मोक्षधाम 3
(मिटा सके श्मशान क्याॽ)
समर्पणः-
इस धरा धाम के संरक्षण में,
जिन्होंने अपना शास्वत जीवन-
हर पल बिताया, उन्ही सात्विक-
मुमुक्षुऔं के चरण-कमलों में सप्रेम।
वेदराम प्रजापति
मनमस्त
मो.9981284867
दो शब्दः-
नियति के सिद्धांतों की अटल परंपरा में, जीवन की क्या परिभाषा होगी तथा जीवन का घनत्व कितना क्या होगाॽ इन्हीं संवेगों और संवादों को, इस काव्य संकलन-मोक्षधाम (मिटा सके श्मशान क्याॽ)में दर्शाने का प्रयास किया गया है, जो अपके आशीर्वाद की प्रतीक्षा में आपके कर कमलों मे-सादर।
वेदराम प्रजापति
मनमस्त
गुप्ता पुरा डबरा
ग्वालियर म.प्र
संग के, सबरे वन, बौहरे गए,
सब जीवन भर, तुमनैं का करौ।
लड़ते-भिड़ते ही रहे सबसे,
अपनों-तुपनों कर, पेट भरौ।
बरबादी तुम्हारी ही, ढोई सभी,
हमसे तो कहो, क्या जोर धरौ।
मनमस्त ये ताने, मिलैं नित ही,
सब ही कहते, दरबाजो घिरौ।।76।।
बहुऔं की कहानी तो और बड़ी,
दिन-रात, सदाँ बड़बड़ात रहैं।
डोलत ही रहै, मरयाद तजै,
भारौं से भए, अंधा ही कहैं।
पत्नी ने किनारे भी छोड़े, लगै,
बहुअन के कुठारे, बोल सहैं।
मनमस्त बुढ़ापे को भूले रहा,
अँखियन से, आँसू पनारे बहैं।।77।।
इस उम्र में आकर सभी ने तजा,
बहु मित्र हते, वो किनारे भए।
झूँठी ही रहीं, रिश्तेदारीं,
रिश्तों के ठिकाने-जमाने गए।
घर-बार पड़ौसी-सड़ौसी बने,
बुढ़बा का भए, सब नाते गए।
मनमस्त ये साथी, सभी धन के,
प्रभु नाम रटा नहिं, यौंही गए।।78।।
परिवार के लानैं, कितै का किया,
नहीं रातें गिनी, कब भोर हुआ।
घनी धूप में ठाड़े, पशीना बहा,
जुतते ही रहे, नहिं डारौ जुआ।
घर की भी सहीं, बाहर कीं सहीं,
मूँदत ही रहे, कर्जे के तुआ।
मनमस्त बुढ़ापे को जाना नहिं,
रटले हरिनाम! हुआ जो हुआ।।79।।
दौड़े भी करीं, कुश्ती भी लड़ीं,
लोगो ने उठा, कँधों पै लिया।
हारौं से सजे, कई मंच मिले,
उपहार दिया, पुरस्कार दिया।
औरौ के लिए, जी-जानें दयीं,
प्रभु को तज, और सभी तो किया।
मनमस्त बुढ़ापे में, कोई नहीं,
सब धूल भया, जो किया ना किया।।80।।
भटकाव भरे, सब साथी मिले,
नहीं कोई, कहीं, गुरुज्ञानी मिला।
इस भीड़ के, नीड़ में खोते रहे,
ढहता ही गया, ये जवानी किला।
खण्डहर के किनारे पै बैठे सभी,
किससे तो करैं, सिकबा व गिला।
मनमस्त बुढ़ापे को भूला सदाँ,
हरिनाम का जामा कभी ना सिला।।81।।
अब भी है समय, घबराओ नहीं,
खटबाङ्ग को मोक्ष, घड़ी दो मिली।
सच का परिधान उढ़ो तो जरा,
उधड़ी, गुदड़ी तो, कभी भी सिली।
अब तो गुरु के चरणों में गिरो,
बनजाए सभी, किरपा जो मिली।
गुरु से मनमस्त, जुड़ा जो कोई,
उसकी बुनियाद, कभी न हिली।।82।।
लगता है कभी, एहि गेह तजै,
बुनियाद की शाख, कमजोर भई।
चुनते ही रहे, षट् जन्तु इसे,
अनजाने रहे, सब उम्र गई।
बहु लेप किये, रंग-रोगन के,
नहीं देखी कभी अन्दर की कई।
मनमस्त भरोसा, नहीं कुछ भी,
अब भी रटलो, हरि नाम सही।।83।।
धन्य-धन्य बुढ़ापे! तेरे दर पै,
विपरीत सभी कुछ, पाते भए।
गोदी में बिठाके खिलाया जिन्हें,
गोदी में बिठाते, खिलाते भए।
निज पींठ पै लेके खिलाया जिन्हें,
मनमस्त को पींठ, विठाते भए।
कर में कर लेके चलाया जिन्हें,
कंधों के सहारे, चलाते भए।।84।।
सब ओर, यही सुनता प्रभु जी,
तुमने भब पार किए बहुते।
तब नाय, निछार भई मीरा,
गिरिधर-गोपाल, रही रटते।
तुलसी के अनन्य, तुम्हीं तो बने,
जिसने भव, पार किये बहुते।
बस, एक सहारा, तुम्हीं तो प्रभु,
मनमस्त अनेक, तुम्हें जपते।।85।।
तब गूढ़ रहस्य, अनेक प्रभु,
जाना न कोई, नहिं जान सके।
बहु ग्रन्थन में, परिमाण मिले,
रटते-रटते तुम्हें संत थके।
नहिं ध्यान,समाधि से,पाया तुम्हें,
मान-हारा, थका, कहीं न रुके।
मनमस्त सभी कोई,कहना पड़ा,
कह नेति है, नेति है, वेद थके।।86।।
रेखांन को खींचत, अनेक मुए,
पर, रेख पै- मेख न, गाढ़ सके।
बहु भाँति ढिढोरे ही पीटे सदाँ,
पर आखिरी छोर, सभी तो थके।
युग बीत गए, ऐहि भाँति कई,
सब भूँखे रहे, कोइ नाहिं छके।
मनमस्त अनेकन, कहते रहे,
सब ऊल-जलूल सी, बाते बके।।87।।
यह जीव, जो ब्रम्ह का, अंश रहा,
रवि कुंभन में, ज्यौं अनेक बने।
नहिं होते, अखण्ड के, खण्ड कभी,
पर, लागे, अनेक, बिताने तने।
इक ब्रम्ह, ब्रम्हाण्ड अनेक बसे,
जनु, अण्ड-कटाह अनेक मने।
कर्तव्य बसीभूत, कारण से,
नर देहि मिले, चौरासी हने।।88।।
इस सृष्टि की नीति, सदाँ ही यही,
सब-योनि, जो चार में रूप धरे।
उद्मिज्ज में, फोड़ धरा को कढ़े,
अरु श्वेद से, स्वेदज नाम परे।
प्रभु से उद्मिज्ज ही पावै जमीं,
अण्डान से जीवन, जीव धरे।
सब कर्म के खेलन खेल खिलै,
नर देहि मिले, पावै मुक्ति घरे।।89।।
चतुः योनिन के है, विभाग घने,
जिनमें यह जीव, भ्रमात रहा।
कहिं बृक्ष बना, औ लतान तना,
कहीं बीज के रूप में, कुंज कहा।
जग, स्वेदज का परिमाप नहीं,
कब रूप धरा, कब यौं ही बहा।
एहि भाँति है अण्डज की गणना,
सबको तज, मानव आप रहा।।90।।
कई पुण्य-प्रताप का, सामां यही,
एहि, मोक्ष का द्वार, कहाया गया।
भव सागर का है, किनारा यही,
जहाँ, आकर जीव उवारा गया।
पर लोक का रूप, इसीमें छुपा,
इसको बैकुण्ठ, पुकारा गया।
नर देहि, अनेक तपों की, विभा,
इससे भव सागर तारा गया।।91।।
प्रभु को भजले! नर होके यहाँ,
नर देहि है, पुण्य का पुंज घना।
कई योनि के बाद, तुझे ये मिली,
तरजा इससे, तरनी ही बना।
यह सत्य सनातन का रव है,
इसको अपनाके बना, अपना।
तरजा! तरजा!! भव सागर से,
यह सामा मिला है, तुझे ये जना।।92।।
तप, योग-संयोग का रूप यही,
सत, साधन, सिद्धी का, साया सही।
कई योनि के बाद, यह योग बना,
नर देह को पाया है, योग यही।
जग को दे मिटा, जग से मिटजा,
यह बात सभी, वेदों ने कही।
ब्रम्हज्ञान का ध्यान, धरो मनवा!
तरजा! तरजा!! चौरासी नही।।93।।
इस योग के लाने, अनेक ऋषि,
तृण, पात औ बात को खाते रहे।
विन खाए, कछू उपवास किये,
जल शैज, अग्नि में तपाते रहे।
पग एक पै ठाड़े, तपस्या करैं,
युग बैठे गए, चिर समाधि गहे।
सब पुण्य घना है तेरा, सुनले!
नर देहि के बाने, सबी न गहे।।94।।
पितु-मात है पुण्य-प्रताप तेरे,
नव मांस, तुझे अदारन धरा।
अपना सर्वस्व तेरे हित ही,
अमृत से सना-रस, तोमें भरा।
क्षण एक, मिटा नहीं, ध्यान तेरा,
सब भाँति से पोषण, तेरा करा।
सब कष्ट सहे, तेरे ही लिए,
है रत्न अनूठा, सोने से खरा।।95।।
तूँ ही जग है, तुझसे जग है,
सतुरूप तूँ ही, मनु का सपना।
एकान्त का कान्त,है पुण्य तूँ ही,
कहते है सभी अपना सपना।
अपना है तूँ ही, सपना है तूँ ही,
अपना भी नहीं, नहिं है सपना।
लीला है प्रभु, नहीं जाना कोई,
कैबल्य बही, उसको जपना।।96।।
शुक्राणु का, शुक्र गुजार करो,
रज-मेल का खेल, खिलाड़ी बही।
केहि भाँत से मेल-मिलाप किया,
यह बात अनूठी कही, ना कही।
किस नेह का, गेह बनाया तुझे,
बस बात सभी ने, यही तो कही।
नट नागर है, नट आगर है,
खिलौना है बही, खेला है बही।।97।।
यह तो सब है, उसकी ही क्रपा,
तोहि जन्म दिया, औ बड़ा भी किया।
सब भाँत से पाला, औ पोषा तुझे,
बहु ज्ञान दिया, विज्ञान दिया।
उसने विसराया नहीं तुझको,
तूँ ने ही उसे, विसराय दिया।
फल पावत तूँ ही, किए अपना,
कभी अंत समय को भी, याद किया।।98।।
महाकाल की फौजें बड़ी ही रहीं,
कहीं पानी में डारा,डुबाया गया।
बहुते यत्न किऐ,उबरा ही नहीं,
कई गोते लगाते बहाया गया।
मृत्यु धारा से कौन बचा है यहाँ,
इसका खोजन कहीं क्या लगाया गया।
डूबा ही रहा सदा मद-पंक में
मनमस्त न कोई बचाया गया।।99।।
गज-ग्राह का युध्द कभी क्या सुना,
मद से क्या हाल हुआ था वहाँ।
परिवार बड़ा था,कई पत्नि,
नाती-बेटों से खिंचाया गया।
सब हार गऐ,नहीं खींच सके,
इक फूल को लेके चढ़ाया गया।
बच पाया तभी,प्रभु आऐ जभी,
मनमस्त सभी समझाया गया।।100।।
कहीं बाढ़ बना नद काल खड़ा,
कहीं अग्नि के रुप में साज सजा।
सब जंगल-बीहढ़ डाले जला,
कई जीवों को यौ,भस्माया,रजा।
कहीं आँधी,भयंक-बबंडर से,
सब साज औ बाज बने है कजा।
कब आऐ,कहाँ किस रुप बना,
नहीं कोई बचा,मनमस्त कजा।।101।।
कहीं रोग बना,कहीं भोग बना,
उसकी लीला है,बड़ी ही बड़ी।
कई रोगो के नाम,उसी के रहे,
टी.वी. की कहानी उसी की खड़ी।
ज्वर-ज्वार बना,पीलिया भी वहीं,
शुगर वो ही रहा,कई एको बढ़ी।
अभी देखा,जरा कोरोना सभी,
मनमस्त कई फोड़ी है गड़ी।।102।।
एही तो रहा महामारी बना,
लोगों ने कभी प्लेग इसको कहा।
मनाया था कहीं,पूजा कई दई,
उसका सब खेल,अनूठा ही रहा।
दौड़ा है जिधर,भई खाली डगर,
जो भी सामने आया,उसके संग बहा।
मनमस्त इसे नहीं रोक सका,
इसके गढ़ को,अजयी ही कहा।।103।।
कुछ ही पहले हिम खण्ड फटा,
कई जीवो का भक्षख कहाया गया।
कई देशों के यात्री,वहाँ पर फँसे,
कुछ कोई,कहीं कुछ बचाया गया।
भूकंम बड़ा था,खाँड़ी भी हिली ,
धाराऐं,सभी को बहाया गया।
सब देखते-देखते,अदेखे भये,
मनमस्त कहाँ-को आया-गया।।104।।
लख आज,खड़ा कोरोना बना,
मानव की कजा के,वो खेल रचे।
लग जाऐ जिसे,मुश्किल है बड़ी,
वैक्शीन लगे,तो सही में बचे।
वैक्शीन के बाद,कई न बचे,
कई स्वास्थ्य विधान,उन्होंने रचे।
मनमस्त अभी भी संभल जा जरा,
उसके ये नाच,सभी ने नचे।।105।।
क्या हाल हुआ,उनका जो मरे,
घर बारे भी,पास न जाने दिया।
शव का क्या हाल हुआ,जो लखा,
पोलिथिन में बंधा,उनको वह दिया।
कई एक तो,अग्निक दाह,दहे,
टार-टार के उनको जलाया गया।
नहीं फूल(हड्डी)मिलें,घर बारेन को,
सामूहिक तौर से,बहाया गया।।106।।
कई एक की कहानी अलग ही रही,
किसके शव थे,किसको जो दिये।
संस्कार किसी का,किसी ने किया,
कई खोल लिये,तो बापिस किये।
कुछ एक को,दूर से देखा,खड़े,
ना जाने वे कौन थे,दहते हिऐ।
मनमस्त फजीती भई शव कीं,
गम घूँट के आँसू सभी ने पिये।।107।।
अफसोस हुआ,अखबार पढ़त,
गंगा की कहानी,बड़ी-ही-बड़ी।
ल्हाशों को दबा,रेतों में दिया,
खोजन जो हुआ,तो समस्या खड़ी।
फिर,क्या जो हुआ,सपना सा रहा,
कहाँ ल्हाशें गई,किन हाथों चढ़ी।
मनमस्त अता-न-पता उनका,
क्या खेल था,न शासन मत्थे मढ़ी।।108।।
किस देश के थे,किस देश गऐ,
अबतक उनको,न गिना ही गया।
एक जादू सा खेल,लखा सबने,
गंगा को पवित्र,बताया गया।
कुछ भी ना था,कुछ भी न रहा,
सबको सब भाँत,समझाया गया।
मनमस्त कहानी बनी,शव की,
क्या खेल था,कौन रचाया गया।।109।।
महाकाल की लीला,यही तो बड़ी,
इसको समझो,कुछ सोचो,इधर।
उसके हथियार अनेको यहाँ,
कहीं फाँसी लगे,कहीं खाए जहर।
कई कूद गए,छत ऊपर से,
कई एक कटे,तलबार लहर।
मनमस्त अभी-भी,न समझा,लगा,
वह जाऐगा तूँ भी,उसी की नहर।।110।।
यह काल का खेल,लखा सबने,
लख के भी नहीं,लख पाया अभी।
तेरे सामने सारा तमाशा रहा,
किस भाँति से नाचा,नचाया सभी।
इस पर कुछ गौर,अभी-भी करो,
थोड़ा है समय,सोचो तो कभी।
मनमस्त ये लीला,उसी प्रभू की,
वादा कर आये थे,उससे कभी।।111।।
समझाबने बाले भी,अनेक मिले,
सत्संत से पाला,कभी क्या पड़ा।
राहे भी तुझे बतलाई कई,
पर आपनी राह पै,रहा तूँ अड़ा।
करता ही नहीं,उनने जो कहा,
बकबास पहाड़ों पर,तूँ तो चढ़ा।
सुनले-सुनले,उनकी सुनले,
मनमस्त नहीं तो,सभी कुछ सड़ा।।112।।
यह जन्म तेरा यौ,व्यर्थ गया,
सतसंत की शाला में,नाम लिखा।
कई पाठ पढ़ाये ही,जाऐ तुझे,
जिससे यह जीवन,खिला-ही-खिला।
आजाओ इते,सत साहित्य लखों,
जिनमें जीवन का,सफा है लिखा।
इक बार तो,पन्ना पलट लो जरा,
मनमस्त क्योंॽजीवन घड़ा ही रिशा।।113।।
दुनिया का अनेको बातें सुनों,
सुनके-गुनके अपनाओ उसे।
जीवन की दिशाऐं किधर जाती,
जो ठीक दिखे,अपनाओ उसे।
संसार की भूल-भुलईयन में,
अब भी क्यों,जाकर वहाँ पै बसे।
समझो सत वाणी सदा साथी,
मनमस्त क्यों,आज भी ऐसे फसे।।114।।