मृग मरीचिका - 3 - अंतिम भाग श्रुत कीर्ति अग्रवाल द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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मृग मरीचिका - 3 - अंतिम भाग

- खंड-3 -

यह सब शायद यूँ ही चलता रहता यदि उन दिनों मैं अपनी चचेरी नन्द के घर एक शादी के उत्सव में न जाती, जहाँ एकाएक अनुसुइया भाभी से भेंट हो गई। वैसे उन्हें पहचानना थोड़ा मुश्किल काम था... कहाँ वो उनकी रूप-यौवन और प्रसाधनों से जगमगाती-महमहाती खूबसूरत काया और कहाँ ये मोटी पुरानी साड़ी में लिपटा जीर्ण और आभूषण रहित शरीर... न हाथों में कड़े, न पैरों में पायल, न माथे पर बिंदिया! एक बार तो जी धक् से रह गया... कहीं देवेन्द्र भइया को तो कुछ नहीं हो गया? पर तभी उनकी माँग पर नजर पड़ी तो सिंदूर की एक महीन रेखा किसी सांत्वना भरी हथेली की तरह मन को सहला गई। मुझे स्वयं पर आश्चर्य सा हुआ कि कैसे पहचान सकी इन्हें? इनमें और उस समय की अनुसुइया भाभी में, कहीं से कोई साम्य तो हो? पर है न... आँखें वही हैं, यहाँ तक कि उनमें भरे हुए भाव तक वही हैं। व्यथा-वेदना की इस छाया, इस दर्द को तो मैंने उस समय भी इन आँखों में पलते देखा था, भले अपनी कम उम्र के कारण उस समय इसे समझ न पाई रही हूँ।

पता चला देवेन्द्र भइया ने स्थानीय राजनीति में अपनी अच्छी पैठ बना ली है। शहर के नामी-गिरामी इलाके में उनका एक खूबसूरत छोटा सा घर है पर वहाँ वह किसी दूसरी औरत के साथ रहते हैं और अनुसुइया भाभी को उन्होंने घर से निकाल दिया है। जी धक् से रह गया! जिस औरत को नख से शिख तक सोने से मढ़ कर, कीमती चीज़ की तरह सँभाले रखा था, घर-गृहस्थी का एक काम तक नहीं करने दिया कि उनके हाथ-पैर गंदे न हो जाएँ, उसे जीवन के अंतिम पड़ाव पर मायके में, निर्दयी भाई भाभियों के बीच कैसे फेंक सकते हैं? ऐसा भी होता है क्या? ऐसा क्या हो गया इनके बीच?

मैं जानने के लिए परेशान थी, पागल हुई जा रही थी कि अनुसुइया भाभी के साथ आखिर क्या हुआ है इस बीच, कि बेहद दुर्बल, बीमार सी दिखाई देती उनकी वह काया लगातार फाकाकशी और बीमारियों की शिकायत कर रही थी। पर पत्थर की शिला बनी अनुसुइया भाभी को पिघलाना कोई आसान काम तो कतई नहीं था। न वह मुझे पहचान ही सकीं, न बात ही करना चाहती थीं। फिर पता चला कि उन आँखों को पहचानने में भी मैंने भूल ही की थी कि वे भी अब परिवर्तित हो चुकी थीं। हर चाह और भाव से बेज़ार, किसी अंतिम पल का इन्तज़ार करती उन आँखों मे अब जो था, वो हर दुःख-दर्द से परे, विरक्ति कहलाएगा... संसार से, संबंधों से, और शायद स्वयं से भी!

उनको जब उनका गौरवशाली अतीत याद दिलाने का प्रयास किया तो विरक्ति घटने के बजाय और तीखी ही हो गई।

"आपके भइया की पत्नी तो मैं कभी बनी ही नहीं। मेरी हैसियत तो केवल आपके ताऊजी की बहू की है।"

न जाने क्या बताने जा रही थीं वो... हतप्रभ थी मैं!

"आपके भइया तो मेरे उस घर में जाने के पहले से ही शादीशुदा थे। अग्नि के गिर्द फेरे लिये बिना ही किसी के साथ उनका अपना एक परिवार था, जहाँ उनके पास उनके बच्चे थे, खुशियाँ थीं और जिंदगी में सुकून देने वाले पल थे। क्योंकि ताऊजी ने उनकी उस पसंद को जीते जी स्वीकार नहीं किया था, अपने पिता से इस बात का बदला लेने के लिए ही शायद आपके भइया ने उनकी पसन्द करके लाई हुई, इस सामाजिक बेड़ी को, यानी कि मुझे कभी स्वीकार नहीं किया। ये भी हो सकता है कि अपने घर में मेरी उपस्थिति से उन्हें अपनी हार की याद आती हो? मुझे देखकर क्रोध आ जाता हो, जो अक्सर कितने ही निरीह नौकर-चाकरों पर उतरता रहता था।

बाद के दिनों में जब उनका सामाजिक दायरा बढ़ा तो मुझे उनकी बैठक में सजी हुई भुस भरी जानवरों की खालों की तरह, एक लुभावनी सामग्री का सम्मान मिल गया जिसके पास अपना कुछ नहीं होता... वह जिसके अधिकार क्षेत्र में होती है, उसकी सम्पत्ति कहलाती है। किसी निर्जीव वस्तु की तरह झाड़-पोंछ कर, जरूरत के समय मैं आपके भइया की बगल में बिठा दी जाया करती थी। मुझसे ज्यादा जरूरी तो किचन में काम करने वाली नौकरानियाँ थीं उस घर में!"

"क्या कह रही हैं भाभी आप?" मैं उत्तेजना से चीख ही पड़ी थी... "तो क्या भइया कहीं और जाकर रहते थे? इतने वर्षों तक साथ रहकर भी हमें ये मालूम ही नहीं?"... जाने क्यूँ मुझे ऐसा लग रहा था जैसे किसी बात का बदला लेने के लिये, केवल भइया को बदनाम करने के लिए ही तो वे यह सब नहीं कह रहीं?

"आप लोग बच्चे थे, नहीं पता होगा, वरना पूरे शहर को पता थी ये बात। और यह कोई नई या असंभव बात तो थी नहीं, हर साधन संपन्न व्यक्ति यही करता रहा है। वह कम से कम उसके प्रति ईमानदार तो थे!" मेरी उत्तेजना से बिल्कुल अप्रभावित, वह ठंढ़ी आवाज में बोलीं।

मैं अब सोंच में पड़ गई थी। उस समय के संदर्भ में सचमुच ये कोई बड़ी बात नहीं थी। ज्यादा से ज्यादा औरतों से जुड़ना, एक से ज्यादा पत्नियाँ रखना तब रईसों के लिये शान की बात मानी जाती थी और चाहे न चाहे ब्याहताएँ अक्सर इन परिस्थितियों के साथ सामंजस्य बैठा ही लेती थीं। सामाजिक स्तर पर पत्नी का ओहदा होना ही उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि मानी जा सकती है... पर ब्याहता पत्नी तो सामाजिक व्यवस्था में कवच की तरह होती है न, उसे घर से ही निकाल देने का क्या औचित्य?

"अंग्रेज गए, तो आपके भइया की नौकरी और रोब-दबदबा के साथ हर महीने की मोटी तनख्वाह भी चली गई। सत्ता के प्रति उनकी वह वफादारी, जिसकी रोटी वो खाते थे, अब अपराध कहलाने लगी थी। आर्थिक तौर पर अच्छा-खासा नुकसान हो चुका था। रेहन पर दिये गए रूपये-पैसे भी वापस आने की संभावना भी कम ही दिखाई देती थी। पर परिस्थितियाँ कितनी भी बदल जाएँ, जूते की नोंक पर रहने वाले कीड़े-मकोड़े जैसे लोगों के हाथ अपनी पगड़ी पर तो बर्दाश्त नहीं ही किये जा सकते हैं अतः सीमित हैसियत के साथ उसी शहर में रहना किसी भी हालत में संभव नहीं था। जो कुछ पास में बचा है उसे सँभाल, अगर एक नये अन्जाने परिवेश में, किसी नये परिचय के साथ जा रहे हों, तो मेरे जैसी अनचाही और निपूती पत्नी की अब क्या जरूरत? वह क्यों नहीं जिसे कच्ची उम्र से, स्वयं से बढ़कर चाहा था? जब स्वयं को फिर से स्थापित करने का संघर्ष समक्ष हो तो दो-दो गृहस्थी चलाने की मजबूरी क्यों उठाई जाय? "

एक मोटी बूँद के नीचे दब, उन आँखों की विरक्ति धुँधला उठी। दर्द कुछ इतना तीखा हो उठा था कि मेरा सर्वांग सिहर उठा... यही है वह स्त्री, जिससे जीवन भर मैं ईर्ष्या करती रही हूँ? जिसके जैसा जीवन पाने के लिये मैंने जीवन भर शिव अर्चना की है, भूख सह कर व्रत रखे हैं?

मेरी भीगती पलकों से आँसू के साथ कुछ और भी दरक कर बह रहा था, जिसे भाभी से छुपाने के लिये मैंने आँचल में पोंछकर मुट्ठी में दबा लिया।

 

समाप्त

मौलिक एवं स्वरचित

श्रुत कीर्ति अग्रवाल