UJALE KI OR --SNSMARAN books and stories free download online pdf in Hindi

उजाले की ओर----संस्मरण

उजाले की ओर ----संस्मरण

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नमस्कार स्नेही मित्रों !

ज़िंदगी रूठती,मानती-मनाती चलती है | पर,चलती तो रहती ही है न चले तो ज़िंदगी शब्द का अर्थ ही कहाँ रह जाता है ?

सपनों की सी डगर पर चलती ज़िंदगी को ताप की वास्तविकता को झेलने के लिए आ खड़ा होता है इंसान !

होता क्या है ,वह मज़बूर होता है,ताप झेलने के लिए क्योंकि मनुष्य का प्रारब्ध उसके साथ बंधा रहता है |

मुझे अपने बचपन की बहुत सी बातें याद आने लगती हैं ,ऐसा लगता है मानो अभी सब-कुछ मेरे सामने चित्र की भाँति चल रहा हो |

मैंने पहले भी कई बार लिखा है कि शायद ज़िंदगी एक उम्र में आकर पीछे के वरख पलटने लगती है |

हम न चाहते हुए भी उन पन्नों को पढ़ने लगते हैं | जैसे-जैसे पढ़ते जाते हैं ,वैसे-वैसे उन्हीं क्षणों के हिस्सेदार बन जाते हैं |

दिल्ली से पढ़कर आने के बाद मैं मुज़फ्फ़रनगर (उ.प्रदेश) में उसी इंटर कॉलेज में पढ़ने लगी जिसमें माँ पढ़ती थीं |

हमारे ज़माने में दसवीं के बाद 11 व 12 को इंटर कहा जाता था | उसके बाद कॉलेज में आते |लेकिन 11,12 को भी कॉलेज ही बोला जाता था 'इंटर-कॉलेज'

फिर 13,14 का बी.ए ---बाद में 15 ,16 एम.ए ----

उन दिनों मैं 11हवीं की छात्रा थी |

मेरे साथ माँ की सहआध्यापिका राजेश्वरी गोयल जी की बेटी भी पढ़ती थी जिसका नाम साधना था |

अब पुराने मित्रों व सहपाठियों की याद अचानक आने लगी है | इतने लंबे समय तक जिन्हें नहीं तलाशा अब उन्हें एफ.बी पर खोजा जा रहा है |

कोई अचानक से मिल जाए तो दिल में घंटियाँ बजने लगती हैं लगता है अभी जाकर गले मिल लो |

फिर फ़ोन पर ही बतियाया जाता है और कभी ऐसा भी होता है कि पुरानी,पीली पड़ी अधफटी डायरी के पन्नों से मिले नंबर को डायल करने से

पता चलता है कि अचानक ही हाथ में पकड़ा फ़ोन काँपने लगा है ,इस खबर को सुनकर कि कुछ समय पहले ही -----

कलेजा मुँह को आने लगता है और छूटे हुए अन्य मित्रों की याद इस कदर आने लगती है कि क्या बताएँ ---

आज मैं साधना को याद कर रही थी जिसकी मम्मी भी अम्मा के साथ इंटर कॉलेज में अध्यापिका थीं |

मैं और साधना अधिकतर कॉलेज से साथ लौटते थे और लगभग ढाई,तीन मील का रास्ता खिलखिल करते हुए तय करते थे|

सुबह के समय तो हमें अपनी अम्मा के साथ जाना होता ,वो भी पैडल-रिक्शे में |

सो,शैतानी की कोई गुंजायश नहीं रहती थी |

लौटते समय हम रिक्शा के लिए मिले हुए पैसों से गोल-मार्केट में खड़ी दुकानों या मिठाई की दुकानों से कुछ चटर -पटर लेकर खाते आते |

अधिकतर घर आकर खाना खा ही नहीं पाते क्योंकि सारे रास्ते तो कुछ न कुछ खाते हुए ही आते थे |

एक दिन मैं और साधना ऐसे ही गपियाते आ रहे थे कि एक बूढ़ा आदमी मिला जो ज़ार-ज़ार रो रहा था |

उसने कहा कि उसका जवान बेटा मर गया है जिसके क्रियाकर्म के लिए उसे पैसे माँगने पड़ रहे हैं |

हमारी जेबों में पैसे खनखना रहे थे और कुछ बढ़िया खाने का सोचकर मुँह में पानी भरा हुआ था |

हम अपनी प्रिय जगह पर पहुँचने वाले ही थे कि इन वृद्ध को देखकर ठिठक गए |

हमें हर रोज़ एक दुअन्नी मिलती थी यानि दो आने जिसमें से कभी हम एक आना बचा भी लेते और अगले दिन अधिक चीज़ें खाते |

उस वृद्ध की बात सुनकर हमारी भूख,हँसी सब उड़ गई और हम उसके आँसू पोंछने के यत्न में अपनी जेबें खखोलने लगे |

हम दोनों के पास कुल मिलकर छह आने हुए जो हमने उस रोते हुए वृद्ध की हथेली पर रख दिए |

स्वाभाविक था ,हम दोनों का मूड बहुत खराब हुआ कि इतने बूढ़े आदमी का सहारा टूट गया |

उस दिन हमारी हँसी को जैसे ग्रहण लग गया | अम्मा देर में आया करतीं थीं |उनके आने पर उन्हें भी बताया गया |

उस दिन राजेश्वरी बहन जी को कहीं और जाना था | वे कुछ देर में घर पहुँचीं |

घर पास होने के कारण वे कहीं भी आते-जाते हुए गेट पर आकार आवाज़ लगा लेतीं | अम्मा और वे खड़े-खड़े पाँच,दस मिनट बातें कर लेते |

उस शाम को वे साधना के साथ कुछ खरीदारी करने जा रहीं थीं | रोज़ाना की तरह उन्होंने आवाज़ लगाई और अम्मा के साथ मैं भी गेट पर पहुँच गई |

राजेश्वरी बहन जी उस दिन काफ़ी उदास थीं ,उनके पति बहुत कम उम्र में ही गुज़र गए थे और वे अपनी बेटी के साथ अकेली ही रह रही थीं |

माँ के पूछने पर उन्होंने बताया कि वे अपने किसी रिश्तेदार के यहाँ काम से गईं थीं लेकिन रास्ते में एक बूढ़ा आदमी मिला जिसने अपने जवान बेटे को खो दिया था |

उसके क्रियाकर्म के लिए वह बेचारा भीख माँग रहा था |

उनकी बात सुनकर मेरे और साधना के कान खड़े हुए | हम दोनों ने वहीं खड़े-खड़े अपने साथ हुई घटना भी बताई |

आश्चर्य था एक ही दिन में हम सबको वह आदमी टकराया था लेकिन अलग-अलग जगह पर |

इतनी देर में हमारा दूध वाला भी साइकिल पर आ गया | उसने ये सब बातें सुनीं और हँसकर बताया कि वह बूढ़ा तो पंद्रह दिन से अलग-अलग जगहों पर

यही कहकर भीख माँग रहा है | उसे तो वह रोज़ देखता है | वास्तव में उसके कोई बेटा है ही नहीं |

हम दोनों किशोरियाँ थे ,जानकर बहुत धक्का लगा कि भीख माँगने का कितना घिनौना कारण चुना था उसने !

दो दिन बाद पता चला कि वह बूढ़ा भीख माँगते हुए किसी बस के पहिए के नीचे आ गया |

बहुत दुख हुआ लेकिन यह बात समझ में आई कि गलत काम का नतीजा गलत ही होता है |

उसे प्रकृति की ओर से ही सज़ा मिल गई थी | सड़क के लोगों ने पुलिस को बुलाया ,तलाशी में उसके पास कई सौ रुपए मिले जिनसे लोगों ने उसका संस्कार किया |

बाकी पैसे तो कहाँ गए होंगे ---यह खुद ही सोचा जा सकता है |

जब भी यह बात याद आती है ,आज भी मन परेशान हो जाता है और यही दिमाग में आता है कि --

करम गति टारे नाहीं टरे ------

आपकी मित्र

डॉ. प्रणव भारती

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