- खंड-2 -
देवेन्द्र भइया मेरे ताऊ जी के बेटे थे। ताऊ जी ने अपने जीवन काल में पर्याप्त संपत्ति अर्जित कर के अपने इकलौते बेटे को विरासत में दी थी। इसके अतिरिक्त देवेन्द्र भइया स्वयं अँग्रेजी हुकूमत में एक बड़े अफसर थे। हजारों लोगों को वहाँ भी उनसे काम पड़ता रहता था जिसके लिए वे लोग देवेन्द्र भइया को अपने सर पर उठाकर रखते थे। ऐसी-वैसी हैसियत का कोई आदमी उनके सामने पड़ने की हिम्मत तक नहीं करता था कि ज़रा-ज़रा-सी बात पर चाबुक उठा लेना उनके लिये मामूली बात थी। जाने कितने लोग उनकी ड्योढ़ी पर केवल सलाम बजाने आते, उनके किसी भी काम आ, स्वयं को धन्य समझते... कभी-कभी तो मुझे लगता था कि सबेरे का सूरज भी अपनी पहली किरण का अर्ध्य उन्हीं की कोठी में देता है।
फिर सबकुछ बड़ी तेजी से परिवर्तित होने लगा। अँग्रेजों ने भारत छोड़ दिया, भारी राजनीतिक उथल-पुथल और श्राप जैसे सीमा विभाजन के बाद एक स्वतंत्र देश आकार लेने लगा। माहौल एकाएक पूरी तरह बदल गया था। सत्ता के वे दुश्मन, जिन्हें पहले बागी और अस्पृश्य कहा जाता था अब क्रान्तिकारी के नाम से सम्मानित होने लगे और अँग्रेजी राज्य के ओहदेदारों के लिये लोगों के मन में छिपी हुई घृणा स्पष्ट रूप से सामने आने लगी थी। देवेन्द्र भइया पर इन बदलती परिस्थितियों का प्रभाव पड़ना ही था। अतः एक दिन अपना घर किसी अजनबी के हाथ बेचकर उन्होंने अनुसुइया भाभी के साथ शहर ही छोड़ दिया!
बहुत कुछ बदल गया था, नहीं बदला तो बस मेरी आँखों में पलता वह स्वप्न... बड़ा सा आबनूसी पलंग, सखी-सहेलियों से घिरी, वैभव के पालने पर झूलती, गाड़ी में घूमती, फौवारों में इत्र भरकर नहाती, साहबों और मेम साहबों के साथ लंच और डिनर लेती हुई मैं... दरवाजे पर बँधे हुए घोड़े-हाथी, नौकर-चाकरों की भीड़ और सलाम करता हुआ एक पूरा शहर!
मुझे याद आते हैं वो पल जब आँचल का एक सिरा अपने अरूण बाबू के साथ बाँधकर मैं अग्नि के गिर्द फेरे ले रही थी। कितनी खुश थी, कि उस कमसिन उम्र में भी मुझे इस सत्य का पूरा भान था कि अरूण बाबू का सरकारी पद और वेतन देवेन्द्र भइया से भी बढ़-चढ़ कर है। उन पलों में मुझे लगता था जैसे एक साम्राज्ञी सी किस्मत लेकर आई हूँ मैं, कि जो भी चाहा मुझे मिल गया। अरूण बाबू किसी सपनों के शहजादे की तरह ऊँचे और बलिष्ठ थे, गोरे रंग पर फबती घनी काली भँवें, भावप्रवण आँखें, चौड़ी मूँछों में छिपी सदाबहार स्मित उन्हें बेहद खूबसूरत करार देती थी और उनकी आँखों की गहराई में से झाँकती एक शालीन प्रबुद्धता ऊँगली पकड़ कर उन्हें साधारण की पाँत से बाहर ला, विशिष्ट साबित कर देती थी। मैं रोमांचित होकर सोंचती, क्या मुझे भी अब अनुसुइया भाभी की तरह जीवन के सारे सुख परोसे हुए मिल जाएँगें?
पर जब वास्तविकता से सामना हुआ तो सपनों को मन की किसी बंद कोठरी में दफ़न कर देना पड़ा था। चार भाइयों के, बेटे-बेटियों और पोते-पोतियों से भरे उस बड़े से संयुक्त परिवार में अरूण बाबू का बड़ा वेतन न किसी बड़े सम्मान का अधिकारी था न विशेष अधिकार का! परिवार के बाकी सभी अर्थोपार्जन करने वाले पुरुष सदस्यों की तरह अरूण बाबू भी निःसंकोच घर के मुखिया, अपने बड़े बाऊजी को पूरा वेतन पकड़ा कर निश्चिंत हो जाते। यूँ कमी हमें किसी चीज की नहीं थी... भरी-पूरी गृहस्थी थी, सभी अच्छा खाने-पीने का शौक रखते थे और त्योहारों पर कीमती गहने-कपड़े भी बनते ही रहते थे, पर अनुसुइया भाभी की तरह सज-धज कर, पलंग पर बैठ, हुक्म चलाने का सुयोग कभी नहीं आया। यहाँ न कोई ड्योढ़ी पर सलाम बजाकर अपनी एक झलक दिखा देने को उतावला ही रहता था, न मेवों और मौसमी फलों की डलिया ही उतरती थी। सवेरा होते ही रसोईघर में जो सामूहिक लंगर शुरू होता वह देर रात तक चलता रहता। तिस पर से रोज दिन होते तीज-त्योहारों और उसी तरह ब्याह-शादियों की निरंतरता, उतने ही नाते-रिश्तेदारों की अनवरत आवाजाही और स्वागत-सत्कार, नौकर-चाकर, आए-गए दूसरे लोग... काम तो मानों निपटता ही नहीं था। रसोई की कभी समाप्त न होने वाली खिट-खिट के अतिरिक्त हर निर्णय में परतंत्रता, अपने से कम पढ़ी जिठानी और गरीब घर की देवरानी को बराबर का दर्जा देने की मजबूरी मुझे तकलीफ देती थी। न एक टेबल पर अरूण बाबू के साथ बैठकर खाना खाना संभव था न उनके किसी मित्र के सामने जाने का रिवाज़… हाथ पकड़ कर नाचने की तो कोई सोंच भी नहीं सकता था। यूँ तत्कालीन स्त्रियों की तुलना में हम काफी सुखी कहे जा सकते थे कि हमलोग नाते-रिश्तेदारी के अतिरिक्त और स्थानों पर घुमाने भी ले जाए जाते थे और कभी-कभी घूँघट में सिमटी हम औरतों की मंडली, बड़ी बूढियों के संरक्षण में सिनेमा, सर्कस और रामलीला भी जाती ही रहती थी। सही शब्दों में कहूँ तो सबकुछ होते हुए भी यहाँ उस स्वामित्व का नितांत अभाव था जो अनुसुइया भाभी को अनायास ही मिला हुआ था। उनके ठाठ-बाठ याद आते ही मुझे अपना सबकुछ तुच्छ लगने लगता। एक असंतोष मन में सदैव मुखर रहता कि चाह कर भी मैं अपनी आकांक्षाओं और हकीकत के बीच तालमेल नहीं बैठा पा रही थी और परोक्ष-अपरोक्ष इसका असर मेरे रिश्तों और दाम्पत्य पर पड़ता ही होगा।
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