ईश्वर लीला विज्ञान 6
अनन्तराम गुप्त
कवि ईश्वर की अनूठी कारीगरी पर मुग्ध हैं, और आकाश, अग्नि, पवन, जल एवं पृथ्वी के पांच पुराने तत्वों का वर्णन आज के वैज्ञानिक सिद्धान्तों के साथ गुम्फित करते हुये प्रस्तुत करता है। साथ ही उसने पदार्थों के गुणों तथा वनस्पिति और प्राणी विज्ञान का प्रारंभिक परिचय अंग्रेजी नामों के साथ यत्न पूर्वक जुटाया है।
दिनांक-01-09-2021
सम्पादक
रामगोपाल भावुक
जंगम प्राणी
प्राणिन कौ वरणन करूं, ईश्वर लीला श्रूप।
भांति-भांति के निरख कै, अचरज प्रगट अनूप।।90।।
जंगम प्रानी कहां बखानी, सुनियै तिनकी अजब कहानी।
नौ नभ चर थल पर दस लाखा, ग्यारह कृमि पशु तीसहि भाखा।।
चार लाख के मानव गाये, इम जंगम परिवार गिनाये।
नौ लख हैं अब तक गिन पाये, वैज्ञानिक जन मुझे बताये।।
तिनको है द्वै भागन बांटे, पृष्ठ अपृष्ठ वंश कर छांटे।
पृष्ठ वंश कर पांच विभागा, हड्डी रीढ़ रही जिन लागा।।
मछली मेंढक सर्प गिनाये, पक्षी स्तन धर कहलाये।
एक एक के वर्ग अनेका, कीने चतुरन बड़े विवेका।।
इनकौ बरनन अब करूं, सुनो सकल धर ध्यान।
ईश्वर महिमा विचित्र है, करहु सु मन अनुमान।।91।।
मछली भांति हजारन होई, बिन जल रह न सकत है सोई।
हाथ पैर जहं पंख रहावै, ताही से ये जल तैरावैं।।
गले निकट गल फड़ेसु होई, सांस लेय जल पी पी सोई।
बाहर निकसत ये चिपकावैं, रूंधे स्वांस अरू ये मर जावें।।
मेंढ़क जल थल करै निवासा, या के तन द्वै विधि सुपासा।
हाथ पांव मध झिल्ली होवै, तैरन मध्य सहायक जोवे।।
नथुने से थल हवा जो लेवै, जल मध चमड़ी काम सु देवे।
निद्रा शीत काल बहु सोवे, आवै समय पुन: तिहि खोवै।।
कछुआ गिरगट छिपकली, मगर वर्ग कहें सांप।
रेंगत में धरती छिये, इनके तन की चांप।।92।।
कछुआ अंग कवच में ढांपै, गिरगट रंग बदलतौ छापै।
छिपकली पूंछ छोड़ भग जाई, पुन इसके नवीन उग आई।।
मगर मनुष्य तक को खा जावै, सांप सु सबही को डरपावै।
हर इक मध विशेषता अपनी, कह न सकै कवि होवे जितनी।।
पक्षि वर्ग जाने सब कोई, पंख होयं उड़ते रहें जोई।
होती चोंच चुगन के काजें, दांत नहीं पर निगलत साजे।।
द्वै द्वै पांव सबन के होवें, कर की जगह पंख ही जोंवें।
हड्डी पोली पाई जावै, वायु सहन ताकत अति आवै।।
सुआ परेवा गल गला, कोयल मोर चकोर।
हंस बाज कौआ चतुर, पंछिन झुण्ड न थोर।।93।।
स्तनधारी कहत उन, जिनके बच्चा होय।
कर्ण वाहरी होत है, दूध पिलावत सोय।।94।।
सबही पशु इनके मध आवै, जिनके चार सु पांव कहावैं।
मासाहारिन पंजा होवैं, खुर वारे घासहि को जोवैं।।
सूंघन शक्ति अधिक तिन मांही, दांत सदा मुख दिखाहीं।
हाथी सबसे बड़ौ कहावै, मोटा ताजा अजब दिखावै।।
सिंह सबन को राजा हौवे निज दहाड़ से सबै रूबोवै।
चमगादड़ है ऐसा प्रानी, जिसकी कछु ही अजब कहानी।।
होती हाथ पैर मध झिल्ली, पंखा बन जाती पुन ढिल्ली।
मानव इनमें अधिक विचित्रा, बुधिमानी के खोलै पत्रा।।
सब जन्तुन में श्रेष्ठ हैं, मानव बुद्धि निधान।
ताते ईश्वर मिलन का, इन अधिकार महान।।95।।
स्तनधारी वर्ग के, भये विभाजन तीन।
प्रारंभिक अरू थैलिया, परिपक्व शिशु दीन।। 96।।
वत चोंचा प्रारंभ में आवै, सो आस्ट्रेलिया देश हि पावै।
स्पाइन एन्ट इटर इक जीवा, चींटी खाय खाय कर जीवा।।
मादा मध्य थैलि इक होई, अंडे बच्चे रहे समाई।
कंगारू इक जीव कहावै, थैली में बचचे बैठावै।।
परिपक बच्चे जो अब देवें, तिनके आठ वर्ग कर लेवें।
कुतरक जीव कहावैं ऐका, चूहे गिलहरी करो विवेका।।
त्वचा पंख जाही के होवैं, सो हम चमगादड़ को जोवैं।
इक विकेसिया वर्ग कहाव, मछली ह्वेल सूंस तिहि आवै।।
अंगुलिया गण दो उप भागा, बिना सींग खुर, खुर सिंग लागा।
मांसाहारी एक कहावैं, कुत्ते बिल्ली शेर बतावैं।।
भक्षी कीट कहारवै एका, रही छछुंदर या के टेका।
प्रसोसीडिया इक गण रहई, हाथी जा मध उपमा गहई।।
प्राइमेट्स गण एक हैं, जामें मानव आय।
मस्तक विकसित होय इन, यही विलक्षण ताय।।97।।
अंगुली पर नाखून रहं, छाती चूचक होय।
पैरों के तलवें चलें, वनर उपमा जोय।।98।
अव अपृष्ठ वंशी जे प्रानी, तिनकी सुनिये अजब कहानी।
इक कोषी बहु कोशी वर्गा, तिनके बहुत बने हैं सर्गा।।
इक कोषी कहें चार प्रकारा, इंगलिस नाम भयो निरधारा।
राय जो पोड़ मेस्टी गो फोरा, स्पोर जोर अरू सिलियो फोरा।
इक कोषी अति सूक्ष्म कहावैं, सूक्ष्म यंत्र से देखन आवैं।
हाथ पांव इनके नहिं होवैं, प्रचलन कूट पाद से जीवैं।।
राय जो पोड़ा जल मध होवैं, प्रचलन कूट पाद से जोवैं।
कहत अमीवा जासों भाई, मरै न खंड खंड हवै जाई।।
मेस्टी गो फोरा कहां, चलन फ्लेजला होय।
युग्लीना है उदाहरण, ताको रहु तुम जोव।।99।।
स्पोरा जोआ जनन, स्पोरहि ते होय।
प्लाज मेडिया उदाहरण, इसकौ समझो सोय।।100।।
सिलिओ फोड़ा जीव जे, परजीवी नित होय।
सलियो से प्रचलन करें, पैरामीशियम जोय।।101।।
बहु कोषी अव वर्ग विचारो, भांति भांति मन गुन विस्तारो।
इन्द्र धारि मूंगा समुदाई, चनटे कृमि अरू गोल कहाई।।
संधि पाद सीप समुदाई, कंटक चर्मी केंचुआ गाई।
इन्द्र धारि बेलन आकारा, छिद्र विशेष शरीरहि धारा।।
है स्पंज उदाहरन जाको, देखहु जाय आप खुद ताकों।
मूगा के रहे जो समुदाई, गड्डा रहं इनके तन भाई।।
मुंह द्वारा भोजन उत्सर्जन, उंगली जैसी मुख ढिंग वरनन।
हाइड्रो जोहा सी फो गोआ, सिनी फोर एक्टीनो जोआ।।
श्रेणी चार सु कही गई, इह मूंगा समुदाय।
हाइड्रा अरू आरेलिया, कोरेलिम उपमा पाय।।102।।
चपटे कृमि है फीता भांति, तन निर्मित खंडन की पांती।
सभी जन्तु द्वै लिंगी जानो, पाचक अंग विहीन बखानो।।
टर बिल टिया अरू सिस टिडिया, ट्रेमे टोड़ा भाग सु करिया।
परजीवी है ट्रेमे टोड़ा मेड़ जिगर में जो है होता।।
सिस टाड़ा पृष्ठी के अन्दर, प्रगटित होता बड़ा बलन्दर।
सूकर से मानव के भीतर, चलता इसका जीवन चक्कर।।
टिनिया सुडिया कहते याही, अंश मात्र पूरौ बन जाई।
गोला कृमि पटार कहलाता, मल के साथ जो बाहर आता।।
संधी पाद शरीर के, होते तीन विभाग।
सिर धड़ वक्ष सु जानिये, जोड़ी तीन सु टांग।।103।।
पंख काहु के होत हैं, मुख अरू नैन दिखांय।
अंडा लावा प्यूपा, बन पूरे हो जांय।।104।।
इनके हैं द्वै भेद कहावै, इन्सेक्टा क्रुसटेसिया गावैं।
इनका वर्ग विशाल कहावैं, सब प्राणी मिल मेल न पावैं।।
मक्खी मच्छर वर्र पतंगा, टिड्डा पिस्सू आदि प्रसंगा।
हानि कारि ये अधिक दिखावैं, इनसे बचे तेहि सुख पावैं।।
क्रुस रेसिया होय जल मांहीं, चूना निर्मित तनहिं दिखाई।
पाय केंकरा उपमा याहीं, जीवन जल के मध्य विताहीं।।
सीप वर्ग की यह पहिचाना, कड़ा आवरण चूना जाना।।
कोमल तन तर मध्य रहावैं, उपमा सीप शंख की आवै।।
गैस ट्रो पोड़ा कहत, होत शंख की जात।
वाई वाल्विया जो रहे, सो सीपी दरसात।।105।।
संघ केंचुआ केा अब बरनौ, वेलन कार खंड तन धरनो।
द्वै लिंगी यह जीव कहावै, अतिहि मूलायम तन तन जावे।।
कीटो पोड़ा टिसू ट्रीनियां, कहत इन्हें आर केले निडिया।
कीटो पोड़ केंचुआ जानो, हिसू ट्रीनिया जो कहि मानो।।
कंटक चर्मी इमि अनुमानो, चर्म मध्य कांटे पहिचानो।
रहें सदा समुद्रहिं माहीं, पांच भुजा इन तन दरसाहीं।।
पांच भेद हैं इनके वरने, इंगलिस नाम गिनाऊं तितने।
ऐस्टी ओकी एकिनो, कहो रोयड़ी साथ।
हो लो व्यू क्री नोयड़ी, कही सु इनकी गाथ।।106।।
रहत जीव जल अरू स्थल में, तिनक रचना अनुकूलन में।
जल मध जीव रहत है जेतें, होंय पंख तैरन तिह तेते।।
तिनहिं बनावट नौका जैसी, जल अवरोधक सहायक वैसी।
जल में मिली वायु में सांसा, ईश्वर का यह अजब तमासा।।
खारी जल मध जिन कर वासा, लवण निकासन ग्रंथि विकासा।
थल मध जीव रहत है जेते, कड़े आवरण वरने तेते।।
पानी का तन संग्रह करते, सर्द गर्म ताप अनुहरते।
रेगिस्तानी है जे जीवा, दिना बहुत में पानी पीवा।।
अनि नियत तापी जीव जे, शीत निद्रा लेंय।
मेंढ़क सांप अरू गोहरा, ठंड न दृष्टि देंय।।107।।
ऋतु पलटे पुन जग उठे, सवै दिखाई देंय।
कैसी ईश्वर सृष्टि है, भक्त परम सुख लेय।।108।।
कछु प्राणी रंग बदलई, अपनी रक्षा काज।
गिरगिट मेंढ़क तिलचटा, खंजन जाते भाग।।109।।
यह ईश्वर की लीला भाई, वैज्ञानिक वद्धति दरसाई।
ताते उसकी महिमा जानों, समझ समझ उसको पहिचानों।।
बिन पद चलै सुने बिन काना, कर बिन कर्म करै विधिनाना।।
आनन रहिहत सकल रस भोगी, बिन वानी बकता बड़ जोगी।।
तन बिन परस नयन बिन देखा, ग्राहई घ्रान विनु वास असेसा।
अस सब भांति अलौकिक करनी, महिमा जासु जाइ नहिं वरनी।।
तिहि धर नाम अनेक निरूपा, सत्य प्रेम लख धरहिं सरूपा।
अनुभव अपना तिहि को देई, सकल अविद्या को हर लेई।।
ताते ईश्वर धर्म इक, कहियत ताको प्रेम।
ताको निज मन समझ कें, धारों करकें नेम।।110।।
प्रेम स्वरूप अगाध महाई, जाकी अब तक थाह न पाई।
सुख दै सुख पावै नित जोई, अनहित तासों कबहु न होई।।
अति दृढ़ टेक राख मन माही, प्रान जांच पर नेम न जाई।
जाकों जासौं हित रह भाई, सो ताही के निकट सदाई।
प्रेमभाव को सब कोई जाने, मानव की का पशु पहिचाने।।
ताते एक धर्म हित धारो, सब से प्रेम सु मनहि विचारो।
प्रेमहिं श्रूप आतमा केरा, प्रेम हि रूप प्रभू का हेरा।।
प्रेमी प्रेमहि सवै दिखावै, अन्त समय प्रेमहि समावै।
प्रेम कहायौ मैं कहौ, भलौ बुरौ कहु कोय।
याकी नहि लज्जा हमें, प्रेमहि रहौ समोय ।। 111।।
वैशाख शुक्ल एकादशी, द्वै सहस्त्र बतीस।
अनन्त राम गुप्ता रची, सो श्री हित वखसीस।। 112।।
जै जै राधाकृष्ण कहु, जै हरिवंश दलया।
जै जै वृन्दा विपिन कहु, जै सुकुमारी लाल।।
।।इति।।