मोक्षधाम - 4 बेदराम प्रजापति "मनमस्त" द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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मोक्षधाम - 4

मोक्षधाम 4

(मिटा सके श्मशान क्याॽ)

समर्पणः-

इस धरा धाम के संरक्षण में,

जिन्होंने अपना शास्वत जीवन-

हर पल बिताया, उन्ही सात्विक-

मुमुक्षुऔं के चरण-कमलों में सप्रेम।

वेदराम प्रजापति

मनमस्त

मो.9981284867

दो शब्दः-

नियति के सिद्धांतों की अटल परंपरा में, जीवन की क्या परिभाषा होगी तथा जीवन का घनत्व कितना क्या होगाॽ इन्हीं संवेगों और संवादों को, इस काव्य संकलन-मोक्षधाम (मिटा सके श्मशान क्याॽ)में दर्शाने का प्रयास किया गया है, जो अपके आशीर्वाद की प्रतीक्षा में आपके कर कमलों मे-सादर।

वेदराम प्रजापति

मनमस्त
गुप्ता पुरा डबरा

ग्वालियर म.प्र

संसार तमाशे का अड्डा रहा,

हर एक तमाशा,अजूबा लगा।

क्या खाया-पिया,नहीं याद रहा,

उसके पीछे ही,भगा-ही-भगा।

समझा न उसे,यह कैसी कथा,

उसमें मन रंगत,खूब रगा।

जाना न,भविष्य किधर होगा,

मनमस्त जगाए,जगा न जगा।।115।।

जिनने समझा,समझदार बने,

जीवन ही सुनहरा,बना डाला।

अहाने वे भये,भव पार गए,

काला भी,बना पीला,डाला।

सतसंग गये,क्षण मात्र अगर,

पापों का किला,तेरा हाला।

मनमस्त यह जीवन,बना डालों,

काये यौ खड़े,तकते लाला।।116।।

दुनियाँ की कहानी,निराली रहीं,

सब जाली रही,अरु खाली रहीं।

नहीं ताल-पै-ताल,बिठाई कभी,

ये ताली तुम्हारी,न ताली रहीं।

सत साज पै,साजन से मिल लो,

यह बात निराली,कही जो कही।

मनमस्त भुलाबनी यह दुनियाँ,

चलती ही रही,मठ्ठा ज्यों रई।।117।।

कभी सार मिला,मठ्ठा में कहींॽ

निस्सार बिलोना,इसी का रहा।

सत तत्व का सत्व,वहाँ न मिला,

दुनियाँ दारी के,दहों में बहा।

जगना है तुझे,ओहि त्याग सभी,

बिषयान की पंक,रहा क्यों नहा।

मन की मनमस्त,त्रिवैणी बना,

भब पार करेगी,उसी में नहा।।118।।

अब भी अच्छा,जग जाना तेरा,

जग जाना तेरा,संसार जगा।

उलझा जिसमें तूँ रहा अब तक,

उसके उलझाबे को,आज भगा।

संसार है भूल-भुलईया लिये,

उनमें भटका,नहीं भागे,भगा।

मनमस्त उसे अब याद करो,

जिसके ही जगाने से,उदरों जगा।।119।।

उदरस्थ कहानी,क्या भूल गयाॽ

नहीं कोई जहाँ,तहाँ तुझसे मिला।

समझाता रहा,बतियाता रहा,

उस नरक का,तोड़ा था उसने किला।

तेरी विनती सुनी,मिन्नतें भी सुनी,

तेरे जीवन की गुदड़ी को,उसने सिला।

कर यादों उसे,मनमस्त अभी,

जग को अपना,उससे कीनी गिला।।120।।

अब अंग तेरे, शिथलाँग भए,

नहिं कोई, किसी के, सहारे रहे।

पग कँपित, पीपल पात समाँ,

कर के, कर भी, नहिं साथ रहे।

शिर बाल, सफेद भए बक से,

कुछ के, शिर भी नहिं बाल रहे।

अँखियान के अंध, भये अंधरा,

पग एक, अगारि न धार रहे।।121।।

जब दन्त बिहीन, भया मुखड़ा,

तब भोजन में, नहिं स्वाद रहा।

उदरान की भूँख मिटाते रहे,

पर, पाचन-तन्त्र, बेहाल रहा।

जब रक्त क्रिया, अवछिन्न भई,

बीमारी है कोई सभी ने कहा।

एहिभाँति से, हाल-बेहाल भए,

तन-ताप के ज्वार में, खूब दहा।।122।।

करहाते रहे, कोई पास नहीं,

पानी का कटोरा, उठा ना सके।

खटिया में पड़े, रहे ताकत यौं,

ज्यौं ख्व्वाल में बैठे, उल्लूक तके।

करवट के बिना, करवट भी लगी,

तब ऊल-जलूल से, बोल बके।

लगने तो लगे, सब ही को बुरे,

भगवान को कोशित, कोस थके।।123।।

अरमान न पूरे, हुए फिर भी,

अरमान कमान, न तोड़ सके।

गुर्राते रहे, खट्वा में पड़े,

सुनता नही कोई, बुलाते थके।

परिवार का प्यार, निसार हुआ,

बहुभाँति से सोचत, सोच, थके।

प्रभु को टेरत अब, बाबरे हो!

जब चारहु ओर, सहारे थके।।124।।

सुनलो! सुनलो!! दीनानाथ मेरी,

अज्ञानी रहा, सारी उम्र गई।

अब कोई सहारा नहीं जग में,

भव-भूला रहा, गलती तो भई।

बादे जो किए, बादों से कटा,

संसार में घूमा, ज्यौं घूमे रई।

शरणागत के सरपस्त तुम्हीं,

अब तो सुनलो! जो भई सो भई।।125।।

अण्डों के लिए, भारई की सुनी,

गज घण्ट को डारि, बचाया वहाँ।

रखी लाज वे-लाज न होने दिया,

द्रोपदी का उधार, चुकाया वहाँ।

गज टेर सुनी, ग्राह मार दिया,

उद्दार किया, सबजानें जहाँ।

बारी है मेरी, क्यों सुनते नहीं,

पतित पावन कहे, सोए हो कहाँॽ।126।।

अधमान, उधारण की, प्रभु जी,

निज वान को, आज भुलाओ नहीं।

सरणागत आए, बिभीषण की,

कर कंज उठाय के, बाँह गही।

नृग तार दिया, करके ही कृपा,

यमलार्जुन को, प्रभु तारे सही।

फिर काए पै, आज अबारि करो,

मेरी भी कहानी तो, ऐसी रही।।127।।

समुझाते रहे, कई भाँति मुझे,

अज्ञान की नाव, चलाता रहा।

तुमने तो पुकारा, न मैंने सुनी,

बिषयान की धार में खूब बहा।

एहि सागर खेबा, खुदै समुझा,

भव सागर, याद मुझे न रहा।

अब हार गया, नहिं कोई मेरा,

टेरा तब तुम्हें, मझधार बहा।।128।।

तुमको सब दोषी कहैगे प्रभू,

मझधार में डूबा तो, सोचो जरा।

नहिं कोई, खिवैया कहेगा तुम्हें,

बदनाम हो जाऐगा, नाम खरा।

अब तक तो, निभाते ही आये सभी,

अब कौनसी बात है, बोलो जरा।

शरणगत लाज सदाँ ही रखी,

शरणागत आया, तरा सो, तरा।।129।।

संसार की चाल न, जानी कभी,

मंशूबे न पूरे, कभी-भी हुए।

लड़ता ही रहा, धन-दौलत को,

कभी खाली खजाने, न पूरे हुए।

भटकाव के साथिन, साथ रहा,

पर ब्रम्ह के पैर, कभी न छुए।

संसार, असार को ढोता रहा,

कंधे पै धरे, परिवार जुए।।130।।

जाना है अकेला, न साथी कोई,

संसार न कामें तेरे आया।

समुझा था, जिसे अपना-सपना,

अस्तित्व न कोई, कहीं पाया।

हुआ राख का ढेर, कलेबर सभी,

उस साथी को खोज नहीं पाया।

रूकता न समय, सँभलोगे कभीॽ

उसका यह खेल, समझ न पाया।।131।।

मृत्यु काल के स्वप्न अनेक मिले,

समझो तो जरा, क्या लीला रही।

यम दूतों से मेल मिलाप हुआ,

क्या नाम तुम्हाराॽ उन्हौंने कही।

कौंसा हो तुम्हीं, सच बोलो जरा,

आए है तुम्हैं लेने को यही।

घबराया जिया, तन कंप हुआ,

रुक जाओ जरा, ले जाओ नही।।132।।

बेटी की बिदा, करने दो मुझे,

संबंध नहीं कर पाया अभी।

गरीबी में रहा परिवार मेरा,

आओगे अभी, सोचा न कभी।

थे चार जने, एक बोला तभी,

ये वो हैं नहिं, चलो और कही।

चलते भए सभी, बुढ़िया तब हँसी,

भगवान की कृपा यही तो रही।।133।।

बच तो मैं गई, नहिं नींद लगी,

लम्बा था अंधेरा, तब भोर हुआ।

घबड़ाती रही, अकुलाती रही,

हेमन्त ने आके, मुझे तब छुआ।

बाई अब जागो, दिन आया निकल,

सबको बुलबाओ, यह हुक्म दिया।

मनमस्त सुनाया था सभी किस्सा,

अब तो बच गई, बना लाओ पुआ।।134।।

विकराल बड़े, काले थे सभी,

हाथों में लिये, कुल्हाड़ी, फरसे।

मूसल भी, उन्हीं के हाथ दिखा,

रस्सी के बने, फंदे दरसे।

घूरत थे मुझे, हँसते भी हुए,

धमकाया मुझे, उँगली कर से।

जा रहे है अभी, होशियार रहो,

आंऐगे कभी, कुछ दिन अरसे।।135।।

कई एक के किस्से, अलग ही तरह,

सब ओर मुझे, घेर कर के खड़े।

वे-रहमी से प्राण, निकाले मेरे,

बाँधा था मुझे, निर्दयी थे बड़े।

राहों में, कई आसमान मिले,

खंदक थे कई, पहाड़ों से अड़े।

पहुँचा था जहाँ, दरबार बड़ा,

सन्नाटा वहाँ, राजा थे बड़े।।136।।

उन्हें हुक्म मिला, हाजिर तब किया,

पलटे पन्ना, रिकार्ड देखा गया।

यह जीव तो, वो नहिं, दूजा लगे,

सब भाँति से मेरा, छाना-बीना भया।

यह बो तो नहिं, छोड़ो तो इसे,

वे-रहमी लिये ही धकेला गया।

गिरता-पड़ता, लड़खड़ाता हुआ,

देखो यौं ही, जीवित में भया।।137।।

तब तक, अर्थी यहाँ सजाई गई,

फूलौं की कई, माला डाली।

छिड़का था गुलाल मेरे ऊपर,

कफन थे कई, रस्में पाली।

पत्नी ने भी, फोड़ी सभी चूड़ियाँ,

घर बारों ने पौर करी खाली।

ले कर के चले, फड़फड़ाया तभी,

मनमस्त ये नाटक रहा जाली।।138।।