भी आ जायेगा.

तभी सुजाता ने नीरू का एक हाथ अपने हाथ में लेकर अपन वक्ष पर रख कर इशारा किया और मधुर आवाज़ में कहा. "मैं नानी. "

नीरू ने गोल गोल आँखों से सुजाता के चेहरे की तरफ देख कर इस नए शब्द को समझने की कोशिश में अपने होंठ गोल-गोल किये लेकिन कुछ बोल नहीं पाई. किरण और सुजाता फिर हंस पड़े तो उन्हें देख कर नीरू भी हंस पडी.

हंसी का एक नया सिलसिला फिर चल निकला. आज घर खुश था. शायद नीरू के आने के बाद आज पहली बार घर में खुशी ने कदम रखे थे. अब तक की सारी लानत-मलानत, बदमजगी और आसिफ की सारी तल्ख़ बातें और हरकतें एक बार फिर किरण के मन में ताज़ा हो आये.

दोपहर का खाना खा कर सुजाता अपने कमरे में जा कर सो गयीं. कह कर गयीं कि अगर शाम के छ बजे तक भी उनकी नींद न खुले तो उठा दिया जाये.

शनिवार का दिन अक्सर किरण का अपनी वार्डरोब ठीक करने का दिन होता है. साथ ही खूब सारा खेलना नीरू के साथ और घर के दूसरे काम जो हफ्ते भर रुके रहते हैं. आज सुबह से इनमें से कुछ भी नहीं हुया था. सो इन्हीं में लग गयी.

शाम हुयी. सुजाता उठ कर आ गयीं. चाय हुयी. और रात के खाने का वक़्त हो गया. खाना मेज़ पर लग चुका था.

सुजाता ने आखिर पूछ ही लिया, "आसिफ कब आएगा ऑफिस से? "

"वो देर से आता है. आ कर खा लेगा. आप आइये हम खाना खा कर कुछ देर बैठेंगें. " किरण ने कोशिश की कि आवाज़ सामान्य रहे. कोई तल्खी या नाराज़गी न झलके. माँ को कब बताना है, क्या बताना है, कितना बताना है; अभी तक तय नहीं कर पायी थी.

सुजाता ने नज़र भर कर किरण को देखा. कुछ कहने को हुयी. फिर चुप हो गयीं. डाइनिंग हॉल में कनिका भी थी, साजिद भी रसोई में पास ही था. दोनों के सामने कुछ पूछने की इच्छा नहीं हुयी.

नीरू को अलग उसकी ऊंची कुर्सी और मेज़ पर बिठा कर कनिका खिला रही थी. खाना खा कर ये दोनों ड्राइंग रूम में आ कर बैठ गयी. नीरू को कनिका उसके कमरे में सुलाने के लिए ले गयी.

कुछ देर इधर-उधर की बातें होती रहीं. किरण माँ के यूनिवर्सिटी के सहयोगिओं के बारे में पूछती रही. इनमें से कई को किरण जानती है. सुजाता अपने डिपार्टमेंट में काफी पोपुलर हैं. लेकिन इन बातों का सिलसिला ज्यादा देर तक नहीं चल पाया.

जैसे ही किरण के सवाल ख़त्म हुए, सुजाता ने पूछा ही लिया, "ये दूसरे गेस्ट रूम में कौन ठहरा हुआ है?"

किरण अचानक आये इस सवाल का जवाब नहीं दे पायी. चुप बैठी रही. समझ नहीं पायी किन शब्दों में जवाब दे. सुजाता समझ गयी.

दोनों आमने-सामने के सोफों पर बैठी हुयी थीं. सुजाता उठ कर बेटी की बगल में बैठ गयी. एक हाथ से उसके कन्धों से उसे समेटा और उसका सर अपने कमज़ोर कन्धों पर रखा और बोली, "क्या हुआ है बच्चे? जितना बताना चाहो बताओ."

किरण कुछ नहीं बोल पायी. सिसक पड़ी. जाने कब का रोका हुया बाँध बह निकला. यहाँ इस देश में उसका ऐसा कोई हमदर्द नहीं था जिसे खुल कर दिल की बात कह सके. माँ को दुःख नहीं देने का इरादा माँ के इस आलिंगन ने पल में धराशायी कर दिया था.

सब कह डाला. एक-एक बात. एक-एक सदमा. एक-एक तेजाबी संवाद. जो था भीतर सब उलीच डाला माँ के दामन में. माँ भी अपना आँचल फैलाये समेटती रही. एक-एक दर्द. एक-एक टीस. सब माँ ने अपने टूट-टूट जाते जिगर में उढ़ेला. चुपचाप सब झेला. सहलाती रही. सुनती रही. दर्द को बहते देखती रही.

अपने सामने एक सागर भरते देखती रही. अपमान और तिरस्कार का सागर. स्त्री होने का दर्द, बेटी होने का दर्द. बेटी के जीवन में इस दर्द को देख कर अन्दर ही अंदर टूटती भी रही और मजबूती से खड़ी भी रही. जान गयीं कि इस बार आना सिर्फ बेटी के लिए हुया है. उसके जीवन का कोई किनारा वो खुद जब तक न ढूंढ ले उन्हें यहाँ रहना होगा. तीन महीने कहीं कम पड़ गए तो छुट्टी बढ़वा लेंगीं. लेकिन बेटी को यूँ अकेले मझधार में डूबने उतराने के लिए छोड़ कर नहीं जायेगी.

कुछ-कुछ हल्की हो कर दोनों स्त्रियाँ बैठी हुयी चुपचाप एक दूसरे के साथ को जी ही रही थीं कि आसिफ अन्दर दाखिल हुआ.

उसके आते ही सन्नाटा टूटा. सुजाता ने जोश से उसके साथ मुलाक़ात की. गले से लगाया. अपने साथ बिठा कर कुछ हल्की-फुल्की बातचीत की. नीरू के बारे में भी बताया.

मगर जल्दी ही बातें ख़त्म हो गयीं तो वह उठ गया.

"मैं खाना खा कर आया हूँ. थक गया हूँ. सोने जा रहा हूँ. सुबह बातें करेंगें. " इतना कह कर वह अन्दर चला गया.

उसके कहने के अंदाज़ से उसका असमंजस साफ़ झलक रहा था. वह खुद नहीं जानता था कि वह ये सब किससे कह रहा था. अपनी पत्नी किरण से या किरण की माँ सुजाता से या फिर अपनी सास सुजाता से?