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उजाले की ओर--संस्मरण

उजाले की ओर--संस्मरण

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नमस्कार

स्नेही मित्रों

मैं अधिकतर आपसे अपने ज़माने यानि 50/60 वर्ष पूर्व की बातें साझा करती हूँ |

वैसे मैं आज भी हूँ तो ये ज़माना भी हमारा ही हुआ न !

हमारी पीढ़ी ने न जाने कितने-कितने बदलाव देखे जिनके लिए कभी-कभी आज भी आश्चर्य होता है |

क्योंकि हम स्वयं इसके साक्षी हैं तो स्वाभाविक रूप से तुलना भी हो जाती है और हमारे आश्चर्य को स्वीकारोक्ति भी मिल जाती है |

हमने अपने बालपन में जिन चीज़ों,बातों की कल्पना की ,वे केवल उड़ान भर थीं लेकिन आज हम उन्हें जी रहे हैं |

हमारी पीढ़ी के साथ आज की युवा पीढ़ी के लिए भी हमारे ज़माने की बातें कम आश्चर्यचकित करने वाली नहीं होतीं |

इसके विपरीत जब हम अपनी चौथी पीढ़ी के साथ उसी उत्साह से अपना जीवन साझा करते हैं तो वो भी इसी प्रकार आश्चर्य में पड़ जाते हैं जैसे हम अपने ज़माने में कहानियाँ सुनकर होते थे |

हमारे ज़माने में यानि लगभग 60/70 वर्ष पूर्व बहुत कम लोग विदेश ,वो भी सैर के लिए जा पाते थे |

वहाँ से लौटकर जब वो हमें बातें सुनाते थे ,हम मूर्खों की तरह उनकी बात सुनते और फिर उनमें नामक-मिर्च लगाकर अपने दोस्तों में चटकारे लेकर सुनाते |

मसलन--हमारी एक डॉक्टर मामी जी थीं ,न--न --वे खुद डॉक्टर नहीं थीं ,उनके पति फौज में डॉक्टर रहे |

अवकाश प्राप्ति के बाद उन्होंने बीच शहर में एक दुकान लेकर अपना दवाखाना खोल लिया |

उस समय ,कम से कम हमारे उत्तर-प्रदेश में जब हमें डॉक्टर के पास जाना होता,हम कहते ;

"डॉक्टर की दुकान पर जा रहे हैं --"क्लिनिक कोई न कहता |

और मज़े की बात ये कि डॉक्टर की बीबी 'डॉक्टरनी',इंजीनियर की बीबी 'इंजीयरनी 'ऐसे ही सब ओहदेदारों की पत्नियाँ बिना किसी शिक्षण के ये तमगे पा लेती थीं |

तो हमारी डॉक्टरनी मामी को अमरीका घूमने जाने का अवसर प्राप्त हुआ,उस समय उनकी बेटी वहाँ पर थीं|

मोटी ,थुलथुली लेकिन खूबसूरत मामी पूरे महीने भर विदेश घूमकर आईं |

हमारे लिए कई छोटी-छोटी चीज़ें भी लाईं थीं | हम सारे बच्चे बड़े खुश !आख़िर वो चीज़ें अमरीका से आई थीं --

हम अपने सब दोस्तों को वो चीज़ें दूर से दिखाते ,हाथ न लगाने देते |

खुद भी तो उनका स्तेमाल नहीं करते थे ,बस एक सुंदर से डिब्बे में रखकर उनकी चौकीदारी करते रहते |

कोई चुरा न ले ।आख़िर अमरीका से आईं थीं हमारे लिए वे चीज़ें --

डॉक्टर मामा जी फौज में रहे थे सो वहाँ के सलीके से रहते |उनके बड़े से डाइनिंग हॉल में अधिकतर वे अकेले बैठकर ही नाश्ता ,खाना खाते |

डॉक्टरनी मी जी तो रसोईघर में उनके लिए गरम नाश्ता बना रही होतीं या खाने की तैयारी कर रही होतीं |

डॉक्टर साहब को अपनी क्लिनिक जाना होता | उनके पीछे एक सेवक तैनात ही रहता |

जब वो डाइनिग टेबल पर हैं तो वह उनके लिए खड़ा है ,जब वे क्लिनिक जा रहे हैं तब वह उनका सामान लिए खड़ा है ,जब शाम को वे शहर के इकलौते क्लब में टैनिस खेलने जा रहे हैं तो भाई उनको तैयार करवाकर कार के पास रैकेट लिए खड़ा है |

हम बच्चे उनके 'लाइफ़-स्टाइल'से बड़े इंप्रेस रहते | चुपचाप उनको छुरी-काँटे से खाते हुए देखते फिर मामी जी के पास रसोईघर में आकर विदेश की कहानियाँ सुनने लगते |

वो भी हमें बड़े आनंद में वहाँ की बातें सुनातीं |

एक दिन डॉक्टर साहब की कार के पास से ज़ोर से आवाज़ आई | आवाज़ डॉक्टर साहब की ही थी |वे किसी पर चिल्ला रहे थे |

हम सब रसोईघर से मामी जी के साथ बड़े से बरामदे में आकर खड़े हो गए कि आख़िर ऐसा क्या हो गया था जो मामा जी को चीख़कर बोलना पड़ा था |

"साला --कितनी बार समझाया कि डॉक्टर की दुकान नहीं क्लिनिक होता है पर इसकी बुद्धि में गोबर भरा हुआ है |" मामा जी क्लिनिक को दुकान कहने से बड़े गुस्से में आ जाते थे |

मामा जी अपने एटीकेट्स से सब पर रौब डालने वाले और मामी जी उनकी कही बातों को संभालने वाली !

खैर मामी जी ने सेवक को अपने पास बैठाकर उसका ब्रेन-वॉश करने की पूरी कोशिश की लेकिन वह 'क्लिनिक' का उच्चारण न कर सका |

हम बच्चों ने मामी जी को एक सुझाव दिया कि इसे बताइए कि यह दुकान की जगह दवाखाना कहे जो कम से कम दुकान से तो अच्छा होगा |

मामी जी को यह अच्छा लगा और उन्होंने सेवक को दवाखाना कहना सिखाया |

मामा जी इतने भी खुश नहीं थे दवाखाना सुनकर ,उन्हें लगता किसी वैद्य की दुकान के बारे में बात हो रही है लेकिन दुकान से तो उन्हें बेहतर ही लगा था उन्हें दवाखाना !

एक दिन ममी जी ने मेरे कान पकड़ किए ;

"मैंने तुझे कब बताया कि अमरीका की सड़कें शीशे की होती हैं --?"

मैं ही तो अपने दोस्तों में रौब मारकर आई थी कि अमरीका की सड़कें शीशे की होती हैं ,चाहे तो अपना चेहरा देख लो |

सब मित्र कल्पना में अपने चेहरे उन काँच की सड़कों में देखने लगे थे,सब बच्चों के मन में भाव उठने लगे थे कि बड़े होकर वे अमरीका तो ज़रूर जाना है जहाँ की सड़कों में चेहरा देखा जा सकता

है |

मामी जी के कान ऐंठने से मुझे याद आया कि मामी जी ने कहा तो था ,अब अपनी बात से पलट रही हैं | हमने उन्हें याद दिलाया ,वे खिलखिलाकर हँस पड़ीं |

"अरे !मैंने कहा था कि हम लोग अपनी सड़कें इतनी गंदी रखते हैं और वहाँ की सड़कें ऐसी चमकती हैं कि चेहरा देख लो ,बला बताओ शीशे की सड़कें कैसे हो सकती हैं ?"

हम मामी जी के सामने अपना बिसुरता चेहरा लिए खड़े थे ,सोच रहे थे कि हममें और इस सेवक की बुद्धि में आख़िर क्या अन्तर है ??

आप सबकी मित्र

डॉ प्रणव भारती

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