उजाले की ओर ---संस्मरण Pranava Bharti द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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उजाले की ओर ---संस्मरण

उजाले की ओर ---संस्मरण

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नमस्कार स्नेही मित्रों !

संदीप का काफी बड़ा परिवार है | सब एक-दूसरे के सुख-दुख में शरीक होते | घर में तीन भाई ,एक बहन ,माता-पिता ,संदीप के दादा-दादी !

इतने बड़े परिवार का काम करने में उसकी माँ बुरी तरह थक जातीं किन्तु वे सबकी आवश्यकताएँ पूरी करतीं |

उन्हें बड़ी तृप्ति मिलती जब सबको संतुष्ट देखतीं |

समय की गति के साथ बच्चे बड़े हुए | बहिन बड़ी थीं ,उनकी शादी हो गई |

संदीप के बड़े भाई भी नौकरी पर लग गए | पिता की अपनी निजी कैमिस्ट-शॉप थी |

इस दुकान पर पहले वे अपने पिता के साथ जाते थे |

पिता अधिक उम्र-दराज़ होते जा रहे थे ,अशक्ति भी रहने लगी थी |

संदीप के पिता ने उनको अब घर पर ही आराम करने के लिए कहा |

अब परिवार तो उतना ही था केवल बहिन का विवाह हुआ था लेकिन संदीप की माँ की उम्र तो बढ़ रही थी |

स्वाभाविक था ,वे इतना काम न कर पातीं किन्तु उन्होंने कभी भी अपने कर्तव्य से मुँह नहीं चुराया |

दो लड़के काफ़ी उम्र के हो चुके थे ,उनके विवाह के लिए रिश्ते आ रहे थे | अच्छे घर की लड़कियाँ उनके जीवन में आ गईं |

यहाँ यह प्रश्न है कि अच्छा घर क्या होता है ?

शाद वही जहाँ एक-दूसरे का ध्यान रखा जाए ,जहाँ रिश्तों में लगाव रहे ,जहाँ एक को पीड़ा हो तो दूसरे को भी उसका एहसास हो |

अधिकतर शादी के मामले में यह प्रयास रहता है कि परिवार का 'बैक ग्राउंड' का पता हो ,लड़के,लड़की के स्वभाव व चरित्र के बारे में पता चल सके |

यह सब इस परिवार के लोगों ने किया ,स्वाभाविक है दूसरी पार्टी के लोगों ने भी यही किया |

संतुष्ट होने के बाद दो बड़े लड़कों के विवाह हो गए |

परिवार में एक बेटी थी ,उसकी जगह दो बेटियाँ आ गईं |

बड़े स्वागत-सत्कार से उन्हें घर पर लाया गया |

संदीप भी बड़ा हो रहा था | उसने फ़ार्मेसी करने के बाद अपने पिता के साथ अपनी दवाइयों की दुकान पर बैठना पसंद किया |

स्टाफ़ था किन्तु दादा जी के अब दुकान पर न आने से उसके पिता अकेले तो पड़ ही गए थे |

पिता को संदीप का सहारा मिल गया |अब उनके पास यह भी चौयस थी कि संदीप पर वे अपना कार्य -भार छोड़ सकते थे |

किन्तु संदीप की माँ ने बहुओं को बेटियाँ ही बना लिया था | वे उन्हें सब चीज़ें उनकी पसंद की बनाकर देतीं |

बेटे-बहू को साथ में बिताने के लिए समय भी देतीं लेकिन उनकी भी हड्डियां कमज़ोर होती जा रही थीं |

सास-श्वसुर की सेवा भी बढ़ गई थी | उनके लिए एक आया को अलग से रखा गया किन्तु उनकी सब आवश्यकताओं का ध्यान तो संदीप की माँ को ही रखना होता |

धीरे-धीरे वह कमज़ोर व चिड़चिड़ी होने लगीं लेकिन किसीको उनका ख्याल ही न आया |

यानि उनके काम को इस कदर ग्रांटेड ले लिया गया कि वे आनमनी हो चलीं |

प्रशंसा खूब होती किन्तु प्रशंसा अच्छी लगती है ,उससे थकान तो नहीं उतरती |

दोनों बहुओं को उन्होंने इतने लाड़ लड़ाए कि वे भी अपनी दादी सास के समान उन पर अपना हक़ समझने लगीं |

संदीप की माँ पूर्णिमा ताउम्र काम करते -करते बुरी तरह टूट चुकी थीं |

उनके अपने घर में उन्हें यह शिक्षा मिली थी कि वे अपनी ससुराल के सारे कर्तव्यों को पूरा करेंगी ,किसी भी काम से जी न चुराएंगी |

इसका परिणाम यह होगा कि उन्हें ग्रेंटेड ले लिया जाएगा ,यह किसीको ख्याल भी नहीं था |

लेकिन ऐसा हुआ | अपने मुख से किसीको एक भी शब्द न कहने वाली संदीप की माँ ने बिना कुछ बताए एक दिन घर की चौखट लाँघ ही ली |

पूर्णिमा इस समय पैंसठ वर्ष की हो चुकी थीं |उनके विवाह को पैंतालीस वर्ष हो चुके थे | उनके पैरों में भयंकर पीड़ा होती फिर भी किसीको कुछ समझ में नहीं आ रहा था |

उनके अपने एकाउंट में बहुत अधिक पैसा तो नहीं लेकिन इतने पैसे ज़रूर थे जिसके ब्याज से वे एक मध्यमवर्गीय वृद्धाश्रम में रह सकती थीं |

उन्होंने घर बैठे ही नैट से कई वृद्धाश्रमों के पते खोज कर कब उनसे बात कर ली थी ,किसीको कानोकान खबर न पड़ी |

हमारे समाज में ऐसे प्रश्न उठते रहते हैं ,इनका कारण केवल एक ही है कि हम उसीके ऊपर अधिक लोड डाल देते हैं जो ईमानदारी से अपने कर्तव्य पूरे करता रहता है |

इस प्रकार के कई उदाहरण हमारे सामने आते हैं किन्तु हम उन्हें देखकर भी इस विषय पर या तो सोचना नहीं चाहते या जान-बूझकर इन प्रश्नों से बचना चाहते हैं |

मित्रों ! सोचकर देखें क्या ये प्रश्न किसी न किसी रूप में हमारे जीवन में नहीं आते ?

हम सब मनुष्य हैं ,मध्यम वर्ग से जुड़े मनुष्य की जिम्मेदारियाँ लगभग एक सी ही होती हैं |

क्या हमें परिवार के प्रत्येक सदस्य के प्रति चैतन्य नहीं रहना चाहिए ?

जो हमारा ध्यान रखता है ,उसका ध्यान रखने के लिए क्या हमें तत्पर नहीं रहना चाहिए ?

महत्वपूर्ण प्रश्न हैं जिन पर चिंतन करना आवश्यक है |

उससे भी तो पूछें कभी जो रखता है ध्यान ,

उसको भी आराम दें और करें सम्मान !!

आपकी मित्र

डॉ. प्रणव भारती