पहली यात्रा***
एयरपोर्ट में अंदर जाते ही कुछ पूछते, कुछ पढ़ते हुए मैं अपनी एयर सर्विस के विंडो तक पहुंच ही गई। मैंने अपना बोर्डिंग पास लिया।
“क्या मैं खिड़की वाली सीट लेना चाहूँगी?”
इस सवाल का मैंने खुशी से जवाब दिया –“जी जरूर!”
रोली से बात करके आगे बढ़ ही रही थी कि डॉ. देव दिख गये। एक आश्चर्य मिश्रित खुशी…! आज वक़्त ने वो दिखा जो मेरे मन में कहीं दबा पड़ा था। जिसके लिए मेरी धड़कन तेज़ हो जाती थी। मेरा मन कुछ माँगने लगता था। उसे देखकर बात करूं या नहीं यह सोच ही रही थी कि उन्होंने मुझे देख लिया।
मेरे पास आते ही वह बोले “कैसी हो? अरे, उससे भी पहले बधाई! अकेली कहाँ जा रही हैं? मैं भी एकसाथ कितने सवाल कर बैठा। फ़्लाइट में थोड़ा समय हो तो बैठकर बातें करें?”
उनके इतने सारे सवालों में से एक ही जवाब दे पाई- “हां, अभी दो घण्टे बाद लद्दाख की फ़्लाइट है।”
“चलो, तो वहाँ बैठकर कॉफ़ी पीते हैं।” हम दोनों चुपचाप कॉफी शॉप की तरफ़ बढ़ गए।
कॉफ़ी मेरे हाथ में देकर देव मेरे पास बैठ तो गए पर उनके अंदर के सवालों को मैं समझ रही थी। क्या बात करें? क्या पूछें? यही सब हम दोनों के अंदर चल रहा था। ज़िन्दगी भी बड़ी अजीब है। कब क्या दिखा दे कुछ पता नही! वो भी वो, जो हमारे मन की गहराई में कहाँ छुपा बैठा हो। हमें भी याद नहीं होता।
“आपके पति में तो कुछ भी नहीं बदला, आज भी उनके साथ क्यों? अब तो आपको किसी सहारे की ज़रूरत नहीं है। फिर ये अपमान क्यों?”
हमारा रिश्ता, जिसको हम कोई नाम तो न दे पाए पर देव इतना हक रखते थे कि वो मुझसे सीधा सवाल कर सकते हैं। एक मूक सहमति से जुड़ा यह रिश्ता था। जिसे कोई नाम तो न दिया जा सका पर कुछ अरमान हैं यह दोनों जानते थे।
“अपने काम और रोली की परवरिश में इतनी खो गई कि ख़ुद के बारे में सोचना ही भूल चुकी थी। वो तो उस दिन मंच पर पता नहीं कहाँ से वो सब बोल गई…”
“जो आपने कहा वो बहुत बड़ा सच था। जिसे कहने की हिम्मत और चाहत बहुत कम लोगों में ही होती है।”
रोली की बीमारी के समय का साथ मेरी वैवाहिक ज़िन्दगी के वो सब सच खोल गया था जो मैं शायद कभी भी किसी से नहीं कह पाती।
“अब क्या?” ये सवाल पूछते-पूछते वो मेरी आँखों में गहरे तक देखने लगे। जैसे जवाब मैं नहीं मेरी आँखें ही दे देंगी जिसे वे पढ़ भी लेंगे।
एक बार फ़िर मेरी आँखें धुँधला गई। जिनको छुपाने की कोशिश की तो वो बह गई।
किसी तरह अपने आंसुओं को रोका और अपनी बात कहनी शुरू की- “रोली के ठीक होने के बाद आपको देखने की बहुत इच्छा होती थी। घर किसी काम से निकलती तो अस्पताल में आती थी। ठीक दस बजे! जब आप अस्पताल में एंटर होते थे।
वो कुछ सेकेंड के लिए आपको देख लेने का चैन कुछ ऐसा ही था, जैसे तपते रेगिस्तान में मीलों चलने के बाद पानी मिल जाये। आज याद करती हूँ तो अपने पर हँसी आती है।”
आज लगा देव को वह सब बता दूँ जो मेरे अंदर चल रहा था। जिसे मैंने बड़ी मुश्किल से काबू में किया था। एक बार भी मन में ये बात नहीं आई कि मैं ये सब क्यों कह रही हूँ या अब इसका क्या मतलब है? जिंदगी में सब वही होना चाहिए क्या जिसका कोई मतलब हो?
यहाँ बिना मतलब के जो मिल जाता है। सच कहें तो सिर्फ वही जीवन के मतलब का होता है। एक पल पूरे जीवन का प्यार दे सकता है। कुछ अहसास हर साँस के साथ जीते हैं। वही बेमतलब के पल इस जीवन की गाड़ी को ऊर्जा देते हैं।
जो अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करके मन को तार-तार कर देते हैं। उस मन को जोड़े रखने का काम यही पल कर जाते हैं। पाँव के छालों की जलन को कम कर देते हैं। चलने की एक नई ताकत भर देते हैं।
देव की आवाज से मैं अपने आप से बाहर आई “ यह हँसने की नहीं, एक इंसान के अकेलेपन की उसके दर्द की ज़रूरत थी। जो मुझे हर मुलाकात में समझ में आती थी। मगर मैं सीधे से कुछ कहकर आपको परेशान नहीं कर सकता था। आपको देखकर यही लगता था कि आपने एक इंसान को मार दिया है। आपमें सिर्फ एक माँ ही जिंदा है। सब कुछ बहुत साफ दिखता था…” कहकर देव ने अपनी एक बाँह मेरे कँधे पर रख दी।
देव ने मेरे हाथों पर अपना हाथ रख दिया। पहली बार इस इंसान ने मुझे छुआ, जो कभी मेरे मन को भिगो गया था। आज उसका स्पर्श ऐसा लगा कि उठकर उसके गले लगकर वो सारे आँसू बहा दूँ जो आज तक मैंने सम्हाल कर रखे थे।
कितनी देर तक मेरे आँसू गिरते रहे और वो मेरे हाथों पर अपना हाथ रखकर ख़ामोशी से वो सब कह रहा था जो मैं सुन पा रही थी।
बड़ी मुश्किल से अपने आप को रोका। जब आँसू थमे तो मैंने कहा “अस्पताल में आपको देखने आने का सिलसिला रोकना पड़ा। मुझे लगा यदि यही सब चलता रहा तो मैं अपने आपको नहीं सम्हाल पाऊँगी। एक बारह साल की बेटी की माँ, एक अविवाहित डॉक्टर से क्या और क्यों उम्मीद कर रही है?”
“काश! तुमने उन दिनों सिर्फ इतना ही कहा होता कि मैं अभी कोई जवाब देने की हालत में नहीं हूँ। मेरे जवाब का इंतजार करना! तो मेरे ये साल बहुत आराम से बीत जाते। मुझे यकीं था एक दिन हम जरूर मिलेंगे। हम दोनों इस तकलीफ से नहीं गुजरते!”
“फिर ईश्वर क्या करते? जो उन्होंने कर दिया उससे बड़ा क्या है? आज सारे दर्द मोक्ष पा गये। ऐसा लगता है।” मैंने मुस्कुराते हुए कहा। आँसू को मुस्कान का साथ मिल जाये इससे बड़ा कोई संयोग है क्या?
आज मैंने जी भरकर देव की आंखो में देखते हुए कहा- “कुछ समय बाद मेरी व्यस्तता भी बढ़ गई थी। साथ ही मेरी कुकिंग क्लास, टिफ़िन सेंटर का काम चलने लगा। रोली और मैं अपने-अपने काम में व्यस्त हो गए। रोली की पढ़ाई मेरे मन को बहुत शांति देती थी।
आज रोली अपनी इंटर्नशिप के लिए हैदराबाद जा रही है। हम दोनों को एक ही दिन शहर छोड़ना है। उस दिन से लेकर आजतक, आपसे मिलने की बात को समझने वाला ये तय करने वाला, दुनिया को बनाने वाला रचयिता ही हो सकता है। सारे संयोग उसी ने मिलाये हैं ये काम कोई और कर भी नहीं सकता है। मैं पहली बार अकेले वहाँ जा रही हूँ, जहाँ जाने का ख़्वाब मेरे मन में था। अब रोली की ज़िम्मेदारी लगभग पूरी ही हो गई है। रोली से मुझे जो मिला वो मेरा मन भर गया है। अपने बारे में फ़िर कभी सोचा ही नहीं।”
“मन एक माँ का भरा है एक इंसान का नहीं! किसी का साथ सुकून दे सके यह सबकी जरूरत होती है! आपने इस फ़र्क को समझने की कोशिश नहीं की। वैसे जानते हम सब कुछ हैं। समझते नहीं है या चाहते नहीं…” देव ने वो बात कह दी जो सच था।
मैं कुछ जवाब न दे पाई।
बात का रुख़ बदलते हुए देव ने कहा- “मेरी पोस्टिंग उधमपुर में हो गई है। मैंने आर्मी जॉइन कर ली है। अभी भी शादी नहीं की है। मेरे पापा, जिनकी बीमारी के कारण मैं शहर में रुक गया था। अब बिल्कुल ठीक हो गए हैं।”
“यह सब सुनकर मुझे बहुत अच्छा लग रहा है। आज जब नालायक बेटों के कारण माता-पिता वृद्धाश्रम जाने लगे हैं। वहाँ ऐसा बेटा भी है जो अपने से ज़्यादा अपने माता-पिता के बारे में सोचता है।
आप जैसे शानदार इंसान से मिलना मेरा सौभाग्य है। हमारे बीच रिश्ते क्या बने? हम फ़िर मिल पाए या नहीं, इससे ज़्यादा ये महत्वपूर्ण है कि जीवन की इन पगडंडियों पर वो मिल जाये जो हर पल याद रहे, जिसकी यादों से जीवन महक जाए। आँखों में याचना लेकर जीना मुझे पसन्द नहीं है। कमी तो बहुतों के जीवन में होती है। वो फकीर अच्छा है जिसकी आँखे तृप्त है। मैं कैसे सोच सकती थी कि आपके मन में कोई बात है। वो तो एक मजबूर औरत के लिए दया भी हो सकती थी।”
अपनी बात को लगाम देते हुए मैं अचानक पूछ बैठी “आपने अभी तक शादी क्यों नहीं की?”
“ कोई पसंद ही नहीं आया और जिसे पसंद किया वो आज से पहले...!” एक सपाट से जवाब ने मुझे हिला दिया।
“क्यों” एक साथ कई दर्द सिसक उठे।
एक सोलह साल की बेटी की माँ के लिए? मन में आवाज़ उठी।
“आप ये कौन से युग का इंसान है?” मेरे मुँह से निकल गया।
“यही बात मेरी माँ भी कहती है। हर सवाल का जवाब ज़रूरी नहीं है। इसका जवाब तो मैं भी नहीं जानता। हाँ, इतना जरूर समझ सकता हूँ कि शादी कोई ऐसा ज़रूरी काम नहीं है जो सब करें।
बेजान शादियों के परिणाम इस दुनिया में कितने लोग भुगत रहे हैं। जिसके सबसे गन्दे परिणाम बच्चे भोगते है। शादी तब ही कि जाए जब किसी के साथ हर पल, जीने की ख्वाहिश हो।” देव ने अपनी स्पष्ट सोच को बता दिया। जो सही भी था।
“इस सच से तो मैं भी सहमत हूँ। हमारी नींद ही हमारी ज़िंदगी के दुखों का कारण है। हम अपने दर्द से बाहर तब ही निकल सकते हैं जब हमें ये अहसास हो कि हम तकलीफ में हैं। मैंने शादी के बाद ही ये समझा कि मेरी हालत कैसी है और मुझे क्या करना है? शादी दूसरों के कहने से नहीं होनी चाहिये। पर एक बेरोजगार लड़की ये निर्णय नहीं ले सकती थी। उससे पहले तो मैं ‘जैसा माता-पिता चाहें’ उसी तक सीमित थी। मुझे आज अपने आप से एक सन्तोष ज़रूर है कि जब मैंने चलना शुरू किया तो वक़्त ने मेरा हाथ थामा।”
मेरा ध्यान अनाउंसमेंट की आवाज पर ध्यान गया तो मैंने देव से कहा- “मेरी फ्लाइट का समय हो गया है।” कहकर मैं इस खूबसूरत दायरे से अपने को बाहर ले आई।
कुछ लम्हें एक युग जितना सुकून क्यों दे जाते है? इस सवाल का जवाब वो हर इंसान शब्दों में बयान तो नहीं कर पायेगा जिसने इन्हें जिया है। पर उसकी मुस्कुराहट हर सवाल का जवाब बन सकती है।
“मेरा भी।” कहकर देव ने मेरा भी लगेज अपने हाथ से आगे बढ़ाया और हम सिक्युरिटी गेट की ओर बढ़ गये।
आज अचानक याद आ गया जब रोली छोटी थी तो एक हाथ में रोली, कँधे पर एक बैग और हाथ में अटैची लिये मैं कैसे चलती थी? कभी ख़्याल भी नहीं आया कि इनमें से कुछ पति भी उठा सकते थे। तब मेरे मन में एक ही बात होती थी कि पति किसी बात पर चिल्ला न पड़ें। सब ठीक-ठाक हो जाये बस इतना ही सोच पाती थी।
आज अचानक, चलते-चलते यूँ ही कोई…
अब हमारे रास्ते अलग थे। जीवन में रास्ते किसी को कहीं भी ले जाये, क्या फ़र्क पड़ता है? मिलन तो दिलों का होता है। जिनके दिल मिल जाये… उनके लिए रास्तों का क्या महत्व है?
देव से हाथ मिलाकर विदा होना ऐसा लगा जैसे जीवन में सबकुछ मिल गया। एक पूर्णता के अहसास से मैं भर गई। आजतक मेरे अंदर एक माँ ही ज़्यादा जीती थी। इस पल से एक इंसान, एक औरत भी जी गयी। विमान के अंदर जाते समय मेरी चाल में जो अहसास था उसे किसी भी शब्द से समझाना असंभव था।
अब सिर्फ रोली से दूर होने का ही दर्द था। कुछ ही मिनटों के बाद लद्दाख की पहाड़ियां दिखने लगी। प्रकृति! ईश्वर का इंसान को मिला एक अनुपम उपहार! हर पर्वत इतना सुंदर, विशाल और अद्भुत लग रहा था कि जैसे प्रकृति ने हर एक को अपने हाथों से सँवारा हो।