अवधूत गौरी शंकर बाबा के किस्से 2
रामगोपाल भावुक
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बाबा घर में ठहरे थे। उस रात पुत्र राजेन्द्र को उल्टियाँ होने लगीं। रात्री में बाबा को कष्ट देना उचित नहीं लगा। कैसे भी रात काटी। सुवह ही मन ही मन इकलोते पुत्र की जिन्दगी का सन्देह लिये बाबा के पास मैं अर्ज लेकर पहुँच गया-‘‘बाबा,राजेन्द्र को रातभर उल्टियाँ होती रही हैं।’’
बाबा मेरे अन्दर का भाव जान गये,बोले-‘‘इसको कुछ नहीं होगा। पेट खराब है इसे त्रिफला का चूर्ण खिलाते रहें। सब ठीक रहेगा।’’
आज उस की उम्र तेतालीस की हो रही है,बस पेट खराब रहता है।
जब मस्तराम बाबा घर से जाने लगे तो पैदल ही चल दिये। गाँव से बस स्टेन्ड दो किलो मीटर दूर है। मैंने कहा, बाबा बस स्टेन्ड पर पहुँचते-पहुँचते बस निकल जायेगी। वे बोले- ‘‘नहीं, बस तो 7 -15 पर आयेगी।’’ पिताजी बैल गाड़ी ले आये। वे उस में बैठ गये। गाड़ी बस स्टेन्ड से दूर थी। सड़क पर बस आती दिखी। बस ड्रायवर ने बाबा को देख लिया होगा। उसने बस रोक दी। पाँच सात मिनिट में हम बस तक पहुँच गये। बाबा बस में बैठ गये। मैंने ड्रायवर से समय पूछा। वह बोला-‘‘7-15 ।’’ यह सुनकर तो आस्था ने मेरे अन्तस में एक और मजबूत कदम रख दिया।
जब तक बाबा हमारे यहाँ रहे, हम रोज शाम को बाबा की आरती उतारते थे। बाबा हमसे आरती में ‘‘‘ऊ जय जगदीश हरे’’ की आरती कहलवाते रहे। आज अपने मन्दिर की आरती करते समय रोज उन दिनों की याद आ जाती है.। अब तो घर में रोज नरेन्द्र उत्सुक द्वारा लिखित बाबा की यह आरती की जाती है-आरती कीजै बृह्म अंश की। गौरीशंकर परमहंस की।।
जाके बल से संकट नासै।उऋण न जिनसे होती सासैं।।
चमत्कार अनगिन दिखलाये। सुमिरा जिसने दर्शन पाये।।
भेद भाव की खाई मिटाई। सत्य शांति प्रभु राम दुहाई।।
राम कृष्ण शिवशंकर गौरी। चादर जिनकी निर्मल केारी।।
आरती जो बाबा की गावै।‘उत्सुक’परम शंाति मन पावै।।
पहली वार बाबा की आरती सुनाते समय उत्सुक जी बहुँत भाव विभोर हो उठे और बोले-‘‘मैं 1966 ई0 में ब्लाक डबरा में लेखपाल था। उन दिनों गौरी बाबा तहसील में खजाने के पास बैठे रहते थे। एक दिन वहीं एक डन्डी से मुझे मारते हुये बोले-‘‘चल उठ,इधर चल।’’ मुझे वे मारते हुये नायव तहसीलदार साहब के चेम्बर में ले आये और उनकी खाली पड़ी कुर्सी की ओर इसारा करके बोले-‘‘बैठ इसपर बैठ।’’वहाँ खड़े चपरासी ने कहा -‘‘बाबा कह रहे हैं तो बैठ जाओ। अधिकारी की कुर्सीपर बैठना न्याय संगत नहीं लगा और मैं नहीं बैठा। इस घटना के बाद तीसरे दिन मुझे फूड इन्सपेक्टर पद पर काम करने का आदेश मिल गया । काश! मैं बाबा का आदेश मान लेता तो मैं स्थाई फूड इन्सपेक्टर बन जाता। यह कहकर वे यह रचना गाकर सुनाने लगे-
चल चित्र जैसा हृदय को मोह लेती हैं।
आस्थायें हृदय को झकझोर देती हैं।।
मोह कितने मन लिये हैं गौरीशंकर आपने।
ठगे कितने रह गये मन देख अचरज सामने।।
आश्चर्य ही आश्चर्य हैं कितने गिनायें आपको।
बिपत्ति जब-जब भी पड़ी है,हाथ आये थामने।।
आकांक्षायें तब मिलन की सघन होती हैं।
विरह में जब रातभर यह आूख रोती है।।
चरण जब-जब जहाँ भी उनके पड़े अचरज हुआ।
आज तक लोगों के दिल में रम रही उनकी दुआ।।
गंध की परछाई जिनकी चल रही है साथ में।
इस धरा पर संत ऐसा मस्त मौला भी हुँआ।।
हर जगह चर्चायें जिनकी रोज होती हैं।
पौध जो विश्वास के नित रोज बोती है।।
सहज समझ पाना कठिन था
ऐसा वह व्यक्तित्व थे।
भूलना जिनकेा कठिन है
ऐसा वह अपनत्व थे।।
कहानियाँ वे हर जुवा पर
अगड़ाई लेती हैं।
हर ह्रदय को आस्थायें
जोड़ लेतीं हैं।।
बाबा का जीवन चरित्र
अवधूत गौरी शंकर बाबा के किस्से 2 मस्तराम बाबा का पूरा नाम पंडित गैारीशंकर तिवारी और उनकी पत्नी का नाम पार्वती वाई है। बाबा के पिताजी पं0 जगन्नाथ तिवारी तथा पितामाह मौजीराम जी तिवारी ग्राम बिलौआ परगना डबरा(भवभूति नगर) जिला ग्वालियर मध्य प्रदेश के निवासी हैं।बाबा की माता जी को लोग दुभई वाली काकी के नाम से जानते थे। इनके बड़े भ्राता का नाम बद्री प्रसाद तिवारी है। इनके मझले भ्राता पं0 श्रीलाल तिवारी जो शिक्षक रहे। बाबा के तीसरे भ्राता पं0 रघुवर दयाल तिवारी तथा बाबा चारों भाइयों में सबसे छोटे थे। इनके मझले भ्राता पं0 श्रीलाल जी अध्ययन करने मथुरा गये तो उन्होंने इन्हें भी वहाँ अध्ययन करने के लिये बुला लिया।
मथुरा रहकर कुछ ही दिनों में इन्होंने लघु सिध्दान्त कौमदी का अघ्योपान्त अध्ययनकर डाला। इसके साथ ही अपनी घुम्मकड प्रकृति के कारण इन्होंने सम्पूर्ण विन्द्रावन क्षेत्र का भ्रमण भी कर डाला। यह बात इनके भ्राता जी को अच्छी नहीं लगी। उन्होंने इस बात की सूचना घर भेज दी। इनके पिताजी ने इस बात पर इन्हें घर वापस बुला लिया।
गाँव लौटकर ये खेती के कार्य तें मदद करने लगे। इन्हीं दिनों इनका विवाह पार्वती वाई के साथ होगया। एक दिन इन्होंने अपना गाँव ही छोड़ दिया और ग्वालियर जाकर सेना में भरती हो गये। वहाँ इन्होंने विधिवत सेना का प्रशिक्षण प्राप्त किया। इन्हें प्रशिक्षण के बाद सन् 1942 में कश्मीर के वार्डर पर भेज दिया गया। वहाँ इन्होंने सेना के सहयोग से सवा मन का हवन का कार्यक्रम कराया। ये अपनी नौकरी भी सजगता से करने लगे। लड़ाई के मोर्चे पर भेज दिया गया। वहाँ इनके पैर में गोली लगी। डाक्टर ने गोली तो निकल
.03++दी लेकिन उन्हें चैकिंग में पता चला कि इन्हें तो पीनस का रोग भी है। अतः इन्हें पूना के लिये रेफर कर दिया। कान के बगल से ओपरेशन करके उस रोग का उपचार कर दिया। इन्होंने सेना की नौकरी छोड़ दी। घर लौट आये। मैके से पत्नी को बुला लिया।
कुछ ही दिनों में ये उस सामान्य जीवन से भी उक्ता गये। ये पुनः ग्वालियर चले गये। वहाँ जाकर ग्वालियर पुलिस में भरती हो गये। वहाँ से इन्हें करैरा के लिये भेज दिया। नौकरी पर पत्नी को साथ रखते थे। करैरा से इन्हें नरवर जिला शिवपुरी में पदस्थ किया गया।
ये श्रीम्द भगवत गीता का पाठ हमेशा खड़े होकर ही किया करते थे। जब तक गीता के अठारह अध्याय का पूरा पाठ नहीं कर लेते,बोलते नहीं थे। इनके पुलिस चौकी क्षेत्र में कहीं रामचरित मानस का पाठ हुँआ तो ये वहीं जम गये। मानस का पाठ करने एक बार बैठ गये फिर उठाये न उठते। लोग न उठाये तो रातभर एक बैठक बैठे तन्मय होकर पाठ करते रहें।
प्रा्ररब्ध कब कहाँ कैसे मिलते हैं? यह महज संयोग ही होता है। जन्म-जन्मान्तर के प्रारब्ध संयोग बनकर गुरूदेव के रूप में उपस्थित हो जाते हैं।
इसे हम यों कहें , सत्गुरू को भी सत् शिष्य की तलास रहती है। एक दिन की बात है कस्वे के किसी मन्दिर पर बाबा अपने पूजा पाठ में व्यस्त थे। पता नहीं कहाँ से अचानक परमहंस योगी आदित्य नारायण वहाँ से गुजरे। पिछले जन्म से बिछुड़े सत् शिष्य को देखकर दया उमड़ आई। गुरूदेव उस मन्दिर मे इनके पास पहुँच गये। उस वक्त ये साधना में लवलीन थे। गुरूदेव को सामने पाकर इनकी पिछले जन्म की स्मृति जाग गई। गुरु-शिष्य ने एक दूसरे को पहचान लिया। दोनों की दृष्टि टकराई और जन्म-जन्मान्तर के लिये इनकी सहज समाधि लग गई। गुरुदेव अपना कार्य करके अदृश्य होगये। उसी दिन से ये प्र्रभू प्रेम में पागल बने घूम रहे हैं।
संयोग कहें, उसी दिन थाने में अनायास किसी अधिकारी का दौरा हो गया। ये लम्वी साधना के बाद उठे। इन्हें अपनी नौकरी की याद आई। ये संकोच करते थाने पहुँचे। इन्हें अधिकारी के आने का कोई पता नहीं था। जाकर हस्ताक्षर करने रजिस्टर उठाया। देखा,इनके हस्ताक्षर पूर्व से ही हैं। साथ में अधिकारी की चैकिग के साइन भी दिखे। वड़ी देर तक उस पन्ने का घूरते रहे। इनका एक साथी बोला-‘‘एस0पी0 साहव को यहाँ सब कुछ ठीक- ठाक लगा। इतना डाटने-फटकारने वाला अफसर आपके कारण एक शब्द भी नहीं बोला आश्चर्य !’’
ये बोले-‘‘मैं यहाँ कहाँ?’’ यह सुनकर इनके सभी साथी खिल-खिलाकर हँस पड़े। ये समझ गये-प्रभु ने मेरी नौकरी बचाने के लिये इतना कष्ट सहा। मेरा रुप धारण करके निरीक्षण कराया और मेरे हस्ताक्षर करना पड़े।
इन्होंने सामने पड़ी पंजी से एक पन्ना फाड़ा और उसपर नौकरी से अपना त्याग पत्र लिख दिया और सभी से राम- राम करके घर लौट आये। आकर दरवाजे पर पालथी मारकर बैठ गये। जो भी वहाँ से निकलता उसे अपने पास बुलाते और घर का कोई भी सामान जो उसकी पसन्द का हो उसे उठाने की कहते ।जब वह किसी सामान को उठा लेता तो उससे कहते -‘‘जा इसे अपने घर लेजा।’’यदि वह उसे ले जाने में संकोच करता तो वे उसे डांट कर कहते-‘‘जा इसे अपने घर ले जा।’’उस जमाने में किस की मजाल थी कि कोई किसी पुलिस दीवान की बात न मानता। यों धर का सारा सामान बाँट दिया। जब घर पूरी तरह खाली हो गया तो वो भी वहाँ से चल दिये।
उन दिनों बाबा की पत्नी अपने मैके सिघारन ग्राम गईं हुई थीं। बाबा की एक भतीजी नरवर में ही व्याही थी। जिसका कन्यादान बाबा ने ही किया था। उसने इस बात की खबर अपनी काकी जी के पास ग्राम सिघारन भेज दी। खबर पाकर पार्वती वाई शीघ्र् ही नरवर लौट आईं। जब लोगों को यह पता चला कि गौरीशंकर दीवान जी की पत्नी आ गईं हैं तो लोगों ने उनका सामान पार्वती वाई के मना करने पर भी वापस कर दिया।
पार्वती वाई सब कुछ पहले से ही समझ रहीं थीं। बाबा उन्हें समझा कर कहा करते थे-‘‘देखना, किसी दिन सब छोड़-छोड़कर कहीं चला जाऊंगा।’ ’आज उनकी सब बातें साफ-साफ समझ में आ गयीं।
घर के सभी लोग उनकी खोज -खबर लेने का प्रयास करते रहे। उनका कहीं कोई पता नहीं चला किन्तु वे सभी आशा की डोर से बूधे सोचते रहे कि वे अवश्य आयेंगे।
यों उनकेा छह माह का समय व्यतीत हो गया। एक दिन बद्रीनारायण के पण्डा का इनके घर के पते पर पत्र आया कि ये साधू बनकर यहाँ आये हैं। पत्र पढकर सभी लोग इनकी स्थिति से अवगत हो गये।
कुछ दिनों के बाद इनका इधर चक्कर लगा। ये बिलौआ ग्राम से कुछ दूर बने एक मन्दिर पर आकर ठहर गये। लोगों को इनके आने की खबर लगी। वे सभी लोग इनके दर्शन करने उस मन्दिर पर जा पहुँचे। सभी ने अपना विवके और बुद्धि लगाकर इन्हें समझाया। मुश्किल से इन्हें बिलौआ ग्राम के एक मन्दिर पर लाया गया। वहाँ से इन्हें घर लाने का प्रयास किया गया। वे बोले-‘‘यदि मैं घर लौट कर गया तो पागल हो जाऊंगा।’’
इनके बड़े भाई बद्री प्रसाद ने इन्हें समझाया-‘‘अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है?कुछ दिन संसार में और रह लो,सन्यास तो लोग उम्र के चौथे पड़ाव पर आकर लेते थे। यह तो असमय ही तुमने सन्यास की बात सोची है जो ठीक नहीं है। समय पर सभी बातें शोभा देती हैं। युवा पत्नी को छोड़कर भाग रहे हो फिर तुमने व्याह ही क्यों किया।’’
बाबा बोले-‘‘मैंने कहा ना,अब यदि मैं संसार में गया तो पागल हो जाऊूगा।’’
उस मन्दिर में उन दिनों रावल पिन्ड़ी के एक सन्यासी पहले से ही ठहरे हुये थे। वे भी इनसे बहुँत प्रभावित हुये। एक दिन घर के लोगों के परामर्श से इनकी पत्नी पार्वती वाई ने मन्दिर में जाकर उन रावल पिन्ड़ी के सन्यासी जी से इन्हें समझाने के लिये निवेदन किया-‘‘स्वामी जी मैं चाहती हूँ आप इन्हें समझायें , जिससे ये घर लौट आयें । मैं समझ रही हूँ ये आपकी बात नहीं टालेंगे।’’
स्वामी जी बोले-‘‘बेटी, मुझे इनका लौटना कठिन लग रहा हैं,किन्तु मैं कहकर देख लेता हूँ।’’
यह कहकर स्वामी जी ने इन्हें आवाज दी-‘‘अरे गौरी बाबा हमारी तो सुनिये।’’उनकी आवाज सुनकर वे उनके पास आ गये। पास आकर एक पटिया पर बैठ गये। स्वामी जी ने इन्हें समझाया-‘‘ये बेटी, आपसे निवेदन करने आई हैं। आप मेरा कहना मान लें और घर लौट जायें।’’
बाबा सब कुछ पहले से ही समझ रहे थे। वे गम्भीर होकर बोले-‘‘स्वामी जी,मृत्यु के बाद कोई लौट कर आता है!आप आज्ञा करें?’’
स्वामी जी गम्भीर हो गये और पार्वती वाई के चेहरे की ओर उत्तर के लिये देखते हुये बोले-‘‘बेटी, इन्हें क्या उत्तर दें?’’
पार्वती वाई समझ गई ,उत्तर उन्हें हीं देना हैं। यह सोचकर बोलीं-‘‘मैं इन्हें अच्छी तरह जानती हूँ। इनसे बातों में मैं कभी नहीं जीत पाई। इन्हें जो अच्छा लगेगा ,ये वही करेंगे। अब बोलो मैं अपनी पहाड़ सी जिन्दगी कैसे काटू?’’
प्रश्न सुनकर गौरी बाबा गम्भीर होकर बोले-‘‘तुम तो अपने इष्ट के भजन में लीन होजाओ। तुम सदा सुहागन रहोगी। आन्नद करोगी।’’यह सुनकर वे उनके चरण छॅकर चलीं आईं थीं ।
पार्वती वाई इन्हें लिये बिना जब घर पहुँचीं । बड़े भाई बद्री प्रसाद को इन पर वहुत क्रोध आया। उन्होंने इन्हें पागल घोषित कर दिया। इसके बाद इन्हें रस्सी से बाँध कर रख गया। घर के लोग सोच रहे थे-ये किसी भी तरह वापस लैाट आयें। जब ये किसी तरह नहीं माने तो इन्हें छोड़ दिया गया। अब तो ये मरघट की राख अपने शरीर से लपेट कर गाँव की गलियों में घूमने लगे। गाँव के सभी लोग इन्हें पागल समझने लगे। कभी-कभी बाबा आगे-आगे और गाँव के छोटे-छोटे बच्चे हो- हो के स्वर में चिल्लाते हुये पीछे-पीछे दौड़ते हुये दिखाई देते। यो बाबा गाँव भर में पागल के रूप में चर्चा का विषय बन गये। घर के लोगों के लिये यह चिन्ता का विषय बन गया।
उन्हीं दिनों बाबा के साले प्रभूदयाल चौधरी उर्फ बाबा प्रियदास को इनके आने की खबर लगी। वे सिघारन ग्राम से चलकर बिलौआ ग्राम में आये। बाबा की स्थिति देखकर समझ गये, ये तो पागल होगये हैं। घर के लोगों के साथ इन्होंने भी बाबा को रस्सी से बाँधने में मदद की। परमहंस बाबा लीला दिखाने के लिये सहजता से बँध गये। हसते-मुस्कराते बँधन में बँधेउनके पीछे-पीछे चल दिये। ये लोग ग्वालियर ले जाकर इन्हें वहाँ के पागल खाने में भर्र्ती करा आये। वहाँ पागलखाने के प्रसिद्ध डॅाक्टर काले का नाम कौन नहीं जानता? डॅाक्टर काले पहली मुलाकात में ही समझ गये कि ये पागल-बागल कुछ नहीं हैं। ये तो कोई महान सन्त हैं जो संसार के सामने पागल का अभिनय कर रहे हैं। सात-आठ दिन बाद प्रभूदयाल चौधरी इन्हें देखने पागलखाने गये। वहाँ जाकर डॅाक्टर काले से मिले। वे इन्हें देखते ही बोले-‘‘आप लोग यहाँ ये किसे ले आये। अरे ये जिस पागल के थप्पड़ मार देते हैं वही ठीक हो जाता है! भैया इन्हें यहाँ से ले जाओ नहीं तो मैं पागल हो जाऊूगा।’’यह कहकर उन्होंने बाबाको इनके साथ घर भेज दिया।