Mrug Marichika - 1 books and stories free download online pdf in Hindi

मृग मरीचिका - 1

खंड-1

शतरंज की बिछी हुई बिसात पर सबको मोहरा बना कर खेलती हुई प्रकृति कितनी निष्ठुर हो उठी होगी जब उसने मानव मन के अंदर 'प्यास' के अंकुर रोपे होंगे कि अपनी स्थिति से सदैव असंतुष्ट, थोड़ा सा और प्राप्त कर लेने की आतुरता में, किसी न किसी मृग मरीचिका के पीछे भागते रहने को अभिशप्त हम, जिस चीज को प्राप्त कर चुके होते हैं, उसका आस्वादन करने तक का वक्त नहीं होता है हमारे पास!

बचपन की न जाने कौन सी नासमझ, अंजान राह पर मेरी भी इस जिजीविषा से मुलाकात हो गई थी। एक थे हमारे देवेन्द्र भइया, जिंदगी भर जिनकी तरफ पूरी आँख उठाकर देखने की हिम्मत तक नहीं जुटा सकी थी मैं! सचमुच उनके व्यक्तित्व में कुछ ऐसा जरूर था कि लोग अक्सर उनके सामने पड़ने से कतराते थे। वो खूबसूरत और मँहगे कपड़ों में लिपटा उनका ऊँचा और गठीला शरीर, चौड़ी मूछें, घनी भँवों के बीच पड़े बल और आत्मविश्वास से दीप्त बेहद कठोर दृष्टि! हम लोग तो खैर उस समय बिल्कुल बच्चे थे, अच्छे-अच्छे लोग उनके रोब-दाब के सामने सिर उठाने की हिम्मत नहीं कर पाते थे। गुस्सा हमेशा उनकी नाक पर कुछ ऐसे बैठा रहता कि आस-पास के सभी लोग मानों उनको शांत रखने के यत्न में ही व्यस्त रह जाते। अक्सर उनके दरवाजे पर जरूरतों और जिम्मेदारियों से दबे-कुचले लोगों की भीड़ लगी होती जो पता नहीं कितनी मजबूरियों की गठरी तले अपने घर की कीमती चीजें रेहन रखवाने आया करते और उन्हें ऊँची ब्याज दर पर रूपये-पैसे मुहैया कराते भईया उन्हें अपनी प्रजा पुकारते थे।

उनसे बेहिसाब डरने के बावजूद हमारे मन में उनके कार्य-कलापों और उनकी उपलब्धियों के लिये एक अदम्य आकर्षण भी था। मैं अपने सभी भाई-बहनों में सबसे बड़ी थी और देवेन्द्र भइया के घर में ताक-झाँक करनी हो या मौका मिलने पर चुपके से तलाशी ही लेनी हो, सबसे आगे मैं ही होती थी। वैसे तो हम लोगों का घर एक ही था पर बीचों-बीच से दो हिस्सों में बाँट दिया गया था। हमारी तरफ वाले हिस्से में थी पर्याप्त अव्यवस्था और हम सात बहन भाईयों की अनवरत किच-पिच! गृहस्थी का बोझ ढ़ोते-ढ़ोते पिताजी के कंधे झुक रहे थे, कनपटियों से सफेदी झाँकने लगी थी, और साल दर साल प्रसव के बोझ से टूटा, थका और बीमार शरीर लिये चुपचाप गृहस्थी के काम करते-करते मेरी माँ का सौन्दर्य भी अपनी लुनाई खो बैठा था।

इसके विपरीत देवेन्द्र भइया की तरफ का हिस्सा किसी राजमहल की तरह सजा रहता। उनके बड़े से बेडरूम में चमचमाता हुआ काला आबनूसी पलंग था जिसपर हाथी दाँत की कारीगरी देखते ही बनती थी... उसके मोटे-मोटे गद्दे पर अनुसुइया भाभी अक्सर नख से शिख तक सजी-धजी बैठी रहती थीं। गुसलखाने की छत से फौहारे की तरह पानी गिरता जिसके नीचे खड़े होकर नहाने का रिवाज था। बाल्टी भर पानी को लोटे में भर-भर अपने ऊपर डालते-उलीचते हम उस फौहारे का आनंद लेने के लिये बारिशों का इन्तजार करते रह जाते। रसोईघर, जो उनकी तरफ जाते ही किचन में तब्दील हो जाता था, से तो जैसे भाभी को कोई मतलब ही नहीं था। उन्हें तो पता भी नहीं होगा कि महीने में कितने किलो अनाज की खपत है और कौन सी चीज किस भाव में आती है। उस जमाने में पानी ठंढ़ा करने की आयातित मशीन और बिजली के पंखे से सजे-धजे किचन को रमिया और चम्पा नाम की दो सिरचढ़ी नौकरानियाँ ही सँभालती थीं। गोश्त या अँग्रेजी खाना बनाने के लिए आता था वो भिंची-भिंची आँखों वाला मुसलमान बावर्ची...!

ढ़ेर सारी सिंहासननुमा कुर्सियों से घिरा बड़ा सा गोल डाइनिंग टेबल, जिसके बीच का हिस्सा हाथ लगाते ही घूम जाता था, वर्दी में सजे-धजे वेटरों के जिम्मे था। रोज ही अलग-अलग डिजाइन की विदेशी क्राॅकरी अँग्रेजी ढंग से सजाई जाती, खुशबूदार फूलों का बड़ा सा गुलदस्ता बीच में सजाया जाता, इत्र का छिड़काव होता, रिकार्ड प्लेयर पर अंग्रेजी संगीत का रिकॉर्ड लगता, घंटों मेहनत कर के सलाद की प्लेट सजाई जाती और बड़ी-बड़ी गड्ढेदार प्लेटों में सूप परोसा जाता तब देवेन्द्र भइया और भाभी का लंच और डिनर होता। हमेशा ही बहुत सारे मेहमान साथ होते जिसमें ज्यादा संख्या में अँग्रेज साहब और मेम होती थीं जिनकी हर जरूरत के लिये खिदमतगार साथ-साथ चलते। हमें समझ ही नहीं आता था कि इतने-इतने लोगों से देवेन्द्र भइया को आखिर काम क्या होता है। बहुत ध्यान देने पर उन लोगों की बातें अगर हमें सुनाई पड़ भी जाती तो भी वह अंग्रेजी गिटर-पिटर हममें से किसी को समझ नहीं आती पर उन नशे में धुत, रिकार्ड प्लेयर की धुन पर नाचते-गाते लोगों को देखने का कौतूहल ही अलग था। इस समय देवेन्द्र भइया का स्वरूप बदल जाता था। चुटकुले सुनाते, ठहाके लगाते... भाभी का हाथ थाम उनके कदम से कदम मिला कर नाचते-गाते देवेन्द्र भइया कभी-कभी पार्टनर भी बदल लेते थे। भूरे बाल और नीली आँखों वाली कोई मेम उनके काफी करीब आ जाती और लजाती शर्माती गुलाबी-गुलाबी भाभी किसी साहब का हाथ थाम कर थिरकने लगतीं।

उन लोगों की बैठक उनके घर की सबसे खूबसूरत जगह थी। दीवारों पर भुस भरे हुए चीते और बारहसिंगे सजाए गए थे और बीच में भइया का एक आदम कद तैल चित्र था, बंदूक लिये हुए! पूरी जमीन रंगीन ईरानी कालीन से ढँकी थी... मोटे मोटे गद्दों वाला सोफ़ा सेट, छत से लटकता मधुर आवाज वाला झाड़फनूस जो रोशनी पड़ते ही पूरे कमरे को रंगों से नहला देता था .... आदम कद शीशे, नक्काशीदार टेबुलों पर सजी चाँदी की सुराहियाँ और पूरे घर को चाँदी की तरह चमकाते रहने के लिए हर समय मुस्तैद, वर्दी में चुस्त दुरुस्त नौकर-चाकर! घर के नीचे के हिस्से में स्थित अस्तबल में स्थित स्वस्थ और खूबसूरत घोड़ों की मालिश करते साईंस, चाँदी मढ़ी हुई घोड़ागाड़ी जिसके चाबुक की मूढ़ सोने की थी। इस सारी चमक-दमक में लगातार बढ़ोतरी ही होती जाती थी कि न देखी न सुनी, ऐसी-ऐसी चमत्कारी चीज़ें... हम आँखें फैला कर देखते रहते थे। शहर में सबसे पहले भइया के यहाँ ही अँग्रेजी फिटन आई थी। काली, चमचमाती, बिना घोड़े के चलने वाली एक गाड़ी, जिसको एक गोल पहिया जैसी चीज घुमा-घुमा कर चलाया जाता था। पीछे की सीट पर भइया जब अकड़ कर बैठते तो राह चलते लोगों के सिर अपने आप ही झुक जाते। चोरी छिपे भइया का वैभव निहारते हुए, आश्चर्य से आँखे फैलाते हम, बंद आँखों में उन्हीं चीज़ों का सपना पालते, बड़े होते जा रहे थे।

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