Ishwar lila vigyan - 1 - anantram gupta books and stories free download online pdf in Hindi

ईश्‍वर लीला विज्ञान - 1 - अनन्‍तराम गुप्‍त

ईश्‍वर लीला विज्ञान 1

अनन्‍तराम गुप्‍त

कवि ईश्‍वर की अनूठी कारीगरी पर मुग्‍ध हैं, और आकाश, अग्नि, पवन, जल एवं पृथ्‍वी के पांच पुराने तत्‍वों का वर्णन आज के वैज्ञानिक सिद्धान्‍तों के साथ गुम्फित करते हुये प्रस्‍तुत करता है। साथ ही उसने पदार्थों के गुणों तथा वनस्पिति और प्राणी विज्ञान का प्रारंभिक परिचय अंग्रेजी नामों के साथ यत्‍न पूर्वक जुटाया है।

दिनांक-01-09-2021

सम्‍पादक

रामगोपाल भावुक

अपनी बात

जब मैं सन् 1962 में शालेय विज्ञान प्रशिक्षण हेतु गया, तो प्रशिक्षण में आश्‍चर्य भरी बातें सुनकर मन बड़ा हर्षित हुआ और उस ईश्‍वर की अति सूक्ष्‍म गूढ़ रचना सुन लोकोपकार की भावना से इस पुस्‍तक के रूप में उन्‍हीं की प्रेरणा से गायन करने लगा। मेरा इसमें कुछ भी नहीं है यह सब गुरूजनों की सुनी सुनाई बातों का क्रमबद्ध रूप में ज्ञान संचय हेतु एक लघु प्रयत्‍न है, जो आप सब लोगों के समक्ष प्रस्‍तुत है हां इससे उस ईश्‍वर के ईश्‍वरत्‍व का बोध होता है, और हमारा मन उसे समझने के लिये अग्रसर होता है, यही इसकी महिमा है। अस्‍तु, मानव बुद्धि होने से त्रुटियां होना स्‍वाभाविक है। विज्ञ जन क्षमा कर सुधारने का प्रयत्‍न करें।

दिनांक 30.08.2008

कृपाकांक्षी

अनन्‍तराम गुप्‍त

बल्‍ला का डेरा डबरा (म.प्र.) 475110

।। श्री ।।

ईश्‍वर लीला विज्ञान

बंदौ श्री हित हित चरण, हित प्रगटावन हार।

अंगीक़त जिही जन कियौ, भयौ सो वह भव पार ।।1।।

ब्रह्म प्रकाश

बंदो महा महिम वैज्ञानिक, जिहि सम और न जग कोउ लाइक।

जासु सुजस छायौ संसारा, दिखियत भांति भांति आकारा।।

सो प्रतक्ष दपर्ण की नाईं, ज्ञान प्रकाश विमल दरसाई।

माया यह प्रतिबिम्‍ब बनावै, जो जयों त्‍यों इहि सम्‍मुख आवै।।

सो गुण भूल आरसी केरा, प्रतिबिंब वरणन करत घनेरा।

जीव कहत जो लखियत याही, ऐसो कुछ गुण दरपन माही।।

ब्रह्म जीव माया कह गावहिं, एक दोय अरू तीन लखावहिं।

बरनत पार न काहू पायो, ताही ने बृम्‍हाण्‍ड बनायो।।

गगन वायु अरू अग्नि जल, पृथ्‍वी दई रचाय।

जीव जन्‍तु अरू वनस्‍पति, तिनके विविध सुभाय।।2।।

आकाश

ईश्‍वर लीला मध्‍य में, कहुं प्रसंग आकाश।

सज्‍जन सुनियो प्रेम सों, मन में राख हुलास।।3।।

सर्व प्रथम आकाश बनाया, जिसका माप न अब तक पाया।

कह (अनन्‍त) ऋषियों ने गाया, इसे पोल कहकर समझाया।।

जिसके मध ब्रह्माण्ड समाया, शब्‍द उचारण काम जो आया।

बिन आकाश उकास न होई, तिहि बिन हिलै डुलै नहिं कोई।।

दिन मध नीलें रंग दिखावै, ताकौ कारन सूरज आवै।

रात अंधरी कारो दरसै, कारन कछु प्रकाश कम परसै।।

रात चांदनी रंग आसमानी, कारन चंद्र प्रकाश अनुमानी।

रंग न रूप कोउ नहिं याकें, ब्रह्म समान कहत कवि गाकें।।

अगनित तारगण लसें, ता मध सुनहु प्रवीन।

ति‍नके झुण्‍ड प्रझुण्‍ड बहु, कहियत कथा नवीन।।3।।

अग्नि

अग्नि प्रसंगहि अब कहूं, कथा विचित्र बनाय।

ताकों सुन गुन समझ के, मन अचरज छा जाय।।4।।

गंग आकाश कहत सब कोई, तारागण समूह है सोई।

ऊपर है चकती आकारा, नीचे दिखती नदि सी धारा।।

कारन अधिक ऊंचाई जानो, अगनित तारे ता मध मानो।

एसी अगनित गंग अकाशा, दिखियत दूरबीन परकाशा।।

एक एक मध अगनित तारे, को जनमो जो तिनहिं संभारे।

दूरी इतनी अधिक बताई, ताको कहकें को समझाई।।

कुछ तारिन प्रकाश समझायौ, अब तक धरती आन न पायौ।

सूरज हू ते बड्डे तारे, हैं अगनित विज्ञान प्रचारे।।

अपनी अपनी जगह पै, सब तारे भर मांह।

आकरषण वान कोउ स्‍वयं है, कोउ दूजेहि प्रकाश।

ऐसी लीला हो रही, नित अनंत आकाश।।6।।

कुछ तारे टूटत से दीसें, सो नव निर्मित द्रव्‍यहिं ही सें।

पवन रगड़ से होय उजेरो, कोउ बनावत भू मध घेरो।।

इम अनंत पुंजन के माहीं, एक पुंज अपनो दरसाहीं।

ताहि पुंज मध अगनित तारे, परिधि निकट तहं सूर्य हमारे।।

तिन चहुं ओर नव ग्रह घेरा, देत रहत नित तिनकर फेरा।।

सबसे निकट देख धरती तें, पुन परिवार लियमे निज प्रीतें।

ताते इक ब्रह्माण्ड के नायक, कहत सवै भू जन गुन गायक।।

हैं अनन्‍त तारागण ऐसे, पै हमरे हित सूर्य विशेषे।

आठ लाख पैंसठ सहस, मील व्‍यास निरधार।

धरती तेरा लाख सी, समा जांय विस्‍तार।।7।।

मील कडौरन नौ कहां, तीस लाख परमान।

धरती से दूरी कही, समझ लेहु मतिमान।।8।।

देत प्रकाश ऊष्‍मा दोई, जाके बल जग कारज होई।

चलत प्रकाश एक सेकिंडा, लाख तीस किलो मीटर लम्‍बा।।

आठ मिन्‍नट में धरती आवै, जाही सौं सब कछु दिखावैं।

चलत सदा सीधी रेखा में, छप्‍पर रन्‍ध्र प्रमाणहिं जामें।।

बीच वस्‍तु जब कोई आवै, तीनों गति इसकी हवै जावे।

कछु सोखें कछुक लौटावै, आर पार कछुक ही हवै जावै।।

कांच हवा पानी सम पतले, दर्शक पार कहावत सुथले।

अल्‍प पार दर्शक कछु चीजें, जैसे कागज तेजहिं भीजें।।

लकड़ी लोहा धातुऐं, हैं अपार दर्शक्‍क।

कछु प्रकाश को सोखकर, लौटाती निरर्थक।।9।।

सोखें से कछुक काम नहिं, वापस जात प्रकाश।

दर्शक पार प्रकाश तें, वस्‍तु दिखै अनियास।।

सूर्य प्रकाश दिवस वन सोई, काम कज जासें सब होई।

बिना प्रकाश जगत अंधियारो, छाये जहां तहां कारो कारो।।

यह प्रकाश छाया निरमावै, सूरज चन्‍द्र ग्रहण बन जावै।

प्रकाश परावर्तन के कारन, प्रतिबिम्‍ब दरपन बनत हजारन।।

अपवर्तन प्रकाश का होई, मरू मरीचिका प्रगटत सोई।

जल मध लकड़ी झुकी दिखावै गहरो जल उथलौ दरसावै।।

किरण प्रकाश लैंस निर्मावै, छोटी वस्‍तु बड़ी दरसावै।

याके खेल कैमरा माहीं, प्रोजेक्‍टर अरू चसमा आहीं।।

सात किरण के रंग कहे, नारंगी अरू लाल।

नीला पीला जामूनी, हरा बैंगनी जाल।।11।।

जल भर बादल से जवै, किरणे आ टकरांय।

इन्‍द्र धनुष बन जात है, गुनि जन हमें बतांय।।12।।

प्रकाश सहित ऊष्‍मा दें सोई, सर्द गर्म जिहिं अनुभव होई।

गरमी सकल वस्‍तु पिघलावै, अनुभव करै सु और बतावैं।।

अधिक आंच जब ही हवै जावै, खाक रहे अरू भाप उड़ावै।

सोई भाप ऊष्‍णता होई, ऊष्‍ण केन्‍द्र इक सूरज सोई।।

सूरज मध्‍य वस्‍तु सब जग की, ऊष्‍ण रूप रहं अनुभव मग की।

जलती हुई गैसों का गोला, है सूरज वैज्ञानिक बोला।।

बढ़ती सकल वस्‍तु उषमा से, ठोस या द्रव वाष्‍पीय जहां से।

विकरण चालन अरू संवाहन, तीन भांति ऊष्‍मा प्रस्‍थावन।।

काले रंग की वस्‍तु जो, शीघ्र गर्म नम होय।

श्‍वेत रंग की वस्‍तु सो, या को उल्‍टी जाये।।13।।

कहीं सुचालक ऊष्‍मा, धातू जितनी होंय।

कागज लकड़ी वस्‍त्र जे, रहे कुचालक सोय।।14।।

ऊष्‍मा से सब कारज होई, जगत वनस्‍पति जीवन सोई।

क्‍लोंरोफिल पत्तियां बनावै, जो पौधन भोजन पहुंचावै।।

पौधन को प्राणी खा जावैं, तासौं अपनो जीव जिवावैं।

ऊष्‍मा से इंजन बहु चालैं, सोलर बैटरी नये हवालें।।

प्रकृति मांझ महिमा है भारी, सभी रसायन करत तयारी।

मौसम की महिमा अधिकाई, ज्‍यादा कम ऊष्‍मा हि बताई।।

मापी ताप बनो इक यंत्रा, जो बतलावत ताप के मंत्रा।

चौबिस डिगरी मानव काजैं, उचित ताप बतलाव समाजैं।।

वातानुकूल निर्माण से, सर्द गर्म नहिं होय।

थरमस आविष्‍कार में, वस्‍तू ज्‍यों त्‍यों जोय।।15।।

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