Awdhut Gaurishankar baba ke kisse - 10 books and stories free download online pdf in Hindi

अवधूत बाबा गौरी शंकर के किस्से - 10

अवधूत बाबा गौरी शंकर के किस्से 10

रामगोपाल भावुक

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एकबार एकान्त में बाबा ने मुझसे कहा-‘‘ एकबार जन्म और लेना पड़ेगा।’’इसी तरह एकबार एकान्त में बाबा कहने लगे-‘‘किसी कारण से नित्य पूजा पाठ न कर पाओ तो गीता का केवल छटवा अध्याय ही पढ़ लिया करो। इससे नित्य पूजा पाठ की पूर्ति होजाती है।’’

आज बाबा के अदृश्य होने के बाद, ये बातें सोचने में आती हैं कि बाबा जीवन के लिये कितना बड़ा संदेश दे गये हैं।

मैं जिस घर में रहता हूँ उसके गृहप्रवेश के समय बाबा ने कहा था कि मैं वहाँ बैठा तो हूँ । उस दिन से यह लगता है बाबा बैठे हैं। हम कुछ भी खाते -पीते हैं तो बाबा का भेाग लगाये बिना उसे गृहण नहीं करते। जब-जब मैं बाबा का भोग लगाने जाता हूँ मुझे याद हो आती है-पण्डित परसराम तिवारीजी की बात। एक दिन वे बाबा का निमंत्रण करने गये थे। उनकी बात सुनकर बाबा बोले-‘‘भोजन में क्या बनवायेगा?’’

परसराम तिवारी ने उत्तर दिया-‘‘जो आप कहें?’’

बाबा बोले-‘‘चने की भाजी और ज्वार की रोटी बनवाना।’

बाबा का आदेश पाकर ये घर चले आये। जब भोजन तैयार होगया तो बाबा को बुलाने पहुँचे। बाबा ने साथ चलने से इन्कार कर दिया। ये घर लौट आये। इनकी पत्नी ने पूछा-‘‘बाबा नहीं आये?’’ ये बोले-‘‘उन्होंने आने की मना कर दी है।’’इनकी पत्नी बोलीं-‘‘ निमंत्रित संत भूखा रह जाये यह अच्छी बात नहीं है।’’

यह सुनकर परसराम तिवारीजी को उपाय सूझा ,ये बोले-‘‘दो थालीं परोसो’’ इनकी पत्नी ने दो थालीं परोस दीं। एक थाली से इन्होंने भगवान का भेाग लगा दिया। दूसरी थाली में से बाबा का नाम लेकर अग्नि में होम कर दिया। जब इन्होंने पीछे मुड़कर देखा तो बाबा खड़े थे। तृप्ति की डकार लेकर कह रहे थे-‘‘आज तूने जैसा भेाजन कराया वैसा किसी ने नहीं कराया।’’ यह कहकर बाबा वहाँ से चले आये।

एकवार परसराम तिवारीजी ओंकारेश्वर से शिवलिंग लेकर आये। इस बात का बाबा को जाने कैसे पता चल गया और उन्होंने इनके पास बुलाना भेज दिया। ये उस शिवलिंग को लेकर बिलौआ गाँव में बाबा के पास जा पहुँचे। बाबा ने उस शिवलिंग को लेलिया।उसका दूध से अभिषेक किया और बोले-‘‘इसकी प्रणप्रतिष्ठा तो होगई। अब तू जा अपने गाँव में देवी का मन्दिर बनवाले। मैं उस शिवलिंग को वहीं छोड़कर लौट आया। आज मेरे गाँव में देवी का मन्दिर बन चुका है। तीन बार बिशाल यज्ञ का आयोजन होचुका है।

वर्ष 2007-08 की बात है, इस वर्ष पानी नहीं के बराबर वर्षा था। चारो ओर पानी के लिये त्राह-त्राह मची थी इसीलिये लोग हार थक कर यज्ञ की बात करने लगे। यज्ञ करने से भी पानी बरसेगा भी या नहीं?इसका जुम्मा कौन ले? यह प्रश्न आकर खड़ा होगया था। परसराम तिवारीजी ने परामर्श दिया-गाँव के सभी लाग मिलकर परमहंस गौरीबाबा के सामने दो चिटें डाले, एकमें लिखें-पानी नहीं बरसेगा यज्ञ नहीं करें। दूसरी चिट में लिखें - यज्ञ करें पानी बरसेगा।दोनों चिटें बाबा के सामने डाल दी गईं। सारे गाँव के सामने चिट उठाई गई। चिट उठी-यज्ञ करें पानी बरसेगा यह देखकर प्रशन्नता की लहर दौड़ गई। यज्ञ की तैयारी की जाने लगी। धूम-धाम से यज्ञ हुआ। जिसमें बारह लाख रुपये खर्च हुये। कार्यक्रम के अन्तिम दिन पानी वर्षा। लोगों को पूरा विश्वास होगया कि पानी अवश्य वरसेगा। ....और इसके बाद सालभर खूब पानी बरसा। अच्छी फसल हुई।

बाबा ने इनसे कहा था-‘‘मैं तेरा राम हूँ।’’ उस दिन से बाबा इनके राम के रूप में इष्ट बन गये हैं।

इस प्रसंग को लिखने के बाद बाबा की तलाश में भेंसा वाले तिवारी जी के यहाँ जा पहुँचा। वहाँ कैलाश नारायण तिवारी से मिला। वे मुझे पहचानते थे। मुझे देखकर बाबा का एक चित्र उठा लाये। जिसमें बाबा बन्दूक लिये बैठे हैं। मैं देर तक उसे देखता रहा। मैंने पूछा-‘‘ बाबा और बन्दमक ,मैं कुछ समझा नहीं।’’

कैलाश नारायण तिवारी बोले-‘‘मैंने इस चित्र को घन्टों गौर से देखा हैं। आप भी इस चित्र को गौर से देखें। इसमें बाबा ध्यान में आँखें बन्द करके बैठे हैं। उनकी उगली दिल के पास ट्र्रेगर पर रखी हैं। इसका अर्थ मेरी समझ में यह आया है कि हमें ध्यान, इसी तरह सचेत रहकर करना चाहिये। मित्र ,संतों की भाषा समझना उनकी कृपा से ही संभव है।’’

थोड़ी देर रुककर वे पुनः बोल-‘‘इन दिनों भेंगना गाँव के पलियाजी के यहाँ चीनोर रोड़ पर एक संत मंगलदास रह रहे हैं। मुझे तो बाबा की आभा उनमें दिखाई देती है। आप उनके दर्शन करना चाहेंगे।’’ उनकी यह बात सुनकर ,मैं उनके दर्शन करने हेतु जाने तत्क्षण खड़ा होगया।

जब हम उनके यहाँ पहुँचे, संत मंगलदासजी खटिया पर बैठे थे। मैं प्रणाम करके उनके पास बैठ गये। उनमें बाबा की छवि निहारने लगा। वे बाबा की तरह जाने कैसी-कैसी बातें करने लगे। लाखें करोड़ों की बातें, कुछ समझ ही नहीं आरहीं थीं। मैंने उनसे निवेदन किया-‘‘कृपा करें।’’ यह सुनकर उन्होंने अपने पैर से हाथ लगाया और उसे मेरे सिर से छुआ दिया । मैं उनके इस अटपटे संकेत का अर्थ लगाते हुये घर लौट आया। और इन संत के इस चरित्र का इसमें अंकन कर दिया।

इस समय मुझे याद आ रही है बालमुकुन्द राजौरिया काका की। इनके यहाँ भी बाबा ने सत्यनारायण की कथा संस्कृत में पढ़ी थी।

जब बाबा अदृश्य उसके कुछ दिनों बाद ये बीमार पड़ गये। बीमारी असहय हो गई। इनने बाबा से प्रार्थना की। बाबा सपने में आकर कहने लगे-‘‘मैं तुम्हारे पास चौबीस घन्टे रहता हूँ चिन्ता क्यों करता है। आजकल मैं नर्मदा के किनारे हूँ।’’ मैंने पूछा-‘‘नर्मदा के किनारे कहाँ?’ वे बोले-‘‘ मैं यह नहीं बतला सकता। क्यों कि लोग मेरे पास आकर मुझे परेशान करते हैं।’’

बालमुकुन्द काका ने ही बतलाया था कि एकबार बाबा ने राजपुर गाँव में पैसों की कोई व्यवस्था न होते हुये भी भागवत कथा शुरू करा दी। लेकिन बाद में इतनी व्यवस्था होगई कि रास्ते बन्द कर दिये गये कि किसी को भी भोजन किये बिना वहाँ से जाने नहीं दिया जाता। इन्होंने भी वहाँ रहकर पूरी कथा सुनी थी। जब जब काका बाबा के सानिध्य में सुनी भागवत कथा की चर्चा करते तो भाव विभोर होजाया करते थे।

जब जब मैं अने गाँव सालवई के मध्य में स्थित शंकर जी के मन्दिर के पास से गुजरता हूँ ,मुझे याद हो आती है बाबा ने इस मन्दिर में प्रण प्रतिष्ठा स्वयम् की है। यह बात याद आते ही मैं बाबा की जानकारी लेने अपने गाँव के सेठ श्यामलाल गुप्ताजी से मिला। मेरा प्रश्न सुनते ही वे कहने लगे कि मेरी पहली मुलाकात बाबा से 1965 ई0 में हुई थी। एक बार तो बाबा ने मेरे में दो डन्डे जड़ दिये और कहा‘चल यहाँ से चला जा। इस घटना से तो बाबा में मेरी आस्थायें कई गुना बढ़ गइैं। मैं था कि बाबा के पास निरन्तर जाता रहा। मैंने बाबा को बाजार से कभी कोई चीज खरीदते नहीं देखा। उनके भक्त उन्हें दक्षिणा देजाते तो बाबा उन्हें लोगों को बाँट दिया करते थे। बाबा ने ही सालवई ग्राम में शिवलिंग की प्राणप्रतिष्ठा कराई थी।

एकबार की घटना है, बाबा तहसील में रामचन्द्र वर्मा की टाइप की दुकान पर बैठे थे। मेरे मन में उन्हें भोजन पर बुलाने की इच्छा हुई। मेरे वहाँ पहुँचते ही बाबा बोले-‘‘तू मुझे भोजन के लिये बुलाने आया है। अच्छा चल।... और मेरे घर आकर प्रेम से भेाजन किया।

मैंने सन्1970ई0 में बस क्र्य की थी। उस बस को मैं तीन धाम की यात्रा पर ले गया था। जब हम जगन्नाथ पुरी के दर्शन करके साक्षी गोपाल के मन्दिर पहुँचे तो लुहारी गाँव के ठाकुरों के साथ बाबा मिल गये। वे बोले हमने बाबा का रेल्वे टिकिट बनवा लिया था। बाबा ने उसे हमसे लेकर उसे लेटर बाक्स में डाल दिया।

श्यामलाल गुप्ताजी जब वहाँ से चलने लगे तो इन्होंने बाबा से पूछा-‘‘चलो,महाराज।’’ वे बोले-‘‘चलें।’’

इन्होंने बाबा से बाबा से यह प्रार्थना भी की-‘‘बाबा,ऐसा न हो कि आप कहीं इधर-उधर चले जायें और हम आपको तलाशते फिरें। वे साथ चल दिये । रामेश्वर धाम पहुँचने को थे कि बस रोड़ से नीचे उतर गई। काफी प्रयत्न करने पर भी उसे रोड़ पर नहीं ला सके। काफी समय निकल गया। यात्रियों ने बाबा से प्रार्थना की तो वे बोले-‘‘शाम छह बजे निकल जायेगी। सभी समय की प्रतीक्षा करने लगे। ठीक साढ़े पाँच बजे बिजली विभाग का एक ट्रक वहाँ से गुजरा। इन्होंने उससे प्रार्थना की तो उसने बस को सड़क पर खीचकर ला दी। यात्रियों ने समय देखा। उस समय ठीक छह बजे थे। यह देख सभी बाबा के सामने नतमस्तक होगये।

बाबा इस नगर की तहसील और थाने में अधिक बैठे रहते थे। थाने की बात याद आते ही याद हो आती है इस घटना की- एक दिन की बात है किसी ने डबरा थाने में किसी ने फोन किया, सन्यास आश्रम के पास एक पागल लोगों को लाठी से मार रहा है। उस समय उस थाने में वासुदेव शर्मा टी0आई0थे। उन्होंने हीरासिंह दीवानजी को उसे पकड़ने भेज दिया। जब ये वहाँ पहुँूचे ,सन्यास आश्रम के पास होटल के सामने लोगों की भीड़ लगी थी। भीड़ के बीच में लाठी लिये बाबा थे। दीवान जी बड़ी देर तक उन्हें देखते रहे। ये समझ गये बाबा क्रोध में हैं। लोगों ने इनसे उनके पास जाने की मना की। हीरासिंह दीवानजी साहस करके उनके पास पहुँच गये। इन्हें जाने कैसा लगा कि जाकर उनके चरणों में गिर पड़े। बाबा ने इनका हाथ पकड़कर उठाया और बोले-‘‘रघुनाथ उठो।’’ ये खड़े हो गये और बोले-‘‘ बाबा आपको थाने चलना है। बाबा बोले-‘‘ ये लाठी ले और चल।’’ बाबा आगे-आगे और हीरासिंह दीवानजी बालक की तरह उनके पीछे-पीछे चलने लगे। लख्मीचंद हलवाई की दुकान पर पहुँचकर बाबा ने इन्हें इमरती दी और बोले-‘‘ये अन्टादार जलेबी हैं खाले।’’ दीवानजी को इमरती खाना पड़ी। उसके बाद वे थाने पहुँच गये। हीरासिंह इतनी देर में बाबा को पूरी तरह जान गये। थाने पहुँचकर उन्होंने बाबा सम्मान पूर्वक कुर्सी पर बैठाया। यह देखकर उनके सभी साथी इनके मुँह की ओर देखने लगे। दीवान हीरासिंह बोले-‘‘ये आदमी के रूप में परमात्मा हैं।’’ यह सुनकर तो सभी ने उन्हें प्रणाम किया। थोड़ी देर बैठने के बाद बाबा बोले-‘‘चलो रघुनाथ घर चलो।’’ बाबा पहलीबार इनके घर पहुँूचे और इनकी पत्नी से कहा-‘‘अम्मा खीर बना।’’

बाबा हीरासिंह दीवानजी के यहाँ ठहरे थे। बाबा की पत्नी पार्वतीवाई कुछ औरतों के साथ इनके घर पधारीं। साथ आईं औरतों ने बाबा के चरण छू लिये तो ये कुछ नहीं बोले। किन्तु जैसे ही पार्वतीवाई पैर छूने को झुकीं तो बाबा उन्हें लाठी से मारने को तैयार हो गये। हीरासिंह ने बाबा की लाठी पकड़ली और बोले-‘‘ आप मेरे सामने मेरी माँ को नहीं मार सकते।’’ यह सुनकर बाबा ने लाठी छोड़ दी। वाई महाराज पार्वतीवाई ने उनके पैर छू लिये। 10-15 मिनिट बैठने के बाद बाबा बोले-‘‘ अच्छा तुम जाओ।’’यह कहकर बाबा ने सभी को वहाँ से भगा दिया।

एक दिन हीरासिंह दीवानजी ने बाबा को स्नान कराने की दृष्टि से उनके कपड़े उतारे तो बाबा बोले-‘‘ये क्या करता है ठन्ड लग जायेगी।’’ ये बोले-‘‘ आपको कुछ नहीं होगा।’’ दीवानजी ने इन्हें खूब मलमलकर नहलाया। कपड़े बदले। जब बाबा स्नान के कार्य से निवृत होगये तो बोले-‘‘रघुनाथ तू तो रोज स्नान करता है न।’’ ये बोले -‘‘हूँ...।’’ उस दिन के बाद हीरासिंह दीवानजी के सोचने में आता है कि बाबा ये रोज स्नान वाली कितनी बड़ी बात कह गये हैं।

पं0प्रहलाद शर्मा बाबा के काका के लड़के हैं। इनका कहना है कि बाबा को बचपन से ही संग्रह का शौक नहीं था। वे अपने विवाह में अचकन पहने महादेव जी जैसे लग रहे थे। उनका वह मनमोहक रूप मैं कभी नहीं भूल पाया।

बाबा के भक्त किस्सू भगत ने बतलाया डवरा के पूर्व विधायक गोपीराम कुकरेजा पर भी बाबा ने कृपा की थी। यह सुनकर मैं कुकरेजा जी के पास जा पहुँचा। वे बोले-मैंने बाबा के सामने मन ही मन में संकल्प लिया था कि यदि महात्माजी मेरे पर कृपा करते हैं तो मैं अपना पूरा जीवन मानवता की सेवा में लगा दूंगा। जब में विधायक बन गया तो मुझे लगा- यह तो संकल्प पूरा करने के लिये बाबा का आर्शीवाद मिला है। विधायक गोपीराम कुकरेजा कुछ क्षण रुककर पुनः बोले-‘‘दूसरी घटना यह याद आती है कि पूरनसिंह यादव सिकरोदा वाले मेरे पास परार्मा के लिये आये। उनके लड़के पर हत्या के मामले धारा302 का प्रकरण न्यायालय में चल रहा था। जिसमें उन्हें झूठा फसाया गया था। मैंने उन्हें किस्सू भगत के साथ बाबा के पास बिलौआ गाँव भेज दिया। उन्होंने अपना निवेदन बाबा से किया। बाबा ने औगढ़ भाषा में उत्तर दिया। बात समझ में न आरही थी। बात किस्सू भगत ने समझ ली। बोले-‘‘ इसे सजा तेा होगी लेकिन हाईकोर्ट से बरी हो जायेंगे। कुछ समय बाद यही परिणाम देखने को मिला। ऐसी बातों से बाबा पर मेरा विश्वास द्रण है।

मेंने सबसे पहली वार बाबा के दर्शन प्रभूदयाल तिवारी भेंसा वाले के यहाँ हुये थे। बाबा के अदृश्य होने के बाद इनकी आर्थिक स्थिति बिगड़ गई थी। उनका वह मकान बिक गया था। मैं उनके गुप्तापुरा के नये मकान पर जा पहुँचा। तिवारी जी को मेरे लेखन का उदेश्य किसी से ज्ञात हो गया होगा। वे मेरी प्रतिक्षा पहले से ही कर रहे थे। मुझे देखते ही वे अपनी कुर्सी पर बैठते हुये बोले-‘‘मैं बाबा को उस समय से जानता हूँ। जब बाबा लुहारी ग्राम में पूरनदास बैरागी के यहाँ रह रहे थे।वे उनके घर का सारा काम काज करते थे। नहा-धोकर मन्दिर की पूजा करना और रोटी बनाकर बैरागी जी को खिलाना।

उन्हीं दिनों उस ग्राम में भागवत कथा का आयोजन हुँआ। मैं भी कथा सुनने गया था। वहीं बाबा से मेरी पहली मुलाकात हुई। यह सन् 1954-55 की बात है, उन दिनों बाबा एक झोला लिये रहते थे। लंगोट लगाये रहते। थैला में शालिग्राम की मूर्ति रखते थे। वे पहले किसी से पैर नहीं छुआते थे। यदि किसी ने पैर छू लिये तो वे उसके उल्टे पैर छू लेते थे।

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