अवधूत गौरी शंकर बाबा के किस्से - 4 ramgopal bhavuk द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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अवधूत गौरी शंकर बाबा के किस्से - 4

अवधूत गौरी शंकर बाबा के किस्से 4

रामगोपाल भावुक

सम्पर्क- कमलेश्वर कोलोनी (डबरा) भवभूतिनगर

जि0 ग्वालियर ;म0 प्र0 475110

मो0 9425715707, , 8770554097

ई. मेल. tiwariramgopal5@gmail.com

राजेन्द्र की शिक्षा पूरी हो गई। उपयन्त्री के पद पर उसकी नौकरी लग गई। उसके विवाह के लिये सम्बन्ध आने लगे। एक दिन की बात है, मिलान हेतु एक कुन्डली आ गर्इ्र। मैंने उसे देखने के बाद पाया कि कुन्डली नहीं मिली। यह सोचकर मैंने उसे मन्दिर के ऊपर वाली अल्मारी में रखने के लिये हाथ बढाया। कुन्डली हाथ से छूटी और बाबा के सामने जा रखी। ऐसा लगा जैसे किसी ने उसे हाथ में से छीनकर वहाँ रख दी हो। मैं समझ गया बाबा की यही इच्छा है। पत्नी रामश्री को बुलाया। सारा वृतांत बता दिया। उन्होंने भी उस कुन्डली को बाबा के सामने रखे देखा। बोलीं-‘‘ बाबा का यह तो आदेश होगया। अब क्या सोचना? लड़की वालों को तत्काल सूचित कर दो।’’

मैंने उसी समय पोस्टकार्ड उठाया, अपनी स्वीकृति का पत्र लिखा और जाकर उसे उसी समय पोस्ट ओफिस के डिव्वे में डाल आया। जिससे दूसरे दिन तक कहीं मेरा दृष्टि कोंण ही न बदल जाये। यों पुत्रवधू के चयन में बाबा की कृपा से मन हलका हो गया। आज पुत्र के विवाह को बाइस वर्ष से अधिक समय गुजर गया। पौत्र प्रलेख इन्जीनियर की पढाई पूरी करके कालेज केम्पस में उसका नौकरी के लिये चयन होगया है। छूसरा पौत्र पलास इन्टर की परीक्षा उत्तीर्ण कर चुका है।

हम सच्चे मन से आज भी बाबा को याद करें वे हमारी समस्याओं का हल प्रस्तुत कर जाते हैं।

मेरा पूरा विश्वास है बाबा आज भी हैं। कहीं तप कर रहे होंगे। ऐसे महा पुरुष अजर-अमर होते हैं। किन्तु बाबा का जन्म 1924 ई0 का होने से तो आज की तारीख सन 2020 में वे 96 वर्ष के हैं। वे प्रतिदिन छककर खाना खाते रहते किन्तु दिशा मैदान में निवृत होने आठ-आठ दिन में जाते। यों बाबा ने प्रकृति को बस में कर लिया था।

जिस दिन से बाबा अदृश्य हुये थे उसी दिन से मैं उनकी तलाश में हूँ। बाबा की खोज में मैं कहाँ- कहाँ नहीं गया? उस दिन से आज तक निगाह बाबा को खेजती रही है। बाबा का कहीं कोई पता नहीं चला। किन्तु व्यग्र होकर जिसने याद किया बाबा ने उसे दर्शन दिये हैं। एक बार मैंने साधना में बैठकर व्यग्र हेाकर बाबा से प्रश्न किया-‘‘बाबा आप से मिलन कब होगा?’’

बाबा उपस्थित होकर बोले-‘‘ज्योति से ज्योति के मिलन के लिये जब व्याकुलता होगी तभी मिलन होगा।’’

मैं इसी व्याकुलता में था कि इसी समय बाबा के एक भक्त डॉ सतीश सक्सेना‘शून्य’जी का घर आगमन हुआ । वे अपने साथ बाबा पर लिखी सी0डी0 लिये थे। उसी सी0डी0 को हम यहाँ आपके समक्ष यथावत प्रस्तुत कर रहे हैं।

परमयोगी बाबा मस्तरामजी महाराज

बाबाजी के प्रथम दर्शन

यह उस समय की बात है जब डॉ सतीश सक्सेना‘शून्य’जी की नौकरी लोक निर्माण विभाग डबरा में उपयंत्रीके पद पर थी। तब हम लोग ओवरसियर कहलाते थे। सन्1965 से 1972 तक मुझे वहाँ रहनेका अवसर प्राप्त हुँआ। ग्वालियर अथवा कहीं बाहर जाते समय बसस्टेण्ड पर अथवा तहसील या ब्लाक आफिस में कहीं भी नगर में बाबा को घूमता देखा करता था । उस समय वे पुलिस विभाग की खाकी रंग की कमीज, खाकी नेकर तथा पुलिस विभाग की टोपी धारण किये रहते थे। मेरी दृष्टि में वे यों ही निरुद्देश्य घूमते रहते थे । कभी किसी ने कहा भी कि ये बहुँत बडे संत हैं तो भी मैंने इस बात को कभी गम्भीरता से नहीं लिया। संतो की एक यह भी विशेषता होती है कि वे-

सदा रहहिं अपनपो दुराऐ ।

कहहुँ कवन हित लोक जनाऐ ।।मानस।।

और राम रूप के मस्त को पागल कहत समाज।

लाज बचावत भगत की सदा गरीव नवाज ।।

किसी की वास्तविकता पहचानने के लिये जिस आन्तरिक सूक्ष्म दृष्टि की आवश्यकता होती है,सम्भवतः, उस समय मुझमें उसका अभाव था। किन्तु यह भी सत्य है कि- यों भी-

जानहि सोइ जेहिं देउ जनाई ।

जानत तुमहिं तुमहिं हुइ जाई ।।मानस।।

मैं यह भी कह सकता हूँ कि उस समय मेरे वे अच्छे संस्कार उदित नहीं हुए थे कि जो मैं बाबा की कृपा का पात्र बन पाता-

विनु हरि कृपा मिलहिं नहिं संता ।

सतसंगति संसृति कर अंता ।।

बाबाजी को जानने का यह समय लगभग पांच वर्ष बाद आया-

गिरिजा संत समागम सम न लाभ कछु आन ।

विनु हरि कृपा न होय सो गावहिं वेद पुरान ।।मानस।।

सन 1970 में मैंने एक विक्की मोपेड खरीदी थी। उस समय येांही शौकिया तौरपर में होम्यापैथी सीख रहाथा तथा निशुल्क दवाका वितरण किया करता था। इसी कारण जवाहर गंज स्थित डा चतुर्वेदी के सम्पर्क में था। उन्होंने मुझ से कहा कि तुमने गाडी खरीदी है मुझे घुमाने नहीं ले जाओगे। मैंनें कहा जरूर चलिये। बताइये कब और कहाँ चलना है। मैंने सोचा शायद ये सिन्ध नदी तक,जो वहाँ से करीव 5 किलोमीटर दूर है,जाना चाहेंगे किन्तु वे बोले कि मुझे एक संत के दर्शन करने बिलउआ जाना है। संस्कारवश मेरी रुचि साधु-संतो में पहिले से ही थी सेा मैं तुरन्त तैयार हो गया। देा तीन दिन बाद हम लोग चल दिये। उन्होंने, और मैंनेभी, कुछ प्रशाद बगैरह ले लिया और बिलौआ जा पहुँचे।

बाबा के घर बिलौआ पहुँच कर देखा तो मुझे बडा आश्चर्य हुआ। ये तो वे ही बाबाजी हैं जिन्हें मैं डबरामें घूमते देखता था। एक बडेसे कमरेमें बाबाजी सामने तख्त पर विराजमान थे । उनकी सौम्य मुद्रा देख कर मुझे बडाही आनन्द हुँआ। नीचे फर्श बिछा हुआ था ,हम लोग उसीपर बैठ गये। बाबाजी को प्रसाद अर्पण किया गया। उसमें से कुछ उन्होंने ग्रहण कर लिया और कुछ बाँट दिया। बाबा के वचन मुझे बडे ही अटपटे लग रहे थे । मेरी समझ में कुछ भी नहीं आरहा था। डॉ चतुर्वेदी मूलतः मथुरा के रहने बाले थे। उनका पारिवारिक जीवन सुखद नहीं था। पहिली पत्नी से एक पुत्र था जो अपने चाचा के पास रहकर पला-बढा था और उन्होंने ही उसकी नौकरी मथुरा की कचहरीमें लगवा दी थी किन्तु वह अपने पिता के बहुत विरुद्ध रहता था। दूसरी पत्नी भी उनसे अलग मथुरा में ही रह कर एक मिठाई की दुकान का संचालन करती थी। पूर्वमें डॉक्टर साहब ने कभी बाबा से प्रार्थना की होगी तो उनकी पत्नी डबरा आगईं किन्तु कुछ समय बाद बापिस चली गईं। इस वार उन्होंने फिर बाबाजी से गुहार लगाई तो बाबाजी ने उन्हें सांकेतिक रूपसे बताया कि तुम भ्रमर गीत का पाठ किया करो। इसे वे तो समझ गये किन्तु मेरी समझ में उस समय कुछ भी नहीं आया।

डॉक्टर साहब ने मुझसे धीरे से कहा कि तुम अपने मन मे कुछ सोच लो बाबा उसको पूरा कर देंगे। मैंने अपने मन में सोचा कि मैं बाबा से क्या मागू। बाबा का दिया सब कुछ तो है। रोटी-रोजी है, मान-सम्मान है, आस-औलाद है, और क्या चाहिये? डॉक्टर साहब ने मुझसे दुबारा आग्रह किया किन्तु मेरे मन में कुछ मांगने की इच्छा नहीं हुई। अब भाग्य की बात देखिये कि उन्होंने मुझसे तीसरी बार अनुरोध किया। इस बार में लालच में आगया। उस समय मेरे दो पुत्रियाँ तथा एक पुत्र था तथा मेरी पत्नी को चार माह का गर्भ चल रहा था। मैंनें बाबा से मन ही मन विनय की बाबा इस बार फिर लडकी मत कर देना नहीं तो सारा बैलेन्स बिगड जायेगा । इसके बाद हम फिर किसी और चर्चा में लग गये ।

कुछ देर बाद बाबा ने मुझ से कहा कि ये अंगूठी मुझे देदे। उस समय मै अपने हाथ में एक आठ आने भरकी सोने की अंगूठी पहिने हुआ था जिसमें एक पीला नग लगा हुआ था। मैंने तुरन्त अंगूठी उतारकर बाबा के हाथमें देदी जिसे उनने अपनी छोटी अंगूली में धारण कर लिया। थोडी देर बाद जब हम लोग चलनेको हुए तो बाबाके भतीजे ने,जो निरन्तर उनकी सेवा में रहते थे,बाबा से कहा कि बाबा ओवरसियर साहब की अंगूठी दे दो तो बाबा ने कहा कि क्यों दे दो। उन्होंने दी है। मैंने कहा कि हाँ मेंने खुशी से दी है। बाबाके भतीजे ने मुझसे कहा कि आप चिन्ता नहीं करना, जब कभी बाबा अच्छे मूड में होंगे तो हम बाबा से आप की अंगूठी लेलेगें । आपकी चीज आपके पास पहुँच जायेगी। मैंने कहा मुझे कोई चिन्ता नहीं है बाबा शौक से पहिनें। जिस समय हम चलने लगे उस समय बाबा के भतीजे भीतर चले गये,डॉक्टर साहब बाहर अपने जूते पहिन रहे थे और मैं दरबाजे के सामने ही अपने सैंडिल पहिन रहा था। उसी समय बाबा मेरी ओर देख कर मुस्कराये जैसे वे मुझसे कुछ कहना चाह रहे हों। उनकी अर्थपूर्ण मुस्कराहट को देखकर मैंने हाथ जोड लिये। बाबाने अपना एक हाथ नीचे रखा और छूसरा हाथ उसके ऊपर रखकर बच्चे का संकेत किया और फिर दोनों हाथ ऊपर उठाकर सुनिश्चित रूप से आशीर्वाद दिया। मुझे यह समझते देर नहीं लगी कि बाबा ने न केवल मेरे मन की बात जानली है अपितु उसे पूरा भी करदिया है। गद्गद् हो में नतमस्तक हो गया।

कहना न होगा कि यथा समय मेरे घर पुत्र का जन्म हुँआ जो बाबाकी असीम कृपासे आज अत्यन्त सुखी और समृद्ध है।

खुदा मंजूर करता है दुआ जब दिल से होती है।

मगर मुश्किल तो ये है बात ये मुश्किल से होती हैं ।।

अब जरा उस अंगूठी के रहस्य की भी चर्चा करली जाये। बाबाका यह स्वभाव था कि वे किसी की कोई वस्तु अपने पास अधिक समय तक नहीं रखते थे-

जिन्हैं संसार से नाता नहीं दौलत से क्या नाता ।

लगन लग जाये मालिक से किसी से क्या रहे नाता ।।

चाणक्यनीति का कथन है-

अधमाधनमिच्छति धनंमानं च मध्यमाः ।

उत्तमामान मिच्छन्ति मानोहिमहतांधनम्।।

दोहाः अधम धनहिं को चाहते, मध्यम धन अरु मान ।

मानहिं धन है बडेन को, उत्तम चाहें मान।।

अतः महात्माओं का धन तो मान ही है।

किन्तु बाबाजी उस अंगूठी को बहुत समय तक धारण किये रहे । इसका रहस्य मुझे बाद में ज्ञात हुआ। डबराके ही एक सोनीजी बाबाकी सेवामें प्रायः जाते रहते थे। वे धडे-सट्टे के शौकीन थे इसलिये बाबा से किसी नम्बर को जानने केा उत्सुक रहते थे। उन्होंने जब बाबा को हाथ में सोने की अंगूठी पहिने देखा तो उनके मन में लालच आगया और वे बाबा से उसे उन्हें देने के लिये बारबार आग्रह करने लगे। कहने लगे बाबा में बहुँत परेशान हूँ मुझे कुछ परशादी देदो। कर्इ्र बार मांगने पर बाबाने कहा कि ले, मैं दे देताहूँ पर तू लेगा नहीं । सोनीने कहा नहीं बाबा आप देदो में ले लूगा । बाबाने कहा ले लेले, एक्सीडेन्ट है। यह सुन कर तो सोनी भीतर तक कांप गया। बोला-‘‘ नहीं बाबा मुझे नहीं चाहिये।’’ भला ऐसी चीज को कोई कैसे ले सकता है। असल में वह अगूठी मेरे लिये हानिकारक थी इसलिये बाबाने उसे मेरे हाथ से उतरवाली थी। इस बीच मेरी तीन बार दुर्घटनायें हुईं किन्तु मुझे खरोंच तक नहीं आई। देखनेबालों के दिल दहल गये किन्तु मुझे तो ऐसा लगा जैसे किसीने मुझे अपनी गोद में उठाकर सुरक्षित रख दिया हो। बाबाने मेरे लिये कितनी चौटें सहीं क्या मैं इसे कभी भूल सकता हूँ-

मलूका सोई पीर है जो जानहि पर पीर ।

जो पर पीर न जानई सो काफिर बेपीर ।।

अंतमें बाबा ने उस अंगूठी को बिलौआ के ही एक शिक्षक चौरसियाजी केा दे दिया, जिनके एक दस वर्शीय बालक का निधन होगया था और वह अंगूठी उनके लिये दूसरे पुत्र के जन्म के लिये कल्याणकारी सिद्ध हुई।

कविरा संगति साधु की ज्यों गन्धी की बास ।

जो कछु गन्धी दे नहीं तो भी बास सुवास ।।

डॉक्टर चतुर्वेदी के घर भी एक महिला आई, किन्तु कारण जो भी रहा हो,वे उनके पास अधिक रहीं नहीं।अब तो वे भी इस संसार से कूच कर चुके हैं ।

संतों के दर्शन मात्र से चारों फलों-धर्म,अर्ध,काम,मोक्ष-की प्राप्ति होती है-

दोहाः तीर्थ नहाये एक फल, संत मिले फल चार ।

सत्गुरू मिले अनन्त फल कहत कबीर विचार ।।

स्ंसार के तापसे तपे हुए लागों के लिये तीन ही हेतु कहे गये हैं।

चाणक्यनीति में कहा भी गया है-

स्ंसारतापदग्धानांत्रयोविश्रान्ति हेतवः ।

अपत्यंच कलत्रंच संतासंगतिरेव च ।।

सोरठाः यह तीनों विश्राम,माह तपन जग ताप में ।

हरै घोर भव घाम,पुत्र नारि सतसंग पुनि ।।

बाबाका जन्म एवं कर्म-

बाबा उन आत्माओं में से थे जो जन्म जन्मान्तर से योग साधने में लीन रहते हैं किन्तु प्रारब्धवश उन्हें इस जगत में आकर भौतिेक आवरण ग्रहण करना पडता हैं। लोकोपकार करते हुए अपनी तपस्या केा पूर्ण कर अंतमें वे इस आवागमन के चक्रसे मुक्ति प्रा्रप्त कर लेते हैं। गीतामें में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन की शंकाओं का समाधान करते हुए कहते हैं –

प्राप्य पुण्य कश्तांलोकानुशित्वाशाश्वतीःसमाः ।

शुचीनां श्रीमतां गेहे योग भ्रष्टों भिजायते ।। अध्या 6श्लो41।।

अर्थात् योग भृष्ट पुरुषों पुण्यवानों के लोकों अर्थात स्वर्गादि के उत्तम लोकों को प्राप्त हो कर उनमें बहुत वर्षों तक निवास करके फिर शुद्ध आचरणबाले श्रीमान पुरुर्षों के घर में जन्म लेताहै।

बाबा के जीवन पर पण्डित रामगोपाल तिवारी‘भावुक’ द्वारा एक कृति ‘आस्था के चरण ’ संपादित की गई । सर्वप्रथम प्रामाणिक पुस्तक ‘आस्था के चरण’ में पण्डित हरचरन लाल जी वैद्य,डबरा,ने लिखा है कि बाबाने एक वार एकान्त में उनसे कहा था कि यदि किसी कारणवश नित्य पूजा-पाठ न कर पाओ तो गीताके छठवें अध्याय को ही पढ लिया करो । इसके पाठ करने से नित्य पूजापाठ की पूर्ति हो जाती है। आप यहाँ समझ ही गये होंगे कि बाबाने स्वयं अपने ही बारे में कितना बडा सत्य उजागर कियाहै। उपरोक्त श्लोक ही इसका पुष्ट प्रमाण है। इस असार संसार में ऐसे संतों का अवतरण एक दिव्य एवं विरल घटना है-

शैले-शैले न मणिक्यं मौक्तिकं न गजे गजे।

साधवौ हि न सर्वत्रं चन्दनं न वने वने ।।

बात सही है। हर पर्वत में मणियां और हर हाथी में मोती नहीं होते और न हर जगह साधू अर्थात संत होते हैं। हर वन में चन्दन नहीं होता और उसी प्रकार-

लालों की नहिं बोरियां हंसों की नहिं पात ।

सिहों के लहडे नहीं साधु न चलें जमात ।।