मोक्षधाम 2
(मिटा सके श्मशान क्याॽ)
समर्पणः-
इस धरा धाम के संरक्षण में,
जिन्होंने अपना शास्वत जीवन-
हर पल बिताया, उन्ही सात्विक-
मुमुक्षुऔं के चरण-कमलों में सप्रेम।
वेदराम प्रजापति
मनमस्त
मो.9981284867
दो शब्दः-
नियति के सिद्धांतों की अटल परंपरा में, जीवन की क्या परिभाषा होगी तथा जीवन का घनत्व कितना क्या होगाॽ इन्हीं संवेगों और संवादों को, इस काव्य संकलन-मोक्षधाम (मिटा सके श्मशान क्याॽ)में दर्शाने का प्रयास किया गया है, जो अपके आशीर्वाद की प्रतीक्षा में आपके कर कमलों मे-सादर।
वेदराम प्रजापति
मनमस्त
गुप्ता पुरा डबरा
ग्वालियर म.प्र
उदरस्थ में दीन दयालु तुझे,
मुस्कान दे, राह बताते रहे।
उपदेश दिये, बहुभाँति तुझे,
प्रभु नाद, निनाद में गाते रहे।
करता तूँ रहा उनसे बिनती,
उदरान उन्हीं से तो नाते रहे।
मनमस्त करो, प्रभु पार मुझे,
करूणानिधि से बतियाते रहे।।33।।
ऐहि श्याम की लीला अनूठी सदा,
तन में केहि भाँति के, पिण्ड बनै।
सुक्राणु के मेल से, खेल रचैं,
पंच तत्व मिलान, पितान तनै।
नव मांस में सारे ही अंग बनैं,
बहु कष्ट सहै, मल-मूत्र सनै।
मनमस्त सहारा उसीका लिए,
ऐहि लोक में आना तो यौं ही बनै।।34।।
पंच तत्व के मेल मिलाप हुए,
रचना का विधान, बनाया गया।
द्वि मास में, मांस का पिण्ड बना,
क्रम बृद्धि का साज, सजाया गया।
पांच मांस में, भ्रूण स्वरूप लिया,
अँगान को पुष्ट, बनाया गया।
आकार में बृद्धि का, साया जुटा,
मनमस्त, यह खेल रचाया गया।।35।।
नव मांस में, पूरा शरीर बना,
द्वि नयन का खाका, खिंचा तन में।
श्रवणों के सरूप को, रूप मिला,
नासिक से ली घ्राण, इसी तन में।
सुख साज के लानें, बना मुखड़ा,
शिर-बाल का जाल, उगा तन में।
हाथों में हथेली बनाईं गईं,
पैरों का विधान, बना तन में।।36।।
तन शाज से, साजन-सा, सज भा,
फिर भी उदरान में, नंगा रहा।
उलझा इक, झीनी सी चादर में,
सब अंग समेट के चंगा रहा।
उल्टा लटका, उदरान रहा,
कर्मों का, करों से ही नाता रहा।
उल्टा-पल्टा होय, खेला उदर,
निज कर्मों के गीत को गाता रहा।।37।।
आया हूँ, कहाँ से अकेला यहाँ,
कोई और, यहाँ पै दिखता नहीं।
भूँखा भी नही, प्यासा भी नहीं,
यह रहस्य दिमाग में, आता नहीं।
क्या विश्व रहा, इतना ही बड़ा,
जिसका कुछ जिक्र, सुना था कहीं।
अनजान हूँ मैं, पूँछूँ तो किसे,
बतलाने कोई भी तो, आता नहीं।।38।।
रस कौन कहूँ, पीता हूँ जिसे,
खाता भी नहीं, पर पेट भरा।
हर कार्य का कारक कौन यहाँ,
दिखता तो नहीं, हर कार्य सरा।
चिंता मय चिंतन, जागा जभी,
करवट बदली तो, हिली ये धरा।
सब ओर में खोजत, खोया रहा,
इक झाँखी सा दृश्य, दिखाया जरा।।39।।
अँखियाँ उन्मीलत, झाँखा कोई,
वह सूरत-मूरत लोप भई।
उसको खोजत, चहुँओर रहा,
पहिंचानी सी मूरति, कहाँ वो गई।
वह कौन हता, जिसका न पता,
अँखियाँन से, आँख मिचौनी भई।
किलका-हिलका, उछला-पुछला,
तब प्यार–दुलार की, छाया भई।।40।।
तन शांत हुआ, मन क्लांत हुआ,
तेहि औसर, झाँखी-सा झाँखा कोई।
कदली के समाँ मन काँप गया,
तब गौर से देखा, दिखाया वोई।
नयनो से मिले, नयना जबहिं,
मुस्कान मिली, मुस्काया सोई।
उसने जो कहा, सुनता मैं रहा,
स्वीकारी गईं, जो-जो बातें हुई।।41।।
उदरस्थ में मातु सनेह दिया,
दुलराती, खिलाती, पिलाती रही।
बहु-भोज्य पदारथ स्वत्व दिए,
प्रभु नाम की लोरी, सुनाती रही।
कर-कंज से, रंजन खूब किया,
स्नेह की गंग, बहाती रही।
मनमस्त सरूप, बनाय़ा मुझे,
स्वलोक की झाँखी दिखाती रही।।42।।
कितनी घड़ियों में, घड़ी ये मिली,
कर जोरित, लोक में आना हुआ।
कर ऊपर धार, सु आनन को,
मातृभूमि की अँक को, ऐसे छुआ।
भब-भार को, छूतेही रोना पड़ा,
मैं आया कहाँ-कहाँ गाना हुआ।
केहि भाँति से, बंधन से निकला,
भव-बंधन में बँध जाना हुआ।।43।।
गर्भस्थ के बंधन दूर भए,
जगदायी से, कान फुकाना पड़े।
झकझोरा मुझे तब नयन खुले,
देखा तो यहाँ, कोई और खड़े।
बहु भाँत से सोचत, सोच पड़ा,
किसके ये सरूप, कुरूप मढ़े।
झट से,निज नयन जो, बंद किए,
मनमस्त वे रूप, आगाड़ी खड़े।।44।।
एहिभाँत से, आँख-मिचौनी भई,
भयारूप वो दूर, तो रोया घना।
घरवारिन अंक, उठाया मुझे,
कई भाँति मनाया, न माना, मना।
भव-नीर का क्षीर पिलाया मुझे,
जेहि पीवत ही, मनमस्त बना।
बहुभाँति जगाया, न जागा कभी,
गहरी निंदियान में, सोया घना।।45।।
भव प्यार, दुलार में भूला सभी,
पर अंक पड़ा, प्रभु अंक तजे।
त्रय गंध लयी, बहु गंध भरी,
ऐहि भाँत, विकार से साज सजे।
प्रभु से कई कोसो की, दूरी भई,
जग-जंग में पाए, मजे ही मजे।
मनमस्त मिलान न, फेर हुआ,
जीवन यौं गया, भजते ही भजे।।46।।
पितु-मातु के प्यारे, दुलारे बने,
पर्यंक लिटाया, बिठाया गया।
सरके, घिसटे, घुटुआँन चले,
अँगुली पकड़े ही, चलाया गया।
कई बार, सहारा मिला जो नहीं,
गिरते-उठते ही, उठाया गया।
बहु खेल खिले, मनमस्त बना,
कई गीत-संगीत, लुभाया गया।।47।।
मुँह साजन, दुग्ध के दाँत उगे,
उगते-उगते ही, सताने लगे।
दयी पीड़ा घनी, नहिं दुग्ध पिबै,
दस्तान के लाने, भगे ही भगे।
दिन बीते यूँही, सहे कष्ट घने,
भए खूब कठोर, चना भी चुगे।
इनने कई बार, सताया मुझे,
चमकाया इन्हें, लगे मौती उगे।।48।।
सिर पै घुँघराले, केश घने,
जिनपै, भँवरे मड़राते रहे।
कई गंध, सुगंध दे पाले इन्हैं,
कई तेल-फुलेल, पिलाते रहे।
बहुभाँत से मांगें, निकालीं गई,
जिनपै कवि, गीत सुनाते रहे।
मनमस्त के साथी, न सच्चे बने,
ये तो बीच ही आयु में, जाते रहे।।49।।
अँखियाँन के तारे, सितारे हुए,
कजरा के लगे, कजरारे बने।
जिनकी नजरो से, बचे न कभी,
कब्रों में लखें, अनियारे बने।
रबि भी, जिसको नही झाँक सका,
उस लोक में, झाँकने बारे बने।
मनमस्त से, सैन में नैन कहै,
हमरे बिन, कौन दुलारे बने।।50।।
बहु खेलत खेल, जवान भए,
दिन बीत गए, बचकाने सभी।
मुस्कात चले, इठलात चले,
इतरात चले, नहिं माने कभी।
नहिं और दिखें, खुदको खुद ही,
नहिं राहें दिखें, मद माते जभी।
मनमस्त बयारि के तीर ये ही,
मधबा ने निषंग पै, ताने कभी।।51।।
श्रवनों ने न साथ दिया दम से,
बहुभाँति से पाले-पलोसे गये।
कई भाँत के इत्र, फुलेल लगे,
कई भूषण से भी, सिंगारे गये।
अनुराग के रागन, मोहे रहे,
मोबाइल पै, ज्यादां ही ध्यान दये।
मनमस्त न साथ दिया दमभर,
ये भी अंत समय में, किनारे भये।।52।।
इतराने किते, अपने पन पै,
भौंहौं की कमान को, साधे खड़े।
नयना शर से नहिं कोई बचा,
अनियारे बने, अपनी पै अड़े।
बिधना की गति, नहिं जानी कभी,
कब-कैसी निगाह से, पाले पड़े।
मनमस्त के साथी न नयना भए,
मग बीच से, देखो किनारे खड़े।।53।।
झुक-झूमत नाक नचै नथुनी,
फुफकारत नाक भी, नाक धरे।
केहि कारन, नाक कटी जो कभी,
अनचाहत मौत, बे-मौत मरे।
मानव की कहानी में, नाक बड़ी,
कहते है सभी, का पै, नाक धरे।
मनमस्त भरोसा नहीं इसका,
किस गंध, कुगंध पै नाक परे।।54।।
दन्तान ने दावतें खाईं घनीं,
चाबे है इन्हौने भी, लोहे चने।
मीसे है कभी, खुद ही खुद पर,
कई बार तो दाँत-निपोरे बने।
दमके-चमके बत्तीसी लिए,
इनके डर से, दहलाते जने।
मनमस्त को दर्द घनेरे दिये,
जीवन भर, कई के न साथी बने।।55।।
ऐहि भाँत से फूल-सा फूला रहा,
मदअंध की भंग को, पीता रहा।
नचता ही रहा, नट-नागर सा,
नहिं शांति मिली, भव भीता रहा।
मद मोह विकारो के पालने में,
अनजाना सा, तूँ ही छटीका रहा।
मनमस्त से साथी को जाना नहीं,
केहि हेतु ये, जीवन जीता रहा।।56।।
केहि साध, दयालु दयानिधि ने,
तन मानव का, सबको दीन्हा।
कागा, सूकर, गदहा, चींटी,
केहि कारन, नाथ नही कीन्हा।
लख चौरासी बीच, कृपा करके,
तज और, हमें अपना चीन्हा।
अब भी मनमस्त रटो उसको,
भटको क्योॽ स्वामी नही चीन्हा।।57।।
कितने से गुमान लिए फिरता,
मुस्काता रहा, मुख-चंद्र किये।
समझा न कभी, जग को सपना,
मुख पै कई लेप के, लेप किये।
नव भूषण धार, सजाता रहा,
इतराता रहा, हरषाता हिये।
मनमस्त बुढ़ापे पै, सोचा कभी,
यह रूप तुम्हारे, छुआँरे भये।।58।।
भुज दण्ड, भुजण्ड पै फूला रहा,
कितने ले गुमान, घुमाता रहा।
भयभीत किया, इनसे सबको,
कई अस्त्र और शस्त्र, सजाता रहा।
करके कर ऊँचा जहाँ में फिरा,
इन्क्लाव के नारे लगाता रहा।
मनमस्त बुढ़ापे में ,ये भी थके,
औरौं के सहारे उठाता रहा।।59।।
इट पेट की रेट अनूठी रही,
आक-बाक भखे, मनमाने सभी।
फिर भी दिन-रात की बातें करे,
कुनमुनात दिखीं, जाकी आँतें सभी।
रसना के इसारे पै, रीता भरा,
जिब्हा से किनारा न कीन्हा कभी।
सब दौड़ रहे, पेट की खातिर,
मनमस्त भरा ये, रहा न कभी।।60।।
नयनों से बहे, अँसुआ जो कभी,
पलकों ने तो रोके, रुके भी नहीं।
रोंमांचित काँपरहा तन भी,
बहु थामत, थामे, थमें भी नहीं।
बिलपात ह्रदय अधरान कपै,
जिब्हा नही बोलत, बात कहीं।
लगते हैं सभी कमजोर, इते,
हरि नाम सुने पै रुके भी नहीं।।61।।
संगीत औ गीत की रीति यही,
कम्पान दिशा को, दिशायें मिलें।
जिससे बाइब्रेशन होता घना,
थिरकान भरा, तन ताप मिले।
विधुत की क्रिया ज्यौं करंट बने,
तन से वह वेग झिले न झिले।
मनमस्त विचार में आता यही,
तन बाष्प लिये-अँसुआ निकले।।62।।
असुआँन की बात निराली लगी,
तन चोट लगे अँसुआ निकले।
कोई घात की, बात की चोट लगे,
मन व्याकुल हो, अँसुआ निकले।
अति हानि की, तान के ताने तनै,
नहि सहन भए अँसुआ निकले।
अति हर्ष झमेला की बेला बने,
मनमस्त भए अँसुआ निकले।।63।।
मेरू दण्ड ने, बहुत घमण्ड किये,
जिसके बल से ही शरीर खड़ा।
नद सागर पार अनेक किये,
सब ओर फिरा, घटियान चढ़ा।
सबरे तन का ही आधार रहा,
इसके ही बूते, ब्रम्हाण्ड चढ़ा।
यब भी तो, किनारा लगा करने,
मनमस्त रिशा तन रूपी घड़ा।।64।।
करती बहु गर्व, रही गर्दन,
बलबूते मेरे पै, ये शीश तना।
मुख, नयन, घ्राण औ कान सभी,
मुझसे ही कराते है, हाँ औ मना।
मेरे झुकते, झुकते है सभी,
मेरे बिन कौन का काज बना।
इसने भी किया अब तो हिलना,
नहिं साथ दिया, मनमस्त मना।।65।।
चरणों का पुजारी सभी जग है,
इनके बिन कौनकी चाल चली।
बचपन में चले, यौवन में चले,
अब भी चलते, वन-बीथिन गली।
इनके बलबूते से राहै थकीं,
इनने ही उतारीं, हिमालय कनी।
अब तो इनमें भी थकान बढ़ी,
अवलों मनमस्त की खूब छनी।।66।।
अपनौ तन ही, अपनौ ही नहीं,
तब, और से कौनसी आस करें।
सब भाँति से पाला पलोसा इनेहें,
पथ मध्य थका अब कैसौ करें।
जब कोई नहीं, अपनौ है यहाँ,
फिर का पै समय, बरबाद करें।
अब तो प्रभु को रटले मनुआँ,
मनमस्त की नैया, वे पार करें।।67।।
इन भूल भुलइयन में भूला,
उस रूप को याद किया न कभी।
जिससे कर बादा, था आया यहाँ,
करूँ याद तुझे, तज और सभी।
जग जाल के, जाल में ऐसा फसा,
कितना मदहोश, न होश अभी।
तज दे सबको, अब भी मनवा,
मनमस्त न तेरा कोई है, कभी।।68।।
सबको तजके, आजाओ इतै,
अब भी श्मशान का ध्यान करो।
शिव का यह धाम अनूठा रहा,
उसमें निर्दुंद सदां विचरो।
भटकाव भरी सारी दुनियाँ,
आना है इतै, काए देर करो।
नहि भाग सकौगे, यहाँ से लला,
मनमस्त उपाय हजारौं करो।।69।।
सब व्यर्थ उपाय रहेंगे तेरे,
प्रभु नाम का जो न सहारा लिया।
संसार के साथी, न साथ रहें,
थोथा ही रहेगा, किया जो किया।
अब भी है समय, कुछ चेतो जरा,
उसको क्यों भूलाॽ न याद किया।
मनमस्त है धन्य वही जग में,
जिसने श्मशान सुधार लिया।।70।।
बहु वीर भए, रणधीर भए,
दानवीर भए, सत पंथ चलें।
कई कष्ट सहे, जीवन मग में,
अपने पथ से, न हिले, न हलें।
धन्-धन्य किया, अपना जीवन,
सत पंथन, पंथ-चले, तो चले।
मनमस्त न काहे विचार करै,
श्मशान सुधारा, भले वे भले।।71।।
कुछ सोच जरा, कितना है समयॽ
दरिया के किनारे पै आके खड़ा।
कितना समुझाया, तुझे बन्दे!
अपनी हठ पै, तू अड़ा ही अड़ा।
यह स्वप्न-सी माया,किसी की नही,
भटका जो यहाँ, भव-भौंर पड़ा।
मनमस्त ये, जीवन का पुतला,
फूटेगा ज्यौं ही माटी का घड़ा।।72।।
सत्-मित्र, विछोह किया जबसे,
दुःख के अँधियारे में, खोया रहा।
सपनों की कहानी, अनेकों गढ़ी,
सुख का उजियाला, कहीं न रहा।
स्वारथ के सहोदर बहुत मिले,
बिन स्वारथ, कौनॽ किसीका रहाॽ
प्रभु को मनमस्त, भजैगा कबैॽ
नर देह, धरे का, क्या अर्थ रहा।।73।।
सुख, स्वारथ में, सब टेरें तुझे,
विन स्वारथ, कोइ- किसी का नहीं।
जिसको सर्बस्व, निछार किया,
उनका भी अता है, पता है कहीं।
कुछ लायक था, तब प्यारा लगा,
अब भार स्वरूप है, प्यारा नहीं।
सब सोचत हैं, मनमस्त यही,
प्रभु ले-लो इसे! ये हटेगा नहीं।।74।।
अब वृद्ध हुआ, सबको खटके,
लरिका भी कहैं, घर बैठे रहो।
करते हो कहाॽ तुमको का परी,
चुप होके रहो, कुछ भी न कहो।
इकतो, कफ से खपरा भरते,
वह भी, लड़के, फिकवान चहो।
मनमस्त करौ जो, खुदी भुगतौ,
लरिका, परिवार को ऐसे सहो।।75।।