पहले कदम का उजाला - 14 सीमा जैन 'भारत' द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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पहले कदम का उजाला - 14

सफलता के बाद***

मैंने घर में रखे उपहारों में से एक सुंदर सी साड़ी उठाई और मन्दिर गई। ईश्वर से आज कुछ न कह पाई। वो तो सब जानते हैं। अब उनसे मैं क्या कहती?

प्रभु,

मोती कैसा चाहते हो?

सागर से लाऊँ या आंखों से दे जाऊँ?

दोनों ही तुम्हारे हैं!

एक दर्द में, एक गहराई में,

एक हम सब के लिए अनमोल,

एक का किसी के लिए कुछ मोल!

दुनिया को बनाने वाले,

मुझे और सीप को रचने वाले,

 

तुम क्या देने पर पिघलते हो?

यह तो सब जानते हैं!

तुम को पाने के लिए सीपियों को क्यों छानतें हैं?

जानकर अनजान बनते हैं।

तुमको मोतियों से तौलते हैं।

किसी की आंख के आंसू उन्हें नहीं दिखते हैं।

फिर भी वो तुमसे आशीर्वाद मांगते हैं।

तुम चुप, सदा मुस्कुराते हो।

मोतियों का फ़र्क और मोल,

सिर्फ तुम ही जानते हो।

मेरा हर एक दर्द, मेरा हर एक मरहम उनसे छुपा नहीं था। उन्होंने मेरी प्रार्थना सुनी थी। बस उसके लिए मैं हाथ जोड़कर उनके सामने खड़ी थी।

आज उन्होंने मुझे वो दिखा दिया जो मैंने सोचा भी नहीं था। मैं तो बस खर्चे के कुछ पैसे ही चाहती थी। उन्होंने तो हर अपमान का बदला, एक सम्मान से दिलवा दिया।

मन्दिर से निकलकर काकी के घर गई। पंडितजी, काकी ने बहुत प्यार किया, बहुत दुआएँ दी। आज काकी की गोद में सर रखकर बहुत रोई। इस आँचल ने मेरा कितना साथ दिया। ज़िन्दगी ने कितने सुख, कितने दुख दिये ये गिनने बैठती तो सुखों का पलड़ा ही भारी होगा। आज भी काकी ने मिठाई खिलाई। मुझे अब उस स्वाद की ज़रूरत नहीं थी पर उनका प्यार, वो तो आज भी मेरी ज़रूरत था।

काकी बातों- बातों में कुछ बता दे जो मेरे कान सुनने को तरस रहे थे। जिसका अब कोई मतलब तो नहीं था फिर भी इस दिल को कौन समझाए? काकी को क्या पता मेरे अंदर क्या चल रहा है। वो तो आज बहुत खुश थी। मेरे सर पर हाथ रखकर उन दोनों ने मुझे ढेरों आशीर्वाद दिये।

दोपहर का खाना मुझे माँ के साथ ही खाना था। वो सुबह ही फोन कर चुकी थी। आज माँ-पापा बहुत प्रेम से मिले। उनके प्रेम के नीचे छुपा उनका सिसकता हुआ दर्द दिख रहा था। दोनों बेटों का छोड़कर जाना उन्हें खाली कर गया था।

“माँ, अपना और पापा का ध्यान रखो! ख़ुश रहो! तुम्हारे दुखी होने से कुछ नहीं बदलेगा। इस उम्र में अपने स्वास्थ्य का ख़्याल रखना सबसे बड़ी ज़रूरत है।

एक बार सोचो तुमको या पापा को कोई बीमारी हो गई तो कितनी परेशानियाँ उठानी होगी? जो आज है, बहुत है! इसके साथ सन्तोष से जीना एक तरह की प्रगति ही है माँ!” अचानक लगा मैं तो माँ की माँ हो गई हूँ।

मैंने हँसकर बातचीत का रुख़ बदला “मैं भी तुमको क्या समझाने लगी? तुम तो बहुत अच्छी हो माँ!”

माँ की आँखों में आँसू आ गये वह बोली “अच्छी होती तो अपनी बेटी का दर्द समझती। उसे कसाईयों के पास नहीं भेज देती। उस दिन तो मुझे आने वाली लक्ष्मी ही दिख रही थी। सच, हम सब अपने कर्मों का फल ही पाते हैं। जो इस समय हमारे साथ हुआ हम उसी के हक़दार हैं। किसी को दोष देना ठीक नहीं!” कहकर माँ ने अपने आँसू पोछें।

मैंने माँ के ऊपर अपना हाथ रखा ‘मुझे कोई शिकायत नहीं है।’ मैं जो कहना चाहती थी। वह मेरे स्पर्श ने कहने की कोशिश कि…!

माँ ने आज डोसा- साँभर बनाया था। अपनी और पापा को थाली लगाते हुए मैंने माँ से पूछा “तुम्हें तो ये सब चीजें बनाना नहीं आती थी। ये किससे सीखा?”

“अरे, हमारे पास में विभा रहती है ना वह तेरी क्लास में आती थी। उसनें मुझे भी सीखा दिया।”

“अरे, वाह तुमनें सब बहुत बढ़िया बनाया है माँ!”

“विभा तो अब ये सब जेल की महिलाओं को सीखाने जाती है। ये सब उनके रोज़गार का साधन होगा। अब तक हमारे जेल के पुरुषों के हाथ के बने सामान मेले में बिकते थे। अब महिलाएँ भी खाने-पीने के सामान बना कर दिया करेगीं।”

“यह तो बहुत अच्छा काम कर रही है वह। कितने लोग हैं जो लोगों की सहायता निष्काम भाव से करते हैं!”

“विभा कहती है ‘तेरे हाथ जैसा खाना बनाना जिसने सीख लिया वो कभी भूखा नहीं रह सकता। कुछ न कुछ कमाई तो कर ही लेगा।”

सांभर को खाते-खाते माँ से बात करते-करते मन बहुत पीछे चला गया। मेरे पति और सास मेरे हाथ का बना सांभर नही खाते थे। वो बाज़ार से लेकर आते थे।

डोसा, आलू, चटनी सब मेरे हाथ कि पर ‘सांभर मुझे बनाना नहीं आता है। वह उन दोनों से खाया नहीं जाता है।’ किसी को नीचा दिखाने के कितने रास्ते हो सकते हैं ये एक बीमार दिमाग़ ही बता सकता है।

“सरोज, तू खाना खा रही है या कुछ सोचने लगी बेटा?”

“अरे, कुछ नहीं माँ ये सब तो रोली के लिए भी देना अब घर जाकर उसे भी यही खिलाऊँगी। देखना वो तुमको फोन करेगी कि सब बहुत अच्छा बना है।” माँ को ख़ुश रखना ज़रूरी लगा। उन्हें किसी भी बात से परेशान करना ठीक नहीं…

रात को जब घर आई तो मुझे अपनी सास की ज़िंदगी और सोच को देखकर एक ही बात मन में आई, कैसा जीवन जिया है इन्होंने? प्रेम के बिना जीवन जीना भी एक सजा ही तो है! इनको बहुत छोटी उम्र में ब्याह दिया गया।

शादी के पाँच साल बाद पति के गुज़र जाने पर एक विधवा को घर में कैसे कैद करके रखा गया, उनकी आज की सोच पर उसी की छाप है। उसी की प्रतिध्वनि है। वे पति के साथ नहीं रह पाईं तो उन्होंने बेटे को अपने से दूर नहीं होने दिया। जिस बेटे को आज तक पाला उसे किसी से बांटना उनके लिए सम्भव नहीं है।

दुःख में अपने आप को सम्हाल पाना आसान नहीं होता। यह अधिकतर एक बीमारी का रूप ले लेता है जो फिर दूसरों के जीवन को संक्रमित करता है।

इस संक्रमण से ख़ुद को बचा पाना आसान नहीं। इसके लिए मन में एक प्रतिज्ञा चाहिए फिर जीवन के रास्ते बदलने लगते हैं। नहीं तो ये आग पूरे जीवन को कालिमा दे जाती है।

ऐसा अधिकतर लोगों के जीवन में होता है। उन्हें कोई सताता है फिर वो किसी के साथ वही सब करते हैं जिससे वो गुज़रे हैं। बहुत कम ही होते हैं जो दर्द से गुज़रते हुए बीमार नहीं होते और अपने इलाज़ के रास्ते ढूंढ लेते हैं।

इन तीन दिनों में मैंने अपने भीतर एक यात्रा कर ली। एक बार फिर उन रास्तों से गुज़री जहाँ से होकर यहाँ तक आ सकी। एक सुकून, एक गर्व से भर गई। मैंने जो पाया वो ही नहीं किया, अपना रास्ता ही बदल लिया…

आज चौथा दिन आ गया जब मुझे लद्दाख जाना है। रोली मुझे अपने साथ एयरपोर्ट तक छोड़ने आई। घर की शांति बनी रही। मैं चुपचाप अपनी अटैची लेकर घर से बाहर निकल गई।

प्यार से विदा किया जाये इसकी तो उम्मीद भी नहीं थी। शांति से बाहर निकल पाना किसी सम्मान से कम नहीं था।

रोशनी से जगमगाता एयरपोर्ट! जहाँ गाड़ियाँ आ-जा रही है। लोग अकेले या किसी के साथ चल रहें हैं। इतनी गहमागहमी देखकर मैंने रोली का हाथ कसकर पकड़ लिया। जिसमें छुपी बात वह मुझसे पहले समझ गई।

हँसते हुए बोली- “डरो मत, सब ठीक होगा!” रोली मुझे जाते हुए देख रही थी।

मैं अपना टिकिट दरवाज़े पर दिखा रही थी। अंदर की ओर कदम बढ़ते की पीछे से रोली की बहुत ज़ोर से आवाज़ ने मुझे पलटने पर मजबूर किया।

डर कर पीछे देखा ‘माँ-बाबूजी खड़े थे।’ टिकिट चेक करने वाले सज्जन से कुछ कहना नहीं पड़ा। उन्होंने मुस्कुराकर टिकिट वापस कर दिया।

माँ ने मुझे बाहों में भर लिया। “अरे माँ, बताया क्यों नहीं? बस एक पल का फासला रहा गया। नहीं तो हम नहीं मिल पाते।”

“सुबह तेरे बाबूजी ने कहा तो हम तैयार हो गये। चल मिलना तो हो ही गया ना!”

बाबूजी ने प्यार से सर पर हाथ रखते हुए कहा “सरोज अपना ध्यान रखना बेटा! अब तू जा तुझे देरी न हो जाये! रोली को छोड़ते हुए हम मन्दिर जायेंगे। आज वहाँ भंडारा है वो खा कर घर चले जायेंगे। आज हमारी शादी की सालगिरह है।” बाबूजी ने मुस्कुराते हुए कहा।

“वाह! ये तो बहुत ख़ुशी की बात है। आप दोनों ऐसे ही ख़ुश रहना! लौट कर आती हूँ फिर मिलते है।” मैंने बाबूजी के कंधे को छू कर कहा और एक बार फिर जल्दी से आगे बढ़ गई। इस बार मेरे प्यार की पोटली और भारी हो गई थी।