ईश्वर लीला विज्ञान 5
अनन्तराम गुप्त
कवि ईश्वर की अनूठी कारीगरी पर मुग्ध हैं, और आकाश, अग्नि, पवन, जल एवं पृथ्वी के पांच पुराने तत्वों का वर्णन आज के वैज्ञानिक सिद्धान्तों के साथ गुम्फित करते हुये प्रस्तुत करता है। साथ ही उसने पदार्थों के गुणों तथा वनस्पिति और प्राणी विज्ञान का प्रारंभिक परिचय अंग्रेजी नामों के साथ यत्न पूर्वक जुटाया है।
दिनांक-01-09-2021
सम्पादक
रामगोपाल भावुक
वनस्पति
करौ वनस्पति गान अव, ईश्वर लीला जान।
कैसी अचरज सृष्टि यह, करिये मन अनुमान।।74।।
सुनो वनस्पति का अब वरणन, जो जग प्राणी का अवलम्बन।
नर पशु पक्षी याकों खावैं, ताते अपनो जीव जिवावें।।
भारतीय मत के अनुसारा, बीस लक्ष गणना निरधारा।
तीन लाख ऊपर अब शोधा, वैज्ञानिक जन कियो प्रशोधा।।
तिनकी साज संभालहि कारन, वर्गीकरण विधि निरधारन।
भोजन, वस्त्र, जलाऊ, औषध, शाक, झाडि़, वृक्ष कहें कोविद।।
आयु विभाजन के अनुसारा, इक द्वै वहु वर्षी निरधारा।
पुष्प अपुष्पी पुन द्वै भांति, सब ही के मन को जंच जाती।
पुष्पी पादप भाग द्वै, नग्न बीज सवृन्त।
साइकडस अरू शंकुधर, इक द्वै बीजी अन्त।।75।।
सूत्रोदभिद् हरितोभिद् जानो, पर्णगाद अपुष्पी मानो।
वैक टेरिया शैवाल कब कानी, सूत्रोदभिद् के भेद प्रामाणी।।
मौसम लिवर वर्ट द्वै भांती, हरितोदभिद् की जानहु जाती।
पर्णगाद द्वै भांति कहावै, महा पर्ण लघु पर्ण जनावैं।।
नग्न बीज वे वृक्ष कहावै, महा पर्ण लघु पर्ण जनावैं।
साईकस शंकूधर जाती, ये द्वै इनके मध्य दिखाती।।
संवृत बीजी पादप वे है, जो हमरे चहुं ओर खड़े है।
इक बीजी द्वै बीजी सोई, एक दाल द्वै दालहिं जोई।।
अब विशेष वरणन करूं, भेदन के अनुसार।
प्रथम अपुष्पी पादप, द्वितिय पुष्प निरधार।।76।।
सूत्रोदभिद् को ऐसे जानो, नहिं जड़ तना पत्ति पहिचानो।
वैक्टीरिया है सूक्ष्म इतने, आंख दिखाई दे नहिं तितने।।
इक कोषी है इनकी रचना, पर्ण हरिम नहिं तिन मध वरना।
परजीवी सहजीवी नामा, मृतउपजीवी एक ललामा।।
परजीवी भोजन कर दूजें, पौधे बीमारी रस चूसें।
सहजीवी दालन की जड़ में, जीवन यापन करते बढ़वे।।
मृतउपजी वी वस्तु सड़ी में होते प्रगटित ज्यों व दही में।
अणु वीक्षण से देखे जावे, तब कहुं जान इन्हें हम पावें।।
कौमा, गोलाकर कोउ, कोउ सर्पिला कार।
कोउ शलाका भांति ही, चार रूप निरधार।।77।।
शैवाल जाति पौधे सदा, रंग हरे दरसांय।
जल के मध्य निवास कर, जीवन निजी वितांय।।
कव कानि त्रै भांति कहावै, सह पर मृत उपजीवी पावैं।
पर्ण हरिम इनमें नहिं होवै, भोजन हित अन्यहिं को जोवै।।
इक कोषी बहु कोषी होई, बासी रोटी जामें सोई।
हरितोदिभद् सरदीली जागा, होत प्रगट वृक्षन के भागा।।
जड़ की जगह तन्तु इन होवै, पूर्ण हरिम से जीवन जोवै।
लिवर वर्ट इक किस्म कहाई, देत चटाई भांति दिखाई।।
मौसम दूजी किस्म कहावै, जड़ पत्ती कुछ कुछ दरसावै।
प्रथम रिक्सिया कहौ उदारन, फयूनेरिया दूजे कर धारन।।
पर्ण गाद का मध्य में, सब अंग पौधे जान।
नम स्थानन होत हैं, पत्ती संयुक्त मान।। 79।।
महापर्ण मई जाति में, पत्ती बड़ी प्रमान।
लघु पर्णी के मध्य में, पत्ती लघू ही जान।। 80।।
पुष्पी पादप बेई कहावै, जिनके अन्दर फूल सु आवै।
नग्न बीज अरू बीजी, द्वै जार्ती इनकी रंग भीजी।।
नग्न बीजी वे वृक्ष कहावैं, फल अन्दर नहिं बीज रहावैं।
साईफडस के लक्षण एहा, फल से बड़ी पत्ति जुड़ देहा।।
पुष्पी पादप बेई कहावै, जिनके अन्दर फूल सु आवै।
नग्न बीज अरू संवृत बीजी, द्वै जार्ती इनकी रंग भीजी।।
नग्न बीज वे वृक्ष कहावैं, फल अन्दर नहिं बीज रहावैं।
साईफडस के लक्षण एहा, फल से बड़ी पत्ति जुड़ देहा।।
साइफाइडस अरू साबूदाना, कहत उदाहरन है विद्धाना।
शंकु रूप जे वृक्ष कहावैं, पत्ती सूत्राकार बनावें।
मोर पंखी अरू चीड़ सु जानो, उदाहरन में इनको मानो।।
संबृत बीजी पादप वे हैं, जो हमरे चहु ओर खड़े हैं।
इक बीजी पत्री लखो, गेहूं चावल ज्वार।
द्वै बीजी पत्री कहौ, चना मटर राहार।।81।।
जड़ तना पत्ती फूल पांचा, अंग वखाने पौधे ढांचा।
तिनके विलग कार्य अनुमानो, कर विस्तारहि तिनहिं वखानो।।
अपुष्पी प्राय: जड़ नहि धारे, पुष्पी के पुन होत प्रसारें।
इक बिज पत्री झकरा होई, द्वै बिज पत्र मूसल जोई।।
इनके है बहु भेद प्रभेदा, जटिल समझ मन भयौ निखेदा।
मूल टोपि जड़ आगे होई, रक्षा करत रहत जड़ सोई।।
वर्धि प्रदेश होय ता आगे, वृद्धि करत जड़ आगे भागे।
मूल रोम ता आगे होई, लवण सोख पोषण कर सोई।।
स्थिर पौधे राख कें, भोजन कर विस्तार।
ये ही जड़ के कार्य हैं, मुख्य रूप निरधार।।
तना रूप है विविध प्रकारा, मुख्य प्रबल दुर्बल निरधारा।
शाखा पत्ती फूल फल धारें, ताकों सबही तना पुकारें।।
पर्ण और पर्ण सन्धि रहाहीं, कलिका हू द्वै भांति कहाहीं।
अग्रस्थ कलिका पौधा बाढ़ै, कक्षस्थ ये पत्तियां सु काढ़ै।।
वृक्ष झाड़ धारन कर ये ही, भोजन संग्रह जहं तहं देही।
ऊंचे पत्र पेड़ कर राखे, वायु प्रकाश लगै सब भागै।।
पत्ति सरल संयुक्त कहावै, हरौ रंग ता मध्य रहावै।
कलिका यह पहिचान करावै, डंठल निकट सदा प्रगटावै।।
प्रकाश संश्लेषण क्रिया, पर्ण हरिम के साथ।
पत्ती करती नित्य हैं, निज भोजन के पाथ।।83।।
रंध्र सूक्ष्म पत्ती रहें, तिनते लेवे श्वास।
स्टोमा इनसे कहें, जल का करें निकास।।84।।
फूल अंग मिल चार कहावैं, तिनके विलग सु कार्य रहावै।
हरे रंग के जो दल होई, कहत वाम्ह दल धारें सोई।।
विविध रंग के जो दल होवे, दलन पुंज कह हम सब जोवें।
अन्दर को जो सूत दिखावैं, पुमंग पराग केशर कहलावै।।
जाया अंग नीचे तल होई, तहं पराग का सेचन जोई।
तासों बीज प्रगट हो जाई, यह फूल की है प्रभुताई।।
बीज भांति द्वै कह कर गाये, एक दाल द्वै दाल कहाये।
बीज चोल विज पत्र तिनहिं में, प्राकुंर मूलांकर जिन में।।
ताप वायु अरू नमी को, उचित रूप में पायं।
बीज अंकुरण करत हे, पुन: वृक्ष बन जाय।।85।।
उपरि भूमि इक अंकुलण, अधो भूमि इक जान।
ऊपर नीचे दलन ते, तिनको कर अनुमान।। 86।।
पौधे जल थल में प्रगटावै, अनुकूलन न विशेष तहां पावैं।
जल मध जो पौधे प्रगटाई, मोम परत तिन मध रह छाई।।
गलने से जो तिनहिं बचावै, जल प्रभाव नहिं ताही सतावै।
जलिय वास होने के कारन, जड़ अति सूक्ष्म रहें विस्तारन।।
ऊतक कम इनके मध होई, नरम बनावट जानो सोई।
पत्ती पतली लंबी होवै, तैरन में जो जलहिं विलोवैं।।
स्थल पौधे हैं द्वै भांति, मरू उदभिद मध्योदिभद् जाती।
जड़ ताकी अति लंबी जावै, जहां तक नमी बहुत ही पावै।।
कछुअक जड़ जो छोटी होवैं, बरसाती जल अधिक समोवै।
अति छोटी मोटी बहुरि, पत्ती के आधार।
पानी संग्रह विग्रह, ताहीं के अनुसार ।। 87।।
रक्षा हित कोटे अधिक, प्रगट सु तिनमें होंय।
या प्रकार लीला प्रभू, जहां तहां हम जोय।।88।।
भूमि साधारण जो प्रगटावै, मध्योदिभद् सो वृक्ष कहावै।
अति कठोरता तिनमें हौवे, कोटे अधिक न तिन मध जोवे।।
शुद्धीकरण वायु नित करते, गंदी वायु सवै ये हरते।
पर उपकारी जीवन केरे, इन से जग मध और न हेरे।।
धान्य दाल सब्जी फल देवें, शक्कर तेल मसाले सेवें।
मादक उत्तेजक बहु गंधा, वस्त्र तन्तु ईधन बहु ढंगा।।
औषध घास इमारती लकड़ी, दान करत की राह सु पकड़ी।
मानव कौ करतव्य सदाई, इनकी रक्षा करैं भलाई।।
पौधन की महिमा अधिक, जग प्राणिन के हेत।
जितनी ही कहि जायगी, तनक दिखाई देत।।89।।