मोक्षधाम 5
(मिटा सके श्मशान क्याॽ)
समर्पणः-
इस धरा धाम के संरक्षण में,
जिन्होंने अपना शास्वत जीवन-
हर पल बिताया, उन्ही सात्विक-
मुमुक्षुऔं के चरण-कमलों में सप्रेम।
वेदराम प्रजापति
मनमस्त
मो.9981284867
दो शब्दः-
नियति के सिद्धांतों की अटल परंपरा में, जीवन की क्या परिभाषा होगी तथा जीवन का घनत्व कितना क्या होगाॽ इन्हीं संवेगों और संवादों को, इस काव्य संकलन-मोक्षधाम (मिटा सके श्मशान क्याॽ)में दर्शाने का प्रयास किया गया है, जो अपके आशीर्वाद की प्रतीक्षा में आपके कर कमलों मे-सादर।
वेदराम प्रजापति
मनमस्त
गुप्ता पुरा डबरा
ग्वालियर म.प्र
बड़ी भीड़ थी संग, उतारा गया,
रस्सी खोलीं, मैं बैठा भया।
भगवान का नाम सभी ने लिया,
क्या होने चला, क्या हो तो गया।
कई एक तो यौं, जलने से बचे,
संसार का खेल दिखाया गया।
बहुतक किस्से, सुनते यौं रहे,
मनमस्त यहाँ आया सो गया।।139।।
क्या सत्य है, कोई भी जाना नहिं,
क्या आता और जाता, कहानी रही।
कई ग्रन्थ औ पंथ लड़ें इस पर,
विज्ञान की कहानी अलग ही रही।
कुछ भी हो सजन, समझो तो जरा,
झूठी है कितनी, कितनी है सही।
जाना न कोई, संसार यही,
मनमस्त ठिकाना न पाया कही।।140।।
बस मानो इति, कोई सत्ता यहाँ,
संसार जिसे, सबने ही कहा।
अटका ही रहा, भटका जो यहाँ,
आता क्या है, जाता है कहाँ।
मन रुकता नहिं, कोई कुछ भी कहे,
हाँ में हाँ ही, मिलाता में रहा।
मैं इक्का, जमात बड़ी उनकी,
जो उनने कही, मनमस्त कहा।।141।।
पुनर्जन्म की राहैं, यहाँ है बड़ी,
जिनमें भटका जनजीव रहा।
कई शास्त्र, मतों का यही मत है,
बहुतों ने इसे, सच-सच्चा कहा।
मरता है यहाँ, वहाँ जन्म धरे,
जीवों का यहाँ, आना-जाना रहा।
संसार इसी को, कहैं सब ही,
मनमस्त इसी भ्रम डूबा रहा।।142।।
कई एक कहें, ब्रम्ह अंश है जिव,
कर्मों के आधीन, जन्म पाता।
संसार, असंख्य-ही, जीवों बना,
आना-जाना, इसका नाता।
मरता है इधर, जन्मा है उधर,
कहीं जाता नहिं, कोई है गाता।
कोई भेद नहीं, इसका पाया,
मनमस्त-जहाँ इसको गाता।।143।।
करही में मरा, ईंटो जन्मा,
कुछ याद, सभी कुछ बताने लगा।
पत्नी हे मेरे, सिरूहा बारी,
दो पुत्र मेरे, कई बीघा जगा।
धन गाड़ा मैंने, बीच बाखर में,
देखा तो बहाँ सब सच्चा लगा।
लगता है अचम्मा, न आया समझ,
मनमस्त पुनर्जन्म सच्चा लगा।।144।।
कई एक कहानी, इसीकी मिली,
सच्चाई है, या भ्रमजाल यही।
योगी यौं कहैं, जीव जाता सदाँ,
अंगुष्ठा के समान, काया ही कही।
एक देही से, दूजी में प्रवेश करें,
योगों की क्रियाँऐ, क्या-क्या तो रही।
भटका विश्वास यहीं आकर,
कैसी ये विधाता की, लीला मही।।145।।
विज्ञान की बात है दूर कहीं,
जिसमें यह सब, भ्रम जाल मिला।
ऊर्जा से सदाँ तन संचालित,
ऊर्जा का यहाँ सब, खेल खिला।
परीक्षण भी किए, कई विधि इसके,
जिसमें भ्रम जाल का, टूटा किला।
नहिं जीव कोई, नहिं आकृति है,
मनमस्त सिद्धाँत, यही इक मिला।।146।।
भटको अब नहिं, है ऊर्जा सही,
जिसको कई भाँति से गाया गया।
कोई ब्रम्ह कहा, कोई ईश कहा,
कई भाँति के रूपों में, पाया गया।
भ्रम भूत वही, अरु प्रेत वही,
अवतार, फरिश्ता, कहाया गया।
जग जाओ अभी, भटको न जहाँ,
मनमस्त सदाँ, समुझाया गया।।147।।
कुछ भी हो, शशक्त करो इसको,
जिससे, संसार की गाड़ी चले।
सब भाँति, प्रसस्त रहें पुर्जे,
देख-रेख की क्रिया ले, आगे चले।
इस पर, जिसने भी तो ध्यान दिया,
उसकी हर बात, न टाले टले।
चलना है यही, तरना है यही,
मनमस्त है मोक्ष, मही जो मिले।।148।।
नियति का यही सिद्धाँत रहा,
इससे भी कहीं कुछ आगे मिले।
उसका भी परीक्षण, तुम्हैं करना,
नियति का बगीचा, इसीसे खिले।
भटके हो कहाँ, आजाओ इतें,
भटकाब से मोक्ष, यहीं तो मिले।
श्मशान सुधारना, ऐ ही रहा,
मनमस्त की राहों में राहें मिले।।149।।
रह जाय न साबुत, अंग कहीं,
परिवार ने घेर, जलाया सभी।
सब ध्यान औ कान, लगाके सुनो,
चटके जोड़े, नहीं शीश अभी।
सब संग के साथी, यही कहते,
भगवान की लीला, सही हैं सभी।
इस भाँत से टार, जलाया गया,
संसार को जान न, पाया कभी।।150।।
गए द्वारे तेरे, सब पाक भए,
जल नीम के पातन झारा गया।
कितना कड़वा थाॽ कभी समुझा,
पान-पाती से, तेरे को तारा गया।
संबंध को तोड़ने बैठे सभी,
एक धागे को तोड़, विसारा गया।
अब भी तकता उस ओर, अरे!
सबसे एहि भाँत, किनारा भया।।151।।
अस्थियाँ नहिं छोड़ी, तेरी उनने,
फिर राख भी तेरी, बहाई गई।
कर, पैर के पोर बटोरे गये,
संग दाँत-बत्तीसी, उठाई गई।
इनके ही किये, कर्मों से तूँ ने,
संसार की लीला रचाई गई।
उनको भी बहा, गंगा में दिया,
यौं सारी कहानी मिटाई गई।।152।।
दुनियाँ को समझ , समुझाएँ तुझे,
यहाँ, कोई-किसी का, कभी ना हुआ।
उसको रटले, कर याद जरा,
भटका है जहाँ, अलगाव हुआ।
मिलजा उससे, यह दूरी मिटा,
हो जायेगा नेक, हुआ सो हुआ।
मनमस्त ये बूँद, समुद्र मिलै,
मिटता अस्तित्व, उड़ा ज्यौं धुँआ।।153।।
जुड़ जाओगे ऐसे, जभी प्रभु से,
फिर, कौनसी बात, रहेगी अड़ी।
कर में उनके, मंझा है तेरा,
फिर, काए पतंग, उड़ी, न उड़ी।
बन जाए तेरी, बन जा प्रभु का,
फिर कौनसी बात अड़ी, न अड़ी।
उनको नहिं भूल, अरे साथी!
भब सागर पार की, बो ही जड़ी।।154।।
परिवार तेरा, यहाँ तक ही हुआ,
पत्नी दरवाजे तक, रोती रही।
चटका चुड़ियाँ, सबंध तजा,
रिश्तेदारी सब, ठाड़ी रही।
तेरह दिन गिन, भण्डारा रचा,
तेरी पूँजी की धूम तो, यौं ही बही।
सबने एक बार ही याद किया,
बड़ा भोज रहा, सबने ही कही।।155।।
फिर याद किया,किसी ने क्या कभीॽ
संतान ने पूँजी को बाँट लिया।
कई बार हुऐ, झगड़े धन पै,
फिर काऊ ने नाहीं, दिखाया दिया।
सब भूल गए, बस नाम रहा,
दुनियाँ ने यौं ही तो किनारा किया।
अब भी समुझो प्रभु की लीला,
किस भाँत से तूँने, यह जीवन जिया।।156।।
समझो अब तो, वह कौन तोराॽ
जल-बीचि का खेल, यह खेला गया।
रवि से नहीं दूर, कभी रश्मि,
ब्रम्ह-जीव का ऐहि झमेला भया।
अनजान सभी, पहिचान बिना,
पहिचानत ही, अनजान गया।
मनमस्त न कोई है, सोच यहाँ,
संसार का सारा, बखेड़ा गया।।157।।
कहीं कोई नहीं, कुछ भी तो नही,
यह खेल अनूठा था, खेला गया।
खेला जिसने था, खिलाड़ी बही,
फिर सोचो जरा, क्या खेल भया।
यह स्वप्न था, खेलत स्वप्न रहा,
उसका अस्तित्व भी, आया-गया।
संसार असार है, सार कहाँ,
नहीं बोला कोई, गुड़ गूँगा भया।।158।।
संसार के सार, वे ही है प्रभू,
कितनों को, न जाने-तार दिया।
अनजाने ही जिनने पुकारा उन्हें,
उनका विन सोचे, उद्दार किया।
तब तो मुझको भी, उवारो प्रभू,
कभी भूले ही, मैंने भी, नाम लिया।
अब रोक सकेगा न, कोई मुझे,
मैं पार हुआ, तो हुआ, यौं हुआ।।159।।
तुम तो हो अगम्य, न जाना कोई,
तुम्हें ईश कहा, जगदीश कहा।
अखिलेश्वर हो, अविनाशी तुम्हीं,
सत्, सत्य, सनातन, ब्रम्ह कहा।
दुर्जेय, दुरागम, दण्डी तुम्ही,
आनंद, अनन्त, अखण्ड कहा।
कमलेक्षण, नित्य, निरामय हो,
मनमस्त सरूप, तुम्ही तो अहा।।160।।
कितना क्या कहूँ,कह सकता नहीं,
लीलाधर हो,नहीं जाना कोई।
सब भाँति से हार गया तुमसे,
साथी नहीं है,तुमसा तो कोई।
अब द्वार न और के जाऊ कहीं,
होना थी यही,होनी जो भई।
मनमस्त अवाक भई वाणी,
तेरे हाथों में नईया,यहाँ जो दई।।161।।
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