एपिसोड ३.
‘मुँबई-मिरर’ का नया अंक बुक स्टॉल पर आ चुका था। उसने पुरे मुँबई में धुम मचा दी थी। हर तरफ उसकी वाह-वाही हो रही थी। हर तरफ उसके आर्टिकल ने लोगों को सोचने पर मजबुर कर दिया था। ऑफिस में उसे काफी सराहना मिली और प्रमोशन के रूप में संपादक का अतिरिक्त पद भी प्राप्त हो गया। उसे मदद के लिये जुनियर्स मिल गये, जो अब ‘फिल्ड वर्क’ संभालने लगे। उसका काफी वक्त अब ऑफिस के मैंनेजमेंट में गुजर रहा था। एक दो महीने में बात आयी गयी हो गई। वे अनाथ बच्चे अब भी रास्तों पर आवारागर्दी करते हुए घुम रहे थे। वह इस बात से काफी चिंतित थी कि लोग अपनी जवाबदारी कब समझेंगे।
“लोगों को ना हमेशा डेमो देना पडता है।“ उसने एक रात फोन कर मुझसे कहा, “झुँड के साथ सब चलने को तैयार रहते है, जब अकेले निर्णय लेने की बारी आती है तो सभी दुम दबा कर भाग जाते है सा..” उसने एक गाली देते हुए जोर से कहा। मैं चुपचाप उसकी बात सुन रहा था। उसे एक श्रोता की जरूरत थी, जो उसके अंदर के गुबार को बाहर निकालने में मददगार बन सके। दस-पंद्रहा दिन बीत गये। मैं मॉरिशस के लोकेशन पर शुट कर रहा था। मैंने उसे साथ चलने को कहा, ताकी उसका मन बहल सके। लेकिन उसने कुछ काम होने की बात बता कर साफ मना कर दिया। मैंने उसके लिये कुछ गिफ्ट्स खरीदे और वापसी के लिये पैक-अप कर रहा था।
वापस आने के बाद उसने मुझे फोन कर घर बुलाया था। मैं शाम को उसके घर पहुँचा तो वही लडकी उसके पास बैठा देख कर थोडा चकरा गया। वह एक नया फ्रॉक पहने किसी खिलौने से खेल रही थी। मुझे देख कर वह उसके पास चली गयी।
“यह यहाँ कैसे?” मैंने पुछा।
“सोचो तो जरा?” उसने मेरी ओर देखते हुए कहा, “मैंने इसे एडॉप्ट किया है और अब ये मेरी बेटी बन चुकी है! क्यों है ना?” उसने उसकी ओर देखते हुए कहा। उस बच्ची ने सिर हिला कर जवाब दिया। मैं उसके इस ढाढसी कदम से काफी प्रभावित हुआ था।
“मैंने यह फ्लैट खरीदने का विचार कर लिया है, ताकी यह अपने आप को बेसहारा महसुस ना करें।“ मैं उसकी ओर बडे फक्र से देख रहा था। वह अब ‘सिंगल मदर’ बन चुकी थी। उसका सारा संसार उस बच्ची के इर्द गिर्द सिमट कर रह गया। नित नये कपडे, खिलौने और उसे स्कुल में दाखिला भी दिलवा दिया। अब मुझे मिलने उसके घर पर जाना पडता था। उसके फोन भी कम आने लगे थे और फोन भी करती तो किसी काम से। अब वह पहले जैसी शोख और चंचल भी नही दिखती थी। ऐसा लगता था मानों वह सचमुच उसकी माँ हो।
एक बार आधी रात को उसका फोन आया, “सुनो, क्या तुम अभी आ सकते हो?”
“मेरे पास कोई गाडी नहीं है, लोकल भी बंद हो चुकी होगी, मैं कैसे आ सकता हुँ? बाई द वे, बात क्या है?” मैंने पुछा
“बच्ची को साँस लेने में तकलीफ हो रही है। शरीर और आँखे भी पीली नजर आ रही है।“ वह चिंतीत नजर आ रही थी।
“तुम किसी अस्पताल से एम्बुलंस बुलवा सकती हो। इस प्रकार उसे फस्ट एड भी मिल जायेगा और डॉक्टर का उपचार भी।“ मैंने कहा, “सुबह मैं पहली लोकल पकड कर आता हुँ।“
उसे मेरी बात ठिक लगी। उसने डिरेक्टरी खोल कर विरार में स्थित हॉस्पिटल ढुँढ कर फोन कर दिया। कुछ ही देर में संजीवनी हॉस्पिटल से एम्बुलंस आ पहुँची और बच्ची को तुरंत ऑक्सिजन दी गयी। वह रात भर हॉस्पिटल के कॉरिडोर में बैठी रही। मैं सुबह चार बजे की लोकल पकड कर करीब आठ बजे उसके फ्लैट पर पहुँच तो पता चला वह संजीवनी हॉस्पिटल में बच्ची को ले गयी थी। मैं ऑटो पकड कर वहाँ पहुँचा, तो उसे अस्ताव्यस्त हालत में बैठा पाया। जैसे ही मैं उसके पास पहुँचा वह मेरा हाथ पकड कर रो पडी। मैंने उसे किसी तरह शांत किया और उस बच्ची का हाल जानने की कोशिश की। पता चला उसके शरीर में ऑक्सिजन लेवल बहुत कम हो गयी थी, इसलिये उसे आई.सी.यु. में रखा गया है। मैंने भीतर झाँक कर देखा, वह बेड पर निस्तेज पडी हुई थी। उसकी हार्ट बिट्स बहुत कम थी।
“डॉक्टर ने क्या कहा?” मैंने उससे पुछा।
“अभी डॉ. शैला मुखर्जी के आने के बाद ही कुछ पता चलेगा। फिर रिपोर्ट्स भी आने वाली है अभी थोडी देर में है। कल रात को ही ब्लड सैंपल ले गये थे।“ उसने चिंतीत होते हुए कहा।
“तुम घर जाकर फ्रेश हो जाओ, मैं बैठता हुँ यहाँ।“ मैंने उसे ढाढस बँधाते हुए कहा। वह घर जाने को राजी हो गयी। हॉस्पिटल में रात भर रूकी गहमा-गहमी फिर से शुरू हो गयी। मैं सिर्फ आते जाते लोगों और नर्स को देख रहा था। हर कोई इधर से उधर भागा जा रहा था। मेरा दिल यह सब देख कर बैठा जा रहा था। मैं यही प्रार्थना कर रहा था कि सब कुछ जल्द से जल्द ठिक हो जाये।
सारे रिपोर्ट्स के आ जाने के बाद पता चला कि उस बच्ची के खुन में लाल रक्त कोशिकाएँ ना के बराबर थी। उसे ‘थेलेसिमिया’ हो गया था। यह एक अनुवांशिक बिमारी थी और यह दस लाख बच्चों में से एक को होता है, ऐसा डॉक्टर ने बताया। इसका इलाज नहीं था, उसे हमेशा नया खुन चढाते रहना पडेगा। जो काफी महँगा उपचार साबित होने वाला था।
“मैं इसका इलाज करवाऊँगी।“ उसने डॉक्टर से कहा। उसे तुरंत नया खुन चढाया गया। एनिमिया हो जाने के कारण वह पीली पड गयी थी। उसे पौष्टिक आहार की भी जरूरत थी। किंतु यह मात्र अस्थायी समाधान था। उसे हर बार नये खुन की जरूरत पडने वाली थी। उसने अपनी पत्रिका के नये अंक में थेलेसिमिया के बारे में विस्तार से लिखा और सभी को नियमित रक्तदान करने का अग्रह किया ताकी उस बच्ची जैसे अनेक मरीजों को नया रक्त मिलता रहे और उनकी जिंदगी कुछ दिनों के लिये और बढ जाये।
हमसे जितना हो सका हमने रक्त दान और बल्ड-बैंक से रक्त लेते रहे किंतु दिन-ब-दिन कॉल्पिकेशंस बढते ही जा रहे थे। वह अपना बहुत सा पैसा उस बच्ची पर लगा चुकी थी। फ्लैट खरीदने के लिये दिया गया एडवांस भी उसने वापस ले लिया था। मुझसे उसकी बेबसी देखी नहीं जा रही थी। शायद उसका मुँबई में आना और उस बच्ची को बचाने के बीच कोई पुर्वजन्म का संबंध रहा होगा, जो वह इस जनम में उसे वापस लौटा रही थी।
पाँच-छह महिने गुजर गये। वह अब थोडी चिड-चिडी रहने लगी। उसके हाथ से समय की रेत मानों फिसलती जा रही थी। वह भी नहीं जानती थी कि वह बच्ची और कितने दिन बची रहेगी। उसका शरीर कभी-कभी नया रक्त अपने में लेने से इंकार कर रहा था। ऐसे में वह फिर से कमजोर रहने लगी। रक्त में लोह की मात्रा कम होती जा रही थी। सभी बेबस उसे मरता देख रहे थे। उसे हफ्ते में तीन-चार बार हॉस्पिटल में लाया जाने लगा। उसे सलाईन से शरीर को लगने वाले जरूरी तत्व दिये जाने लगे। वह अक्सर आई.सी.यु. में भर्ती रहती।
एक दिन मैंने हॉस्पिटल में फोन लगा कर रिसेप्शन पर उसे बुला कर पुछा, “कैसी हो तुम, कई दिनों से तुमने फोन भी नहीं किया?”
“सॉरी, इस वक्त मैं कुछ भी कहने के मुड में नहीं हुँ।“ उसने कहा।
“क्यों क्या हुआ? सब ठिक तो है ना?” मैंने साशंकित होते हुए पुछा।
“मैंने कहा ना, अभी कुछ भी नहीं, बस!” उसने भडकते हुए कहा।
“ठिक है।“ मैंने अपने हथियार डालते हुए फोन रख दिया।
मैंने आज उसे मिलने का फैसला कर लिया था। मैं फटाफट तैयार होकर हॉस्पिटल पहुँचा, तो वह विक्षिप्त सी बैंच पर बैठी थी। नर्स ने बताया ये कल से यहाँ बैठी थी, ना कुछ खाया ना घर गयी थी। उस बच्ची की पल्स कम होते जा रही थी। डॉक्टर ने अब अपनी असमर्थता जाहीर कर दी। वह बच्ची अपनी आखरी साँसे गिन रही थी। मैंने उसके पास जाकर उसके कँधे पर हाथ रखा तो अचानक दहाडे मर कर रोने लगी। वह हार रही थी। टुट चुकी थी वह। उसे मेरा हाथ एक संबल की तरह लग रहा था। वह मेरी ओर देख रही थी मानों विनंती कर रही हो कि उस बच्ची को कैसे भी कर के बचा लो, प्लिज..! मैंने उसे इतना निरह कभी नहीं देखा था। मुझे उस पर बढी दया आ रही थी। किंन्तु मेरे हाथ में कुछ भी ना था। कुछ बाते प्रकृती अपने हाथों में थामे रहती है। मनुष्य जन्म तो दे सकता है किंतु मृत्यु को टाल नहीं सकता। मैं किंकर्तव्यविमुढ सा खडा यह सब देख रहा था।
रात को ही उस बच्ची ने आखरी साँस ली और वह चल बसी। वह फफक-फफक कर रोने लगी। वह मेरी कमीज को अपने हाथों से पकड कर रो रही थी। “मुझे मेरी बच्ची चाहिये, मुझे मेरी बच्ची चाहिये..!” वह पागलों की तरह रो रही थी। मैं किसी तरह उसे अपने घर ले आया। वह खामोश रहने लगी थी। जैसे उसमें जान ही ना हो। घंटो दिवारों को देखते हुए कहीं खोयी रहती। कुछ दिन यों ही बीत गये। मुझसे उसका दुःख देखा नहीं जा रहा था। मैंने उससे पुछा, “क्या तुम वापस बिकानेर जाना चाहती हो? शायद मुँबई की यादें वहाँ कुछ कम हो जाये।“
छह महिने बाद बिकानेर से उसका फोन आया, “क्या तुम मुझसे शादी करोगे?” उसने पहला वाक्य बोला।
मैं अगले दो दिनों में उसके घर, बिकानेर में था।
“क्यों नहीं, अपनी पत्र-मित्र से, जो मेरी दोस्त बन कर इतने साल मेरे साथ रही, उसके साथ देर से ही सही, बची हुई जिंदगी काटने के लिये मैं बिल्कुल तैयार हुँ।“ मैंने उसका हाथ अपने हाथों में लेकर कहा। उसने अपने होंट मेरे होंटो पर रख दिये। देर तक चुमने के बाद उसने अपनी उखडी साँसे संभालते हुए मुझसे कहा, “मेरी आइडेंटिटी तुम्हारे बिना अधुरी है! जिस दिन हम एक हो जायेंगे, उस दिन मेरी पहचान पुर्ण हो जाएगी। उस दिन मुझे मेरी खरी आइडेंटिटी मिल जायेगी।“ वह मेरी बाँहो में अपनी आँखे बंद कर कहीं भविष्य में खो गयी। उसे अब शादी का सामाजिक महत्व समझ में आ गया था। शादी करके शायद वह अपनी खोई हुई बच्ची को वापस पा सकती थी।
समाप्त।