तपस्या--एक सुहागन की.... Saroj Verma द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

तपस्या--एक सुहागन की....

नीरजा ने अपनी सामने वाली पड़ोसन के दरवाजे पर लगी घंटी बजाई.....
पड़ोसन ने दरवाज़ा खोला और मुस्कुरा दी फिर बोली....
अरे! आप अन्दर आइए ना!
जी! अभी टाइम नहीं है,फिर कभी आऊँगी,शुभांशी सो रही है,ये आपका लेटर हमारे घर पर आ गया था,इसलिए देने चली आई,नीरजा बोली।
आपकी बेटी बहुत ही प्यारी है,मैने आपकी गोद में उसे आते जाते देखा है,वैसे कितने महीने की है?पड़ोसन ने पूछा।।
जी! आठ महीने की पूरी हो चुकी है,नीरजा बोली।।
बहुत बढ़िया,वैसे आपका नाम जान सकती हूँ,पुकारने में आसानी होगी,पड़ोसन ने पूछा।।
मैं नीरजा और आपका नाम....नीरजा ने पूछा।।
मैं सुलक्षणा ! आप मुझे सुलक्षणा आण्टी कहकर पुकार सकती हैं,पड़ोसन बोली।।
ठीक है तो मैं आपको आण्टी कहूंँगी और आप मेरा नाम लेकर ही पुकारेगीं,नीरजा बोली।।
ठीक है,जैसे मेरी बेटियाँ हैं वैसे ही तुम भी मेरे लिए,सुलक्षणा बोली।।
यहाँ अकेली पड़ जाती हूँ,आपसे मिलकर अब माँ की याद नहीं आएगी,नीरजा बोली।।
लगता है अभी ही इलाहाबाद में शिफ्ट किया है,सुलक्षणा ने पूछा।।
जी, हाँ!तभी तो,नीरजा बोली।।
और फिर उस दिन की कुछ औपचारिक सी बातों के बाद दोनों में अच्छा मेल हो गया।।
फिर एक दिन नीरजा को आँवले का मुरब्बा बनाना था चूँकि उसके पति समीर को बहुत पसंद था इसलिए उसने सोचा क्योंं ना सुलक्षणा आण्टी से ही पूछकर बना लूँ और वो शुभांशी को लेकर सुलक्षणा के घर के दरवाजे पर आई,घण्टी बजाई तो किसी बूढ़ी महिला ने दरवाज़ा खोला....
नीरजा ने उस महिला से पूछा....
सुलक्षणा आण्टी कहाँ हैं? उनसे कुछ पूछना था।।
वो तो नहीं है बाज़ार गई है,आती ही होगी,तुम अन्दर आ जाओ,वो महिला बोली।।
नीरजा सकुचाते हुए भीतर आ गई उस महिला ने सोफे की ओर इशारा करते हुए कहा,बैठो...तो नीरजा बैठ गई,लेकिन नीरजा को कुछ समझ नहीं आया कि ये महिला कौन है?उसने सोचा शायद कोई रिश्तेदार होगी जो इनके यहाँ कुछ दिनों के लिए आई है,क्योकिं सुलक्षणा आण्टी ने तो कहा था कि उनकी दो बेटियाँ हैं और दोनों की शादी हो चुकी है,उनके पति दो सा पहले हार्टअटैक से गुज़र चुके हैं,नीरजा ये सब सोच ही रही थी कि इतने में सुलक्षणा बाज़ार से आ पहुँची,जब नीरजा को उसने अपने घर में बैठे देखा तो कहा....
अरे,तुम! कब आईं?
जी! थोड़ी देर पहले,नीरजा ने जवाब दिया।।
अच्छा!बहुत बढ़िया और फिर सुलक्षणा बोली....
मैं अभी हाथ मुँह धोकर और कपड़े बदलकर आती हूँ,छोटे बच्चों के लिए ठीक नहीं रहता ,बाहर से आई हूँ ना!
नीरजा बोली,ठीक है आण्टी!
और थोड़ी देर में सुलक्षणा कपड़े बदलकर आ गई और उसने फौरन ही शुभांशी को गोद में उठा लिया और उससे खेलने लगी।।
तभी वो बूढ़ी महिला सुलक्षणा के पास आकर बोली.....
सुलक्षणा तेरे लिए चाय लाऊँ या नीबू पानी....
तू रहने दे,मैं कर लेती हूँ,तू थोड़ा आराम भी कर लिया कर,सुलक्षणा बोली।।
और फिर उस बूढ़ी महिला के जाने के बाद नीरजा ने सुलक्षणा से पूछा.....
क्या ये आपकी रिश्तेदार हैं?
नहीं! ये मेरी बचपन की सहेली गीतांजलि है,तुम्हारे अंकल के गुज़र जाने के बाद और बेटियों के ससुराल जाने के बाद मैं अकेली हो गई थी,इसके मायके में भी इसके लिए जगह नहीं थी कोई रखने को तैयार नहीं था इसलिए मैनें इसे अपने साथ रख लिया,सुलक्षणा आण्टी बोली।।
मायके मे जगह नहीं है मतलब,इनका ससुराल तो होगा क्योकिं मैने देखा है कि इनकी माँग सिन्दूर से भरी है,गले में मंगलसूत्र हैं,हाथों में काँच की चूड़ियाँ है,मुझे कुछ समझ नहीं आया,नीरजा बोली।।
बहुत दर्द भरी कहानी है बेचारी की,सुलक्षणा बोली।।
तो सुनाइए ना! नीरजा बोली।।
तो सुनो और इतना कहकर सुलक्षणा ने गीतांजलि की कहानी कहनी शुरू की.....
बनारस के सेठ जनार्दन प्रसाद अग्रवाल की मिठाइयों की दुकान थी,ये दुकान उनको विरासत में मिली थी,अंग्रेजों के समय में ये दुकान सेठ जी के दादा-परदादाओं ने खोली थी,भगवान की दया से दुकान बहुत अच्छी चलती थी,क्योकिं सेठ जी मिठाइयों में दूध घी उत्तम प्रकार का प्रयोग करते थे,
बस उन्हें एक ही दुख था कि उनके कोई बेटी नहीं है,लगातार चार बेटे होने के बाद उनकी और सेठानी की उम्मीद टूट चुकी थी,लेकिन फिर भगवान ने उनकी सुन ली और अधेड़ उम्र में उनके यहाँ कई पीढ़ियों के बाद बेटी का जन्म हुआ ,बड़े प्यार से उसका नाम गीतांजलि रखा गया ,सेठ जी ने बेटी के पैदा होने का जश्न बड़ी धूमधाम से मनाया।।
बेटी धीरे धीरे बड़ी हो रही थी,जब वो सोलह की हुई तो किसी रिश्तेदार के यहाँ शादी में गई थी,वहाँ उसे चन्द्रप्रकाश मिला,चन्द्रप्रकाश ने जैसे ही गीतांजलि को देखा तो उसे देखकर मोहित हो गया और मन ही मन पसंद करने लगा,वो गीतांजलि के इर्दगिर्द घूमता तो गीतांजलि को अच्छा ना लगता,लेकिन फिर धीरे धीरे गीतांजलि भी उसे पसंद करने लगी,दोनों के दिलों में प्यार का अंकुर फूट पड़ा।।
लेकिन इसी बीच वहीं शादी में आई हुई एक सेठानी ने अपने सबसे छोटे बेटे के लिए गीतांजलि को पसंद कर लिया और गीतांजलि के परिजनों के सामने शगुन के कंगन भी पहना दिए,गीतांजलि बेचारी कुछ ना बोल पाई और ये रिश्ता तय हो गया,गीतांजलि कमरें में जाकर अकेले में रोने लगी,तभी वो सेठानी उसके पास आकर बोलीं....
क्यों रो रही हो? क्या तुम्हें रिश्ता पसंद नहीं? मेरा बेटा बहुत अच्छा है,एक बार तुम उससे मिल तो लो,देखो वो तुमसे मिलने आया है और फिर सेठानी ने अपने बेटे को पुकारा....
बेटा....बेटा ...चन्द्रप्रकाश आना तो जरा!
चन्द्रप्रकाश नाम सुनकर गीतांजलि चौकी और जब वो भीतर आया तो वो सच में गीतांजलि का ही चन्द्रप्रकाश था,गीतांजलि उसे देखकर फूली ना समाई और शादी के लिए राज़ी हो गई....
महीनों पहले से शादी की तैयारियांँ होने लगी,दोनों परिवारों की ओर से खूब धूमधाम मची क्योकिं दोनों परिवारों में ये आखिरी शादी थी,धूमधाम से चन्द्रप्रकाश की बारात गीतांजलि के द्वार पहुँची,बारातियों की खूब आवभगत हुई ,सभी नेगचार निभाने के बाद गीतांजलि अपने पति के साथ एम्बेसडर कार में विदा हुई,सभी बाराती बस में पीछे पीछे जा रहे थें.....
गीतांजलि कार में अपने पति के साथ ससुराल तो पहुँच गई लेकिन पीछे सड़क पर बस का एक्सीडेंट हो गया , बस ऊँचाई से नीचे जा गिरी और बस में आग लग गई,कोई भी ना बचा,पूरा खानद़ान स्वाहा हो गया केवल कोई बचा था तो चन्द्रप्रकाश जो कि अब उस खानदान का आखिरी वारिस था,बाकी वो बच्चे जो अभी अपनी माँओं की गोद में थे।।
सुहाग के जोड़े में गीतांजलि यूँ ही कोने में बैठकर सबका रोना धोना देखती रही,उसी रात उसे अपशगुनी कहकर उस घर की औरतों ने उसे उसके मायके भेज दिया,मायके में जब तक माँ बाप जिन्दा थे तो रहती आई लेकिन अब भौजाइयों का राज था,उस पर उनकी बहुएं गीतांजलि को घर की नौकरानी बनाकर रखती,एक दिन मैं इससे मिलने गई तो इसका दुख मुझसे देखा ना गया और इसे मैं अपने साथ ले आई,इतना कहते हुए सुलक्षणा की आँख से दो आँसू भी टपक गए।।
ओह...तो ये बात है,वैसे कहाँ शादी हुई थी गीतांजलि आण्टी की,नीरजा ने पूछा।।
झाँसी में,सुलक्षणा बोली।।
झाँसी की तो मैं भी हूँ,झाँसी में तो कहीं उनकी कपड़ो की दुकान तो नहीं थी,बहुत बड़ी दुकान है झाँसी में चन्द्रप्रकाश अग्रवाल उस दुकान के मालिक थे,नीरजा बोली।।
मालिक थे मतलब,सुलक्षणा ने पूछा....
वें हमारे पड़ोसी हैं,जिन स्वर्गवासी बड़े भाइयों के परिवार और बच्चों की देखभाल में उन्होंने अपनी पूरी जिन्द़गी लगा दी,दूसरी शादी भी नहीं की और पत्नी को भी त्याग दिया,उन्ही चन्द्रप्रकाश अंकल की अब कोई कद़र नहीं करता था ,उन्हें दुकान पर बैठने नहीं दिया जाता था,नौकरों वाले कमरें में रहते थे वो लेकिन अब वो बहुत बीमार हैं और अस्पताल में भरती हैं,कल ही मम्मी का फोन आया था,मम्मी को भाभी कहते हैं हमारे परिवार से उनके बहुत अच्छे रिश्ते हैं,मम्मी से कह रहे थे कि किसी का दिल दुखाया था उसकी सजा मिल रही है मुझे,काश आखिरी वक्त मैं उससे माँफी माँग पाता,नीरजा बोली।।
और नीरजा की बातें गीतांजलि ने सुन लीं थीं और लगातार उसके आँसू बहे जा रहे थे,वो बोली कुछ नहीं और भीतर चली गई।।
तब सुलक्षणा बोली.....
आज ही जाना होगा झाँसी,मैं और गीतांजलि आज ही जाते हैं।।।
जी बिल्कुल,आप दोनों को जरूर जाना चाहिए,नीरजा बोली।।
और फिर कुछ देर के बाद नीरजा अपने घर वापस आ गई और अपनी माँ को फोन करके सब बता दिया।
और फिर गीतांजलि,सुलक्षणा के साथ झाँसी के अस्पताल पहुँची,चन्द्रप्रकाश बिस्तर पर लेटा था,गीतांजली ने फौरन चन्द्रप्रकाश के पैर पकड़ लिए....
चन्द्रप्रकाश ने देखा तो वो गीतांजलि थी,उसे देखकर बोला....
मैं इस लायक नहीं हूँ,मेरे पैर मत छुओ ।।
और फिर गीतांजलि चन्द्रप्रकाश के सीने पे सिर रखकर फफक फफककर रो पड़ी....
चुप हो जा पगली! मेरे जैसे निर्दयी के लिए मत रो,मुझे माँफ कर दे और इतना कहकर चन्द्रप्रकाश ने प्राण त्याग दिए......
गीतांजलि ताउम्र सुहागन होकर भी सुहागन ना रही,बहुत ही कठिन तपस्या की थी उसने।।

समाप्त.....
सरोज वर्मा....