आइडेंटिटी क्राईसिस - 1 Manish Gode द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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आइडेंटिटी क्राईसिस - 1

एपिसोड १.

“सॉरी, इस वक्त मैं कुछ भी कहने के मुड में नहीं हुँ।“ उसने कहा।

“क्यों क्या हुआ? सब ठिक तो है ना?” मैंने साशंकित होते हुए पुछा।

“मैंने कहा ना, अभी कुछ भी नहीं, बस!” उसने भडकते हुए कहा।

“ठिक है।“ मैंने अपने हथियार डालते हुए फोन रख दिया।

वह बरामदे में बरबस ही चहलकदमी करने लगी। उसे ना अपना ख्याल था ना अपने आसपास के परिवेश का। वह बमुश्किल अपने मन को काबु में कर पा रही थी। कल रात से उसने ना कुछ खाया था ना वह सोयी थी। बस वह कमरे के बाहर रखे बेंच पर बैठी थी। उसने सुबह एक कप चाय तब पी थी, जब एक चाय वाला लडका तेजी से उसके सामने से गुजर रहा था। वह रुका और उसे ना जाने क्या लगा, उसने उसके आगे चाय का एक कप सरका दिया। उसने उस चाय वाले को देखा और ना चाहते हुए भी वह चाय का कप उसके हाथ से ले लिया। अब भारत में तो चाय, ऐसे या वैसे, कैसे भी पी जा सकती है। अतः उसने भी उसी मानवी स्वभाव का अनुसरण करते हुए चाय पी ली। वह लडका चाय की केतली और पेपर कप लेकर उसी तेजी से आगे बढ गया। सुबह की सुनहरी किरणे उसके बुझे हुए चेहरे को तरोताजा करने का भरसक प्रयत्न कर रही थी, किंतु वे भी ऐसा करने में विफल रहीं।

मैं अब तक इसी उधेडबुन में था कि आज वह इतना अपसेट क्यों थी? उसकी आवाज में पहले जैसी खनक नहीं थी। उसने आज तक मुझसे कुछ भी नही छुपाया था। फिर आज अचानक ऐसा क्या हो गया कि वह मुझसे बात तक नहीं करना चाहती।

हमने पत्रों के माध्यम से एक दुसरे को काफी हद तक जाना था। तब सेल फोन तो थे नहीं, महीने में एखाद बार एस.टि.डि. फोन कर लिया करते थे। हम एक दुसरे से एक रेडिओ कार्यक्रम के माध्यम से मिले थे। बस, फिर क्या था, हमारे स्वभाव एक दुसरे से मेल खा गये और हम पक्के पत्र-मित्र बन गये। हमें पता था कि पत्र का जवाब कौन सी तारीख को मिलेगा। तब तक एक लंबा इंतजार करना पडता था। लेकिन दो हफ्ते का वह इंतजार हमें इतना बडा नहीं लगता था, जितना आज सोशल मिडिया पर दो मिनीट से ज्यादा की देरी हो जाने पर लगता है।

खैर, हमारी पत्र-मित्रता कुछ ही समय बाद चाहत में बदलने लगी। पत्रों द्वारा हम अपनी बात बडी आसानी से एक दुसरे को बता सकते थे। कोई हिचक नहीं थी ना कोई भय, बस हम तब तक अपनी कलम से आगे पडे कागजों को अपने भावों में रंगते जाते थे, जब तक की जी ना भर जाये। कभी उदासी के आँसु तो कभी खुशी के गीत, सब कुछ उस कागज पर उँडेल देते थे। जैसा भाव, वैसा पत्र होता था। और उस पत्र को पोस्ट करने के बाद होता था, एक लंबा इंतजार। उन इंतजार के दिनों में हम कल्पना करते थे, कि अमुक बात को पढ कर वह हँसेगी, कभी उदास होगी तो कभी उसे ऐसा लगेगा कि वह उड कर हम तक पहुँच जाये और हमसे ढेर सारी बातें करे। गुलाब की ताजी पँखुडिया सभी पन्नों को अपनी खुशबू से भिगो देती थे। खास पत्र में रखने के लिये गुलाब के फुलों का इंतजाम किया जाता था। कभी-कभी तो कोई गिफ्ट भी पार्सल किया जाता था। उसे पाने के बाद जो खुशी, पाने वाले के चेहरे पर नहीं दिख पाती थी, वह पत्रों पर गिरे खुशी के आँसुओं की चंद बुँदों को छूकर प्राप्त होती थी।

मुझे याद आता है कि हमारा पहला पत्र कितना आदरणिय था। ‘आप’ और ‘आपके’ जैसे आदर युक्त शब्दों का उपयोग किया जाता था। आप कैसे है? आप क्या करते है? आपकी पसंद नापसंद क्या है? आपके रोल मॉडल कौन है इत्यादी इत्यादी। फिर धिरे-धिरे ‘आप’ की आत्मियता बढते बढते ‘तुम’ तक पहुँच गयी। तुम कितना अच्छा लिखते हो, तुम कितनी अच्छी लगती हो इत्यादी तकल्लुफ़ गढे जाने लगे। चाहत को प्यार में बदलते ज्यादा देर ना लगी। फिर हमने एक दुसरे को देखना चाहा, सो हमने एक दुसरे को अपने फोटो भेजे।

“तुम दिखने में उतने बुरे भी नहीं हो।“ उसने ना तारीफ की थी ना बुराई।

“किंतु, तुम मुझे बहुत अच्छी लग रही हो।“ मैंने अपने मन की बात सीधे-सीधे कह दी। अक्सर लडके साफ मन के होते है। जो कुछ दिल में होता है, वही जुबां पर भी होता है।

“तारीफ करना तो कोई तुमसे सीखे।“ उसने अगले पत्र में पहला वाक्य यही लिखा था। लडकीयों को समझना बडा कठीन है। तारीफ करो तो, “चल झुठे।“ कह कर शरमा जाना और ना करो तो, “तुमने मेरे बारे में कुछ भी नही लिखा, मैं कैसी दिखती हुँ। पता है दो घंटे लगे थे तैयारी करके फोटो खिंचवाने में।“

तो जनाब हम दोनो ने किसी तरह एक दुसरे को पसंद भी कर लिया। एक दो नुक्स हमने अनदेखे कर दिये थे। हमें कौन सी शादी करनी थी उस समय। जब तक पत्र मित्र है, तब तक ठीक है। एक बार शादी हो गयी, तो तुम अपने रस्ते और हम अपने।

साल भर में हम एक दुसरे को चाहने लगे। वैसे ही जैसे आजकल ‘साईबर स्पेस’ में होता है। कभी-कभी तो साल दो साल बाद लडकी का पत्र एक भुचाल बन कर आ जाता है कि उसकी शादी होने वाली है, टाटा बाय-बाय! और ऊपर से एक उलाहना कि यदी तुम मुझसे सच्चा प्यार करते हो तो मुझे भविष्य में परेशान ना करना, कोई गलत कदम भी ना उठाना! यानी कि मुँह और नाक दोनों बंद। अब बंदा ना साँस ले पाता है ना ही छोड पाता है। और बेचारा प्रेमी, प्यार का मारा, अपनी माशुका से किये सच्चे प्यार के खातीर ताउम्र अपना मुँह सील लेता है।

किंतु मेरी पत्र मित्र आज भी मेरे संपर्क में बनी हुई है। अब वह पत्र मित्र नहीं रही, मेरी अच्छी दोस्त बन चुकी है। हम दोनों मुँबई के दो छोर पर रहते है। बातें या तो फोन पर हो जाती है या फिर विकएंड पर किसी समुद्र के किनारे मिलने पर हो जाती है। हमने अब तक शादी नहीं की थी। उसके जिंदगी का फलसफ़ा ही कुछ और था। उसकी ऐसी समझ थी कि शादी करने के बाद हम दोनों में वह बात नहीं रह जायेगी जो अब है। हालांकी यह भी उतना ही सच था कि वह मेरे अलावा किसी अन्य पुरूष के बारे में ना सोच सकती थी ना किसी को अपने निकट आने देना चाहती थी।

मैंने पुछा, “तुम शादी क्यों नहीं करना चाहती, जरा समझाओ हमें?”

“मैं अपनी आयडेंटिटी खोना नहीं चाहती।“ उसने वडा-पाव का एक बाईट मुँह में लेते हुए कहा।

“शादी के बाद मैं, मैं ना रह पाऊँगी!” उसने नैपकिन पेपर से अपना मुँह साफ करते हुए कहा।

“तुम, हमेशा मेरे लिये वही रहोगी, जो पत्र मित्रता के समय थी” मैंने कहा।

“मैंने कहा ना शादी नहीं करूँगी, तो नहीं करूँगी, बस।“ उसने अपना एक तरफा निर्णय सुनाते हुए नैपकिन पेपर से हाथ साफ किये और दूर समुद्र की ओर देखने लगी। मानों अपनी आयडेंटिटी के उद्गम को ढुँढने का प्रयास कर रही थी। मैं भी हर बार की तरह, अपना सा मुँह लेकर वापस घर लौट जाता था। मैं मुँबई सेंट्रल में रहता था, जहाँ मेरा अपना फोटो शुट करने का स्टुडियो था। यहाँ नये लडके लडकियाँ अपना पोर्टफोलिओ बनाने के लिये अक्सर आते थे। कभी-कभी किसी बडे कॉट्रेक्ट के तहत फोटो शुट करने के लिये विदेश भी जाना पडता था। और मेरी मित्र, विरार की एक सोसायटी में रहती थी। हालाँकी उसका ऑफिस विले पार्ले में था। जहाँ वह ‘मुँबई मिरर’ की सह-संपादिका थी। हमारे काम करने की जगह में करीब आधे घंटे का अंतर होगा, तो विकएंड पर मिलना हो जाता था या फिर अपनी मैगझिन में छापने के लिये किसी उपयुक्त फोटो के लिये वह अक्सर मेरे स्टुडियो में आ जाती थी या मुझे बुलवा लेती थी। पत्र-मित्रता अब प्रोफेश्नल रिलेशनशिप में तब्दिल हो चुकी थी। लेकिन चाहत का अंकुर, अब एक बडे वृक्ष का रूप ले चुका था। हम एक दुसरे को चाहते हुए भी आधे अधुरे से थे।

करीब दस साल पहले जब मैं लखनऊ की तंग गलीयों में रहता था और वह बिकानेर के किसी रजवाडे में, तभी से हम एक दुसरे के पत्र-मित्र बन गये थे। शुरू-शुरू में महिने में सिर्फ एक पत्र आता था, जिसमें बडी सावधानीपुर्वक बातें लिखी जाती थी, ताकी कोई और पढ भी ले तो भी कोई हर्ज ना हो। जब बात चाहत की हदें पार करने लगी तब हमारे पत्र ‘केअर-ऑफ’ एड्रेस पर भेजे जाने लगे। मुझे हालाँकी वह सीधे मेरे पते पर ही लिखा करती थी। लेकिन मेरे पत्र उसके सहेली के पते पर जाने लगे। वह शायद उसकी पक्की सहेली रही होगी, तभी तो बिना किसी रिश्वत के वह मेरे सारे पत्र इमानदारी से पहुँचा देती थी। क्या उसे कभी मेरी पत्र-मित्र पर जरा भी रश्क ना हुआ होगा? क्या कभी उसे ऐसा नहीं लगा होगा कि उसे भी कोई पत्र लिखे? पता नहीं, उसने कभी इस बात का मुझसे कोई जिक्र नहीं किया था।

अक्सर उसके पत्रों में मिठी बातों के अलावा, अपने करियर संबंधी बाते लिखी होती थी। आगे क्या करना है, कहाँ नौकरी करनी है, कौन सी प्रतियोगिता परिक्षा की तैयारी कर रहे हो इत्यादी। चुँकी मैं फोटोग्राफी में ज्यादा दिलचस्पी रखता था, अतः प्रतियोगिता परिक्षा देने पर मैं ज्यादा तवज्जो नही दिया करता था। कभी-कभार बैंक या रेल्वे का फॉर्म भर देता था, ताकी उम्र बढ जाने के बाद कोई पछतावा ना करना पडे। वह मास-कम्युनिकेशन में स्नातकोत्तर की छात्रा थी। उसके पास अनेक रास्ते थे, जिस पर चल कर वह अपने पैरों पर खडी हो सकती थी। जबकी मैं या तो फिल्म लाईन में या फिर फ्री-लाँसिंग के ही काबील था, सो मैंने मुँबई की राह पकड ली। मैंने उसे अपने इरादे के बारे में बताया, तो उसने मुझे बहुत प्रोत्साहित किया और वहाँ जरूर जाने को कहा। फिल्में उसे भी पसंद थी। अक्सर फिल्म देख कर आने के बाद उसका पुरा पत्र उस फिल्म की समालोचना से भरा होता था। वह चाह रही थी कि उसे किसी फिल्मी पत्रिका में यदी नौकरी मिल जाये बस, । उसके घर पर उसके अलाव एक भाई था जो काफी छोटा था, सो वह अपने पँख पसार कर उडने को बेताब थी।

मैं करीब पाँच साल पहले मुँबई आ गया था। पहले एक फोटो स्टुडियो में कुछ महिने काम करके पैसे इकट्ठा किये तब जाकर मैं अपनी मंजील की ओर अपना दुसरा पैर बढाने का ढाढस कर सका। कई दिनों तक फिल्म सिटी के चक्कर काटने के बाद भी जब सफलता हाथ नहीं लगी, तो वापस फोटो स्टुडियो में आकर काम करने लगा। मैंने और दो साल में इतने पैसे इकट्ठा कर लिये थे कि मैं एक अच्छा कैमेरा ले सकुँ। मैं अपनी हर बात के बारे में उसे पत्र में लिखा करता था। वह मुझे हमेशा प्रोत्साहन दिया करती थी। उसके बल पर मैं इस अजनबी शहर में अपना मकाम बना सका।