अवधूत गौरी शंकर बाबा के किस्से - 5 ramgopal bhavuk द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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अवधूत गौरी शंकर बाबा के किस्से - 5

अवधूत गौरी शंकर बाबा के किस्से 5

रामगोपाल भावुक

सम्पर्क- कमलेश्वर कोलोनी (डबरा) भवभूतिनगर

जि0 ग्वालियर ;म0 प्र0 475110

मो0 9425715707, , 8770554097

ई. मेल. tiwariramgopal5@gmail.com

मैंने ‘‘संत गौरीशंकर चरित माल‘‘में बाबाका जन्म परिचय अति संक्षेप में निम्न शब्दों में दिया है-

पावन डबरा क्षेत्र भू धन्य बिलौआ ग्राम ।

पग पग परम पवित्र रज डगडग तीरथ धाम ।।

शुभदिन शुभऋतु शुभ अयन अतिशुभ बहीसमीर ।

उन्नीस सौ चौबास सन बाबा धरौ शरीर ।।

जगन्नाथ के पुत्र प्रिय मौजी राम सुपौत्र ।

गौरी शंकर नाम शुभ विप्र तिवारी गोत्र ।।

दुबईबारी मातु की पुतरी आँखिन बीच ।

पारवती के प्राणप्रिय प्रेम सलिल शुचि सींच ।।

प्राथमिक शिक्षा गृह ग्राम में हुई । दस वर्ष की आयु में संस्कृत के अध्यन के लिये मथुरा गये। धार्मिक नगरी मथुरा धर्मशास्त्र की शिक्षा के लिये प्राचीनकालसे ही अग्रणी रही है।

पढी संस्कृत मधुपुरी गुने ग्रंथ गुन ग्राम ।

भ्रमत जगत खोजत फिरें जग आये केहि काम ।।

वपिस आने पर विवाह हुआ । जीवन निर्वाह के लिये कृशि कार्य में लग गये। कुछ समय बाद ग्वालियर जाकर फौज में भरती हो गये तथा कश्मीर सीमापर देश हित में गोली से घायल होकर पूना में चिकित्सा करबाई। बाद में ग्वालियर राज्य की पुलिस में भरती होकर दीवान के पद पर कार्यरत हो गये। करैरा और नरबर थानों में आपकी पदस्थी रही। वहीं से आपको विरक्ति हुई और साधु परम्परामें प्रविष्ट हो गये।

प्रभु प्राप्ति का लक्ष्यः

शास्त्रों में मानव जीवन का परम लक्ष्य प्रभु प्राप्ति ही कहा गया है। इसके लिये जो तीन साधन बताये गये हैं वे हैं कर्म,ज्ञान एवं उपासना अथवा भक्ति । बाबा के जीवन में ये तीन ही साधन पूर्णतः परिलक्षित होते दिखाई देते हैं । प्रथम वाल्य अवस्था में विद्यार्जन तथा युवा अवस्थामें कृषिकार्य एवं शासकीय सेवा द्वितीय अवस्था में गृहत्याग कर साधु के रूप में ज्ञानार्जन तृतीय अवस्थामें अपने आपको सम्पूर्ण रूप से भगवान को समर्पित कर भक्ति की चरम अवस्था,जिसे तुरीय अवस्था भी कह सकते हैं, में भगवद्भजन एवं प्राप्त सिद्धियों के द्वारा मानव मात्र की कल्याण साधना । इस दृष्टि से देखा जाय तो बाबा का जीवन अद्वितीय सिद्ध होता हैं।

प्रारम्भिक अवस्थामें शिक्षा पा्रप्त करने में एक ओर जहाँ स्वयं का प्रयास आवश्यक है वहीं सामाजिक परिस्थितियों का योगदान भी अति महत्वपूर्ण होता है। शिक्षा केवल किताबी ज्ञान का नाम नहीं हैं,इसमें वह सब भी आता है जिसमें आत्मिक तथा शारीरिक विकास भी सम्मिलित है। जिस प्रकार एक पौधे को फूलने फलने के लिये मूल आवश्यकताओं, खाद-पानी की पूर्तिा होना चाहिये, मानव जीवन के लिये उसका परिवेश महत्वपूर्ण है । बाबा ने न केवल पुस्तकीय ज्ञान प्रप्त किया अपितु शरीरिक,मानसिक तथा आध्यात्मिक तत्वों को भी अपने आप में समाहित किया । मैं यहाँ यह कहना चाहूँगा कि बाबा को व्यायाम तथा पहलवानी का भी शौक था और उन्होंने कसरत के द्वारा अपने शरीर केा सुदृढ बनाया था। आखिर स्वस्थ तन में ही तो स्वस्थ मन का वास होगा ।

कहा गया है कि होनहार विरवान के होत चीकने पात। बाबा को मथुरा जैसी भारतकी पवित्र नगरी,जो न केवल एक तीर्थ है अपितु धार्मिक सप्तपुरियों में अग्रगण्य है-

अयोध्या मथुरा माया काशी कॉचीह्यवन्तिका ।

पुरी द्वारावती चैव सप्तैते मोक्षदायिकाः ।।

अर्थात् अयोध्या,मथुरा,हरिद्वार,काशी,कान्ची,उज्जैन,जगन्नाथपुरी तथा द्वारका, ये सात पुरियाँ मोक्ष देनेबाली हैं। मथुरा की प्रशंसामें कहा गया हैः

अहो मधुपुरी धन्या यत्रा सन्निहिते हरिः ।

सर्वेशां चत्र पापानां प्रवेशोऽपि न विद्यते।।

अर्थात् मथुरा नगरी तो धन्य है जहाँ भागवान स्वयं प्रगट हैं, जहाँ पाप का प्रवेश तो हो ही नहीं सकता ।

बाबा जिस प्रकारकी शिक्षा प्राप्त करनेके लिये मथुरा भेजे गये थे उसका उद्देश्य केवल उन्हें संस्कृत का विद्वान बना करके पुरोहिताई के कार्य में संलग्न करने का ही था, पण्डिताई तो परिवार में पहिले से होती ही थी। पर बाबा क्या इस काम के लिये ही बने थे? क्या उनका उद्देश्य लौकिक शिक्षा हो सकता था? मोक्ष की नगरी से तो उन्हें उस शिक्षाकी अपेक्षा थी जो उन्हें जीवन-मरण के चक्र्र से मुक्ति देनेबाली हों।

बाबा के मथुरा जाने के पहिले से बाबा के एक बडे भाई भी मथुरा में शिक्षा प्राप्त कररहे थे । उन्हीं के आश्रय में बाबा को वहाँ पढने के लिये भेजा गया था किन्तु,बाबा का मन तो इस पढाई में लगता नहीं था । मन विचलित होता तो यहाँ-वहाँ साधु-संतों की संगति करने के लिये निकल जाते-

कविरा संगति साधु की साहब आवें याद ।

लेखे में सोई घडी बाकी सब बरबाद ।।

उनकी जिज्ञासा तो उस सत्य के खोज की थी जो इस सपूर्ण चराचर जगत का आधार है, संचालक है-

सत्येन धार्यते पृथ्वी सत्येन तपते रविः।

सत्येनवातिवायुश्च सर्वं सत्यं प्रतिश्ठतिः।।

दोहाः सत्यहि ते रवि तपत है सत्यहि पर भुवि भार ।

बहे पवनहू सत्यते सत्यहि सब आधार ।।

सत्य की खोज ही तो ईश्वर की खोज है।

उनकी खोज तो वह विद्या थी जो परलोकमें साथ देनेबाली हो अतः उनके इस व्यौहार की शिकायत की गई और परिणाम स्वरूप उन्हैं वापिस गाँव बुला लिया गया। गाँव में आकर वे कृषिकार्य में संलग्न होगये।

अतः हम कह सकते हैं कि बाबा के मन में प्रभु प्राप्ति की ललक वाल्यकाल से ही उत्पन्न हो गई थी जो संस्कारों के प्रवल होते ही यथा समय पुश्पित तथा पल्लवित हो गई जिसने न केवल उन्हें अपितु अनेकों की नैया मझधार से पार लगादी।

बाबा कृषिकार्य में संलग्न रहे हों अथवा सेना में सेवा कररहे हों,अपने कर्तव्य के प्रति सदैव सजग रहे तथा दृढतापूर्वक उसको निवाहते रहे। अपने कर्तव्य को सत्यनिष्ठा पूर्वक करनाभी प्रभु प्राप्तिका एक श्रेष्ठ साधन कहा गया है। श्रीमद्भगव्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने स्प ष्ठ कहा है -

स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः ।

स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथाविन्दति चच्छृणु ।।

अर्थात् अपने स्वाभाविक कर्म में तत्परतासे लगा हुआ मनुष्य जिस प्रकार भगवद्प्राप्ति रूप परम सिद्धि को प्राप्त होता है उस विधि को तू सुन-

यथा प्रवृति भूतानां येन सर्वमिदं ततम् ।

स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः।।

अर्थात् जिस परमेश्वर से सब प्राणियों की उत्पति हुई है और जिससे यह जगत व्याप्त है,उस परमेश्वरकी अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा पूजा करके मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त होजाता है।

गृहत्यागः

कवीरदासजी ने कहा है-

दोहाः कामी क्रोधी लालची इनसे भक्ति न होय ।

भक्ति करे कोइ सूरमा जाति वरन सब खोय।।

द्वितीय अवस्था अथात् गृहस्थ अवस्थामें भी बाबा अपनी नौकरी के साथ साथ धर्म-कर्म में सदा संलग्न रहे। फौज में रहते हुँए उन्होंने कश्मीर में सवामनी हवन करवाया था। नित्य गीतापाठ तथा सूर्य भगवान को जल अर्पण करना आदि धार्मिक कश्त्य तथा अन्य गृहस्थों के धर्म का पालन वे दश्ढता पूर्वक करते थे। किन्तु इस गृहस्थी से पार पाना अति दुश्कर कार्य है। मानस की यह चौपाई मुझे बहुँत सटीक लगती है-

गृह कारज नाना जंजाला । ते अति दुर्गम शैल विशाला ।।

अब इस चौपाई के शब्दों पर ध्यान दीजिये । नाना का अर्थ है बहुँत प्रकार के अथवा हर प्रकारके जैसे अभाव,रोग,शौक जैसी विपरीत परस्थितियाँ आदि । जंजाल का मतलब है ऐसी उलझन जिसका कोई ओर-छोर न मिलता हो। ते यानी वे।अति-अति सर्वत्र वर्ज्यते । दुर्गम- जहाँ पहुँचना अत्यन्त कठिन हो। शैल-बडे बडे पर्वत ‘‘शैल हिमाचल आदिक जेते’’ एवं विशाला- जिनका कोई आदि अंत न दिखाई देता हो। आप देखेंगे कि 16-16-32 मात्राओं की इस चौपाई में संत तुलसीदासजी ने विशेषणों की जो भरमार करदी हे वह अन्यथा नहीं है।

सामान्य संसारी जीव शडविकारों और ग्रहस्थी के मोह से ग्रस्त हैं वे भला भगवान को कैसे पा सकते हैं ।

काम क्रोध मद लोभ रत गृहासक्त दुःख रूप ।

ते किम पावहिं रघुपतिहिं मूढ. परे तम कूप ।। मानस।।

गृहस्थीसे छॅटना आसान नहीं है। यह तो ईश्वरीय कृपा पर ही निर्भर करता है कि व्यक्ति की भूमिका आगे जाकर क्या होनेबाली है । बाबाके साथ भी कुछ ऐसा ही घटित हुँआ । एकबार बाबा भगवान के ध्यान में अथवा सत्संग में इतने डूब गये कि उन्हें नौकरी का भी ध्यान नहीं रहा । जब चेत हुआ तो भागे- भागे थाने पहुँचे। वहाँ जाकर पता लगा कि इस बीच किसी उच्चअधिकारी का निरीक्षण हुँआ जिसे इन्होंने स्वयं ही करबाया । अफसर ने इनकी रिपोर्ट भी बहुत अच्छी लिखी। हाजिरी रजिस्टर पर इनके हस्थाक्षर भी मौजूद थे। समझते देर नहीं लगी कि भगवान स्वयं इनके रूपमें आकर इनकी ड्यूटी कर गये हैं। ‘‘संत गौरी शंकर चरित माल’’ में मैंने इसे निम्न पंक्तियों में व्यक्त किया है-

साधुन की सेवा करें जे गृहस्थ के धर्म ।

पालें सो सब जतन से निज पत्नी सहधर्म ।।

हुँआ अचानक ऐक दिन अफसर का अभियान ।

ये डूबे सत्संग में भयो न सो कछु भान ।।

ये तो विरमे राम में करी नौकरी राम ।

जब जाना पल में तजी कर आखिरी सलाम ।।

छोड़ा निज घरबार अरु बाँटा सब धन धाम ।

क्री मधुकरी मास शट फिरत ग्राम प्रति ग्राम ।।

यहाँ मैं कहना चाहूँगा कि मधुकरी भिक्षा मांगना नहीं है। किसी ने बिना मांगे यदि कुछ देदिया तो ले लिया मांगा नहीं जाता ।

सबहि कहावत राम के सबहिं राम की आस ।

राम कहहिं जेहिं आपने तेहिं भज तुलसीदास ।।

‘‘शिलारत्नम् महाकाव्य’’ में, जो पटियाबाले बाबा रतनदास जी महाराज (करेहधाम-मुरैना) के जीवनपर आधारित है और जिसे पारसेन निवासी आचार्य श्री राम स्वरूपजी ने रचा है तथा अभी हाल ही में अखिल भारतीय कालीदास समारोह में सम्मानित किया गया है,ने जो इस सम्वन्ध में लिखा है वह यहाँ पूर्णतः समीचीन है-

हित्वानिवासं यदि न प्रयाति पादेशु मृत्युरवितुं मुरारे ।

तस्येक रक्षा भवितेह भूमो चथा द्रुमं त्यक्तवतः खगस्य ।।

।।सर्ग3श्लोक 30।।

अर्थात् यदि मनुष्य अपने घरको छोड कर रक्षा के लिये भगवान शरण में जाताहै तोही इस प्रथ्वी उसकी पर रक्षा हो सकेगी।उसी प्रकार जिस प्रकार वश्क्षसे भागा हुँआ पक्षी बहेलिये के जाल से बच जाता है।

नमित्रं नवन्धुर्मिलति न च मार्गै परिचितः ।

यदैवाकाकी सन् ब्रजति जनहीनेा यमपुरम्।।

न भोक्ते पाथेयं भवति यदि कश्टं बहुँविधि।

तथापश्चातापो दहति पार्थ जीवानलवत् ।। वहीश्लोक311।

अर्थात् जब जीव यहाँ से अकेला यमपुर को जाता है तब मार्ग में न मित्र मिलते हें न बन्धु। और कोई परिचित भी नहीं मिलता। यदि भगवान का भजनरूपी पाथेय,मार्ग व्यय, मूलरूपके साथ में नहीं होता तो यमपुर के मार्ग में अनेक प्रकारके संकट आते हैं तब राह में पश्चाताप जीवों कोअग्नि के समान कश्ट देता है।

अतो गमश्यामि विहाय गेहं हरिं भजसयामि वनं प्रविश्य ।

न कामियस्ये निज देह सौख्यं त्यक्षामि सर्वान हरिमाप्तकामः ।। ।।वही श्लोक 32।।

अत,इस संसारी घर को त्याग कर वन में जाकर भगवान का भजन करूंगा । मैं अपने देह के सुख को नहीं चाहूँगा और भगवान केा प्राप्त करने हेतु सब कुछ त्याग दूंगा ।

घर छोड कर जाने के बाद बाबा यहांू वहाँं घूमते रहे। बाद मे बद्रीनाथ में पहुँच कर साधु हेागये । यहाँ यह स्पष्ट नहीं हो पाता कि बाबा ने किस गुरू से किस प्रकार की दीक्षा प्राप्त की थी । वैश्णव साधुओं को जो पांच प्रतीक चिन्ह दिये जाते हैं वह हैं मन्त्र,कण्ठी,तिलक,लंगोटी तथा नाम।

जहाँ तक मन्त्र का प्रश्न है बाबाको किसी मन्त्र विशेश का जप करते नहीं देखा या सुना गया । बाबा नैश्टिक ब्राह्मण कुल में जन्मे थे तो यह तो निश्चित ही है कि उनका यज्ञोपवीत संस्कार हुँआ होगा। इस समय गायत्री मन्त्र की दीक्षा दिये जाने का प्रचलन है। बाबा सूर्य भगवान को अर्घ देते थे। अतः गायत्री मन्त्र को वल मिलता है।बाबा को मन्त्रों का पूर्ण ज्ञान था।उन्होंने अपने बडे भाई श्रीयुत श्रीलाल जी को,जब उनके पैर में फ्र्र्र्रेक्चर होगया था तो,पौराणिक महामृत्युन्जय मन्त्र जपने के लिये कहाथा जो इस प्रकार है-मृत्युन्जयाय रुद्राय नीलकण्ठाय सम्भवः।

अमृतेशाय सर्वाय महादेवाय ते नमः ।।

बाबाने मथुरा में संस्कृत का अध्यन तो विधिवत् किया ही था इसलिये वे किसी भी शास्त्रोक्त मन्त्र को बिना किसी कठिनाई के जप सकते थै। शेश अन्य चार चिन्हों जैसे तिलक आदि का भी नियम पूर्वक पालन करते उन्हें कभी नहीं देखा गया था। गीता के पूरे सात सौ श्लोकों का पाठ और वह भी खडे-खडे करना एक कठिन काम है। इसमें कमसे कम डेढ-दो घण्टे तो लग ही जाते होंगे।बाबा मथुरा में रहे थे इससे उनके मन में कृष्ण भक्ति का उदय हुआ हो यह भी केवल अनुमान का ही विषय है। मन्त्र तथा नाम का जप जब तक सही उच्चारण के साथ न किया जाय तब तक उनका सिद्ध होना कठिन है।

बाबा हाथ में माला लेकर कभी जप नहीं करते थे।सम्भवतः कवीर की तरह उनका भी यह विश्वास रहा होगा-

दोहाः माता फेरत जुग गया मिटा पन मन काफेर ।

कर का मन का डार दे मन का मनका फेर ।।

मन्त्र मूर्तियां और सभी प्रतीक चिन्ह साकार उपासना के द्योतक हैं। जब बच्चे पढ़ना सीखते हैं तो उन्हें ‘अ‘ से ‘अनार‘ याद कराया जाता है किन्तु कालान्तर से अ केवल अ ही रह जाता है और अनार कहीं पीछे छूट जाता है। उसी प्रकार जो निराकार पारब्रह्म परमेश्वर के उपासक हैं उनके लिये किसी प्रतीक चिन्ह की आवश्यकता नहीं रह जाती । वे तो उस परमसत्ता से सीधे ही ऐसे जुड जाते हैं कि वे ‘ऐकोऽहं द्वितीयोनास्ति’ की स्थिति को प्राप्त कर लेते हैं । ऐसे साधक तो ब्रह्म का ही रूप हो जाते हैं ।

भगवान की भक्ति में भाव ही प्रधान है-

का भाषा का संस्कृत प्रेम चाहिये साँच ।

कमु जु आवे कामरी का लै करिय कीमाँ च ।।

मेरे विचार से इन सब नियम कायदों को बाबा के साथ लागू नहीं करना चाहिये ओर न वे हो ही सकते हैं क्योंकि बाबा तो जन्मसिद्ध सन्त थे । देखिये पलटू साहब क्या फरमाते हैं-

आगम कहत न सन्त भडेरिया कहत हैं ।

सन्त न औशधि देंय वैद यह करत हैं ।

झार फूक ताबीज ओझा के काम हैं ।

अरे हाँ रे पलटू ,

सन्त रहित परपंच, राम का नाम है ।।

और देखिये-

ज्ञानी चतुरा बहु मिले पण्डित मिले अनेक ।

राम रता इन्द्रिय जिता कोटिन में कोउ एक।।

ज्ञानी की पहिचान तो कुछ और ही है। रमण गीता में गणपतिमुनि द्वारा महऋषि रमण से प्रश्न किया गया कि-

ज्ञानिनं केन लिंगेन ज्ञातुशक्ष्यान्ति कोविदः।

अर्थात् विद्वान लोग किस चिन्ह से ज्ञानी को पहिचान सकते हैं-

महऋषि रमण का उत्तर था-

सर्वभूत समत्वेन लिंगेन ज्ञान मह्यतेन ।

अर्थात् समंस्त प्राणियों यानी भूत मात्र के प्रति समभाव उत्पन्न हो जावे ऐसे चिन्ह से ज्ञानी पहिचाना जाता है।

महाकवि विहारी की सतसई में एक सोरठा इस प्रकार है-

मैं समझ्यो निरधार,या जग काँचों काँच सौ।

एकै रूप अपार, प्रतिविम्वित लखिये जहाँ।।

संत तो कण कण में उस अनंत परम पिता की छवि देखते हैं।

संत किसी वंधन में बंधे हुए नहीं होते।जो स्वयं वंधन में बंधा होगा वह भला दूसरे को कैसे मुक्त कर सकता है।कवीर का भी तो यही कहना है-

बंधे को बंधा मिला छूटे कौन उपाय।

कर सेवा निर्बन्ध की पल में लेय छुडाय।।