आइडेंटिटी क्राईसिस - 2 Manish Gode द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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आइडेंटिटी क्राईसिस - 2

एपिसोड २.

एक दिन अचानक मेरे स्टुडियो में एक फोन आया कि कोई मुझसे मिलने बाहर मेरा इंतजार कर रहा था। मैंने बाहर आकर देखा तो वह मुझे देखते हुए हाथ हिला कर मुस्कुरा रही थी।

“तुम, यहाँ कैसे?” मैं अचंबित होते हुए बोला। मैंने उसे पहली बार देखा था। फोटो के मुकाबले वह थोडी मोटी लग रही थी। हमने वह भी नजरअंदाज कर दिया था। एक बार मुँबई की हवा लग गयी तो अच्छे-अच्छों का वजन कम हो जाता है।

“मुझे आज ही अपना नया ऑफिस ज्वाईन करना है। मुझे ‘मुँबई-मिरर’ पत्रिका में जॉब मिल गया है।

“मुझे पत्र क्यों नहीं लिखा, मैं लेने आ जाता।“ मैंने एक अच्छे दोस्त होने का दावा किया।

“अरे, परसों ही तार मिला था और तुरंत ज्वाईन करने को कहा गया था, सो मैं ट्रेन पकड कर सीधे यहाँ चले आयी।“ उसने अपने चेहरे पर बडी सी मुस्कान बिखेरते हुए कहा। उसकी आवाज में एक खनक थी। वह अब एक स्वतंत्र नारी बन कर माया नगरी में पदार्पण कर चुकी थी। और मैं यह भी जानता था कि इस महानगर में वह अपने लिये एक स्थायी जगह जरूर बनायेगी।

“चलो, मेरे रूम पर फ्रेश होकर, फिर इंटरव्हियु के लिये चली जाना।“ मैंने एक दोस्त का फर्ज निभाने का प्रयास किया।

“इट्स ओके, मैं रेल्वे स्टेशन से फ्रेश होकर ही आ रही हुँ। सोचा, पहले तुमसे मिल लुँ, फिर चली जाऊँगी।“ उसने कहा।

“ठिक है, तुम रूको मैं छुट्टी लेकर आता हुँ।“ मैंने कहा और दो घंटे की छुट्टी लेकर उसके साथ उसके नये ऑफिस को चल दिया।

हम विले-पार्ले की ओर टैक्सी से रवाना हो गये। पच्चीस किलोमिटर के इस प्रवास के दौरान मैं उसे विभिन्न जगहों से अवगत करा रहा था। हम हाजी-अली होते हुए ‘बांद्रा-वर्ली सी लिंक’ से आगे बढ रहे थे। वह समुद्र के बीच में से गुजरते हुए बहुत रोमांचित हो रही थी। मैं उसके मुखमंडल पर आते जाते भावों को देख रहा था। मैं जानता था, वह एक दिन इस माया नगरी की रानी बन कर राज करेगी। तब मुझे उसे इस प्रकार संभालना नहीं पडेगा।

उसका गंतव्य आ गया था। हॉटेल आईबिस में उसका इंटरव्हियु था। मैं रिसेप्शन पर बैठा-बैठा उसका इंतजार कर रहा था। हॉटेल का वेटिंग लाउँज बडे करीने से सजा हुआ था। मैंने समय काटने के लिये एक कॉफी ऑर्डर की और ए.सी. की ताजी हवा का आनंद लेने लगा। बाहर ओव्हर-ब्रीज पर ट्राफिक पुरे गती से बह रहा था। करीब ढेड घंटे बाद वह फुल का कुप्पा बनी मेरी ओर दौडते हुए पहुँची और बोली,

“मुझे नौकरी मिल गयी!” उसकी आँखों में एक चमक थी। वह मुँबई जैसे महानगर में पहले दिन ही एक अच्छी नौकरी की हकदार बन गयी थी। जिस पर मायानगरी मेहरबान हो उसके वारे न्यारे हो जाते है, वरना अच्छे-अच्छे अपना वजन घटाकर वापसी का टिकट काट लेते है।

“मुबारक हो!” मैंने अपना हाथ उसकी तरफ बढाया। उसने भी गर्मजोशी से हाथ मिलाया। मैंने उसका हाथ पहली बार अपने हाथों में लिया था। उसने कुछ क्षण बाद शरमा कर हाथ खिंच लिया।

वह अपने नये काम में पुरी तरह मसरूफ हो गयी। नये काम को सीखना और अपनी जगह बनाना, कोई मामुली बात ना थी। अपनी पत्रिका के लिये नित नये विषयों को ढुँढ निकालना, यह हमेशा से उसके सामने एक बडी चुनौती बन कर खडी रहती थी। शुरू-शुरू में मैं उसे अपने साथ ले जाता था। फिर कुछ समय बाद वह इस नयी जगह से वाबस्ता हो गयी। अब उसके फोन सिर्फ शाम को ही आते थे, जब वह दिन भर की थकी-माँदी ऑफिस पहुँचती थी।

“अगले अंक के लिये आर्टिकल लिखना है यार!” वह निढाल सी होते हुए फोन पर दिन भर की भाग-दौड के बारे में संक्षिप्त में बताती थी। मैं चाहता था कि हम साथ-साथ रहे, ताकी हम एक दुसरे का ख्याल रख सके। किंतु वह अपनी सो-कॉल्ड ‘पहचान’ बनाने के चक्कर में इस कदर खो गयी थी कि उसे ना खाने का होश था ना रहने पहनने का। मैं देर रात उसके लिये खाने का पैकेट लिये उसके ऑफिस के नीचे उसकी प्रतिक्षा किया करता था। वह आठ-नऊ बजे थक कर चुर मुझसे लिपट कर कहती,

“आज बहुत थक गयी यार!”

“इतना काम करना सेहत के लिये ठिक नही!” मैं उसे संभालते हुए उसके फ्लैट तक पहुँचा देता था।

“अब खाना खा कर सो जाओ, कल फिर वही भागा-दौडी मचेगी।“ मैं उसे बाय कहता हुआ बाहर निकल जाता।

“तुम मेरे लिये इतना सब, मत किया करो। मुझे बहुत ऑकवर्ड फील होता है।“ वह मुझे गुडनाईट किस करते हुए कहती, “मैं अपना काम खुद कर सकती हुँ।“ उसकी आँखे नींद की खुमारी के कारण गुलाबी होने लगी थी। “मैं अपनी पहचान खुद बनाना चाहती हुँ। मुझमें ताकत है अभी। जब बुढी हो जाऊँगी, तब तुम्हारे पास ही बैठा करूँगी, बस।“ वह मेरी नाक को अपनी उँगलीयों से पकड कर खिंचते हुए कहती।

“अपनी हालत देखो, पाँच-दस किलो वजन कम हो चुका है तुम्हारा।“ मैं उसकी कमर को अपने हाथों से भिंचते हुए कहता, “मुझसे शादी क्यों नहीं कर लेती।“

उसने मुझे जोर से धक्का देते हुए अपने से अलग किया और कहा, “कितनी बार कहा है कि मैं किसी से भी शादी नहीं करूँगी।“ वह अपनी आँखे तरेरते हुए कहती।

“तो क्या जिंदगी भर यों ही कुँवारी रहोगी?” मैं अपनी बात रखते हुए कहता।

“कुँवारापन का शादी करने या ना करने से क्या संबंध?” वह मेरी कॉलर पकड कर अपनी ओर खिंचते हुए शरारत भरे अंदाज में कहती।

“लेकिन यदी हमें साथ रहना है तो एक सामाजिक बंधंन के दायरे में तो रहना ही पडेगा।“ मैं अपनी कॉलर छुडाते हुए बोला। मैं सोचने लगा, क्या यह वही लडकी है, जो राजस्थानी रीती-रीवाजों में बंधी एक आज्ञाकारी छोरी हुआ करती थी?

“किस सोच में पड गये बाबु? यह बँबई है मेरी जान, यहाँ रोज-रोज हर मोड-मोड पर होता है कोई ना कोई, हादसा!” वह किसी फिल्मी गीत की लाईने गुनगुना रही थी। उस पर मुँबई पुरी तरह से हावी हो गयी थी। वह सबसे आगे निकलने की होड में बहती जा रही थी। प्रुफ रीडर से सह-संपादक और अब उसकी नजर संपादक की कुर्सी पर थी। मैं अपनी दोस्त को ऐसी बदहवासी में बहता हुआ नहीं देख सकता था।

मैं अपना खुद का स्टुडियो शुरू कर चुका था। उसने अपने कुछ पैसे मेरे इस नये प्रतिष्ठान में निवेश किये थे। वह कहा करती थी, “बैंक में डालने से तो अच्छा है मैं अपने पैसे तुम्हारी प्रॉपर्टी में इंवेस्ट कर दुँ। क्या कहते हो?”

मैं तो खुशी से गदगद हुआ जा रहा था। मेरे सगे रिश्तेदारों ने भी कभी मेरी इतनी मदद नहीं की थी। मैंने उसे जोर से भिंचते हुये कहा, “मेरे अपनों ने कभी मेरे लिये इतना नही सोचा होगा और तुम सिर्फ दोस्त होते हुए अपना पैसा बेहिचक मुझे दे रही हो?”

उसने अपने हाथ से मेरी पिठ थपथपाते हुए मुझे प्रोत्साहित करते हुए कहा, “जो कुछ मेरा है वह तेरा है, और जो तेरा है वह मेरा भी तो होगा!”

“तो हम शादी कर लें, मैं अब तुम्हारे बिना नहीं रह सकता।“ मैं बेताब होते हुए कहता।

उसने फिर से धक्का देते हुए चेतावनी दी कि वह कभी किसी से भी शादी नहीं करेगी। मैं फिर से मुँह लटकाटे हुए धम्म से नीचे बैठ गया।

“तुम्हें शादी के अलावा और कुछ नहीं सुझता क्या?” वह मुझे डाँटते हुए बोलती।

“मेरे लिये तुम्हारे साथ एक होने के लिये शादी करना बहुत जरूरी है।“ मैं बहकते हुए कहा करता।

“ठिक है, क्या हम ‘लिव्ह-इन-रिलेशनशिप’ में रह सकते है। सिर्फ ग्यारह महिने। यदी हम अच्छे पती-पत्नी नहीं बन सके तो हम फिर से दोस्त की तरह अलग हो सकते है।“ उसने मेरी ओर देखते हुए कहा। उसे अब मुझ पर दया आ रही थी।

मैं इस अस्थायी रिश्ते को ढोने के लिये तैयार न था। मेरा लालन-पालन लखनवी तौर-तरीके से हुआ था। परिवार में हर उम्र के सदस्य होते थे, जो एक से बढ कर एक अनुभव रखते थे। अम्मा के हाथ की उडद की दाल और नर्म रोटियाँ, भाभी के हाथ के दही-भल्ले और दिदी के हाथों से बनी बिर्यानी तो हम ऊँगलियाँ चाटते हुये खाते थे। हमारे लिये शादी, एक साथ सोने के लिये किया गया अनुबंध ना होकर, एक सामाजिक बंधन था। बडे बुजुर्गों की छत्र छाया में जीवन का आनंद ही कुछ और होता है। कितनी ही परेशानीयाँ, चुटकियों में सुलझ जाती थी। सभी अपना दुःख दर्द मिल बाँट कर कम कर लिया करते थे, तो खुशीयाँ सभी में बाँट कर बडा लिया करते थे। और यही संस्कार, यही बातें हमें अपनी आने वाली पिढी तक पहुँचानी थी। लेकिन वह तो जैसे अपनी ही बात पर अडी हुई थी। पता नहीं उसे शादी से इतनी नफरत क्यों थी। मेरी तो यह समझ के बाहर था।

सुबह-सुबह उसका फोन आया, मैंने रिसीवर उठाते हुए कहा, “हलो, कौन?”

“तुम्हारी जान..! जो तुम कल रात मेरे पास छोड आये थे।“ वह चहकते हुए बोली।

“कहो..।“ मैंने आँखे मलते हुए कहा।

“आज रविवार है, क्या तुम मेरे साथ चलोगे?” उसने प्यार से कहा।

“कहाँ जाना है?” मैं बिस्तर से बाहर निकलता हुआ अंगडायीयाँ लेने लगा।

“नाला-सोपारा..!” उसने कहा, “मेरी बॉस ने एक नये विषय की खोजबीन करने के लिये वहाँ जाने को कहा है। साथ में एक कैमेरामन चाहिये। तो तुम चलोगे? मैं तुम्हे अपने ऑफिस से टि.ए.-डि.ए. भी दिलवा दुँगी।“

मुझे इसमें कोई आपत्ती नजर नहीं आयी, सो मैंने हाँ कर दी और उसे ग्यारह बजे तक पहुँचने का वादा कर, तौलिया लपेटते हुए वॉशरूम की ओर चल दिया।

मैंने, अपनी कैमेरा बैग कंधे पर अटकायी और मुँबई सेंट्रल से आठ बजे की लोकल पकडी, जो कल्याण होते हुए मुझे नाला-सोपारा वेस्ट तक ग्यारह बजे के करीब पहुँचाने वाली थी। स्टेशन के बाहर भागते दौडते हुए पहुँचा था, सो साँस फुलने लगी थी। मैंने चलते-चलते दो वडा-पाव पैक करवा लिये थे। एक अपने लिये, दुसरा उसके लिये। मेरी जान जो थी वह। और अपनी जान की परवाह तो सभी को होती ही है, नहीं?

वह स्टेशन के बाहर मेरा इंतजार कर रही थी। उसने मुस्कुरा कर मेरा हाथ पकडा और अपनी बैग से सैण्डविच का एक पैकेट निकाल कर मुझे दिया। मैंने भी उसे अपने साथ लाया वडा-पाव का पैकेट थमा दिया। हमने एक दुसरे की ओर प्यार भरी निगाहों से देखा। यदी हम पब्लिक प्लेस में खडे ना होते तो निश्चित ही एक दुसरे को बाँहों में भर लेते और मन ही मन कहते, “तुम्हें मेरी कितनी परवाह है ना, बस जिंदगी भर ऐसे ही प्यार करते रहना?”

“चलें..?” उसने मेरी विचार शृंखला तोडते हुए कहा।

“तो आज का विषय क्या है?” हम खाते-खाते आगे बढ रहे थे।

“हमें बेसहारा बच्चों पर एक आर्टिकल लिखना है और तुम्हें ऐसे बच्चों की तस्वीरें खिंचनी है। मुझे कुछ ‘ब्लैक एण्ड व्हाईट’ क्लोज-अप्स भी चाहिये।“ वह मुझे निर्देशित करती हुई अपने अवतार में समाहित होने लगी थी। मैं उसका असिसटंट बनता हुआ उसके पिछे-पिछे चल रहा था। आज उसने आयवरी कलर की गार्डन वरेली साडी पहन रखी थी। उस पर बडे-बडे फुल बने थे जो उसके व्यक्तित्व को और भी निखार रहे थे। उस पर पिंक कलर का लंबी बाहों वाला ब्लाऊज, जो साडी पर बने फुलों से मैच कर रहा था। वह किसी फिल्म एक्ट्रेस से कम नहीं लग रही थी। जब मुँबई आयी थी तो कितनी मोटी थी। साल भर मुँबई की खाक छानते हुए वह एकदम ‘स्लिम एण्ड ट्रिम’ नजर आ रही थी। मैं सोचने लगा, काश वह मेरी बीवी होती तो, कितना अच्छा होता। मैं उसके हर बढते कदमों को पिछे से निहारता हुआ बहक रहा था। इससे पहले की मेरी साँसे गर्म होने लगे और मैं कुछ कर बैठता, मैंने उसके साथ-साथ चलना ही मुनासिब समझा।

हम एक गंदी बस्ती के पास से गुजर रहे थे। एक सुंदर युवती को अपनी बस्ती में देख कर बच्चे हमारे आस-पास मंडराने लगे।

“आप बहुत अच्छी दिख रही हो।“ एक चार-पाँच साल की बच्ची ने उसके साडी का पल्लु पकडते हुए कहा। उसने अपनी बैग से एक और सैण्डविच का पैकेट निकाला और उस बच्ची को देते हुए पुछा, “आप कहाँ रहती हो?”

उसने दूर एक दो मंजीला इमारत की ओर इशारा कर दिया। हम दोनों रास्ते के किनारे बने चाय की टपरी पर पहुँचे और वहाँ चाय वाली काकू से पुछा,” वह कौन सी इमारत है?

“काही विचारू नका बाई, तिथं समदे कशे बशे राहतात बिचारे!” उसने मराठी में बताया।

“क्या?” हमने पुछा।

“अजी, सरकारी अनाथालय हय वो..! वाँ रयते हय ये बच्चा लोक..!” उसने टुटी फुटी हिंदी में हाथ हिलाते हुए बताना चाहा। हमने चाय पी और उस इमारत की ओर चल दिये। तब तक मैंने आठ दस फोटो खिंच लिये थे।

“यहाँ कौन-कौन रहता है?” उसने उस बच्ची से पुछा।

“हम सब काका-काकू के साथ रहते है।“ उसने बताया।

तभी वहाँ एक अधेड उम्र की एक औरत आयी। उसने बताया कि वह यहाँ काम करती है और यहीं इन बच्चों के साथ रहती है। हमने उन सभी से काफी लँबे समय तक बातचीत की और वहाँ की दयनीय स्थिती को अपने कलम और कैमेरा में कैद कर लिया। हमें व्यथित होता देख कर उन्होंने कहा कि यदी समाज ने इन बच्चों का किसी भी कारण से परित्याग किया हो तो इसी समाज से कोई और आकर इन्हें अपना लें तो कोई तकलिफ की बात ही नहीं होगी!

बात हमारे दिल पर लग गयी। हम अपना काम पुरा करके भारी मन से स्टेशन की ओर चल पडे। उसने विरार की और मैंने अपनी लोकल पकडते हुये विदा ली। वह गुमसुम सी लग रही थी। उसने ज्यादा बातचीत नहीं की। सिर्फ फोटो जल्द पहुँचाने की बात कर वह चली गयी। मैं उसकी ओर तब तक देखता रहा, जब तक वह मेरी नजरों से ओझल नहीं हो गयी।