उजाले की ओर --संस्मरण
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नमस्कार मित्रों !
झरोखों से झाँकता किसका जीवन किस ओर बहा ले जाए पता ही नहीं चलता |
सच ही तो है,हम कहाँ जानते हैं किस डगर पर हैं और न जाने किस डगर पर पहुँच जाते हैं ?
दरअसल,हम अपने ही मार्ग में खोने लगते हैं | अटकता,भटकता जीवन झरोखे से झाँककर हमें रोशनी की छाजन सी लकीर दिखाता है |
किन्तु हम उसे नज़रअंदाज़ कर जाते हैं | अपने ही मार्ग में भटकते रहते हैं और फिर खो जाते हैं |
जीवन की यही बात बड़ी मजेदार है कि हम सोचते रह जाते हैं और वह हमें वहाँ लेकर पहुँच भी जाता है ,जहाँ उसे हमको लेकर जाना होता है |
कभी कभी मनुष्य खुद से पूछता है ,गफलत में घिर भी जाता है ,आखिर उसने सोचा तो था नहीं ,वह कैसे इन रास्तों पर पहुँच गया |
यही तो---समय मनुष्य को अवसर देता है ,प्रतीक्षा भी करता है लेकिन यदि मनुष्य समय पर उसकी बात न सुने तो ले तो ज़रूर जाता है जहाँ उसे ले जाना होता है |
ज़िंदगी की ऊबड़-खाबड़ ,टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियाँ कोई हिसाब-किताब नहीं रखतीं ,वे तो बस आगे बढ़ती ही रहती हैं और मनुष्य उन पर लुढ़कता रह जाता है |
आज मुझे याद आ रही है अपने साथ हुई उस घटना की जिसे भूलना नामुमकिन है |
कुसुम नाम था उस लडकी का ! अच्छे ख़ासे परिवार की लड़की ! सब कुछ तो था उसके पास |
मेरे साथ इंटर कॉलेज तक पढ़ी थी फिर शहर के को-एजुकेशन में डिगरी-कॉलेज में भी मेरे साथ ही थी |
उसी कॉलेज में राजबीर नाम का एक लड़का था ,ये दोनों चौहान जाति के थे |
हमारे ज़माने में जाति-पाति का भेदभाव कुछ अधिक ही होता था |
ये दोनों एक ही जाति के थे ,कॉलेज में सीनियर अवश्य थे किन्तु कुसुम से मित्रता होने के बाद हमारे पूरे ग्रुप से उनकी मित्रता हो गई |
अपने से बड़ों को सम्मान देना हमें बालपन से सिखाया जाता है ,वो बड़े थे सो हम सब लड़कियाँ उन्हें राज भैया कहकर पुकारने लगे |
कुछ ही समय में पता चल गया कि कुसुम व राजवीर प्रेम में बंध चुके थे |
हम सब तो मित्र थे उनके सो उन दोनों का साथ देना ही था |
अफवाहों में सुना कि राजवीर एक डाकुओं के गिरोह के साथ मिला हुआ है |
हम तो उन्हें भाई कहने लगे थे सो इस झरोखे से आती हुई बात पर विश्वास कैसे करते |
साथ देने की सोची तो पक्का साथ ही दिया |
ये सब बातें आप मित्रों को अद्भुत लगती होंगी न लेकिन ज़माना दूसरा था | वैसे चोरी -चपाटी कम होतीं लेकिन डाका पड़ने पर पूरे शहर में शोर मच जाता |
आप लोगों ने फिल्म में जैसे देखा होगा | डाकुओं का गैंग आता ,सोए हुए लोगों को उठाकर अलमारियों की चाबी लेता |
उनकी आँखों के सामने से सब बहुमूल्य सामान निकालता और गायब हो जाता |
यानि जब तक दिमाग कुछ सोचता ,आँखें पूरी तरह खुलतीं तब तक तो सब कुछ समाप्त हो जाता |
उन्हीं दिनों किसी ने बताया था कि राजवीर उस गैंग का मुखिया है लेकिन किसी ने विश्वास ही नहीं किया |
कुछ ही दिनों में कुसुम और राजवीर का मंदिर में विवाह हो गया और उनकी गृहस्थी चलने लगी |
वैसे ग्रेजुएशन के बाद राजवीर को बैंक की नौकरी मिल गई थी |
हम सब मित्र खुश थे उनकी गृहस्थी को देखकर | हम ही तो उनके विवाह के साक्षी थे |
हम सबकी मित्रता यूँ ही बनी रही |
लेकिन एक दिन गाज गिरी और पता चला कि शहर के किसी विख्यात डॉक्टर के यहाँ डाका पड़ा है |
उसमें राजवीर भी था | पुलिस आई और मुठभेड़ में उसके गोली लग गई |
अब तक कुसुम गर्भवती हो चुकी थी |
राजवीर को तुरंत अस्पताल ले जाया गया ,वह बच तो गया था लेकिन उसकी एक टाँग काट देनी पड़ी थी |
कुसुम की शर्मिंदगी भरा जीवन उसे प्रतिदिन प्रताड़ित करता |
राजवीर को दस साल की कैद बामुशक्कत दी गई थी |
कुसुम उसको मिलने भी न गई ,उसके ज़मीर ने गवारा ही न किया था |
ठीक होकर राजवीर को जेल में रखा गया लेकिन वह दो साल में मौका मिलते ही जेल से फ़रार हो गया |
कुसुम को एक छोटे स्कूल में नौकरी मिल गई थी ,उसके मायके के परिवार ने तो उसे पहले ही छोड़ दिया था |
उनके कानों में भी बाहरी अफवाहें आ गईं थीं और वे नहीं चाहते थे कि उनकी बेटी उस शख़्स से विवाह करे जिसके बारे में शहर में अफवाहें थीं |
लेकिन उस समय युवावस्था के जुनून ने उसे प्रेम के झूठे आवरण में समेटे रखा |
समय पर उसने एक बेटे को जन्म दिया |
अपने बेटे के साथ न जाने कितनी तकलीफ़ों में उसना अपना समय गुज़ारा ,
लेकिन एक बार चुपके से राजवीर के आने पर उसने अपने बेटे को उसके पिता से नहीं मिलवाया |
कभी-कभी ज़िंदगी में ऐसी परिस्थितियाँ आती हैं कि आदमी की आँखों पर पर्दा पड़ जाता है |
ऐसा ही पर्दा कुसुम की आँखों पर पड़ा था ,साथ ही हम दोस्तों की आँखों पर भी तो था |
काश ! हममें से कोई भी उस सच्चाई को समझ पाता जो उस लड़की के साथ होनी थी !!
लेकिन होनी को कौन टाल सका है ??????????
आपकी मित्र
डॉ. प्राणवा भारती
बस---