उजाले की ओर --संस्मरण Pranava Bharti द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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उजाले की ओर --संस्मरण

उजाले की ओर ----संस्मरण

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नमस्कार स्नेही मित्रों

कैसे हैं आप सब ?

बहुत अच्छे होंगे | कभी-कभी लगता है कि आप सबसे परिचित हूँ मैं |

जैसे किसी अदृश्य रिश्तों की डोरी से जुड़ जाना और महसूस करना कि कहीं न कहीं हम सब जुड़े हुए हैं |

शायद यह प्र्कृति का ही संकेत होता है कि हमें जोड़कर रखती है |

दुनिया के एक कोने में कोई होता है ,दूसरे में कोई लेकिन हम जुड़ ऐसे जाते हैं जैसे एक ही पिता की संतानें हों |

कहीं न कहीं यह सही भी है ,यदि हम सोचें कि ईश्वर क्या है ?

हमारे पास कोई ठोस उत्तर नहीं होगा |

हम अपने उन आराध्य देवों को ईश्वर मानते हैं जो कभी न कभी हमारी इसी दुनिया में जन्म ले चुके हैं |

जिन्हें हम पूजते हैं अथवा कहें तो उनके गुणों को पूजते हैं |

ये कुछ ऐसा ही हुआ न जैसे हम अपने माता-पिता से जन्म लेते हैं और उन्हें अपना पूज्य मानते हैं |

माता-पिता से हम यह दुनिया देखते हैं ,वे भी इसी भौतिक संसार की इकाई हैं |

जब हम सोचते हैं कि हम सबको किसने जन्म दिया तो अदृश्य डोरी ही कल्पना में आती है |

यानि कहीं न कहीं हम सब बंधे हुए तो हैं हैं | तो जैसे एक-माता-पिता की स्ंताने हैं वैसे ही हम उस अदृश्य की स्ंतानेन हुईं न !

हमारा संबंध तो कहीं न कहीं हुआ न ?

हाँ,यह भौतिक संबंध नहीं है ,यह वह संबंध है जो आत्मिक है और इसीलिए हम अचानक ही किसी से खिंचाव महसूस करने लगते हैं |

भौतिक संबंधों में रिश्ते बनते -बिगड़ते रहते हैं ,आत्मिक संबंध का एक ही रिश्ता है ,स्नेह का ,प्यार का ,सद्भावना का !

इसीके सहारे हमारी जीवन-नैया आगे जीवन -समुद्र में चलती रहती ,तैरती रहती है |

हमें पीड़ा,परेशानियाँ ,तकलीफ़ें मिलती हैं ,किसीका भी जीवन सीधे-सपाट मार्ग पर नहीं चल सकता क्योंकि अपने कार्य -कलापों के अनुसार हम

अपने सुख-दुख भोगते हैं और उन सबको पूरा करके ही जीवन-मार्ग तय कर पाते हैं |

"मेरे साथ ही क्यों ऐसा होता है दीदी ?" जब भी प्रभा मिलती ,मुझसे पूछती |

"ऐसा नहीं है प्रभा कि तुम्हारे साथ ही कुछ अच्छा -बुरा घटित होता है ,सबके साथ होता है |"

"नहीं --नहीं दीदी ,मेरे साथ तो कुछ ज़्यादा ही होता है ,कोई न कोई मुझे चकमा दे ही जाता है |" वह बिसुरती |

"नहीं ,ऐसा नहीं है प्रभा ---सबके साथ कुछ न कुछ होता है जीवन में "बार-बार उसको समझाती |

प्रभा मानने को तैयार ही न होती | न जाने क्या कारण था कि कोई न कोई बात उसके साथ होती रहती जिससे उसके मित्र रूठ जाते ,

वह मायूस हो जाती |

"तुम मना लिया करो उन्हें अगर तुम्हें लगता है कि तुम अकेली पड़ जाती हो !"

"हर बार मैं ही झुकूँ ?" वह मेरे सामने रोष में आ जाती |

"तो होता रहने दो और तुम आगे बढ़ती जाओ --" मैं उसे ढाढ़स बंधाने का काम करती लेकिन उसके आँसू उसकी बेचैनी उगलते ही रहते |

हमें न झुकना होता है ,न ही चीज़ों को छोड़ना होता है | तो क्या किसीको भला -बुरा कहने से या अपनेको कोसने से समस्या का हल निकल जाता है ?

प्रभा उम्र में इतनी छोटी भी न थी ,लगभग 40 वर्ष से ऊपर की स्त्री को अपनी संतानों को समझाने की ज़रूरत होती है ,उसे विवेक से कम लेना होता है लेकिन ---

हमारे बीच में प्रभा जैसे कई लोग हैं जो न तो खुद को संभाल पाते हैं ,न ही रिश्तों को !

फिर जीवना कैसे कटे ? ये सब तो जीवन के आवश्यक अंग हैं |जीवन में कभी कुछ घटित होगा तो कभी कुछ !

तो क्या हम अपने कर्मों को छोड़कर इन सब बातों में अपना जीवन गुजारकर आनंदित रह सकते हैं ?

नहीं ,हमें हर हाल में आगे बढ़ना होता है | ठिठकने से न तो कुछ मिलने वाला है ,न ही कुछ बदलने वाला है |

यदि हमें महसूस होता है कि हमें लोग 'चीट' करते हैं तो हम अकेले चलें और अपने मार्ग स्वयं ढूँढ़ें |

चाणक्य ने कहा --

"मैं उनका शुक्रगुज़ार हूँ जो मुझे अकेला छोड़ गए ,तभी मैं जान सका कि मैं अकेले कुछ भी कर सकता हूँ ---"

हमारी डोरी आत्मिक रूप से सबसे बंधी है किन्तु यदि हमें इस भौतिक संसार में कुछ रिश्तों से पीड़ा मिलती है तब भी हमें किसीने अपने सूत्र में बांध रखा है

जो सदा हमारा मार्ग प्रशस्त करता है --बस,हमें उस मार्ग को पहचानना भर है |

हम आगे चलते रहें ,अपने मार्ग पर अकेले चलते हुए अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं |

इसमें कोई संदेह नहीं ,चलकर देखें तो सही --------!!

फिर मिलते हैं ,कुछ अन्य विचारों के साथ

सस्नेह

आपकी मित्र

डॉ . प्रणव भारती